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युवरानी एचलदेवी को जितना जल्दी गुस्सा चढ़ता उतना ही शीघ्र वह उतर भी जाता है। सहज ही वह विशालहृदया है। उसका ध्येय है कि अपनी वजह से किसी को कोई दुःख न हो। उसके बुल्ल पर अतिथि बनकर जी आए उनकी देखभाल की व्यवस्था उसकी इच्छानुसार होनी चाहिए; यदि वह न हुआ तो सहज ही क्रोध आता ही है। अब की स्थिति यही थी। इसी वजह से उसे गुस्सा आया था। हेग्गड़े के सारे परिवार के अन्तःपुर में आ जाने के बाद शान्त होकर सोचने पर पता चला कि इसके पीछे क्या कारण था। ऐसा क्यों हुआ था। फिर भी उसने प्रतिक्रिया व्यक्त करने की बात नहीं सोची। इसके साथ ही उसके मन में एक निश्चित निर्णय भी हुआ। पद का मोह किस तरह से स्वार्थ-साधन के मार्ग का अनुगमन करता है-इस बात से परिचित युवरानी ने अबकी बार क्षमा कर देने की बात मन-ही-मन सोची। वहाँ सोसेऊरु में रहते समय भी चामव्या ने शान्तला के बारे में जो भला-बुरा कहा था, उसीसे वह असन्तुष्ट हुई थी। मगर तब उसने उसे कोई महत्त्व नहीं दिया था। यहाँ जो घटना घटी उसने उसके मन में एक सुस्पष्ट ही चित्र प्रस्तुत कर दिया था। साथ ही उसके हृदयान्तराल पर विषाद की गहरी रेखा भी खिंच गयी थी।
यह सब क्या है? युवराती एचलदेवी के मन में तरह-तरह के प्रश्न उठ खड़े हुए। निष्कल्मष दृष्टि से एक-दूसरे से प्रेम करना क्या असह्य नहीं? मानव ऐसे शुद्ध प्रेम को भी यदि सह नहीं सकता और असूया से नीच भावना का शिकार होकर होनवृत्तियों का आश्रय ले तो वह पशु से भी बदतर न होगा? पशु इस ऐसे मानव-पशु से कुछ बेहतर मालूम होता है। उससे प्यार के बदले प्यार मिलता है। वह प्रेम करनेवाले की हस्ती-हैसियत, मान-प्रतिष्ठा का ख्याल भी नहीं करता। उसे उम्र की भी परवाह नहीं। एक छोटा बालक उसे प्रेम से खिलाए या बड़े अथवा गरीब या धनी कोई भी प्रेम से खिलाएँ तो वह कुत्ता भी सबको बराबर के प्रेमभाव से देखता है। पर हम कितनी भेद-भावना रखते हैं। क्या यह ईश्वर के वरप्रसाद के रूप में प्राप्त बुद्धि के दुरुपयोग की चरमसीमा नहीं है ? उस ईश्वरदत्त बुद्धि के सदुपयोग को छोड़कर उसका अन्यथा उपयोग नीच्चता की परिसीमा नहीं? जन्म, अधिकार और ऐश्वर्य आदि न जाने कौन-कौन से मानदण्डों का ढेर लगाकर मापते-मापते थक न जाएँगे? अहिंसा, त्याग आदि के बहानों का सहारा लेकर व्रत-नियमों की आड़ में स्वर्ग-साधना करने के बदले मानवता की नींव पर शुद्ध मानव-जीवन जीने का प्रयत्न मानव क्यों नहीं करता? ऐसा अगर हो तो यह भूलोक हो स्वर्ग बन जाए। इसे स्वर्ग बनाने के लिए ही समय समय पर अलग-अलग रूप धारण कर सच्चे मानव के रूप में ईश्वर अवतरित होकर मानवता के धर्म का उपदेश देता आया है। स्वयं मानवता का आदर्श बनकर उदाहरण देकर मानव-धर्म का अनुष्ठान करके दिखाया है। एक बार उसने जो मार्ग दर्शाया उसमें कँटीले पौधे, झाड़-झंखाड़ जो पैदा हो गये तो कालान्तर में वे विकृत
पट्टमहादेवी शान्तला :: 7