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"आपके कथन का भी महत्त्वपूर्ण अर्थ है। परन्तु हमें एक बात नहीं भूलनो चाहिए। जो जन्मता है उसे मरना भी होता है, है न?"
"मरण होता है, हम बात की सूचना हो तो ही गिर?" "नहीं।" 'क्या सभी मानव अपनी इच्छा के अनुसार परते हैं?" "नहीं।"
"ऐसी हालत में जब अचानक राजा की मृत्यु हो जाय तो उसकी रक्षा में रहनेवाली प्रजा की देखभाल कौन करेगा! जो मरता है उस पर कर्तव्य-लोप का आरोप लगाया जा सकता है?"
"मरण हमारा वशवर्ती नहीं। परन्तु प्रस्तुत विषय तो ऐसा नहीं है। यह स्वयंकृत है। जो वशवी नहीं उसकी तुलना इस स्वयंकृत के साथ करना ठीक है?'।
"दोनों परिस्थितियों का परिणाम तो एक ही है न । अतएव निष्कर्ष यह है कि कर्तव्य-निर्वहण के लिए भी कुछ सीमा निर्धारित है। इस निर्धारित सीमा में रहने न रहने का स्वातन्त्र्य हर व्यक्ति को होना चाहिए। इस व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को छीनने का अधिकार किसी को नहीं। तिस पर भी आत्मोन्नति के संकल्प से किये जानेवाले सर्वसंग परित्याग पर कर्तव्य च्युति का दोष नहीं लगता। क्योंकि कर्तव्य निर्वहण की उचित व्यवस्था करके ही वे सर्वसंग परित्याग करते हैं। न्ने कायरों की तरह कर्तव्य से भागते नहीं। मौर्य चक्रवर्ती चन्द्रगुप्त भी योग्य व्यवस्था करके ही इधर दक्षिण की ओर आये होंगे।"
"नहीं, सुनने में आया कि उनके गुरु भद्रबाहु मुनि ने मगध राज्य में बारह वर्ष तक भयंकर अकाल के पड़ने की सूचना दी थी जिससे डरकर बहुत-से लोगों को साथ लेकर वह चक्रवर्ती दक्षिण की ओर चले आये।"
"लोग कैसी-कैसी कहानियों गढ़ते हैं ! यह तो ठीक है कि भद्रबाहु मुनिवर्य त्रिकालज्ञानी थे। उन्होंने कहा भी होगा। उनके ठस कथन पर विश्वास रखने वालों को उन पर दया करके उन्होंने साथ चलने के लिए कहा भी होगा। उस विश्वास के कारण कई लोग आये भी होंगे। परन्तु इसे भय का आवरण क्यों दें? वास्तविक विषय को तो कोई नहीं जानता। इस तरह भाग आनेवाला प्रभाचन्द्र नामक मुनि हो सकता है। वह तो भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त से आठ सौ वर्ष बाद का व्यक्ति है। उसने भी इसो करवप्न पहाड़ पर 'सल्लेखनव्रत' किया, सुनते हैं। त्रिकालज्ञानी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त को उनके द्वारा दीक्षित होने के बारे में अनेक लोगों ने लिखा है। परन्तु कथा के निरूपण विधान में अन्तर है। इसलिए चन्द्रगुप्त की दीक्षा का लाक्ष्य जब त्याग ही है तो इन कही-सुनी कथाओं का कोई मूल्य न भी दें तो कोई हर्ज नहीं। इसी पहाड़ में भद्रबाहु
पट्टमहादेवी शान्तला :: ४