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करा रखा था । उपनयन के अवसर पर जब सोसेऊरु गये थे तभी उसने अपने मन की अभिलाषा प्रकट कर दी थी। युवरानी की ओर से अपेक्षित प्रतिक्रिया न दिखने पर भी भावी दामाद से उसकी इच्छा के अनुकूल प्रतिक्रिया स्पष्ट मालूम पड़ गयी थी; इससे उसको आगे के कार्य करने में बल मिला। इसी कारण सोसेऊरु से लौटने के बाद अपने पतिदेव के साथ उसने क्या-क्या विचार-विनिमय किया सो तो वे ही जानें।
चामचे के कार्यक्रम बराबर जारी थ, परन्तु उसकी अपेक्षा के विरुद्ध शान्तला, उसके माता-पिता, किसी कोने में पड़े हेग्गड़े-हेगड़ती, दोरसमुद्र पहुँच गये थे। उनकी इतनी बड़ाई ? कहीं सम्भव है? जो स्थान-मान उसे भी मयस्सर नहीं वह इस साधारण हेग्गड़ती को पिले? उसकी अपनी बेटी को जो प्रेम प्राप्त होना चाहिए था वह इस हेग्गड़ती की बेटी को मिले? इस हेगड़ती ने, कुछ भी हो, युवरानी को किसी तरह से अपने वश में कर रखा है, इसीलिए यह वैपरीत्य । युवरानी की हैसियत क्या और साधारण हेग्गड़ती की हस्ती क्या? कहीं ऐसा होना सम्भव है? इन दोनों में कितना अन्तर है! युवराती से बुलावा आया नहीं कि सीधे राजमहल में पहुँच गयी और वहीं बल गयी। मैंने ही खुद उसके ठहरने की व्यवस्था करके उसे और उसकी बेटी को वहाँ भेज दिया था। उस चोबदार के आकर बुलाने पर एकदम अपने समस्त कुनबे को उठाकर राजमहल में ही उसने अड्डा जमा लिया ! कैसी औरत है ? देखने में अनजानसी, पर अंगठा दिखाने पर हाथ ही को निगलने की सोचती है यह औरत! अभी से हमें इससे होशियार रहना चाहिए। नहीं तो वह येनकेन प्रकार से अपनी लड़की को महारानी बनाने की युक्ति जरूर निकालेगी.। बड़ी भयंकर है, यह तो? इसके योग्य कुछ दवा करनी ही होगी।
यह विचार आते ही चामन्चे ने अपने पतिदेव मरियाने से सलाह करने की ठानी। सोसेकर से युवराज के परिवार समेत पहुँचने के समय से ही उसने अपना काम शुरू कर दिया। बिस्तर पर लेरे अपने पतिदेव के पास पान-बीड़ा देते हुए बात छेड़ी :
"दण्डनायक जी आजकल, पता नहीं क्यों, पारिवारिक कार्यकलापों की ओर ध्यान कम देने लगे हैं। इतने व्यस्त हैं?"
"आपकी इच्छा के अनुसार कार्य निर्विघ्न चल ही रहे हैं तो हमें इसमें सिर खपाने की क्या जरूरत है? हम आराम से हैं।"
"हम भला क्या कर सकेंगी? दण्डनायक से पाणिग्रहण होने से दण्डनायक की पत्नी का खिताब मिला है; यही पुण्यफल है। आपके प्रेम और विश्वास से ही मेरा सिर ऊँचा है। नहीं तो..."
उसने बात को वहीं रोका। आगे नहीं बोली।
दण्डनायक मरियाने पान चबा रहे थे । सफेद मैंछों के नीचे होठ लाली से रंग गये थे। कोहनी टेककर थोड़ा-सा उठे और बोले, "क्यों कहना रोक दिया, कहो।
102 :: पट्टमहादेवी शान्तला