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के मूल्य का कारण कौरवा का अत्याचार था। हिरण्यकशिपु का देव द्वेष ही प्रह्लाद की भक्त को मूल्य दे सका।"
"जो अच्छा है, वही दुनिया में सदा मानव को देवता बनाये रखेगा-यह सम्भव नहीं। यही कहना चाहते हैं न आप?"
"हाँ अम्माजी, बुरे का मूलोच्छेदन करना सम्भव ही नहीं।" "फिर तो जो अच्छा है, उसे भी बुरा निगल सकता है ?"
"बह भी सम्भव नहीं, अम्माजी। जब तक संसार है तब तक अच्छा-बुरा दोनों रहेंगे। इसीलिए मनु ने एक बात कही है-'विषादपि अमृतं ग्राह्यम्'। जो सचमुच पानन बनना चाहता है वह विष को छोड़कर अमृत को ग्रहण करता है। विष में से अमृत का जन्म हो तो उसे भी स्वीकार कर लेता है। परन्तु इस तारतम्य औचित्यपूर्ण जान को प्राप्त करने की शक्ति मनुष्य में होनी चाहिए। उसकी शिक्षा-दीक्षा का लक्ष्य भी बही हो तब न!"
"यह सब कधन-लेखन में हैं। जीवन में इनका आचरण दुर्लभ है, है न? यदि १भी योग भनु के कथन के अनुसार चलें तो 'वालादपि सुभाषितं' चरितार्थ होता है गुरजी?"
बॉविमय्या ने तुरन्त जवाब नहीं दिया। वे शान्तला की ओर कुतूहल से देखने गे। शान्तना भी एक क्षण मौन रही। फिर बोली, "क्यों गुरुजी, मेरा प्रश्न अनुचित लो नहीं?''
"नहीं. अम्माजी । इस प्रश्न के पीछे किसी तरह की वैयक्तिक पृष्ठभूमि के होने को शंका हुई । मेरी यह शंका ठीक है या गलत-इस बात का निश्चय किये बिना कुछ कहना उचित मालूम नहीं पड़ा। इसलिए चुप रहा।"
"आपकी शंका एक तरह से ठीक है, गुरुजी।" "आपके कथन के पीछे आपकी मनोभूमि में एकाएक क्या प्रसंग आया!'' "कैसा प्रसंग?"
"हमारी अम्माजी की एक अच्छी भावना से कथित बात के बदले में बड़ों द्वारा खण्डन।"
'ऐसी बात का अनुमान आपको कैसे हुआ गुरुजी?"
"अम्माजी ! व्यक्ति जब अच्छी बात बोलता है तथा अच्छा व्यवहार करता है तब उसके कश्चन एवं आचरण में एक स्पष्ट भावना झलकती है। ऐसे व्यक्ति का आयु सं कोई सरोकार नहीं होता। ऐसे प्रसंगों में अन्य जन भिन्न मत होकर भी औचित्य के चौखट की सीमा के अन्दर बँध जाता है। और जब मौका मिलता है, उसकी प्रतिक्रिया की भावना उठ खड़ी होती है। ऐसा प्रसंग आने से अब तक इस सम्बन्ध पें दूसरों से कहने का अवकाश आपको शायद नहीं मिल सका होगा। इस वजह से
| ११ :: पट्टमहादेवा ताला