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होना है।"
"इसके माने?" "मेरे गुरु अलग ढंग से कहते हैं।" "क्या आप नाट्य सीख रहे हैं।"
"मैंने विद्या के सम्बन्ध में एक सामान्य बात कही है, चाहे वह नृत्य, गायन या साहित्य, कुछ भी हो। हमारे गुरुजी का कहना है कि जिस विद्या को सीखना चाहे उसे सीखकर ही रहे। इस या उस विद्या में सम्पूर्ण पाण्डित्य अर्जन करूंगा, इसके लिए सतत अभ्यास करूँगा, यह निश्चित लक्ष्य प्रत्येक विद्यार्थी का होना चाहिए। विद्या स्पर्धा नहीं। अगर तुम अपनी दीदी से अच्छा सीखने का हठ करके सोखने लगोगी तो उससे विद्या में पूर्णता आ सकेगी? नहीं, उससे इतना ही हो सकेगा कि पद्मला से चामला अच्छी निकल जाएगी। विद्या में पारंगत होना तभी साध्य है जब स्पर्धा न हो।" ___चामला ध्यानपूर्वक सुनती रही। मेरे समान या मुझसे केवल दो अंगुल ऊँचे इस लड़के ने इतनी सब बातें कब और कैसे सीखीं? माँ का मुझे यहाँ भेजना अच्छा ही हुआ। राजकुमार का अभ्यासक्रम जानना मेरे लिए उपयोगी होगा।
"मुझे विद्या में निष्णात होना है।"
"ऐसा है, तो सीखते वक्त दोखनेवाली कमियों को तब का लभी सुधार लेना चाहिए नहीं तो वे ज्यों-की-त्यों रह जाएंगी।"
"सच है। हमारे नृत्य में ऐसी कमियों के बारे में किसी ने कुछ कहा नहीं।" "प्रशंसा चाहिए थी, इसलिए कहा नहीं।" "ऐसा तो हमने जाहिर नहीं किया था।"
"तुमको शायद इस विषय का ज्ञान नहीं है। माता-पिता के अत्यधिक प्रेम के कारण हम बच्चों को बलिपशु बनना पड़ता है। इसलिए प्रशंसा, बहुत आदर, बहुत लाड़-प्यार मुझे पसन्द नहीं।"
"आप ऐसे स्वभाव के हैं, यह मुझे मालूम ही नहीं था।" "तो तुम्हारे विचार में मैं कैसा हूँ?" "मैंने समझा था कि आप अपने भाई के जैसे ही होंगे।" "तो क्या तुम अपनी दीदी जैसी ही हो?" "सो कैसे होगा?" "तो यह भी कैसे होगा?" "सो तो ठीक है। अब मुझे क्या सलाह देते हैं ?" "किस सन्दर्भ में?" "सुधार के बारे में। "नृत्य कला को जाननेवालों के सामने नृत्य करके उन्हीं से उसके बारे में
पट्टमहादेवी शान्तला :: 167