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जैन कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय
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श्रीमांसा आदि के अवतरण उद्धृत किये गये हैं, किन्तु प्रस्तुत टीका का उल्लेख उसमें नहीं पाया जाता है।
पदेव गुरु ने कर्मप्राभृत और कथायाभूत पर टीकाएँ लिखी हैं। कर्मप्राभूत के पाँच खण्डों पर लिखी गई टीका का नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति या । षष्ट खण्ड पर उनकी व्याख्या संक्षिप्त थी जो पंचाधिक आठ हजार श्लोक प्रमाण थी । पाँच खण्डों और कषायमाभूख का टीकाओं का संयुक्त परिमसाठ हजार श्लोक प्रमाण था । भाषा प्राकृत पो
बोरसेन है 1 विद्या गुरु
एक तिहाई
कर्पपातको टीका धनया के कर्ता का नाम ये आर्यनन्दि के शिष्य तथा चन्द्रसेन के प्रशिष्य थे। इनके एजात्रायें थे। कपाप्राभृत को टीका जयधवला के प्रारम्भ का भाग भी इन्हीं वीरसेन का लिखा हुआ है ।
यह वाटर्मशास्त्राओं के लिए द्रष्टव्य है ।
ऋवायाभूत
पापड अथवा कषायप्राभृत को पेजदोसपाट पोटात अथवा दोषाभूत भी कहते हैं ।
कर्मप्रभृत के समान ही भूत का उद्गम स्थान भी दृष्टिवाद नामक आरव अग है। उसके ज्ञानप्रवाद नामक पवेिं पूर्व की दसवों वस्तु के जदोष नामक तीसरे प्राभृत से कायाभूत की उत्पत्ति
हैं।
कषायप्राभृत के रचयिता आचार्य
इन्होने माथा सूत्रों में
गुणधर है। अन्य को निबद्ध किया है। वैसे तो प्राकृत की २३३ गाथाएँ मानी हैं, परन्तु वस्तुतः इस ग्रन्थ में १०० गाथाएँ है और मे ५ मायाएं कषायप्राभृतकार गुणधराचार्यकृत न होकर संभवतः आचार्य नागहस्ति कृत हो, जो व्याख्या के रूप में बाद में जोड़ी गई है ।
प्राकृत में जयधवलाकार के अनुसार निम्नलिखित १५ अर्थाधिकार हैं
(१) प्रपोष (२) प्रकृतिविभक्ति, (३) स्थिति (४) अनुभागविभक्ति (५) प्रदेशविभक्ति- क्षोणाश्रोणप्रदेश- स्थित्यन्तिक