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"छोटे बच्चे, तुम बहुत बड़ी स्त्री हो?" कहती हुई चन्दलदेवी शान्तला को पकाने के लिए उही लहाहा ने :
"ऐसे तो वह मेरे ही हाथ नहीं लगती, तुम्हारे कैसे हाथ लगेगी, श्रीदेवी। तुम्हारी अभिलाषा ही है तो उसकी पूर्ति, जिन्होंने तुम्हारा पाणिग्रहण किया है वे जब युद्धक्षेत्र से जयभेरी के नाद के साथ लौटेंगे तब सुगन्धित चमेली के हार इसे भी पहनाकर कर लेना।" हेग्गड़ती ने कहा। चन्दलदेवी माचिकच्चे को एक खास अन्दाज से देखती रही। इतने में गालब्ने ने आकर खबर दी, "मालिक बुला रहे हैं।" और माचिकब्बे चली
गयीं।
चन्दलदेवी के मन में तरह-तरह की चिन्ताएँ और विविध विचारों की तरंगें उठ रही थीं-मायिकब्बे समझती होगी कि मेरा पापिपग्रहण करनेवाला कोई साधारण सिपाही या सरदार अथवा कोई सेनानायक होगा। जब उनकी कीर्ति मेरे कानों में गूंज रही थी, जब उनका रूप मेरी आँखों में समा चुका था, जब वे मेरे सर्वांग में व्याप चुके थे तभी मैं उनके गले में स्वयंवर माला डाल चुकी थी। परन्तु मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई उस स्वयंवर में जिसका फल है यह घोर युद्ध, यह हृदय विदारक हत्याकाण्ड। मेरे सुन्दर रूप और राजवंश में जन्म के बावजूद मुझे वेष बदलकर दूसरों के घर रहना पड़ रहा है। परन्तु, हेगड़ती ने जो बात कही उसमें कितना बड़ा सत्य निहित है। स्त्री ही स्त्री का मन समझ सकती है। युद्ध के रक्त से ही अपनी प्यास बुझानेवाले इन पुरुषों में कोई मधुर भावना आए भी तो कैसे? विरह का दुःख उनके पास फटके भी तो कैसे? ये तो हम हैं कि जब जयभेरी-निनाद के साथ वे लौटते हैं तब उन्हें जयमाला पहनाते ही सबकुछ भूल जाते हैं। हेग्गड़ती ने सम्भवत: ठीक ही कहा कि विजयमाला पहनाने पर जो तृप्ति मिलेगी वह स्वयंवर के समय वरमाला पहनाने पर हुए सन्तोष से भी अधिक आनन्ददायक हो सकती है। वह दिन शीघ्र आए, यही कामना है।
कुछ देर बाद शान्तला धीरे से चन्दलदेवी के कमरे में आयी और उसे कुछ परेशान पाकर वहाँ से चुपचाप भाग गयी। सोचने लगी, फूफी मानसिक अशान्ति मिटाने के लिए हमारे यहाँ आकर रह रही है जिसका अर्थ है कि उन्हें सहज ही जो वात्सल्य मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाया है। उसे रेविमय्या इसलिए यहाँ भेज गया होगा! वह कितना अच्छा है। वह मुझे अपनी बेटी के ही समान मानता और प्रेम करता है। प्रेम एकमुख होकर बहनेवाला प्रवाह नहीं, बल्कि सदा ही पारस्परिक सम्बन्ध का सापेक्ष होता है, गुरुजी ने ऐसा ही कहा था। रेविमय्या मेरा सगा-सम्बन्धी नहीं, फिर भी उसकी प्रीति ऐसी थी कि उसके प्रति मैंने भी अपनी प्रीति दिखायी। इससे उसे जितना आनन्द हुआ उतना ही आनन्द मेरी इस फूफी को भी मिले। इसी भाव से विभोर होकर उसने उसको चूम लिया।
पट्टमहादेवी शान्तला :: 18|