________________
"अपने घर पर देखने के बदले उसे यहीं देख रही हो, उसने भी तो तुमको देख लिया है। अगर वह मान लेगा तो तुम उससे शादी कर लोगी?"
"तब मुझसे कहा गया था कि भारतमी तहुत अच्छा है ! परन्तु अन्न..." दासब्बे ने बात बन्द कर दी।
"तो अब तुम्हारा ख्याल है कि यह आदमी अच्छा नहीं।" "अच्छा होता सो सारा विचार करने का प्रसंग ही क्यों आता?"
"झूठ-मूठ शिकायतें आयी होंगी। वे शिकायतें जबतक सही साबित न होंगी तब तक तो वह निर्दोष है। हम तो ऐसा ही मानते हैं।"
"आग हो तभी न धुआँ निकलता है, मालिक?" "तो तुम्हें मालूम है कि आग है?" "मालिक, सुना तो यही है कि आग है।" "आग तुमने खुद तो नहीं देखी न?" "नहीं, पालिका"
"जिसने कहा वही यहाँ कहे, फिर तुम भी कहो, तो उसका कुछ मूल्य है। परन्तु किसी की कही बात तुम भी कहो तो उससे क्या प्रयोजन होगा इसलिए यह बात छोड़ दो। अब यह बताओ कि तुम बहिन के घर क्यों रहती हो?"
"मेरे माँ-बाप नहीं, इसलिए बहिन के पास आयी।" "तो तुम इस बलिपुर की एक पुरानी निवासी हो, है न?" "हाँ, मालिका" "इस आदमी को आज से पहले भी, अचानक ही सही, कहीं देखा था?" "हाँ, मालिक।" "तो तुम्हें यह मालूम था कि यही तुमको देखने आनेवाला है ?"
"नहीं, मालिक। मुझे इतना ही मालूम था कि मुझे देखने के लिए आनेवाला हीरे-जवाहरात का व्यापारी है। यह नहीं मालूम था कि यही आनेवाला है।"
"तुम तो कहती थीं कि पहले ही देख चुकी हो।"
"देखा जरूर है। तब यह नहीं मालूम था कि यही वह व्यापारी है। इसके अलावा बूतुग के कहने पर ही मुझे पता लगा कि यही मुझे देखने के लिए आनेवाला
"तुमने कहा कि पहले देखा था, कहाँ देखा था? कितनी बार देखा था?'' "एक ही बार। वहीं, गाँव के उत्तर की ओर जो मण्डप है, वहाँ।" "वहाँ तुम क्यों गयी थीं?"
"मैं वहाँ गयी नहीं थी। अपनी बहिन के खेत को जा रही थी उसी रास्ते। मण्डप के पीछे की ओर से। उस मण्डप के अन्दर से एक औरत और मर्द की जोर से हंसने
पट्टमहादेवी शान्तला :: 227