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बिट्टिदेव मान रहा। बोकिमय्या ने पूछा, "क्यों? कहिए राजकुमार, मौन क्यों हो गये?"
बिट्टिदेव कुछ कहना तो चाहता था, परन्तु शान्तला की उपस्थिति ने उसे मौन रखा।
आखिर वोकिमय्या ने समझाया, "वस्त्राच्छादन से उत्पन्न सुन्दरता और नग्नता से लगनेवाली असुन्दरता और असह्य भावना-इन दोनों के मूल में एक ही वस्तु है शरीराभिमान। एक को सुन्दर मानते हैं और दूसरे को असुन्दर। उसको सशक्त समझकर गर्ग गारखे हैं। य प ाीचर है. इसलिए ही वस्त्र-मिहीन होने पर वह सन्तोष की भावना क्षीण हो जाती है और असह्य की भावना हो आती हैं। यह भी बाह्य चक्षु से ही ग्राह्य ज्ञान है। दृश्यमान स्थूल शरीर को भेदकर अन्तश्चक्षु से शुद्ध अन्तःकरण को परखने पर वहाँ सुन्दर-असुन्दर, सह्य-असह्य आदि भावनाओं के लिए कोई गुंजायश ही नहीं। एक तादात्म्य भावना की स्थिति का भान होने लगता है। इसीलिए बाहुबलि की नग्नता में असम की भावना उत्पन्न नहीं होती। उसमें एक निर्विकल्प बाल-सौन्दर्य लक्षित होता है।"
बिट्टिदेव ने अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहा, "परन्तु ऐसे रहना मुझसे दुस्साध्य है।"
"सहज ही है। उस स्तर की साधना होने से ही वह सम्भव हो सकता है। साधना से वह अनुभव साध्य है।" बोकिमय्या ने बतलाया।
"हमारे गुरुवर्य ने एक बार सत्य हरिश्चन्द्र की कथा बताते हुए कहा था, 'वसिष्ठ ने यह प्रतिज्ञा की थी कि यदि विश्वामित्र हरिश्चन्द्र को सस्थपथ से डिगा दें तो मैं दिगम्बर हो जाऊँगा।' अर्थात् उनकी दृष्टि में वह दिगम्बर हो जाना, यहाँ की इस दिगम्बरता में निहित भावना के विरुद्ध ही लगता है न?"
"वैदिक सम्प्रदाय के अनुसार यह माना जाता है कि दिगम्बर होना अपनी संस्कृति से बाहर होना है।"
"भारतीय धर्म का मूल वही है न?"
"मूल कुछ भी रहे वह समय-समय पर बदलता आया है। अग्नि-पूजा से जिस संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ वह अनेक रूपों में परिवर्तित होती आयो । अपने को ब्रह्मा कहा। त्रिमूर्तियों की कल्पना की उद्भावना हुई। सृष्टि-स्थिति-लय का अधिकार त्रिमूर्तियों को सौंपा गया। इन तीनों मूर्तियों में से सृष्टि के अधिकारी और लयाधिकारी के लिए अवतार-कल्पना नहीं की गयी। स्थितिकर्ता विष्णु में अवतारों की कल्पना की।"
"मतलब क्या यह सब झूठ है ?" "कल्पना-विलास जब सत्य को असंकृत करता है तब सत्य उस सम्भावित
58 :: पट्टमहादेवी शान्तला