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की ओर जा रही थीं कि यह आवाज उनके कान में भी पड़ी। उन्होंने झाँककर देखा भी।
"ठीक, आप भी अच्छी नकल करते हैं।" चामला ने कहा। "क्यों, मेरा बैठना गम्भीर नहीं था?" "उस हँसी से पूछिएगा।"
"अच्छा, जाने दो। महाराज की वर्षगाँठ के दिन तुम और तुम्हारी दीदी ने नाचगान का प्रदर्शन किया। यह मुझे भी मालूम है । कहो।"
"मैं यहीं पूछने आयी कि वह कैसा था?"
चकित हो बिट्टिदेव ने उसकी ओर देखा। तुरन्त उसे भोजन के समय की वह घटना याद हो आयी। वह मौन हो रहा पर उसका चेहरा गम्भीर हो गया।
"क्यों, क्या हुआ?" "तुमको मालूम है न।" "क्या?" 'चामला ने उत्तर में प्रश्न किया। "तुम्हें कुछ भी मालूम नहीं ?" "न, न।"
"तुम बड़ी मासूम बनती हो । कहती हो ' मालूम नहीं'। अप्पाजी ने तुम्हारी दीदी से कहा है और तुमसे उसने कहा है। इसीलिए तुम आयी हो।"
"दीदी ने कुछ नहीं कहा।" "सचमुच?" "मेरी माँ की कसम।"
"नन, ऐसी छोटी-छोटी बातों पर माँ की कसम नहीं खानी चाहिए। अगर दीदी ने कुछ नहीं कहा तो किसी और ने कहा?"
"किस विषय में ?" "यहाँ मेरे और अप्पाजी के बीच जो चर्चा हुई उसके बारे में।" "ऐसा है क्या? चर्चा हुई थी ? किस बारे में ? हमारे नाच-गान के बारे में?"
बिट्टिदेव चुप रहा।"रहने दो, सबको छोड़ मुझसे पूछने क्यों आयीं ? मैं कौनसा बड़ा आदमी हूँ।"
"माँ ने पूछ आने को कहा, मैं आयी।" उसने सच-सच कह दिया।
बिट्टिदेव को कुछ बुरा लगा। हमारी आपसी बातचीत को दूसरे लोगों से क्यों कहना चाहिए था अप्पाजी को? उसे कुछ भी अक्ल नहीं। चामव्याजी ने और क्याक्या कहला भेजा है, यह जान लेना चाहिए. यों सोचते हुए बिट्टिदेव ने पूछा, "ऐसी बात है, तुम्हारी माँ ने पूछने को भेजा है तुम्हें ?"
पट्टमहादेवी शान्तला :: 165