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वापस लौटती हुई चामला ने कहा, "मेरे आने से आपको कोई बाधा तो नहीं हुई?"
"कोई बाधा नहीं । आओ बैठो।" कहकर पलंग पर अपने पास ही बैठने को कहा। वह भी निस्संकोच भाव से पास जाकर बैठ गयी। उसने इस बात की प्रतीक्षा की कि उसके आने का कारण वे स्वयं पूछे। वह थोड़ी देर हाथ मलती हुई सिर झुकाकर बैठी रही। बिट्टिदेव को लगा कि वह संकोचवश चुप बैठी है। उसके कन्धे पर हाथ रख बिट्टिदेव ने पूछा, "क्यों चामला, तुमने कहा कि मुझे देखने आयो हो, अब पत्थर बनी बैठी हो।"
"देखना तो हो गया," कहती हुई मुँह उठाकर एक तरह का नटखटपन दिखाने लगी।
"मतलब यह कि जिस काम से आयी वह पूरा हो गया, यहीं न?" "मैंने तो ऐसा कहा नहीं।" "तो किस पतलब से मुझे देखने आयी? बता सकोगी?" "महाराज की वर्षगाँठ..." "वह तो हो गयी।"
।"मुझे भी मालूम है । उस दिन मैंने और मेरी दीदी ने नृत्य और गान प्रस्तुत किया था न।"
"मैंने भी देता न!" "वह मैं भी जानती हूँ न।" "इसे बताने के लिए आने की आवश्यकता नहीं थी न?" "यह बात मैं नहीं जानती हूँ, ऐसा तो नहीं न?" "फिर तब?" "कह तो रही हूँ; बीच में ही बोल पड़े तो?" "जो कहना है उसे सीधी तरह कह दें तो..." "जरा गम्भीर होकर बैठे तब न?" "क्या कहा?" प्रश्न कुछ कठोर ध्वनि में था।
चामला ने तुरन्त होठ काटे और सिर झुका लिया। विट्टिदेव ने क्षणभर सोचा। फिर गम्भीर मुद्रा में बैठ गया ऐसे जैसे कि महाराज सिंहासन पर बैठते हैं वीरासन लगाकर, शरीर को सीधा तानकर। कहा, "हाँ, गम्भीर होकर बैठा है। अब कहो।"
चामला ने धीरे से सिर उठाकर कनखियों से देखा । उसके बैठने के ढंग को देख इसे हँसी आ गयी। हँसी को रोकने की बहुत कोशिश की पर नहीं रोक सकी। जोर से हँस पड़ी, लाचार थी। विट्टिदेव भी साथ हँसने लगा। दोनों ने मिलकर ठहाका मारकर हँसना शुरू किया तो सारा अन्तःपुर गूंज उठा। युवरानी एचलदेवी गुसलखाने
1664 :: पमहादेवी शान्तला