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गन्धादि स्वामित्व विगम्बर साहित्य का मन्तव्य
साणे पीयेदछिदी णिरयदुणिरयाउ ण तियदसमं । afrati arati fमच्छादिसु चसु वोच्छेदो ॥३१६
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कार्मण काययोग में १२२ प्रकृतियों में से स्वर - विहायोगति प्रत्येक---- आहारकशरीर - भौदारिकशरीर इन सबका युगन, मिश्रमोहनीथ, उपधात आदि पाँच, गिल, स्त्यानद्वित्रिक, छह संस्थान, छह संहनन, इन प्रकृतियों के न होने से यह प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। उसमें भी सास्वादन गुणस्थान में स्त्रीवेद की व्युच्छित होती है और नरकगतिडिक, नरकायु- इन तीन का उदय नहीं होता है तथा मिध्यात्वादि (मिथ्यात्व सास्वादन, अविरत, सयोगिकेवली) चार गुणस्थानों में क्रम से ३, १०, ५१.२५ प्रकृतियों को उपस्थिति होती है। चे
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मूलोषं पुंवेदे थावरचउणिरयजुगलतित्थयरं ॥ इगिविगलं थोडं तावं णिरयाउगं गत्थि ॥ ३२० ॥ इत्थोवेदेवि तहा हारदुपुरिपूण मिस्थिसंत्तं । ओ सं ण हि सुरहारथीपुंसुरा उतित्ययरं ।। ३२१॥ पुरुषवेद में मूलवत् १२२ प्रकृतियों में से स्थावर आदि बार, नरकगति द्विक, तीर्थङ्कर एकेन्द्रिय, विकलत्रिक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, आतप, नरकाधुन १५ प्रकृतियों के न होने से १०७ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं।
puru, शाम, संयम व दर्शन मागा
स्त्रीवेद में उक्त १०७ प्रकृतियों में से आहारकशरीर गुमय, पुरुषवेद इन तीन प्रकृतियों को कम करके और स्त्रीवेद को मिलाने से १०५ प्रकृतियां उदययोग्य हैं। नपुंसकवेद में १२२ प्रकृतियों से से देवगतियुगल, आहारकडिक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, देवायु, तीर्थदूर इन आठ प्रकृतियों के कम होने से ११४ प्रकृतियाँ उक्ययोग्य हैं ।
तिश्वचरमाणमायालोहचउक्कूण मोघमिह
कोहे । अणरहिदे णिविविगलं तावणकोहाणथावरचउनक ||२२||