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है।" नागचन्द्र ने कहा।
"आपके पढ़ाते वक्त यदि आपको कोई असुविधा न हो तो वहाँ उपस्थित रहना चाहती हैं बड़ी रानी। अतः आपका अभिमत...."
"पूछने की क्या बात है? अवश्य उपस्थित रहें, यद्यपि मेरा ज्ञान बहुत सीमित
"फिर भी अनुमति लेकर ही आना उचित है।"
"यह अमूल्य वचन है । जन्म-स्थान से बहुत दूर तो आना पड़ा, पर एक बहुत ही उत्तम स्थान पर रहने का सौभाग्य मिला। यहां की यह सुसंस्कृत रीति हम सर्वत्र देखना चाहते हैं। बड़ी रानीजी का इस तरह आना तो सरस्वती का और ज्ञान का सम्मान करना है।"
"अच्छा, अब कहिए, आप मिलना क्यों चाह रहे थे?" एचलदेवी ने पूछा, किन्तु नागचन्द्र ने तुरन्त जवाब नहीं दिया तो वे फिर बोली, "बड़ी रानीजी और हेगड़तो के यहाँ होने से संकोच में न पड़िए, बोलिए।"
"यह ठीक है, फिर एक बार पुनः दर्शन करूँगा, तब अपनी बात कहूँगा।" कहते हुए वे बिट्टिदेव की ओर देखने लगे।
"धयों गुरुजी, क्या चाहिए ?" बिट्टिदेव ने पूछा।
कुछ नहीं कहकर भी कवि नागचन्द्र उठकर चलते-चलते बोले, "मेरे लिए कल कुछ समय दें तो उपकार होगा, अभी मैं चलता हूँ।"
"वैसा ही कीजिए।" एचलदेवी ने कहा।
नागचन्द्र प्रणाम करके चले गये। उनके पीछे बिट्टिदेव फाटक तक गया, शान्तला भी साथ गयी।
बात उन्हें ही शुरू करनी पड़ी, "कल के मेरे व्यवहार से पता नहीं, कौन-कौन बुरा मान गये युवरानीजी! बड़ी रानीजी और हेग्गड़तीजी यहाँ हैं, यह मुझे ज्ञात होता तो मैं कहलाकर ही नहीं भेजता।"
"उन लोगों के सामने संकोच की आवश्यकता नहीं थी। मैंने कहा भी था।"
"उसे मैं समझ चुका था, परन्तु जो बात मैं कहना चाहता था, वह बच्चों के सामने कहने की मेरी इच्छा नहीं थी। और उन लोगों के समक्ष बच्चों को बाहर भेजना उचित मालूम नहीं पड़ा। इसके अलावा कुछ संकोच भी हुआ क्योंकि बड़ी रानीजी और हेग्गडतीजी मेरे लिए नयी परिचित हैं जिससे मैं उनके स्वभाव से अनभिज्ञ हूं।"
"अच्छा, अब बताइए, क्या बात है?" "मैं जो कहाँगा उससे आप, और सन्निधान भी, यह न समझें कि मैं राजकुमारों
2.54 :: पट्टमहादेवी शान्तला