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"ठीक है, अपनी जिम्मेदारी अपने ही ऊपर लेकर मुझे तुमने मानसिक शान्ति दी । अब तुम हो, तुम्हारे भाई हैं।" कहती हुई माचिकब्बे दरवाजा बन्द कर बाहर निकल आयो ।
श्रीदेवी ने आसन बदला। उसने दीवार से सटे आदमकद आईने के सामने खड़ी होकर अपने आपको देखा । दाँत कटकटाये 1 आँखें विस्फारित कीं । माथे पर सिकुड़न लायी। अकड़कर खड़ी हो गयी। हाथ उठाकर मुट्ठी कसकर बाँधे रक्त बीजासुरसंहारिणी शक्तिदेवी का अवतार-सी लगी। उस समय वह आदमी उसके हाथ लगता तो उसे चीर-फाड़कर खत्म ही कर देती।
स्त्री सहज प्रसन्न, सौन्य भाग दिखा सा लोग दुष्टभाव से देखते हैं। भाभी का कहना ठीक था कि ईश्वर ने स्त्री को सुन्दरता न दी होती तो अच्छा होता। मेरे इस सौन्दर्य ने हो तो आज अनेक राज्यों को इस युद्ध में ला खड़ा किया है। मेरे इस सौन्दर्य के कारण अनेक शुद्ध हृदय जन मुझ जैसी हजारों स्त्रियों को अनाथ बना रहे हैं। भ्रातृ-प्रेम के अवतार, सौभाग्य से मिले मेरे भैया पवित्रात्मा हेगड़े के सदाचार पर कालिख लगने का कारण बना है मेरा सौन्दर्य, धिक्कार है इस सौन्दर्य को इसे वैसे ही रहने देना उचित नहीं। क्या करूं, क्या करूँ, इस सौन्दर्य को नष्ट करने के लिए ? समुद्र में उठनेवाली तरंगों के समान उसके मन में भावनाएँ उमड़ रही थीं। उसे इस बात का ज्ञान तक नहीं रहा कि उसी ने स्वयं अपने बाल खोलकर बिखेर दिये थे. जिनके कारण उसकी भीषण मुखमुद्रा और अधिक भोषण हो गयी थी ।
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पाठ की समाप्ति पर शान्तला फूफी के कमरे में आयी थी कि ड्योढ़ी से ही उसे फूफी का वह रूप आईने में दिखा। वह भौचक्की रह गयी। आगे कदम न रख सकी। जानती है कि सारी तकलीफें खुद झेलकर भी उसके माता-पिता प्रसन्न -- न-चित्त रहते हैं और प्रसन्नता से ही पेश आते हैं। और फूफी को भी उसने इस रूप में कभी नहीं देखा। ऐसी हालत में उसकी फूफी के इस भावोद्वेग की वजह ? इसी धुन में वह खड़ी रह गयी । "बहिन, श्रीदेवी, क्या कर रही हो ?" हेग्गड़े मारसिंगय्या ने अन्दर की बारहदरी में प्रवेश किया। पिता की आवाज सुनकर शान्तला ने फिर उस आईने की ओर देखा । फूफी के चेहरे पर भयंकरता के स्थान पर भय छा गया था। वे त्रिखरे बालों को सँवार रही थीं। शान्तला वहाँ से हटी, " अप्पाजी कब आये ?"
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'अभी आया अम्माजी, तुम्हारा पाठ कब समाप्त हुआ ?"
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'अभी थोड़ी देर हुई । "
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'तुम्हारी फूफी क्या कर रही है ?"
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'बाल संवार रही हैं।"
'अच्छा, बाद में मिलेंगे। तुम्हारा नाश्ता हुआ, अम्माजी ?" "हाँ, हाँ, हम तीनों ने मिलकर किया था । "
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पट्टमहादेवी शान्ता [99