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अब तो वह काम हो ही गया। अप्पाजी, दर्शन तो हो गये न? मगर तुम्हारी अभिलाषा अब पूर्ण नहीं हो सकेगी। क्योंकि ये वापसी यात्रा की तैयारी में हैं। अच्छा, कविजी, अब आप जा सकते हैं।" युवरानी ने कहा।
कवि बोकिमय्या चले गये। रेविमय्या ने उनका अनुगमन किया। बिट्टिदेव कुछ असन्तुष्ट हो माँ की ओर देखने लगा।
"क्यों, अप्पाजी, क्या हो गया? क्रुद्ध हो गये ? बातें करने के लिए अवकाश न मिल सका, इसलिए?"
"माँ, दर्शन मात्र मैं कहाँ चाहता था? क्या आपने समझा कि मैंने उन्हें पहले देखा नहीं?"
"तुमने भी देखा था, और उन्होंने भी देखा था। फिर भी नजदीक की मुलाकात तो नहीं हुई न? आज वह हो गयी। तुम्हारी जिज्ञासा के लिए आज कहाँ समय था? इसलिए उन्हें बिदा कर दिया।"
"ठीक है, तब मुझे भी आज्ञा दीजिए। मैं चलूंगा।" "ठहरो तो, रेविमय्या को आने दो।" "पता नहीं, वह कब तक आएगा। उन्हें मुकाम पर छोड़ आना होगा।"
"वह उनके मुकाम तक नहीं जाएगा। किसी दूसरे को उनके साथ करके वह लौट आएगा। उसे मालूम है कि उसके लिए दूसरा भी काम है।" बात अभी पूरी हुई नहीं थी कि इतने में रेविमय्या लौट आया।
"किसे साथ कर दिया रेविमय्या?" युवरानी ने पूछा।
"गोक को भेज दिया। क्या अब हेग्गड़ती माचिकब्बेजी को बुला लाना होगा?" रेविमय्या ने पूछा।
"अभी बुलवा लाने की जरूरत नहीं। कह देना कि कल की यात्रा को स्थगित कर दें। इसका कारण कल भोजन के समय युवरानीजी खुद बताएँगी, इतना कहकर आओ।"
रेविमय्या चला गया। युवरानीजो की इस आज्ञा से उन्हें बहुत सन्तोष हुआ था। कारण इतना ही था कि अम्माजी शान्तला कम-से-कम कल तो नहीं जाएगी।
"इस बात के लिए मुझे यहाँ क्यों पकड़ रखा, माँ?" बिट्टिदेव ने कहा।
"इतनी जल्दबाजी क्यों अप्पाजी? तुम्हारे बड़े भाई का स्वास्थ्य पहले से ही ठीक नहीं रहता। इसलिए वह जल्दी गुस्से में आ जाता है। कम-से-कम तुम शान्त रहने का अभ्यास करो। तुम्हारी सहायता के बिना वह कुछ भी नहीं कर सकेगा। वह बड़ा है, इस कारण से वही महाराजा बनेगा। छोटा होने पर भी सारा राजकाज तुम ही को संभालना पड़ेगा। इसलिए तुम्हें अभी से शान्त रहने का अभ्यास करना होगा। माँ होकर मुझे ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए! फिर भी ऐसी चिन्ता हो आयी है। क्या करूं?
पट्टमहादेवी शास्तला :: 55