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थी बल्लाल की, तभी तो यह सारा वृत्तान्त कहते-कहते वह खुशी के मारे फूल उठा था।
सब सुनकर चामव्वे ने कहा, "आपको पसन्द आया, हमारे लिए इतना ही काफी है। कल सिंहासन पर बैठनेवाले तो आप ही हैं। आपकी ही बात का मूल्य अधिक है। अन्य लोगों के विचारों से हमें क्या मतलब? आपका भाई तो अभी अनजान बच्चा है। छोटे बच्चे ने कुछ कहा भी तो उस पर हमें असमंजस क्यों हो?" ।
___ बात यहीं रुक गयी। बातचीत के लिए कोई दूपर विषय नाही या सलिए राजकुमार बल्लाल वहाँ से चल पड़ा। घामव्या जानती थी कि वह कहाँ जाएगा। बल्लाल का मत था कि पद्मला बासचीत करने में बहुत होशियार है। उसके साथ बात करते रहे तो उसे समय का ख्याल ही नहीं होता था। उसके बैठने का दंग, बात करते समय की नखरेबाजी, उन आँखों से दृष्टिपात करने की वह रीति, मन को आकर्षित करनेवाली उसकी चाल, आदि उसे उसकी बातों से भी अधिक आकर्षित करती थीं। परन्तु उसे यह नहीं सूझता था कि वह उसका बन्दी बन गया है। बातचीत में चामला भी इनके साथ कभी-कभी शामिल होती थी। चामव्वा को इस पर कोई एतराज भी नहीं था। युवरानी एचलदेवी और बिट्टिदेव के दोरसमुद्र पहुंचने पर उसके प्रयत्न इतने ही के लिए हो रहे थे कि चामला और बिट्टिदेव में स्नेह बढ़े। उसके इन प्रयत्नों का कोई अभीष्ट फल अभी तक मिला न था। वर्तमान प्रसंग का उपयोग अब उसने इस कार्य की सिद्धि के लिए करने की सोची। चामव्वा ने इस विषय को दृष्टि में रखकर चामला को आवश्यक जानकारी दी। चामला सचमुच होशियार थी। यह कई बातों में पाला से भी ज्यादा होशियार थी। उसने माँ की सब बातें सुनी और उसके अनुसार करने की अपनी सम्मति भी दी। परन्तु उसे ऐसा क्यों करना चाहिए, और उससे क्या फल मिलेगा, सो वह समझ नहीं सकी थी। इसलिए करना चाहिए कि माँ कहती है, इतना ही उसका मन्तव्य था। इस सबके पीछे माँ का कुछ लक्ष्य है, यह सूझ-बूझ उसे नहीं थी। माँ चामचे ने भी उसे नहीं बताया था। उसके मत में यह न बताना ही ठीक था। उसका विचार था कि इन बच्चों में आपसी परिचय-स्नेह आदि बढ़े तो और सारी बातें सुगम हो जाएंगी। ____माँ की आज्ञा के अनुसार चामला बिट्टिदेव से मिलने गयी। वह पिछले दिन रेबिमय्या के साथ दूर तक सैर कर आया था, और उनसे विचार-विनिमय भी हो चुका था। फिर भी उसका दिल भारी ही रहा। चामला विट्टिदेव से ऐसी स्थिति में मिली तो "राजकुमार किसी चिन्ता में मग्न मासूम पड़ते हैं। अच्छा, फिर कभी आऊँगी।" कहकर जाने को हुई।
बिट्टिदेव ने जाती हुई चामला को बुलाते हुए कहा, "कुछ नहीं, आओ
चामला।"
पट्टमहादेवी शान्तला :: 16.3