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दण्डनायक मरियाने और छोटे दण्डनायक माचण डाकरस आदि सभी से बिदा लेकर बैलुगोल की यात्रा के लिए तैयार हो गया। आखिरी वक्त बिट्टिदेव ने उनके साथ बेलुगोल जाने की इच्छा प्रकट करते हुए माँ से अनुमति माँगी।
"वहाँ से वे सीधा बलिपुर जाएँगे, अप्पाजी; तब तुम्हें अकेले लौटना पड़ेगा । इसके अतिरिक्त तुम तो बेलुगोल हो आये हो न ? अब क्या काम है ?" एचलदेवी ने अपनी बात कही।
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'लौटते समय मेरे साथ रेविमय्या रहेगा। अगर चाहें तो दो-एक और मेरे साथ चलें ।" कहकर बिट्टिदेव ने यह सूचित किया कि अपने मन की इस इच्छा को बदलना नहीं चाहता
"छोटे अप्पाजी महाराज इसे स्वीकार नहीं कर सकेंगे।" एचलदेवी ने अपने इस बेटे के मन की इच्छा को बदलने के इरादे से कहा ।
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'क्यों नहीं स्वीकार करेंगे ?"
"राजकुमार यदि साधारण हेगड़े के परिवार के साथ चलेंगे तो लोग तरह-तरह की बातें करने लगेंगे। इस वजह से वे स्वीकार नहीं करेंगे।"
" क्या महाराज के मन में ऐसे विचार हैं ?"
"न, न, कभी नहीं। उनमें अगर ऐसी भावना होती तो बड़े दण्डनायक मरियानेजी का आज इतना ऊँचा स्थान न होता।"
"यदि ऐसा है तो मेरे जाने में क्या बाधा है ?"
" निम्न स्तर के लोगों को ऊपर उठाना ठीक होने पर भी ऊपर के स्तरवालों को नीचे उतरना ठीक नहीं, अप्पाजी।"
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'अगर ऊपरवाले नीचे नहीं उतरें तो नीचेवालों को ऊपर उठाना सम्भव कैसे हो सकेगा, माँ?"
" इसीलिए ऐसे लोगों को जो सब तरह से ऊपर उठाने योग्य हैं, उन्हें चुनकर हम अपने पास बुलवाते हैं-ऊपर उठने के लिए मौका देना हमारा धर्म है। इस काम के लिए हमें नीचे उतरने की आवश्यकता नहीं।"
"तो आपके कहने का मतलब यह है कि उन्हें हम अपने साथ ले आ सकते
हैं, परन्तु हमें उनके साथ होना ठीक नहीं; यही न माँ?"
" लोग हमसे यही अपेक्षा करते हैं।"
"लोगों को हम ही ने अपने व्यवहार से ऐसा बनाया है।"
" जो भी हो, अप्पाजी, मैं इस विषय में निश्चय कर अपना निर्णय नहीं दे सकती। मैं केवल माँ हूँ। मैं केवल प्रेम करना ही जानती हूँ। ऐसी जिज्ञासा मैं नहीं कर सकती ।"
" मतलब, क्या मैं प्रभु से पूछूं या महाराज से ?"
70 :: पट्टमहादेवी शान्तला