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"व्यावहारिक दृष्टि से हमारा घराना अवश्य ऊँचा है। नहीं कौन कहता है? परन्तु बड़प्पन और जन्म इन दोनों का गठबन्धन उचित नहीं होगा, माँ। हमारे पूर्वज क्या थे? हमारे पास राज्य कहाँ था? हम भी तो साधारण पहाड़ी लोग थेन? श्रीमुनिजी की करुणा से हमें एक राज्य निर्माण करने की सामर्थ्य प्राप्त हुई। गुरुवर्य के द्वारा प्रणीत सत्-सम्प्रदाय में हम पले और बढ़े। उन्हीं के बल से, प्रजाहित की दृष्टि से हमने राज्य को विस्तृत किया। अभी होय्सलवंश के बारे में लोग समझने लगे हैं। उन महात्मा श्रीमुनि ने हमारे गुर्गम 'कन्न' को 'मोककर मन्त्र रमों दी थी : सकता है साधारण पहाड़ प्रान्त के निवासी सलराय में किसी दैवी शक्ति के अस्तित्व को पहचानकर उनको ऐसा आदेश दिया था। उनका यह आदेश हमारे वंश का अंकित नाम हुआ, माँ। इससे भली-भाँति मालूम होता है कि छोटापन या बड़प्पन हमारे व्यवहार के अनुरूप होता है, उसका जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं।"
"क्या ये सब तुम्हारे गुरु ने सिखाया?" "हाँ, माँ!"
"तुम्हारे बड़े भैया का ऐसा विशाल हृदय क्यों नहीं ? दोनों के गुरु तो एक ही हैं न?"
"वे जितना सिखाते हैं और कहते हैं उतना सुनकर चुप बैठे रहने से ज्ञान-वृद्धि नहीं होती। उनको उस सीख में, कथन में, तत्त्व की खोज हमें करनी चाहिए। उनकी उस उपदेश-वाणी में निहित ज्ञान और तत्त्व को खोजना और समझना ही तो शिष्य का काम है। इसी में शिक्षा की सार्थकता है।"
"उस अम्माजी के गुरु ने भी यही कहा जो तुमने बताया।" "माँ, आपने उन्हें कब देखा?"
"वे यहाँ आये हैं। अप्पाजी की पढ़ाई में विघ्न न पड़े इसलिए हेगड़ेजी उसके गुरु को भी साथ लेते आये हैं। मैंने एक दिन कवि बोकिमय्या को बुलवाया था और उनसे बातचीत की थी। उन्होंने कहा, 'कभी-कभी अम्माजी के सवालों का उत्तर देना मुश्किल हो जाता है। ऐसी प्रतिभा है। उस जैसा एक भी विद्यार्थी उन्हें अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। वे कहते हैं कि ऐसो शिष्या को पढ़ाने से हमारी विद्या सार्थक होती है. यही उन गुरुवर्य का विचार हैं।"
"माँ, मैं भी एक बार उन गुरुवर्य को देखना चाहता हूँ।"
"वे अब बलिपुर लौटने की तैयारी में लगे होंगे 1 फिर भी देखेंगे, रेविभथ्या से खबर भेजेंगी।"
बातें हो ही रही थी कि इतने में दासी बोम्मले आयी और युवरानौजी की आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़ी हो गयो।
"बोम्मले, जाकर देखो रेविमय्या लौटा है या नहीं। वह हेग्गड़ती भाचिकब्बेजी
पट्टमहादेवी शान्तला :: 53