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"मुझे तेल-वेल नहीं चाहिए।" देवी ने कहा।
"यह पहाड़ी देश का मानना है । यहाँ फिसलने का डर रहता है। यदि कुछ चाहिए तो बता दीजिएगा। मैं यहीं दरवाजे पर हूँ। मेरा नाम गालब्बे हैं।"
"तुम्हारा नाम तो जानती हूँ। तुम्हारी हेगड़ती ने पुकारा था न?"
"धली रेशमी साडी तैयार है जो अतिथियों ही के लिए रखी है। ले आती हूँ।" गालब्बे ने कहा।
"मेरे पास अपने कपड़े हैं। उस अलमारी के ऊपर के खाने में रखे हैं।" "अभी लायी," कहती हुई गालब्धे दौड़ पड़ो।
'अभ्यास के कारण खाली हाथ आयी थी। आवश्यक वस्तुओं को साथ ले जाने की आदत नहीं । परन्तु अब रहस्य तो खुलना नहीं चाहिए न? आखिर यह तो नौकरानी है, इतनी दूर तक वह सोच नहीं पाएगी। कुछ भी हो, आगे से होशियार रहना होगा।' देवी ने मन में सोचा। इतने में गालब्बे वस्त्र लेकर आयी और वहाँ अरगनी पर टाँग दरवाजे के बाहर ठहर गयी।
मन्दिर से शीघ्र लौट आयी माचिकब्बे। अपने अतिथि को नहाने गयी जानकर अतिथि महाशय से बात करने लगी।
"आपके आने की बात तो मालूम थी। फिर भी हेगड़ेजी इस स्थिति में नहीं थे कि वे यहाँ ठहरते।"
"हमारे आने की बात आपको मालूम थी?''
"हो, श्रीमयुवराज ने पहले ही खबर भेजी थी। परन्तु यह मालूम नहीं था कि आप लोग आज इस वक्त पधारेंगे। वैसे हम करीब एक सप्ताह से आप लोगों की प्रतीक्षा में हैं।"
"रास्ता हमारी इच्छा के अनुसार तो तय नहीं हो सकता था, हेग्गड़तीजी। इसके अलावा, देवीजी को तो इस तरह की यात्रा की आदत नहीं है। इसीलिए हम देर से आ सके।"
"सो भी हमें मालूम है।" "तो देवीजी कौन हैं, यह भी आप जानती हैं ?"
"यह सब चर्चा का विषय नहीं । आप लोग जिस तरह से अपना परिचय देंगे उसी तरह का व्यवहार आप लोगों के साथ करने की आज्ञा दी है हेग्गड़ेजी ने।"
मैं यहाँ नहीं रहूँगा, हेग्गड़तीजी। देवीजी को सुरक्षित यहाँ पहुँचाकर लौटना ही मेरा काम है। उन्हें सही-सलामत आपके हाथों सौंप दिया है। हेग्गड़ेजी के लौटते ही उनसे एक पत्र लेकर एक अच्छे घोड़े से मुझे जाना होगा। मेरा शरीर यहाँ है और मन वहाँ प्रभुजी के पास।"
"ठीक ही तो है। इसीलिए प्रभु-द्रोहि-दण्डक अर्थात् प्रभु के प्रति विश्वासघात
156:, पट्टमहादेवी शान्तला