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क्यों आया? क्या यह प्रश्न मेरे रूप को देखकर उठा है ?"
"यह नित्य सत्य है कि तुम बहुत सुन्दर हो।" माचिकब्बे ने कहा ।
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" इस रूप पर गर्व करने की जरूरत नहीं। एक जमाने में मैं भी शायद गर्व कर
रही थी, अब नहीं।" श्रीदेवी बोली।
"क्यों ?"
'क्योंकि इस बात की जानकारी हुई कि रूप नहीं, गुण प्रधान है। " "परन्तु रूप को हो देखनेवाली आँख गुण की परवाह नहीं करती है, न?" "दुर्बल मनवाले पुरुष जब तक दुनिया में हैं तब तक आँखें गुण के बदले कुछ और ही खोजती रहेंगी।"
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'रूप होने पर ही न उस पर पुरुष की आँख जाएगी ?"
"ऐसे दुश्चरित्रों के होते हुए भी गुणग्राही पुरुषों की कमी नहीं।"
"मन दुर्बल हो और उसकी इच्छा पूरी न हो तो पुरुष अण्टसण्ट बातों को लेकर अस किस्से गढ़ता है और उन्हें फैलाता फिरता है।"
"तो क्या मेरे विषय में भी ऐसी कहानी फैला रही है, भाषी श्रीदेवी ने तुरन्त
पूछा ।
"नहीं कह नहीं सकती और हाँ कहने में हिचकिचाहट होती है। " "भाभी, ऐसी बातों को लेकर कोई डरता है ? ऐसी बातों से डरने लगे हम तो लोग हमें भूनकर खा जाएँगे। इससे आपको चिन्तित नहीं होना चाहिए। लोग कुछ भी कहें, मैं उससे न डरनेवाली हूँ न झुकनेवाली। यदि आपके मन में कोई सदेह पैदा हो गया हो तो छियाइए नहीं । साफ-साफ कह दीजिए।"
"कैसी बात बोलती हो, श्रीदेवी ? हम तुम्हारे बारे में सन्देह करें, यह सम्भव नहीं । परन्तु तुम्हारे भैया कुछ सुनकर बहुत चिन्तित हैं।"
" तो असली बात मालूम हुई न । उस मनगढन्त बात को खोलने में संकोच क्यों भाभी ?"
"क्योंकि कह नहीं पा रही हूँ, श्रीदेवी । हमारे लोग ऐसे हीन स्तर के होंगे, इसकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकती थी।"
'भाभी, अब एक बात का मुझे स्मरण आ रहा है। आने के एक-दो माह बाद आपके साथ ओंकारेश्वर मन्दिर गयी थी । वहाँ, उस दिन भैया का जन्मदिन था। आप सब लोग अन्दर गर्भगृह के सामने मुखमण्डप में थे। मैं मन्दिर की शिल्पकला, खासकर उस कला का बारीक शिल्प जो प्रस्तरोत्कीर्ण जाल की कारीगरी थी, देखने में मगन हो गयी थी। तब एक पुरुष की बिजली की कड़क सी खाँसने की आवाज सुनाई पड़ी। उस प्रस्तर जाल के बाहर की तरफ हँसने की मुद्रा में मैंने अपनी ही ओर देखता हुआ एक पुरुष देखा । यह कुत्ते की तरह जीभ हिलाता हुआ मुझे इशारे से
पट्टमहादेवी शान्तला : 197
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