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हो जाते हैं। हम जब उसी टेढ़े-मेढ़े रास्त को अपना विश्वस्त मार्ग मानकर जिद पकड़कर चलना आरम्भ कर देते हैं तो यह एक नया ही रूप धारण कर लेता है और तब इसी को एक नया नाप देकर पूर्वोपदिष्ट मानव-धर्म का सुसंस्कृत नवीन रूप कहकर मानव अपने उद्धार करने की कोशिश करने लगता है। फिर भी मानव मानव ही है। उस सहज मानव-धर्म का तथाकथित टेढ़े-टेढ़े मार्ग के निर्माण के प्रयत्न में ही उसकी बौद्धिक शक्तियों का अपव्यय होता है। यह मेरे द्वारा प्रणीत नवीन मार्ग है, यह उन सबसे उत्तम मार्ग है-कहते हुए अहंकार से आगे बढ़ने का उपक्रम करने लगता है। यह अहंकार उस पीठ पर के विस्फोटक फोड़े की तरह बढ़कर उसी के सर्वनाश का कारण बनता है। असली मूल वस्तु को छोड़कर इस तथाकथित नवीनता के अहंकार से ऊँच-नीच के भेद-भाव उपजाने से मानव-मानव में भेद पैदा हो जाता है; और मानवता की एकता के उदात्त भाव नष्ट हो जाते हैं। मानव के साथ मानव बनकर रहने में अड़चन पैदा हो जाती है। मानवता ही खण्डित हो जाती है। कभी मानव को मानव बनकर जीना सम्भव होगा या नहीं, भगवान् जिनेश्वर ही जानें।
___इस तरह युवरानी एचलदेवी का कोमल मन उद्विग्न हो रहा था। उसके मन की गहराई में तारतम्य की इस विषम परिस्थिति ने कशमकश पैदा कर दी थी। मन के उस तराजू के एक पलड़े में चामव्वा थी और दूसरे में हेग्गड़ती माचिकब्बे । पद और शिष्टाचार इनमें किसका वजन ज्यादा है, किसका मूल्य अधिक? तराजु झूलता ही रहा, कोई निश्चित निर्णय नहीं हो पाया। क्योंकि मन की गहराई में उस तराजू को जिस अन्तरंग के हाथ ने पकड़ रखा था यह कॉप रहा था। उस हाथ का कम्पन अभी रुका न था। हृदय की भावना कितनी ही विशाल क्यों न हो उस भावना की विशालता को घ्यावहारिक जीवन में जब तक समन्वित न करें और वास्तविक जीवन में कार्यान्वित न कर व्यवहार्य न बनावें तो उससे फायदा ही क्या? कार्यान्वित करने के लिए एक प्रतिज्ञाबर दृढ़ता की जरूरत है। यह दृढ़ता न हो तो कोई काप साध नहीं सकते । क्योंकि उस सहज मार्ग में आगे बढ़ने का यह पहला कदम है। इस सीधे मार्ग पर चले तो ठीक है । चलते-चलते आड़े-तिरछे और चारों और धेरै रहकर बहनेवाले चण्डमारुत का शिकार बने और आगे का कदम और आगे चलने को उद्यत हो जाय तो बहुत सम्भव है कि वहीं अटक जाएँ। इससे बचने के लिए मानसिक दृढ़ता चाहिए। एचलदेवी सोचने लगी कि ऐसे बवण्डर से बचकर चलने की दृढ़ता उसमें कितनी है। फिर वह स्वयं सर्वेसर्वा तो है नहीं। युवराज इन सद्भावनाओं को पुरस्कृत करें भी, पर महाराजा की बात का तो वे प्रतिरोध नहीं कर सकते, यह सब वह जानती थी। इसके अलावा महाराजा का मुंह-लगा दण्डनायक राजमहल के वातावरण में पलकरबढ़कर वहाँ के सुख-सन्तोष में पनपा है और उस पर महाराजा की विशेष कृपा भी है-इस बात से वह परिचित तो थी ही। चामब्वा के मन में क्या-क्या विचार होंगे
68 :: पट्टपहादेवी शान्तला