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"तो फिर किस दृष्टि से देखा?" __ "प्रथम दिन जब मैंने देखा तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मेरी आशा भड़की। मेरे आश्चर्य और आशा का निवारण हो, इस दृष्टि से देखा, सच है।"
"औरतों को देखने पर जैसी आशा-अभिलाषा जगती है उसी आशा की दृष्टि से देखा न?"
"इन्हें इस आशा से नहीं देखा?" "मतलब, दूसरी स्त्रियों को इस आशा से देखा है, है न?" "हो सकता है, देखा हो। मैं भी तो मनुष्य ही हूं।" "तो गालब्वे का कथन..." "यह पहले ही कह चुका हूं, झूठ है।"
"यह विषय रहने दो। इसका निर्णय करने के लिए उस धोबिन चैन्नी को उपस्थित होना चाहिए। अब यह बताओ कि हेगड़ेजी की बहिन को देखने में तुम्हारा क्या मन्तव्य था और उसमें कौन-सी विशिष्टता तुमने देखी? तुम्हें आश्चर्य क्यों हुआ? तुममें जो आशा उत्पन्न हुई उसका स्वरूप क्या है?"
"पहले तो यह लगा कि मैंने उन्हें कभी देखा है। वहीं मेरे आश्चर्य का कारण है। कहाँ, कब देखा, इसकी याद नहीं आयी। उसे जानने की इच्छा नहीं हुई। उस इच्छा को पूर्ण करने की आकांक्षा से मैंने कुछ प्रयत्न किया।"
"वह क्या है, बता सकते हो?"
"कहूँगा, परन्तु कोई विश्वास नहीं करेंगे। इसके लिए एक प्रबल साक्षी की जरूरत थी, मैं उसी की खोज में था।"
"गवाह मिल गया?" "अभी पूर्ण रूप से नहीं।" "अब जो गवाही मिली है उससे क्या जानकारी मिली है?" "ये हेगड़े की बहिन नहीं हैं।" सारी सभा में आश्चर्य और कुछ बातचीत शुरू हो गयी। धर्मदर्शी ने डाँटा तो खामोशी हुई।
बूतुग झटपट उठकर पंचों के मंच के पास आया। हरिहरनायक ने पूछा, "तुग, ऐसे जल्दी-जल्दी क्यों आये?"
"मालिक, एक बात याद आ गयी। वह कहने को आया हूँ।" "कहो।"
"अभी कुछ दिन पहले मैं यह और कोई तीन-चार लोग मन्दिर के सामने वाले अश्वत्थ वृक्ष के नीचे जगत पर बैठे थे। उस दिन हमारी हेगड़तीजी और ये देवीजी मन्दिर आयीं। तब इस आदमी ने कहा, देखो कैसी है यह बैल की जोड़ी। मैंने कहा,
232 :: पट्टमहादेवी शान्तला