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थी। अलबत्ता उसे एक बात खल रही थी, वह यह कि उसने बल्लाल की-सी स्वतन्त्रता और मिलनसारिता प्रदर्शित नहीं की। यह दूसरी बात है कि चामला ने जो मिलनसारिता बिट्टिदेव के प्रति दिखायी थी, उसकी व्याख्या वह अपने ही दृष्टिकोण से कर लेती और उसी से फूलकर कुप्पा हो रही थी।
चामला का मन बिट्टिदेव के प्रति इतना निर्विकार था कि वह उसे विवाह करने तक की दृष्टि से न देखती। वह उसके प्रति आसक्त तो थी और वह भी उससे प्रेम करता था, परन्तु इस विद और वा प्रेस का लक्ष्य क्या है, यह उसकी समझ में नहीं आया था और अब तो बिट्टिदेव चूँकि सैनिक शिक्षण पर विशेष ध्यान दे रहा था अत: चामला को वह समय भी बहुत कम दे पाता था।
बल्लाल भी सैनिक-शिक्षण के लिए जाता, मगर न जाने के आक्षेप से बचनेभर के लिए। इसलिए मारियाने दण्डनायक का वात्सल्य बिट्टि पर और भी अधिक बढ़ने लगा। उसने महाराज और प्रधानजी के सामने बिट्टिदेव के बारे में कहा, "वह तो सिंह का बच्चा है, उसकी धमनियों में परिशुद्ध पोयसलवंशीय रक्त ज्यों-का-त्यों बह रहा है।"जब बल्लाल की बात भी आयी तो कहा, "वह भी तेज-बुद्धिवाला है, परन्तु शारीरिक दृष्टि से जरा कमजोर है। वह भी क्या करे जब कमजोर है ही। युद्ध विद्या के लिए केवल श्रद्धा ही पर्याप्त नहीं, शारीरिक शक्ति भी आवश्यक है।" मरियाने उसे दामाद मान चुका था, इसलिए कुछ विशेष बखान उसके बारे में नहीं किया। और प्रधान ने उनकी बातों को उतना ही महत्त्व दिया जितना वास्तव में दिया जा सकता था।
यह सारा वृत्तान्त चामब्वा ने सुना तो उसने अपने पतिदेव के चातुर्य को सराहा। उसे वास्तव में होनेवाले अपने दामाद की वीरता, लोकप्रियता और बुद्धि-कुशलता आदि बातों से अधिक प्रामुख्य इस बात का रहा कि वह भावी महाराज है। फिर भी वह चाहती थी कि उसका दामाद बलवान् और शक्तिशाली बने। इसलिए पद्मला द्वारा उसे च्यवनप्राश आदि पौष्टिक दवाइयाँ खिलवाती जो सपना देख रही थी कि बल्लाल कुमार के साथ विवाह हो जाए तो आगे के कार्यों को आसानी के साथ लेने की योजना अपने आप पूरी हो जाएगी। इन सब विचारों के कारण बलिपुर की हेग्गड़ती और उसकी बेटो उसके मन से दूर हो गयी थी। युवरानी एचलदेवी यह सबकुछ जानती थी अतः वह हेग्गड़ती और शान्तला की बात स्वयं तो नहीं ही उठाती, रेविमय्या से कहलवाकर उन्होंने बिट्टिदेव को भी होशियार कर दिया था। वह भी उधर की बात नहीं उठाता था। इसलिए चामच्या निश्चिन्त हो गयी थी। इसी वजह से उसका भय और उनके प्रति असूया के भाव लुप्त हो गये थे। अब उसने किसी बात के लिए कोई युक्ति करने की कोशिश भी नहीं की।
पट्टमहादेवी शान्तला :: 187