________________
राजकुमार कुछ पूछेंगे। इसी आशय से उसने राजकुमार को देखा।
राजकुमार कुछ न कहकर उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला, "तो आज्ञा दीजिए, अब शाम हो गयी। मेरा घुड़सवारी के लिए जाने का समय जो गया ।"
शान्तला ने सहज ही पूछ लिया, "क्या मैं भी सवारी पर आ सकती हूँ?" "उसमें क्या है आ सकती हैं। आज बड़े भैया नहीं आएँगे। उनका घोड़ा मैं लूँगा, मेरा घोड़ा तुम ले लेना। मगर तुमको अपने माता-पिता की अनुमति लेकर आना पड़ेगा ।"
" मेरा अशोक है। "
" मतलब उसे भी साथ लेती आयी हैं ? रेविमय्या ने कहा था, वह बड़ा ही सुलक्षणोंवाला सुन्दर टट्टू है। मैं जल्दी तैयार होकर प्रतीक्षा करूंगा।" कहकर बिट्टिदेव
चला गया।
गुरु का चरणस्पर्श कर शान्तला भी चली गयी।
उस दिन के अश्वारोहियों की यह जोड़ी दोरसमुद्र की यात्रा के लिए भी अपनेअपने घोड़ों पर चली ।
पहले से दोरसमुद्र के लोगों को विदित था कि युवराज सपरिवार पधारनेवाले हैं। वहाँ राजमहल के द्वार पर आरती उतारकर लिवा ले जाने के लिए चामव्वा तैयार खड़ी थी। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उसकी बेटियाँ भी समलंकृत उसके साथ खड़ी थीं।
|
सबसे पहले रेविमय्या, रायाण और छोटे राजकुमार बिट्टिदेव और अम्माजी शान्तला पहुँचे और राजमहल के सामने के सजे मण्डप में उतरे। इसे देख चामन्वा उँगली काटने लगी। घोड़े पर से उतरे बिट्टिदेव को चामव्वा ने तिलक लगाया और आरती उतारी।
राजकुमार बिट्टिदेव ने दूर खड़ी शान्तला के पास पहुँचकर "चलो शान्तला, अन्दर चलें।" कहकर कदम बढ़ाया।
वहाँ उपस्थित सभी प्रमुख व्यक्तियों ने सोसेकरु में शान्तला को देखा ही था । उनमें से किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया, यह बात वह समझ गयी। उन लोगों के वास्ते तो वह नहीं आयी थी। यदि बिट्टिदेव उसे न बुलाता तो दुःख होता अवश्य । परिस्थिति से परिचित राजकुमार ने औचित्य के अनुसार समझदारी से काम लिया । शान्तला उसके साथ अन्दर गयी।
त्रिदेव सीधा उस जगह पहुँचा जहाँ महाराजा का खास दीवानखाना था। उसने सुखासन पर आसीन महाराजा के चरण छूकर साष्टांग प्रणाम किया। शान्तला जो उसके साथ थी, उसने भी महाराजा के चरण छुए और प्रणाम किया।
60 :: पट्टमहादेव शान्तला