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के कार्यक्रम का निश्चय करेंगे-प्रधान गंगराज ने निर्णय लिया।
दूसरे दिन बहनोई दण्डनायक के साथ प्रधान गंगराज की भेंट हुई। दोनों ने इस विषय पर विचार-विनिमय किया। खून-पानी से गाढ़ा होता है न? दोनों के विचार चामव्या के विचार से प्राय: मेल खाते थे।
उस दिन दोपहर को महाराजा के साथ की मन्त्रणा-गोष्ठी में कुछ नयी स्फूर्ति लक्षित हो रही थी।
महाराजा विनयादित्य ने कहा, "प्रधान जी! दण्डनायक जी! आप सभी को यह बात विदित है कि हमारा स्वास्थ्य उस स्थिति में नहीं कि हम राजकाज संभाल सकें। इसलिए इस दायित्व से मुक्त होकर हम आपके युवराज एरेयंग प्रभु को अभिषिक्त कर निश्चिन्त होने की बात सोच रहे हैं। अब तो मैं नाममात्र का महाराजा हूँ। वास्तव में राज्य के सारे कारोबार उन्हीं के द्वारा सँभाले जा रहे हैं; इस बात से आप सभी लोग भी परिचित हैं। वह कार्य निर्वहण में दक्ष हैं, यह हम जानते हैं। उनकी दक्षता की बात दूसरों से सुनकर हमें सन्तोष और तृप्ति है। उनपर हमें गर्व है। पोय्सल राज्य स्थापित होने के समय से गुरुजनों की कृपा से राज्य क्रमशः विस्तृत भी होता आया है। प्रजा में वह प्रेम और विश्वास के पात्र बने हैं। हमें विश्वास है कि हमारे पुत्र इस प्रजाप्रेम
और उनके इस विश्वास को बराबर बनाये रखेंगे। जैसा आप लोगों ने हमारे साथ सहयोग किया और हमें बल दिया तथा राष्ट्ररक्षा के कार्य में निष्ठा दिखायी वैसे ही हमारे पुत्र के प्रति भी, जो भावी महाराजा हैं, दिखाएंगे। आप सब राजी हों तो हम कोई शुभ मुहूर्त निकलवाकर उनके राज्याभिषेक का निश्चय करें!" ।
महाराजा की बात समाप्त होने पर भी तुरन्त किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी। कुछ समय के मौन के बाद, महाराजा विनयादित्य ने ही फिर कहा, "ऐसे विषय पर तुरन्त कुछ कह पाना कठिन है । इसमें क्या सही है, क्या गलत है-यह बात सहज ही में नहीं समझी जा सकती। वास्तव में यह पिता-पुत्र से सम्बन्धित बात है, ऐसा समझकर हमें ही निर्णय कर लेना चाहिए था। और उस निर्णीस विषय को आप लोगों के समक्ष कह देना ठीक था। परन्तु आप सब राष्ट्रहित के लिए समर्पित, निष्ठावान और विश्वासपात्र हैं; एकान्त में हमारे कुमार हमारी सलाह को स्वीकार करेंगे इसमें हमें सन्देह है। इसलिए हमने अपने मित्रों के सामने इस बात को प्रस्तुत किया है। हम अपने कुमार की मनःस्थिति से अच्छी तरह परिचित हैं। हमारे जीवित रहते इस हमारे विचार को वे स्वीकार नहीं करेंगे। उनका स्वभाव ही ऐसा है, वे यही कहेंगे कि अभी जैसा चल रहा है वैसा ही चलता रहे। वे दिखावे के धोखे में नहीं आते। भेदभाव रहित परिशुद्ध मन है उनका; यह अनुभव हम स्वयं कर चुके हैं। आप सबसे विचार-विनिमय करने के पीछे हमारा यही उद्देश्य है कि उन्हें समझा-बुझाकर उनसे 'हाँ' करा लें। सिंहासन-त्याग का हमें कोई दुःख नहीं है। जिस किसी तरह
पट्टमहादेवी शासला :: 107