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"जिस किसी ने घोड़े की सवारी करना सीखा हो वह सब राजा या रानी नहीं बन सकते, है न? दण्डनायकजी, आपके मुँह से यह बात सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। आप खुद अपने बाल्यजीवन को याद कीजिए। कोई पूर्व-सुकृत था, हमारी महारानी ने आप पर अपने सगे भाई जैसा प्रेम और विश्वास रखा। आपका विवाह स्वयं उन्होंने कराया। आपकी हैसियत बढ़ायी। आज आप महाराजा और प्रधानमन्त्री के निकट हैं। यह सब हम ही ने तो बाँट लिया है न? सगे भाई न होने पर भी महारानी ने आपको प्रेम से पाला-पोसा तो औरस पुत्री को प्रेम-ममता और वात्सल्य से पालपोसने में क्यों दिलचस्पी न ले? उस अम्माजी का भाग्य क्या है-सो हम-आप कैसे जान सकेंगे? अच्छे को अच्छा समझकर उसे स्वीकार करने की उदारता हो तो वही पर्याप्त है। अब हम एक बात सोच रहे हैं। अभी युवराज तो आ ही रहे हैं। हमारा भी स्वास्थ्य उतना अच्छा नहीं रहता। अबकी बार युवराज को सिंहासन देकर एवं उपनीत बटु को युवराज पद देकर विधिवत् पट्टाभिषेक कर लें और हम निश्चिन्त हो जाएँ। इस बारे में आपकी क्या राय है?"
"हमारे साले गंगराज इस विषय में क्या राय रखते हैं?" झुके सिर को उठाते हुए मरियाने दण्डनायक ने कहा।
"प्रधानमन्त्री से हमने अभी नहीं कहा है।" "युवराज की भी स्वीकृति होनी है न?" "स्वीकार करेंगे, जब हमारी आज्ञा होगी तो वे उसका उल्लंघन क्यों करेंगे?"
"ऐसी बात नहीं, सन्निधान के रहते सन्निधान के समक्ष ही सिंहासन पर विराजने के लिए उन्हें राजी होना चाहिए न?"
"आप सब लोग हैं न? अगर राजी न हों तो समझा-बुझाकर आप लोगों को उन्हें राजी कराना होगा।"
"तुरन्त राय देना कठिन कार्य है। सम्बन्धित सभी मिलकर विचार-विनिमय करने के बाद इसका निर्णय करना अच्छा होगा।"
"ठीक है, वैसा ही करेंगे।" इसके बाद परियाने आज्ञा लेने के इरादे से उठ खड़े हुए। "बलिपुर के हेग्गड़े दक्ष हैं?" "युवराज ने बता ही दिया होगा न?" "मतलब यह कि आप जवाब देना नहीं चाहते। है न?"
"ऐसा कुछ नहीं। मेरा उनसे सीधा सम्पर्क उतना विशेष रूप से नहीं हो पाया है। मैंने इतना अवश्य सुना है कि विश्वासपात्र हैं और बलिपुर की जनता उन्हें बहुत चाहती है। हमारे युवराज उन्हें बहुत पसन्द करते हैं और चाहते भी हैं । इससे यह माना
62 :: पट्टमहादेवी शान्तला