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"इसे उदारता कहना बेहतर है, प्रेम कहने में कुछ कमी हो सकती है। चामला आपकी कोख से जनमी होती और वह मेरे पास आकर इसी तरह प्रेम से अपनी अभिलापा व्यक्त करती तो भी मैं उसे ऐसे ही प्रेम से समझाता, माँ!"
युवरानी एचलदेवी को इस उत्तर से सन्तोष हुआ। उनके मन का सन्देह पुत्र पर प्रकट न हो इस दृष्टि से बात को आगे बढ़ाती हुई उन्होंने उसकी विधा-शिक्षण के बारे में कई सवाल किये। यह भी पूछा कि दण्डनायकजी जो सैनिक शिक्षा दे रहे थे उसकी प्रगति कैसी है किन्तु इस चर्चा में उन्हें मालूम हुआ कि उनका बड़ा बेटा सैनिकशिक्षण में भी पिछड़ा ही रह गया है। उन्होंने पूछा, "वह ऐसा क्यों हो गया?"
"भैया का शरीर सैनिक-शिक्षण के परिश्रम को सह नहीं सकता, माँ। इससे जो थकावट होती है उससे वह डर जाता है और दूर भागता है । वह दुर्बल है तो क्या करे?"
"परन्तु भविष्य में वही तो पोयसल राज्य का राजा होगा। ऐसे पिता का पुत्र होकर..."
"मैं हूँ न, माँ।" "उससे क्या?"
"भैया को शारीरिक दुर्बलता स्वभाव से ही है। जैसे महाराज के राजधानी में रहने पर भी सव राजकार्य अपनी बुद्धि, शक्ति और बाहुबल से युवराज चला रहे हैं वैसे ही भैया महाराज बनकर आराम से रहेंगे और मैं उसका दायाँ हाथ बनकर उसके सारे कार्य का निर्वहण करता रांगा।"
"दुर्बल राजा के कान भरनेवाले स्वार्थी अनेक रहते हैं, बेटा।"
"मेरे सहोदर भाई, मेरी परवाह किये बिना या मुझसे कहे बिना, दूसरों की बातों में नहीं आएंगे, माँ। आप और युवराज जैसे मेरे लिए हैं वैसे भैया के लिए भी आप ही का रक्त हम दोनों में है। इस राज्य की रक्षा के लिए मेरा समस्त जीवन समर्पित है, माँ।"
युवरानी एचलदेवी ने आनन्द से गदगद हो बेटे को अपनी छाती से लगा लिया और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए आशीष दिया, "बेटा, तुम चिरंजीवी होओ, तुम हो मेरे जीवन का सहारा हो, बेटा।"
माँ के इस आशीर्वाद ने बेटे को भाव-विहल कर दिया।
श्रीदेवी नामधारिणी बड़ी रानी चन्दलदेवी के पास स्वयं चालुक्य-चक्रवर्ती शकपुरुष विक्रमादित्य का लिखा एक पत्र पहुँचाया गया। लिखा गया था कि सेना धारापुर की
178 :: पट्टमहादेवी शान्तला