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चिन्तित हूँ।" रेविमय्या ने कहा।
"दूर रहते हुए भी निकट रहने की भावना रखना बहुत कठिन नहीं, रेविमय्या। ईश्वर दृग्गोचर न होने पर भी वह है, सर्वत्र व्याप्त है, ऐसी भावना क्या हममें नहीं है? बैंसे हो...।"
"वह कैसे सम्भव है, कविजी!" "तुम्हें कौन-सा पक्वान्न इष्ट है?" "तेल से भुना बैंगन का शाक।"
"इस शाक को खाते समय यदि रेविमय्या की याद आ जाय और यह तुम्हारे लिए अत्यन्त प्रिय है, इसकी कल्पना ही से यह तुम्हारे पास ही है, ऐसा लगेगा। इसी तरह सेवियों की खीर जब तुम आस्वादन करोगे और सोचेगे कि यह अम्माजी के गुरु के लिए बहुत प्रिय है तो मैं और अम्माजी तुम्हारे ही पास रहने के बराबर हुए न? ऐसा होगा। क्या यह आसान नहीं ?"
"प्रयत्न करूंगा। सफल हुआ तो बताऊँगा।" रेबिमय्या ने कहा। "वैसा ही करो। मेरा अनुभव बताता है कि वह साध्य है।"
शिवार्चन का कार्य सम्पूर्ण कर सब लोग चरणामृत और प्रसाद लेकर गंगाधरेश्वर की सन्निधि से अपने मुकाम पर पहुँचे। थोड़ी देर में सूर्योदय हो गया।
फिर सब लोगों ने स्नानादि समाप्त कर अपना-अपना पूजा-पाठ करके शिवरात्रि के दिन के व्रत को तोड़ा। भोजन आदि किया। उसके बाद वे वहाँ दो दिन जो रहे, शान्तला और बिट्टिदेव दोनों आग्रह करके पहाड़ पर पुनः गये, गंगोद्भव स्तम्भ, नन्दी की परिक्रमा आदि करके आये। रेविमय्या की संरक्षकता में यह काम सुरक्षित रूप से सम्पन्न हुआ। दूसरे दिन ही वहाँ से प्रस्थान निश्चित था, इसलिए बिट्टिदेव और शान्तला ने नन्दी के श्रृंगों के बीच से बहुत देर तक देखा। रेविमय्या ने भी सबकी तरफ देखा।
जब उतरने लगे तब शान्तला ने राजकुमार से पूछा, "आपको क्या दिखाई दिया ?"
"तुमने क्या देखा?" राजकुमार ने पूछा। "पहले आप दताएँ।" 'न, तुम ही बताओ।" "नहीं, आप ही बताएँ। मैंने पहले पूछा था।"
"मुझे पहले नीलाकाश में एक बिजली की चमक-सी आभा दिखाई पड़ो।" रेविमय्या बीच में ही बोल उठा।
"मैंने तुमसे नहीं पूछा; पहले राजकुमार बताएँ।" शान्तला ने कहा। "बताना ही होगा?"
14 :: पट्टमहादेवी शान्तला