________________
गुफा भी है। उसमें उस महामुनि का पदछाप भी है। उस चरणछाप की पूजा चन्द्रगुप्त ने की थी, ऐसी भी एक कहानी है। भद्रबाहु यहाँ आये ही नहीं। अकाल पीड़ित राज्य में खुद रहकर अपने शिघ्याधणी चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में शिष्यों को पुन्नाट राज्य में भेजकर स्वयं उज्जयिनी में रहकर वहाँ सायुज्य प्राप्ति की, ऐसी भी एक कथा है। इसलिए उनकी साधना की उपलब्धि मात्र की ओर ध्यान देना सही हैं। ऐसा समझने पर कि गुरु की आज्ञा पालन करने के इरादे से दक्षिण की ओर प्रस्थान किया, उसमें कायरता की बात कहाँ उठती है?"
"आपके इस कथन से यह विदित हुआ कि लिखनेवाले के कल्पना--विलास के कारण वस्तुस्थिति बदल जाती है, इसके आधार पर किसी बात का निर्णय करना ठीक नहों, उचित भी नहीं।" बिद्रिदेव ने कहा।
"यों विचार कर सबकुछ को त्यागने की आवश्यकता नहीं। हमें भी अपने अनुभव के आधार पर इन कथानकों में से उत्तम विषयों को ग्रहण कर उन्हें अपने जीवन में समन्वित कर उत्तम जीवन व्यतीत करने में कोई आपत्ति नहीं। दूसरों के अनुभवों से उत्तम अंशों का ग्राफ कम उचित होने पर लोकवस में का यथावत् अनुकरण ठीक नहीं। समय और प्रसंग तथा परिस्थिति के अनुसार जिसे हम सही समझते हैं- उसके अनुसार चलना उत्तम है।"
"आपका यह कथन स्थितिकता के समय-समय के अवतारों के लिए भी लागू हो सकता है न गुरुजी?" अब तक केवल सुनतो बैठी शान्तला ने पूछा।
"कहाँ-से-कहाँ पहुँची आम्माजी?"
"धर्मग्लानि जब होगी और अधर्म का बोलबाला अधिकाधिक व्याप्त जब हो जाएगा तब स्वयं अवतरित होकर धर्म का उद्धार करने का वचन भगवान कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है न?"
"हाँ, कहा है ?"
"उन्होंने पहले मत्स्यावतार लिया, फिर कूर्म, वराह और नरसिंह के रूप में क्रमश: अवतरित हुए। वामन, त्रिविक्रम का अवतार लेकर फिर अवतरित हुए, वही; परशुराम और राम बनकर पुनः अवतरित हुए। फिर कृष्ण के रूप में भी अवतरित हुए अर्थात् एक जलचर मत्स्य के रूप से आरम्भ होकर उनके अवतार ज्ञानयोगी कृष्णावतार तक क्रमश: बदलते ही आये। इस क्रमशः अवतार क्रिया पर ध्यान दिया जाय तो यह विदित होता है कि परिस्थिति को समझकर समय के अनुसार धर्मसंस्थापन को ही लक्ष्य बनाकर अवतरित इन अवतारों में कितना रूपान्तर है। है न गुरुजी?" शान्तला ने कहा।
"तो मतलब यह हुआ कि छोटी हेग्गड़ती अवतारों पर विश्वास रखती है, यही न?" बीच में बिट्टिदेव ने कहा।
84 :: पट्टमहादेवी शान्तला