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अर्थशास्त्र विशारद कौटिल्य
चाणक्य के आज्ञाधारी थे न ?" शान्तला ने पूछा ।
"हाँ, अम्माजी।"
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'तब वह चन्द्रगुप्त जिनभक्त कब बना? क्यों बना? यहाँ क्यों आया ? राज्य को क्यों छोड़ा ? क्या राज्यभार सँभालते हुए अपने धर्म का पालन नहीं कर सकता था ? इस बात में कहीं एकसूत्रता नहीं दिखती। इसपर विश्वास कैसे किया जाय ?" इस तरह शान्तला ने सवालों की एक झड़ी ही लगा दी।
बिट्टिदेव के अन्तरंग में जो विचारों का संघर्ष चल रहा था वह थोड़ी देर के लिए स्तब्ध रह गया और उसका ध्यान उस ओर लग गया।
यदि महान् वा शस्त्रवेत्ता
बोकिमय्या जितना ऐतिहासिक तथ्य इस विषय में जानता था बताया और आगे कहा, "चौबीस वर्ष राज्य करने के बाद इस राजकीय लौकिक व्यवहारों से विरक्त हो जाने की भावना उनके मन में उत्पन्न हुई तो उन्होंने त्याग को महत्त्व देकर राज्य की सीमा से बाहर दूर जाकर रहने की सोची होगी। क्योंकि निकट रहने पर राज्याधिकार की ओर मन आकर्षित हो सकता है, इसीलिए इतनी दूर यहाँ आकर रहे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। मनुष्य जब आशा-आकांक्षाओं के अधीन होकर उनका शिकार बनता है तो अन्य सब बातों की ओर अन्धा होकर अपनी आशा-आकांक्षाओं को साधने की ओर लगातार संघर्ष करने लगता है। वर्षों तक संघर्ष करने के बाद अपनी साधना के फलस्वरूप उपलब्ध समस्त प्राप्तियों को क्षणभर में त्यागने को तैयार हो जाता है, ऐसे मंगलमय मुहूर्त के आने की देर है क्योंकि ज्ञान की ज्योति के प्रकाश में उसे सारी उपलब्धियाँ महत्त्वहीन प्रतीत होने लगती हैं। कब और किस रूप में और क्यों यह ज्ञानज्योति उसके हृदय में उत्पन्न हुई, इसकी ठीक-ठीक जानकारी न होने पर भी, इस ज्योति के प्रकाश में जो भी कर्म वह करने लगता है, वह लोक-विदित होकर मानवता के स्थायी मूल्यों का एवं चरम सत्य का उदाहरण बन जाता है। साधारण जनता के लिए अनुकरणीय हो जाता है। चन्द्रगुप्त के इस महान् त्याग से यहाँ उनकी महत् साधना ने स्थायी रूप धारण किया। उन्होंने यहाँ आत्मोन्नति पाकर सायुज्य प्राप्त किया, इतना स्पष्ट रूप से विश्वसनीय हो सकता है।"
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" उन्होंने आत्मोन्नति प्राप्त की होगी। परन्तु इससे क्या उनका कर्तव्य- लोप नहीं हुआ ?" राजकुमार बिट्टिदेव सहसा पूछ बैठा ।
" इसमें कर्तव्य लोप क्या है, राजकुमार ?" बोकिमय्या ने जवाब में पूछा।
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'अपना रक्षक मानकर उनपर इतना बड़ा विश्वास रखनेवाली समस्त प्रजा को
क्षणभर में छोड़ आने से कर्तव्य लोप नहीं होता ? कर्तव्य निर्वहण न करने में उनकी कमजोरी का परिचय नहीं मिलता ? राजा का पूरा जीवन आखिरी दम तक प्रजा-हित के ही लिए धरोहर हैं न?"
82 :: पट्टमहादेवी शान्तला