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मल्लि ने निश्चय किया था कि वह अपने पति का मुँह कभी न देखेगी, परन्तु वस्तुस्थिति की जानकारी हो जाने के बाद उसे मानसिक शान्ति मिली। फिर भी उसने उसे झिड़क ही दिया, "अकेली साधारण स्त्री, फिर भी मैंने बदमाशों को डराकर भगा दिया और तुम अक्लमन्द पुरुष होकर उसके जाल में फंस गये। कैसी अचरज की बात है। उसी दिन मैंने कहा था कि उसकी नजर बुरी है। मेरे ही ऊपर तुमने गुस्सा किया। कहा, तुम उसकी आँख देखने क्यों गयीं। उसी दिन अगर मेरा कहा मान लिया होता तो आज ये दिन नहीं आये होते। हमारे हेगड़ेजी बड़े भलेमानस हैं, उन्होंने सबका पता लगाया, इससे मेरा सिन्दूर बच गया। हम रोज सुबह से शाम तक मेहनत कर साग-सत्तू खानेवाले ठहरे, एकदम इतना धन कहीं से कोई दे तो समझ जाना चाहिए कि इसमें जरूर कल धोखा है। इसलिए बड़े-बुद्धा कहते हैं कि अम्ल को हमेशा ठिकाने पर रखना चाहिए।" इस प्रकार मल्लि ने अपने दिल का सारा गुबार उतार दिया।
"तुम्हारी कसम, अब आगे जो भी काम करूंगा। तुमसे सलाह-मशविरा करके मालिक से कहकर ही करूँगा। ठीक है न!" और त्यारप्पा मल्लि का कृष्ण और मल्लि त्यारप्पा की रुक्मिणी बनी, बलिपुर के ग्वालों का मुहल्ला उनके लिए वृन्दावन बना। दूसरे दिन सुबह उगते सूर्य का उन्हें दर्शन ही नहीं हुआ। जब बछड़े भूख के मारे अम्बा-अम्बा रॅभाने लगे तब उनकी सुबह हुई।
बूतुग के मन पर उस घटना का बड़ा असर पड़ा। वह बार-बार 'चोर, लफंगा, चाण्डाल' कहकर बड़बड़ाता रहा। वह अपनी करनी पर पछताने लगा। कहता, 'इस बदजात की बात सनकर ईश्वर-समान मालिक के पवित्र नाम और ख्याति पर कालिख लगाने के लिए मैंने अपनी जीभ का उपयोग किया, आग लगे इस जीभ पर।' रातभर बड़बड़ाता ही रहा इसी तरह । मुर्गे की बांग सुनते ही वह हेगड़ेजी के घर के बाहर जा बैठा।
दूसरी बार मुर्गे ने बांग दी, रायण बाहर आया। यूतुग को देखा, तो उसे उसकी स्थिति समझने में देर नहीं लगी। उसने हेगड़ेजी को स्थिति की गम्भीरता से परिचित कराया। उनके आदेश से तुरन्त वैद्यजी को बुलाया गया। उन्होंने सब समझकर कहा, "हेगगड़ेजी, उसकी अन्तरात्मा बहुत छटपटा रही है। वह वास्तव में बालकवत् सहज और अनजान है। उसके साथ विश्वासघात हुआ है। उसके दु:ख का कारण यह है कि उससे बड़ी रानीजी के पवित्र पातिव्रत्य पर और आपके पवित्र शुद्ध चरित्र पर कालिख लगाने का दुष्कर्म हो गया। उससे ऐसा अपराध नहीं हुआ, ऐसी भावना के उत्पन्न हुए बिना वह ठीक न होगा। यह मानसिक आघात है। इससे वह पागल भी हो सकता है।
और अत्यन्त क्रोधाविष्ट भी हो सकता है। उसकी इस मानसिक बीमारी की दवा एक ही है, वह यह कि आप और बड़ी रानीजी उसे धीरज देकर आश्वस्त करें।"
पट्टमहादेखो शा-सला :: 24]