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"सो तो ठीक । अब भैया क्यों नहीं आये? वहीं दोरसमुद्र में क्यों ठहरे हुए हैं ?"
"सुनते हैं, महाराजा ने खुद ही उन्हें अपने पास रख लिया है। खासकर मरियाने दण्डनायक ने इस बात पर विशेष जोर दिया था। वे सेना और उसके संचालन आदि के बारे में अप्पाजी को शिक्षित करना चाहते हैं। युवराज जब महाराजा बनेंगे तब तक अप्पाजी को महादण्डनायक बन सकने की योग्यता प्राप्त हो जानी चाहिए-ऐसा उनका विचार है। यह सब सीखने के लिए यही उपयुक्त उम्र है।"
"प्रारम्भ से ही भैया का स्वास्थ्य अच्छा नहीं । बार-बार बिगड़ता रहता है। इस शिक्षण में कहीं थक जाएँ और कुछ-का-कुछ हो जाए तो? भैया का स्वभाव भी तो पहुः नाजुक है। क्या माया को यह भात मारलूम नही?"
"सो तो ठीक है। अब सो अप्याजी को वहाँ ठहरा लिया!" "माँ ने कैसे इसके लिए स्वीकृति दे दी?" ।
"वास्तव में युवराज और युवरानी की इच्छा नहीं थी। खुद अप्पाजी ही ठहरने के लिए उत्साही थे-ऐसा सुनने में आया है। महाराजा का कहना था, तुरन्त खुशी से माँ पर जोर डालकर ठहरने की स्वीकृति अप्पाजी ने ले ली-यह भी सुनने में आया।"
"ऐसा है? आखिर भैया को वहाँ ठहरने में कौन-सा विशेष आकर्षण है?"
"मैं कैसे और क्या कहूँ, अप्पाजी? जो भी हो, महाराज की सलाह को इनकार न करते हुए उन्हें वहाँ छोड़ आये हैं।"
"तो हमारे लिए युवराज ने ऐसी आज्ञा क्यों दी कि लौटते समय दोरसमुद्रत जाकर सीधे यहीं आयें ?"
"वह दो युवरानी की इच्छा थी।"
"यह सब पहेली-सी लग रही है, रेविमय्या 1 मैं माँ से अवश्य पूछूगा कि यह सब क्या है।"
"अप्पाजी, अभी कुछ दिन तक आप कुछ भी न पूछे। बाद में सब अपने-आप सामने आ जाएगा। आप पूछेगे तो वह मेरे सिर पर बन आएगी। इसलिए अभी जितना जान सके उतने से सन्तुष्ट रहना ही अच्छा है। मैं यह समझू कि अब आगे इस बारे में आप बात नहीं छेड़ेंगे?"
"ठीक है। यदि कभी ऐसी बात पूछ भी लूँ तो तुम्हारा नाम नहीं लूंगा।" "कुछ भी हो, अब न पूछना ही अच्छा। फिर आप जैसा सोचते हों!" "ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा।" ।
रेविमय्या की बात पर बिट्टिदेव ने सम्मति दे दी। परन्तु उसके मन में अनेक विचार उठते रहे। उस ऊहापोह में वह किसी एक का भी समाधान करने में अपने को असमर्थ पा रहा था। यदि युवराज महाराजा बनें तो उससे किसी को क्यों तकलीफ होगी? भैया के वहाँ रह जाने की इच्छा युवराज और युवरानी–दोनों को नहीं थी।
पट्टमहादेवी शान्तला :: |17