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अपने साले गई सिंगायक निदुबत कर 41 :
युवराज एरेन्यंग प्रभु की सेना ने बलिपुर में एक दिन विश्राम करके हेग्गड़े का आतिथ्य पाकर उन योद्धाओं को भी साथ लेकर, जिन्हें हेग्गड़े ने तैयार रखा था, आगे कुच किया। वास्तव में युवराज से हेग्गड़े का अब तक सम्पर्क ही न हो सका था। इस अवसर पर पहली बार उनका भेंट-परिचय हुआ। युवराज को इसी अवसर पर यह भी मालूम हुआ कि हेगड़ती माचिकब्बे कुन्तल देश के ख्याति प्राप्त नागवर्मा दण्डनाथ की पौत्री एवं बहुत उदार दानी, धर्मशील बलदेव दण्डनायक की पुत्री हैं। बलिपुर में युवराज खुद आये-गये, पर यह बात तब मालूम नहीं हुई थी।
इस सम्मिलित सेना के साथ एरेयंग प्रभु आगे बढ़े। गुप्तचरों की कार्यदक्षता के फलस्वरूप नेरेंगल के निवासी मंगलवेड़े के महामण्डलेश्वर जोगिमरस की पुत्री विक्रमादित्य की रानी सावलदेवी के द्वारा संगठित एक हजार से भी अधिक योद्धाओं का एक जत्था भी इस सेना में आ मिला। फिर छोटे केरेयूर में बसी विक्रमादित्य को एक दूसरी रानी मलयामती ने अपनी सेना की टुकड़ी को भी इसके साथ जोड़ दिया। वहाँ से आगे विक्रमादित्य के समधी करहाट के राजा मारसिंह, चालुक्य महारानी चन्दलदेवी के पिता ने एक भारी सेना को हो साथ कर दिया। यो एरेयंग प्रभु के नेतृत्व में जमीन को ही कंपा देनेवाली एक भारी फौज दक्षिण दिशा से पूर्व-नियोजित स्थान की ओर बढ़ चली। उधर विक्रमादित्य की सेना के साथ कदम्बराज तिक्कम की पुत्री, विक्रमादित्य की रानी जक्कलदेवी ने, इंगुणिगे से भी अपनी सेना भेज दी। इसी तरह उनकी अन्य रानियों-बैंबलगी की एंगलदेवी और रंगापुर की पालदेवी ने भी अपनीअपनी सेनाओं को भेज दिया था। ये दोनों सेनाएँ अपने-अपने निर्दिष्ट मार्ग से धारानगरी की ओर रवाना हो गयीं।
बलिपुर से युवराज एरेयंग प्रभु अपनी सेना के साथ आगे की यात्रा के लिए रवाना हुए। जिस दिन वे चले उस दिन दो-पहर के पात के समय शान्तला ने गुरुवर्य बोकिमय्या से युद्ध के विषय में चर्चा की। उसने अपने पिता से इस विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त कर ली थी। वह इस सैन्य-संग्रह के पीछे छिपे रहस्य को जानने का प्रयत्न करती रही। परन्तु इसके सही या गलत होने के विषय में पिताजी के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रकट नहीं कर पायी। सोसेकरु से जब दूत आये तभी से उसके पिता ने जो परिश्रम किया यह उसने प्रत्यक्ष देखा था। उस परिश्रम का औचित्य वह समझ रही थी। उसमें कोई गलती नहीं है इस बात की सही जानकारी जब तक न हो तब तक कोई इतनी निष्ठा से काम नहीं कर सकता, यह बात भी यह जानती थी। फिर भी, जिस जैन धर्म का मूलतत्व ही अहिंसा हो और जो उसके अनुयायी हों, उन्हें इस पार-काट में भला
पट्टमहादेवी शाप्तला :: 127