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किसी को किसी तरह की शंका या कल्पना तक न हो सके; यह अच्छा होगा।"
प्रभु एरेयंग ने हिरिय चलिकेनायक को ओर प्रशंसा की दृष्टि से देखा और अमात्य की ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से, तदन्तर कुन्दमराय की और।
"सलाह उचित होने पर भी हमारी पोय्सल राजधानी को छोड़कर ऐसा विश्वस्त एवं सुरक्षा के लिए उपयुक्त स्थान अन्यत्र कौन-सा है, प्रभु?"
"वहाँ भेजना हमें ठीक नहीं लगता। तुमको कुछ सूझता है, नायक?"
कुछ देर मौन छाया रहा। फिर अमात्य ने कहा, "सोसेऊरु में भेज दें तो कैसा रहेगा प्रभु? यहाँ तो इस वक्त युवरानीजी अकेली ही हैं।"
प्रभु एरेयंग ने कहा, "नहीं, युवरानीजी अब दोरसमुद्र में हैं।"
आश्चर्य से महामात्य की भौंह चढ़ गयी। यह खबर उन्हें क्यों में मिली, यह सोच परेशान भी हुए। किन्तु अपनी भावना को छिपाते हुए बोले, "ऐसी बात है, मुझे मालूम ही नहीं था।"
एरेयंग प्रभु ने सहज ही कहा, "गुप्तचरों के द्वारा वह खबर अभी-अभी आयी है; ऐसी दशा में आपको मालूम कब कराया जाता?" इसके पूर्व महामात्य ने समझा था कि खबर हमसे भी गुप्त रखी गयी है। महामात्य होने पर अन्त:पुर की हर छोटी बात की भी जानकारी होनी क्यों जरूरी है ? प्रभु की बात सुनने पर परेशानी कुछ कम तो अवश्य हुई थी।
"तब तो अब प्रभु की क्या आज्ञा है?" कुन्दमराय ने पूछा।
"बलिपुर के हेग्गड़ेजी के यहाँ पेज तो कैसा रहे?" हिरिय चलिकेनायक ने सुझाव दिया, लेकिन डरते-डरते क्योंकि चालुक्यों की बड़ी रानी को एक साधारण हेगड़े के यहाँ भेजने की सलाह देना उसके लिए असाधारण बात थी।
"बहुत ही अच्छी सलाह है 1 मुझे यह सूझा ही नहीं। वहाँ रहने पर बड़ी रानीजी के गौरव-सत्कार आदि में कोई कमी भी नहीं होगी और किसी को पता भी नहीं लगेगा। ठीक, किन-किनको साथ भेजेंगे, इस पर विचार करना होगा।" कहते हुए उन्होंने अमात्य की ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से देखा।
"प्रभु को मुझपर भरोसा हो तो अन्य किसी की जरूरत नहीं। मैं उन्हें बलिपुर में सुरक्षित रूप से पहुंचा दूंगा। प्रभु की ओर से एक गुप्त पत्र भी मेरे साथ रहे तो अच्छा होगा।" हिरिय चलिकेनायक ने कहा।
"ठीक," कहकर प्रभु एरेयंग उठ खड़े हुए।
कुन्दमराय ने खड़े होकर कहा, "एक बार प्रभु से या बड़ी रानीजो से बातें करके निर्णय करना अच्छा होगा।" यह एक सूचना थी।
"अच्छा, वहीं करेंगे। नायक, तुम मेरे साथ चलो," कहकर प्रभु एरेयंग विक्रमादित्य के शिविर की ओर चल पड़े।
116 :: पट्टमहादेवी शान्तला