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निर्णयानुसार विक्रमादित्य कल्याण पहुँच गया।
यहाँ युद्ध चला और एरेयंग प्रभु विजयी हुए। उनकी सेना को धारानगर में अपनी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति भी दी गयी किन्तु एक कड़ी आज्ञा थी कि बच्चों पर किसी तरह का अत्याचार या बलात्कार न हो। परन्तु कहीं से भी रसद और धनसम्पत्ति बटोर लाने की मनाही नहीं थी क्योंकि युद्ध की भरपाई और प्राणों पर खेलनेवाले योद्धाओं को तृप्त करने के लिए यह उनका कर्तव्य-जैसा था। सेना का काम-काज समाप्त होने पर वृद्धाओं स्त्रियों, बच्चों तथा प्रभ्यरिकों को हर भेजकर उस नगरी में अग्निदेव की भूख मिटायी गयी।
परमार राजा, और काश्मीर के राजा हर्ष के सिवाय अन्य सभी प्रमुख शत्रु-योद्धा बन्दी हुए । निर्णय हुआ कि उन्हें कल्याण ले जाकर बड़ी रानीजी के सम्मुख प्रस्तुत किया जाए ताकि वे ही इन्हें जो दण्ड देना चाहे, दें। धारानगर से अपने बन्दियों को लेकर रवाना होने के पहले प्रभु एरेयंग ने राजमहल की स्त्रियों और अन्य स्त्रियों को उनकी इच्छा के अनुसार सुरक्षित स्थान पर भेज देने की व्यवस्था कर दी।
चामव्वा की युक्ति से ही सही, एचलदेवी बेलुगोल गयी थी जहाँ उसने पति की विजय, रानी के गौरव की रक्षा और अपनी सुरक्षा के लिए प्रार्थना की। उस पर बाहुबली स्वामी ने ही अनुग्रह किया होगा ।
युवरानी एचलदेवी की यह भावना दृढ़ हो चली कि कुमार बल्लाल और पद्मला के बढ़ते हुए प्रेम को रोकना उनका अनिष्ट चाहनेवालों के लिए अब सम्भव नहीं। वे इस बात की जब तक परीक्षा लेती रहीं कि पोय्सल राज्य की भावी रानी, वह लड़की कैसी है। पूर्ण रूप से सन्तुष्ट न होने पर भी वह सन्तुष्ट रहने की चेष्टा करती रही। बिट्टि के पास आते-जाते रहने के कारण चामला के बारे में अधिक समझने-जानने के अनेक अवसर प्राप्त होते रहे। बिट्टिदेव भी उसके विद्या के प्रति उत्साह और श्रद्धा के विषय में जब तब चर्चा करता था । एचलदेवी सोचा करती कि पद्मला के बदले चामला ही चामव्वा की पहली बेटी होती तो कितना अच्छा होता। किन्तु अब तो उसे इस स्थिति के साथ, लाचार होकर समझौता करना था।
चामव्वा का सन्तोष दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। पद्मला की बात मानों पक्की हो गयी थी और चामला की बात भी करीब-करीब पक्की थी। वह सोचती कि नामला की बुद्धिमत्ता के कारण बिट्टि की ननु नच नहीं चलेगी। यद्यपि वह यह नहीं जानती थी कि बिट्टि चामला को किस भाव से देखता है। वह तो बस, खुश हो रही
186 :: पट्टमहादेवी शान्तला