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एक हैं। मानवातीत प्रेममय उस सात्त्विक शक्ति पर जो एकनिष्ठ और अचल विश्वास होता है, वही सारे धर्मों का मूल है।"
'सी व्यक्तियों को यदि का भातृम हो जाय तो ये दगडे फसात ही मगे. होते, है न?"
"सो तो ठीक है, अप्पाजी। तथ्य को समझने का सभी लोग प्रयास ही कहीं करते हैं, यही तो इस सारे कष्ट का कारण हैं!"
"सभी को प्रयास करना चाहिए।"
"इसी को तो साधने में मनुष्य असफल रहा है ! कोई छोय-बड़ा या ऊँच-नीच नहीं यह भावना उत्पन्न करना ही धर्म का प्रयोजन है। मगर हम ऊँच-नीच, उत्तमअधम की मोहर लगाने के लिए धर्म की आड़ लेते हैं। यही सारे संघर्ष की जड़ है। किसी एक के बड़ण्यन को दुनिया में घोषित करने, किसी की आशा आकांक्षा को पूर्ण करने, किसी को श्रेष्ठ कहने, कोई महान् शक्तिशाली है- यह बताने और उसको प्रशंसा करने के ये सब साधन हैं। इस घोटाले में पड़कर असली बात को भूलकर.
हिंसा को छोड़ हिंसा में लोगों को प्रवृत्ति हो जाती है। और तब, जब न्याय का कोई मूल्य नहीं रह जाता, बल प्रयोग के लिए अवकाश पिल ही जाता है।"
"सभी राजा प्रजापालक होते हैं न?"
"हाँ अम्माजी । प्रजापालक को ही तो राजा कहते हैं। वे ही राजा कहलाने योग्य माने जाते हैं।"
"ऐसी हालत में एक राजा दूसरे राजा के विरुद्ध अपनी-अपनी प्रजा की भड़काते क्यों है? यह प्रजापालन नहीं, प्रजाहनम है।"
___ "स्वार्थी राजा के लिए यह प्रजाहनन है। जब उसे वह अनुभव करता है कि यह स्वार्थ से प्रेरित हल्या है, तब वह युद्ध का त्याग भी कर बैठता है। सम्राट अशोक ने इसी वजह से तो शस्त्र-परित्याग किया था। प्रजा का रक्तपात क्षेमकर नहीं होताइस बात का ज्ञान उसे एक ऐसे सन्निवेश में हुआ जब वह एक महायुद्ध में विजयी हुआ था। तभी उसने शस्त्र-त्याग कर दिया था। क्या यह सचमुच अहिंसा की जीत नहीं, अप्पाजी?"
"तब तो हिंसा का प्रत्यक्ष ज्ञान ही अहिंसा के मार्ग को दर्शानेवाला प्रकाश है, यही हुआ न?"
"हाँ अम्माजी, हिंसा होती है, इसी से अहिंसा का इतना बड़ा मूल्य हैं। अँधेरै का ज्ञान होने से ही प्रकाश का मूल्य मालूम होता है । अज्ञान की रुक्षता के कारण ही ज्ञान के प्रकाश से विकसित सुन्दर और कोमल संस्कृति का विशेष मूल्य है । दुर्जन के अस्तित्व से ही सज्जन का मूल्य है। यह तो एक ही सिक्के के दो पहल हैं। एक के अभाव में दूसरा नहीं। रावण न होता तो सीता-राम का वह मूल्य न होता। पाण्डवों
पट्टमहादेवी शान्तलः :: 129