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"हाँ तो, इसीलिए तो पूछा ।" "विश्वास न आये तो ?"
"मुझपर अविश्वास ?" शान्तला ने तुरन्त कहा।
"तुमपर अविश्वास नहीं। मैंने जो देखा वह बहुत विचित्र विषय है। मैं स्वयं अपनी ही आँखों पर विश्वास नहीं कर सकता, इसलिए कहा । बाहुबलि स्वामी चीनाम्वरालंकृत हो, वैजयन्तीमाला धारण किये किरीट शोभित हो, हाथों में गदा, 'चक्रधरे से दिखाई पड़े।"
" सच ?"
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'झूठ क्यों कहूँ? परन्तु मुझे यह मालूम नहीं पड़ा कि ऐसा क्यों दिखाई पड़ा। बाहुबलि और चीनाम्बर ? सब असंगत ?" बिट्टिदेव ने कहा ।
"गुरुजी से पूछेंगे, वे क्या बताते हैं!" शान्तला ने सलाह दी।
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'कुछ नहीं। अब तुम बताओ, क्या दिखायी पड़ा ?"
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'प्रकाश, केवल प्रकाश दूर से वह प्रकाश बिन्दु क्रमशः पास आता हुआ बढ़ते-बढ़ते सर्वव्यापी होकर फैल गया। इस प्रकाश के अलावा और कुछ नहीं दीखा।"
"यहाँ विराजमान शिव ने दर्शन नहीं दिया ?"
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" देना चाहिए था न ? नटराज तुमसे प्रसन्न हैं, कहा न नाट्याचार्य ने ?" 'भावुकतावश कहा होगा। वह शिष्य-प्रेम का संकेत है: उनकी प्रसन्नता का प्रदर्शन, इतना हो । "
"जिस प्रकाश को देखा उसका क्या माने हैं ?" बिट्टिदेव ने पूछा।
"मुझे मालूम नहीं। गुरुजी से ही पूछना पड़ेगा। वह सब बाद की बात है। कल चलने पर बाणऊरु तक ही तो राजकुमार का साथ है। बाद को हम हम हैं और आप आप हो । जब से सोसेऊरु में आये तब से समय- करीब-करीब एक महीने का यह समय - क्षणों में बीत गया-सा लगता है। फिर ऐसा मौका कब मिलेगा, कौन जाने !" "मुझे भी वैसा ही लगता है। बाणऊरु पहुँचने का दिन क्योंकर निकट आता जा रहा है?" बिट्टिदेव ने कहा ।
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'युवरानीजी और युवराज को मेरे प्रणाम कहें। आपके छोटे भाई को मेरी याद दिलाएँ । आपके बड़े भाई जी तो दोरसमुद्र में हैं, उन्हें प्रणाम पहुँचाने का कोई साधन नहीं । रेमिय्या ! राजकुमार को शीघ्र बलिपुर लाने की तैयारी करेंगे ?"
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'अम्माजी, यह मेरे हाथ की बात नहीं। फिर भी प्रयत्न करूँगा। यहाँ कोई और नहीं। मैं और आप दोनों। और वह अदृश्य क्षेत्रनाथ ईश्वर, इतना हो । अन्यत्र कहीं और किसी से कहने का साहस मुझमें नहीं हैं। अगर कहूँ तो लोग मुझे पागल समझेंगे। परन्तु
पट्टमहादेवी शान्तला : 95