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भावी दामाद उसे निराश न करेगा। "बड़ी रानीजी, बड़े राजकुमार का मन खरा सोना है। इसलिए उन्होंने इतनी प्रशंसा की है। वास्तव में हमारी बच्चियों की जानकारी बहुत कम है । कल्याण के राजभवन में जो नृत्य-गान होता है उसके आगे इनकी बिसात ही क्या है ? फिर भी आप चाहें तो कल ही उसकी व्यवस्था करूंगी।"
"कल ही हो, ऐसी कोई जल्दी नहीं। सबकी सहूलियत देखकर किसी दिन स्यामाशा कीजिएगा।"
युक्रानी एचलदेवी ने कहा, "प्रभुजी बड़ी रानीजी से मिलने आये होंगे?"
"हाँ, आये थे। इसके लिए मैं युवरानीजी को कृतज्ञ हूँ। आगामी बृहस्पति तक कल्याण से कोई खबर न मिली तो युवराज यहाँ से दूत भेजने का विचार कर रहे हैं।"
"हाँ, प्रभु ने मुझसे भी यही कहा था। जितनी जल्दी हो सके। उतनी जल्दी बड़ी रानीजी सन्निधान से मिलें, यही उनकी इच्छा है। उनके भी दिन युग-जैसे बीत रहे हैं। बड़ी रानीजी के ही लिए प्रभु इतने दिन ठहरे हैं। नहीं तो अपनी मानसिक शान्ति के लिए अब तक सोसेऊरु चले गये होते।" युवरानी ने कहा।
"तो मेरे कारण...?"
"ऐसा नहीं। यह कर्तव्य है। धरोहर की जिम्मेदारी है। सबसे प्रथम कार्य यही है।" तभी अन्दर आकर गालब्बे ने बताया, "मुझको बाहर खड़ी देखकर आप अन्दर होंगी यह समझकर राजकुमार अन्दर आने के लिए आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़े हैं।"
"आने के लिए कहीं।" चन्दलदेवी ने तुरन्त आज्ञा दी।
बिट्टिदेव शान्तला के साथ अन्दर आये तो युवरानी एचलदेवी ने पूछा, "पढ़ाई समाप्त हुई?"
"समाप्त हुई मौं, गुरुजी मिलना चाहते हैं।" बिट्टिदेव ने कहा। "किससे, मुझसे?" "हाँ, कब सहूलियत रहेगी?"
"बड़ी रानीजी भी उनसे मिलना चाहती थीं। उन्हें सुविधा हो तो अभी आ सकते हैं।"
"अच्छा, माँ।" कहकर विष्टिदेव चला गया। चन्दलदेवी ने पूछा, "मैंने कब कहा कि उनसे मिलना है।"
"उनका पढ़ाना सुनने की अभिलाषा व्यक्त की थी न आपने? कोई गलती तो नहीं हुई न?" बड़ी रानीजी कुछ बोलना ही चाहती थीं कि बिट्टिदेव के साथ आये कवि नागचन्द्र ने प्रणाम किया। प्रति नमस्कार करके एचलदेवी ने कहा, "आइए, कविजी, बैठिए। आपने मिलने की इच्छा प्रकट की है?"
"हाँ, परन्तु राजकुमार ने कहा कि बड़ो रानीजी ने मिलने की इच्छा प्रकट की
पट्टयहादेवी शान्तला :: 253