Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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के गुणस्थान कितने हो सकते हैं और दूसरा यह कि गुणस्थानों के समान होने पर भी जीव अपने शरीर, इन्द्रिय आदि को अपेक्षा कितने कर्मों का बन्ध करते हैं । यह कार्य गुणस्थानों की अपेक्षा हो स्वामित्व बतलाने से सम्भव नहीं हो सकता है। अतः आध्यात्मिक दृष्टि वालों को मनन करने योग्य है ।
ग्रन्थ परिचय
sifare का ज्ञान कराने वाले अनेक ग्रन्थ हैं। उनमें कर्मविपाक, कर्मस्तव, स्वामित्व, पडशीति, ure और सप्ततिका नामक छह कर्मग्रन्थ हैं । इनको प्रामीन षट् कर्मग्रन्थ कहा जाता है। इनमें रचयिता भी मिश्र भित्र आचार्य हैं और रचना काल भी पृथक-पृथक है। इनके साथ प्राचीन विशेषण उनका पुरानापन बतलाने के लिये नहीं लगाया जाता है किन्तु उसके आधार सेवा के बने नवीन कर्मग्रन्थों से उनका पाय बतलाने के लिये लगाया गया है | श्रीमद्देवेन्द्र
ने उक्तों का अनुसरण करत हुए पाँच कर्मग्रन्थ बनाये हैं। जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार है-
लेकिन उनका कोई भी
विषयों का भी संग्रह
१. कर्मविपाक २ कर्मere. ३ स्वामित्व ४. परसीति ५ शतक ये कर्मग्रन्थ परिमाण में प्राचीन कर्मग्रन्थों से छोटे हैं, वर्ण्य विषय छूटने नहीं पाया है और अन्य अनेक नये किया गया है। फलतः कर्मसाहित्य के अध्येताओं ने इन ग्रन्थों को अपनाया और कतिपय विद्वानों के सिवाय साधारण जन यह भी नहीं जानते कि श्री देवेन्द्रसूरि के कर्मग्रन्थों के अलावा अन्य कोई प्राचीन कर्मग्रन्थ भी है।
सामान्य रूप के कर्मग्रन्थों का प्रतिपादित विषय कर्मसिद्धान्त है। लेकिन जब प्रत्येक ग्रन्थ के को जानने की ओर उन्मुख होते हैं तो यह ज्ञातव्य है कि प्रथम कर्मग्रन्थ में ज्ञानावरण आदि कर्मों और उनके भेदप्रभेदों के नाम तथा उनके फल का वर्णन है। दूसरे कर्मचन्द में गुणस्थानों का स्वरूप समझाकर उनमें कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय उदीरणा और मत्ता का विचार किया गया
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तीसरे कर्मग्रन्थ में मार्गेणाओं के आश्रय से कर्म प्रकृतियों के बन्ध के स्वामियों का वर्णन किया गया है कि अमुक मार्गणा वाला जीव किन-किन और कितनी प्रकृतियों का बन्ध करता है । चतुमं कर्मग्रन्थ में जीवस्थान, मार्गेणास्थान, गुण