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है ही?"
"पोय्सल सजकुमार बिट्टिदेव ऐसे ही बन सकेंगे-ऐसा मान सकते हैं न?"
वार्तालाप का विषय अचानक बदलकर व्यक्तिगत विशेष में परिवर्तित हो गया। गुरु बोकिमय्या ने इसकी अपेक्षा नहीं की थी। शान्तला ने भी ऐसा नहीं सोचा था। यों अचानक ही उसके मुंह से निकल गया था।
बोकिमय्या एकटक उसे देखता रहा। तुरन्त उत्तर नहीं दिया। शान्तला को ऐसा नहीं लगा कि अपने उस प्रश्न में उसने कुछ अनुचित कह दिया है। सहज भाव से ही उसने ऐसा पूछा था । इसलिए उत्तर की भी प्रतीक्षा की। कुछ देर चुप रहकर कहा, "गुरुजी, क्या मेरा विचार सही नहीं है?"
"मैंने ऐसा कब कहा, अम्माजी?" 'आपने कुछ नहीं कहा। इसलिए..." "ऐसा अनुमान लगाया? ऐसा नहीं है, परन्तु...." बोकिमय्या आगे नहीं बोले। "परन्तु क्या गुरुजी?" शान्तला ने फिर पूछा। "परन्तु वे युवराज मूस पुन है, माजी."
"दूसरे पुत्र होने से क्या? यदि उनमें मानवता का विकास होता है तो भी कोई लाभ नहीं-यही आपका विचार है?"
"ऐसा नहीं अम्माजी। ऐसे व्यक्ति का राजा बनना बहुत जरूरी है। तभी पानवता इस जगत् का कितना उपकार कर सकती है-यह जाना जा सकता है।''
"तो आपका अभिमत हैं कि उनमें ऐसी शक्ति है, यही न?"
"अम्माजी, मानवता को तराजू पर तौला नहीं जा सकता। वह मोल-तोल के पकड़ के बाहर की चीज है। परन्तु मानवता की शक्ति उसके व्यक्तिस्थ से रूपित होकर अपने महत्त्व को व्यक्त करती है। उन्होंने हमारे साथ जो थोड़े दिन बिताये वे हमारे लिए सदा स्मरणीय रहेंगे।"
"उनके बड़े भाई उनके जैसे प्रतिभाशाली क्यों नहीं हो पाएँगे?"
"जिस विषय की जानकारी नहीं, उसके बारे में अपना मत कैसे प्रकट करूँ, अम्माजी । कसौटी पर रगड़कर देखने से ही तो सोने के खरे-खोटेपन का पता चलता है, जो पोला है वह सब सोना नहीं।"
"तो आपकी उस कसौटी पर बिट्रिदेव खरा सोना निकले हैं?" "हाँ, अम्माजी।" "तो वे कहीं भी रहें, सोना ही तो हैं न?" "यह सवाल क्यों अम्माजी?"
"वे राजा नहीं बन सकेंगे, इसलिए आपको पछतावा हुआ। फिर भी लोकहित और लोकोपकार करने के लिए उनका व्यक्तित्व पर्याप्त नहीं?''
112 :: पट्टमहादेवी शान्तला