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अध्ययन करने का मतलब यह तो नहीं कि इसे सार्वजनिकों के सामने प्रदर्शन करना है। यह भी उसके लिए एक समाधान का विषय था।
इस प्रासंगिक घटना के कारण पाला और बल्लाल कुमार के बीच घनिष्ठता बढ़ी 1 साथ ही चामला और बिट्टिदेव के बीच में स्नेह भी विकसित हुआ। यह चामब्बा के लिए एक सन्तोषजनक बात थी जो मन-ही-मन लड्डू खा रही थी।
परन्तु युवरानी एचलदेवी के मन में कुछ असन्तोष होने लगा। विट्टिदेव को अकेला पाकर उसने कहा, "देखो, दोरसमुद्र में आने के बाद तुमने अपने अभ्यास का समय कम कर दिया है।"
"नहीं तो. माँ।" "मैं देखती हूँ कि किसी-न-किसी बहाने चामना को दूसरी बेटी गेज आ जातो
"बेचारी ! यह मेरा समय बहुत नष्ट नहीं करती।"
"तुम्हें उसके साथ कदम मिलाकर नाचतं और हाथ से मुद्रा दिखाते मैंने स्वयं देखा है। क्या वह तेरी गुरु भी बन गयी?''
"नहीं माँ। जन्त्र मैं हेग्गईजी के साथ थोड़े दिन रहा तब मैंने कुछ भावमुद्राएं आदि सीखी थीं । वही मैंने चामाना की दिखायी क्याकि उसने अपनी नृत्यकला मुझे दिखायी। बह होशियार है, सिखाने पर विषय को तुरन्त ग्रहण कर लेती है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उस गुरु की जानकारी ही अपर्याप्त है। यदि यह लड़की, शान्तला के गुरु के हाथ में होती तो उस वे उस विद्या में पारंगत बना देते।"
"तो तुम ही उसके गरु हो। उसके माँ-बाप से कहकर उसे एक योग्य गुरु के पास शिक्षण के लिए भिजवाने की व्यवस्था भी करोगे न?"
"विद्या सीखने की आकांक्षा जिसमें हो उसके लिए उचित लावस्था न करना सरस्वती के प्रति द्रोह है। गुरुवयं में यही कहा है। इसमें क्या गलती है, माँ?"
"गुरु के कहने में कोई गलती नहीं। मगर तुम्हारी इस अत्यन्त आसक्ति का कारण क्या है ?
___ "वह लड़की निश्छल मन से आती है, जानने की इच्छा से पृछतो है, सीखने मं उसकी निष्ठा है, विषय को शीघ्र ग्रहण करती है। इलिए मेरी भावना है कि वह विद्यावती बन।'
''क्या उसे जन्म देनेवालं माता-पिता यह नहीं जानत?"
''यह मैं कैसे कहूँ, माँ ? जो वस्तु अपनं पास ही, उसके लिए किसी की 'नाही' कहना पोय्सलवंशियों के लिए अनुचित बात है। यहीं यात आप स्वयं कई बार कहता है, पाँ।"
"तो यह उदारता रही. प्रेम का प्रभाव नहीं। है न?''
महादेवो शान्ता :: 117