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"आपकी भावना ठीक है। उससे हम निश्चिन्त भी होंगे। परन्तु एक बात में हमें अपनी सलाह बताना आवश्यक है। बड़ी रानीजी के ठहरने की व्यवस्था राजमहल के अन्तःपुर में हुई होती तो उनकी हस्ती-हैसियत की दृष्टि से उचित होता, इसमें गाम्भीर्य भी रहता। मैं जो कह रही हूँ वह इस राजघराने के गौरव की दृष्टि से है। अब भी, चालुक्य चक्रवती के आने तक यह व्यवस्था सुधारी जा सकती है । ऐसा न किया गया तो प्रभु आने पर इस व्यवस्था से मुझ पर आक्षेप करेंगे।" युवरानी एचलदेवी ने कहा। चामव्वा मौन ही रही तो उन्होंने पूछ ही लिया, "क्यों, चामवाजी, मेरी सलाह आपको ठीक नहीं लगी?11
"न, न, ऐसा नहीं, युवरानीजी, दण्डनायक को या मेरे भाई प्रधान गंगराज को यह क्यों नहीं सूझा, यही सोच रही थी।"
"अन्त:पुर के व्यवहार के सम्बन्ध में अन्त:पुरवालों से ही सलाह लेना हमेशा उचित होता है। मेरा यह सुझाव उन्हें दे दीजिए। बाद में जो उचित होगा, वे स्वयं करेंगे 11
"वही करूंगी।" कहकर चामन्चे वहाँ से विदा हो गयी। वह मन में सोचने लगी कि व्यवस्था के बारे में कहकर मैंने गलती की। युवरानी का सुझाव न माना, और युवराज के आने पर कुछ-का-कुछ हो गया तो क्या होगा? इस ऊहापोह के साथ ही उसे कुछ समाधान भी हुआ 1 बड़ी राती अगर अन्तःपुर में रहेंगी भी तो तभी तक जब तक चालुक्य चक्रवर्ती न आ जाएँ, वे ही पहले आ जाएँ यह भी सम्भव है। इसलिए जो व्यवस्था की गयी है उसे भी रहने दें और अन्तःपुर में भी व्यवस्था कर रखें ताकि जैसा मौका हो वैसा ही किया जा सके। साथ ही उसने महावीर स्वामी से प्रार्थना की कि हे स्वामिन् ! ऐसा करो कि पहले चालुक्य चक्रवर्ती ही राजधानी पहुंचे।
हमारी प्रार्थना के अनुसार वांछित कार्य न हो तो हमारा विश्वास डावाँडोल हो जाता है, हम कभी इस बात का विचार ही नहीं करते कि हमारी प्रार्थना उचित है या अनुचित । प्रस्तुत परिस्थिति में चामव्वे की प्रार्थना भगवान ने अनसुनी कर दी थी। पहले दोरसमुद्र पहुँचनेवाले स्वयं युवराज तथा उनके आप्त परिवारी थे। परन्तु उस समय भी चामब्बे यही सोच रही थी कि अपने अस्तित्व एवं प्रतिष्ठा का प्रदर्शन कैसे किया जाए।
राजधानी का महाद्वार भवज-पताकाओं से सजाया गया। विजयी युवराज के स्वागत को प्रधान गंगराज, मरियाने दण्डनायक, चिण्णम दण्डनायक, राजकुमार बल्लाल, राजकुमार बिट्टिदेव आदि के साथ नव-परिचित राजकृपापात्र आस्थानकवि नागचन्द्र भी तैयार खड़े थे जो वास्तव में मरियाने के विशेष स्नेह के कारण दरबार में अवसर पाकर अब राजकुमारों का गुरु भी बन गये थे।
युवराज के परिवार समेत आने की सूचना देने के लिए सेना की छोटी टुकड़ी
पट्टमहादेवी शान्तला :: 245