Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीमद् देवेन्द्रसूरि विरचित २१५५ बन्धस्वामित्व नामक कर्मग्रन्थ हितीय भाग [भूल, गत्यार्थ. विशेषार्थ, विवेचन एवं टिप्यण तथा अनेक परिशिष्ट थुत्स] स्थाख्याकार महधरकेसरी, प्रवर्तक मुनि श्री मिश्रीमल जी महाराज सम्पादक श्रीचन्द सुगना 'सरस' देवकुमार जैन प्रकाशक श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति ___ जोधपुर--थ्यावर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 प्रकाशकीय [ प्रथम संस्करण ] श्री केसरी साहित्य प्रकाशन समिति के विभिन्न उद्देश्यों में एक प्रमुख एवं रचनात्मक उद्देश्य है जैन धर्म एवं दमन से सम्बंधित साहित्यका प्रकाशन करना । संस्था के मार्गदर्शक परमश्रद्धेय श्री मरूधर केसरीजी महाराज स्वयं एक महान विज्ञान, आशुकवि तथा जैन आगम तथा दमण के ममेश है और उन्हों के मार्गदर्शन में संस्था की विभिन्न नोकोपकारी प्रवृत्तियाँ चल रही हैं। गुरुदेवश्री साहित्य के मर्मज्ञ भी हैं, नुरागी भी हैं। उनकी प्रेरणा से ब -तक हमने प्रवचन, जीवनचरित्र, काव्य, आगम तथा गम्भीर विवेचनात्मक ग्रन्थों का प्रकाशन किया है। अब विद्वानों एवं craftary पाठकों के सामने हम उनका चिर प्रतीक्षित ग्रन्थ 'कर्मग्रन्थ विवेचन सहित प्रस्तुत कर रहे हैं। कर्मग्रन्थ जैन दर्शन का एक महान ग्रंथ है। इसमें जैन तत्त्वज्ञान का सर्वांग विवेचन समाया हुआ है। पूज्य गुरुदेवश्री के निर्देशन में प्रसिद्ध लेखक-संपादक श्रीयुत श्रीचन्द की सुराना एवं उनके सहयोगी श्री देवकुमार जी जैन ने मिलकर इसका सुन्दर सम्पादन किया है । तपस्वीवर श्री रजतमुनि जी एवं विद्याविनोदी श्री सुकनमुनिजी की प्रेरणा से यह विराट कार्य समय पर सुन्दर जंग से सम्पन्न हो रहा है । इस ग्रन्थ का sxeneन श्रीमान् stria जी मोहनलालजी सेठिया मैसूर एवं श्रीमान् सेठ मेरुमल जी रोफा, सिकन्द्राबाद के अर्थ सौजन्य से किया जा रहा है। हम सभी विद्वानों, मुनिवरों एवं सहयोगी उदार गृहस्थों के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हुए आशा करते हैं कि अतिशीघ्र क्रमण: अन्य भागों में हम सम्पूर्ण कम् विवेचन युक्त पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करेंगे। प्रथम व द्वितीय wor कुछ समय पूर्व ही पाठकों के हाथों में पहुँच चुके हैं। विद्वानों एवं arra ने उनका स्वागत किया है। अब यह तृतीय are पाठकों के मक्ष प्रस्तुत है । ! X विनीत, मन्त्री श्री केसरी सहहित्य प्रकाशन समिति Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TWIMorpawanpan प्रकाशकीय द्वितीय संस्करण कर्मग्रन्थ का भाग ३, सन् १९६५ में प्रकाशित हुआ था । इन पांच करों में ही भाग १, २. ३. की समस्त प्रति समाप्त हो गई तथा पाठकों की मांग निरन्तर पा रही है। पाठकों की रुचि के पुस्तक की पयोगिता देखकर समिति में भाग १, २ का पुनः मुद्रण गत कार्य किया था । अन्न भाग ३ व द्वितीय संस्करण पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है । इस संस्करण में प्रेस सम्बन्धी भूलों का प्रायः संशोधन कर लिया गया है, कहीं-कहीं संशोधन परिवर्धन भी किया है । बढ़ती हुई महागाई में बचा दुस्तक की लागत कोमल काफी बढ़ गई है, फिर भी हमने वही पुराना भूल्य ही इम संस्करण के मत्रण में सम्पूर्ण अर्थ-साहयोग श्रीमान जालम चन्दजी बाफना (भोपालगढ़) ने उदारतापूर्वक प्रदान किया है । अप स्वयं भी सपा -बगिया और धर्मनिष्ट हैं । तत्त्वज्ञान में आपकी गहरी ४ है। आपका सम्पूर्ण परिवार बड़ा frक और सुसंस्कारी है । आपने संस्था के साहित्य में छि लेकर जो अनुदान दिया है. सदर्घ हार्दिक धन्यवाद ! विनील, मंत्री श्री मनधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जैन दर्शन को समझने की कुंजी है- 'कर्मसिद्धान्त' | यह निश्चय है कि समग्र दर्शन एवं तस्वज्ञान का आधार है आत्मा और आत्मा की fafer दशाओं, स्वरूपों का विवेचन एवं उसके परिवर्तनों का रहस्य उद्घाटित करता है 'कर्मसिद्धान्त' । इसलिये जैनदर्शन को समझाने के लिए 'कर्मसिद्धान्त' समाना अहै । • कर्मसिद्धान्त का विवेचन करने वाले प्रमुख ग्रन्थों में 'श्रीमद् देवेन्द्रसूर रचित कर्म अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। जैन साहित्य में इनका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। तस्व-जिज्ञासु भी कर्मों को आग की तरह प्रतिदिन अध्ययन एवं स्वाध्याय की वस्तु मानते हैं। I कर्मग्रन्थों की संस्कृत टीकाएँ बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। इनके कई गुजराती अनुवाद भी हो चुके हैं। हिन्दी में कर्मग्रन्थों का सर्वप्रथम विवेचन प्रस्तुत किया था वितृवृषण्य मनीषी प्रवर महाशक्ष पं० सुखलालजी ने उनकी सी तुलनात्मक एवं विद्वत्ताप्रधान है। पं० सुखलालजी का निबंधन आज प्राय: दुष्प्राप्य सा है। कुछ समय से आशुकविरत्न गुरुदेवश्री मरुधरकेसरीजी महाराज की प्रेरणा मिल रही थी कि कर्मग्रन्थों का आधुनिक ली में विवेचन प्रस्तुत करना चाहिए। उनकी प्रेरणा एवं निर्देशन से यह सम्पादन प्रारम्भ हुआ । विद्याविनोदी श्री सुमुनिजी की प्रेरणा से यह कार्य बड़ी गति के साथ आने बढ़ता गया । श्री देवकुमार जी जैन का सहयोग मिला और कार्य कुछ ही समय में आकार धारण करने योग्य बन गया । इस संपादन कार्य में जिन प्राचीन ग्रन्थ लेखकों, टीकाकारों, विवेचनकर्त्ताओं तथा विशेषतः पं० सुखलालजी के ग्रन्थों का सहयोग प्राप्त हुआ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इतने गहन अन्य का विवेचन सहजगम्य बन सका । मैं उस सभी विद्वानों का असीम कृतज्ञता के साथ आभार मानता हूँ। अजेय श्री मरुधरकेसरी जी म० का समय-समय पर मार्गदर्शन, श्री रजतमुनिजी एवं श्री सुकनमुनिजी की प्रेरणा एवं साहित्य समिति के अधिकारियों का सहयोग, विशेषकर समिति के व्यवस्थापक श्री सुभानमल जी सेठिया की सहृदयतापूर्ण प्रेरणा व सहकार से ग्रन्थ के संपादन-प्रकाशन में गतिमीलता आई है, मैं हृदय से आभार स्वीकार कर --यह सर्वपा योग्य ही होगा। विवेचन में कहीं अटि, सेवान्तिक भूल, अस्पष्टता तथा मुद्रण आदि में अशुचि रही हो तो उसके लिए मैं धमाप्रार्थी हूँ और, हंस-बुद्धि पाठकों से अपेक्षा है कि वे स्नेहपुर्वक सूचित कर अमुग्रहीत करेंगे। भूल सुधार एवं प्रमादपरिहार में सहयोगी बनने वाले अभिनन्दनीय होते हैं । - इसी अनुरोध के साथ विनीत ...श्रीमान्क सुराना 'सरस' Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ मुख जैन दर्शन के संपूर्ण चिन्तन, मनन और विवेचन का आधार आत्मा है । मात्मा सर्वतंत्र स्वतन्त्र शक्ति है। अपने सुख-दुःख का निर्माता भी वही है और उसका फल भोग करने वाला भी यही है। आत्मा स्वयं में से म विशुद्ध है, किन्तु वह शरीर के साथ मूर्तिमान बनकर अशुद्ध दशा में संसार में परिभ्रमण कर रहा है । स्वयं परम आनन्दस्वरूप होने पर भी सुख-दुःख के में पिस रहा है। अजर-अमर होकर भी जन्म-मृत्यु के प्रवाह में बह रहा है । है कि जो आत्मा परम शक्तिसम्पन्न है, वही दीन-हीन, दुख, बरित्र के रूप में संसार में यातना और कष्ट भी भोग रहा है। इसका कारण क्या है ? *ges जैन दर्शन इस कारण की विवेचना करते हुए कहता है- आत्मा को संसार में भटकाने वाला कर्म है। कर्म ही जन्म-मरण का मूल है कम् मरणस्स मुलं भगवान श्री महावीर का यह कथन अक्षरशः सत्य है, तथ्य है । कर्म के कारण ही यह विश्व विविध विचित्र घटना चक्रों में प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है । ईश्वरवादी दर्शनों ने इस विश्ववैचित्य एवं सुख-दुःख का कारण जहाँ ईम्बर को माना है, वहां जैनदर्शन ने समस्त सुख-दुःख एवं विश्वविक्रम का कारण मूलतः जीव एवं उसका मुख्य सहायक कर्म माना है। कर्म स्वतंत्र रूप से कोई शक्ति नहीं है, वह स्वयं में पुद्गल है, जड़ है। किन्तु राग-द्वेषवश वर्ती आत्मा के द्वारा कर्म किये जाने पर वे इतने बलवान और शक्तिसम्पन्न बन जाते हैं कि कर्त्ता को भी अपने बन्धन में बाँध लेते हैं | मालिक को भी नौकर की तरह नचाते हैं । यह कर्म की बड़ी विचित्र शक्ति है । हमारे जीवन और जगत के समस्त परिवर्तनों का यह मुख्य बीज फर्म क्या है ? इसका स्वरूप क्या है ? इसके विधि परिणाम कैसे होते है ? यह बड़ा ही गम्भीर विषय है। * Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) जैन में कर्म का बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। फर्म का सूक्ष्मातिसूक्ष्म और अत्यन्त गहन विवेचन जैन आगमों में और उत्तरवर्ती ग्रन्थों में प्राप्त होता है । वह प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में होने के कारण विभोग्य तो है पर साधारण जिज्ञासु के लिए दुर्बोध है। थोकड़ों में कर्मसिद्धान्त के विविध स्वरूप का वर्णन प्राचीन आचार्यों ने गंगा है, कंठस्थ करने पर साधारण तत्व- जिज्ञासु के लिए वह अच्छा ज्ञानदायक सिद्ध होता है । eifera के प्राचीन ग्रन्थों में कर्मग्रन्थ का महत्वपूर्ण स्थान है। श्रीमद् देवेन्द्रसूरि रचित इसके पांच भाग अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। इनमें जैनदर्शनसम्मत समस्त कर्मवाद, गुणस्थान, मागंणा, जीव, अजीव के भेद-प्रभेद बाद समस्त जैनदर्शन का विवेचन प्रस्तुत कर दिया गया है। ग्रन्थ जटिल प्राकृत भाषा में है और इसकी संस्कृत में अनेक टीकाएँ भी प्रसिद्ध हैं। गुजराती में भी इसका विवेचन काफी प्रसिद्ध है। हिन्दी भाषा में इस पर विवेचन प्रसिद्ध विद्वान् पं० सुखलालजी ने लगभग ४० वर्ष पूर्व तैयार किया था । वर्तमान में कर्मग्रन्थ का हिन्दी विवेचन प्राप्य हो रहा था. फिर उस म त चिन की ली में भी काफी परिवर्तन आ गया। अनेक तत्त्वfare मुनिवर एवं श्रावक परमश्र गुरुदेव मvariसरीज म० साव से कई वर्षों से प्रार्थना कर रहे थे कि कर्मग्रन्थ जैसे विशाल और गम्भीर ग्रस्म का नये ढंग से frier एवं प्रकाशन होना चाहिए। आप जैसे समर्थ वास्त विधान एवं महास्थविर संत ही इस अत्यन्त श्रमसाध्य एवं व्यय-साध्य चार्म को सम्पन करा सकते हैं। geet ा भी इस ओर आकर्षण छ । शरीर काफी धूम हो चुका है। इसमें भी लम्बे-लम्बे बिहार और अनेक संस्थाओं ● कार्यक्रमों का आयोजन | area ater में आप १०-१२ घंटा से अधिक समय तक आाज भी शास्त्र स्वाध्याय, साहित्य सर्जन आदि में लीन रहते हैं । गल वर्ष सुरुदेवत्री ने इस कार्य को आगे बढ़ाने का संकल्प किया। विवेचन लिखना प्रारम्भ किया। विवेचन की भाषा आदि ष्टियों से सुन्दर एवं रुचिकर बनाने तथा फुटनोट आमों के उद्धरण संकलन, भूमिका लेखन बाद कार्यों का दायित्व प्रसिद्ध विद्वान श्रीयुत श्रीचन्द गुराना को सौंपा गया . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुरानाजी गुरुदेवश्री के साहित्य एवं विकारों से अतिनिकट सम्पर्क में है। भुरुदेव के निर्देशन में उन्होंने अत्यधिक श्रम करके यह विसापू तथा सर्व साधारण जन के लिए उपयोगी विवेशन तैयार किया है । इस विवेचन में शक दीर्घकालीन अभाव की पूर्ति हो रही है । साथ ही समाज को एक सांस्कृतिक एवं दार्शनिक निधि मये रूप में मिल रही है, यह अत्यधिक प्रसमता की बात है। मुझे इस विषय में विशेष रुचि है ? मैं गुरुदेव को तथा संपादक बन्धुओं को इसकी पूर्ति के लिए समय-समय पर प्रेरित करता रहा । प्रथम व द्वितीय भाग के पश्चात् यह तृतीय भाग नाम जनता के समक्षा रहा है । इसकी मुझे हार्षिक प्रसन्नता है। पहले के दो भाग जिज्ञासु पाठकों ने पसन्द किये हैं, उनक स्वज्ञान-वृद्धि में के सहायक बने हैं, ऐसी सूचना मिली हैं । आशा है प्रथम व द्वितीय भाग की तरह यह तृतीय भाग भी ज्ञानवृद्धि में अधिक उपयोगी बनेगा। ...-सुकन मुनि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावमा मागंणा का लक्षण fafeओं के कारण लोक वैचित्र्य : जैनदृष्टि मार्गणाओं में बन्धस्वामित्व के ज्ञान की उपयोगिता ग्रन्थ- परिचय गाया १ मंगलापन और केविका प 'मार्गणा' की व्याख्या मार्गणा और गुणस्थान में अन्तर मार्गणाओं के नाम और उनके लक्षण माओं के उत्तरभेदों की संख्या और नाम मार्गणाओं में कितने गुणस्थान गाथा १३ अनुक्रमणिका संकेत के लिये उपयोगी प्रकृतियों का संग्रह गाथा ४ सामान्य नरकगति का बन्धस्वामित्व गावा ५ रत्नप्रभा आदि सरकवय का बन्धस्वामित्व पंकप्रभा आदि नरक का बन्धस्वामित्व १५ • our the eve o १६ २१ २६ ३० १० १-११ १ १ ક્ 6 पृ० १११३ ११. पृ० १३-१६ १ १० १७२१ १ २० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामा ६,७ महालमप्रभा नरक का बन्धस्वामित्व स्वामित्व पर्याप्त तिर्यों का गांधा पर्याप्त तिर्यों का दूसरे से पाँचवें गुणस्थान तक का बन् स्वामित्व गान स्वामित्व पर्याप्त मनुष्य का अपर्याप्त तिर्यय, मनुष्य का बन्धस्वामित्व गाथा १० ( १२ ) देवगति व कपट्रिक का बन्यस्वामित्व भवन पतिभिक का स्वामित्व गाया ११ ereकुमार आदि कल्पों का बात कल्प से नववेक तक का afte अनुत्तर विमानवासी देवों का स्वामित्व एकोद्रिय, विकलत्रय तथा पृथ्वी, जल, वनस्पति काय का बम्ब tarfara माथा १३ गाथा १४ पंचेन्द्रिय fferent मन, वचन, औदारिका का स्वामित्व काय का स्वामित्व affa धृ० २१-२७ १२ २५ पृ० २७-३०. गाथा १२ एकेन्द्रिय आदि का सासादन गुणस्थान में बन्धस्वामित्व व मतान्तर aarfrefer काययोग का स्वामित्व * पृ० ३०-३५ as C ३४ पृ० ३५-३८ ३६ ૬૭ पृ० ३८-४२ ३६ ४ ४ ०४२-४६ ४३ पृ ०६-४६ ४७ 63 टु १० ४ - ५४ पू० Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d 4 गामा १५ औदारिकामध काययोग का चौथे, तेरहवें मुणस्थान का बन्धस्वामित्व कामैण कापयोग का बन्धस्वामित्व आहारक काययोग निक का बन्धस्वामित्व गाणा १६ १० ६२-६६ बैंकिय काययोग का बन्धस्वामित्व वैक्रियामय काययोग का बन्धस्वामित्व चमार्गणा का बन्दस्वामित अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का बन्धस्वामित्व अप्रत्याख्यानावरण पायचतुष्क का इन्धस्वामित्व प्रत्यास्मानाबरण कषायचतष्क का बन्नस्वामित्व कापायमार्गणा का सामान्य बन्ध-स्वामित्व गाथा १७ संज्वलन कषायचतुष्क का बन्धस्वामित्व अविरत का अननस्वामित्व अज्ञानयिक का बलस्वामित्व वक्षदर्णन. अदर्शन का बन्धस्वामित्व খানাবিধ কা অনামিৰ प्र०७३-७४ मनःपर्याय ज्ञान का. बधस्वामित्व सामायिक, धोपस्थानीच धारिण का बन्धस्वाषिरत परिहार विशुद्धि संयम का बन्धस्वामिस्त्र कैवलशान बन का वन्धस्वामित्व ७४ मति, श्रुत व अधिद्धिक का बन्धस्वामित्व गाथा ११ पृ. ७ जपलम सम्यक्त्व का बन्धस्माभिस्वा. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ } क्षयोपशमिक सम्यक्त्व का बन्धस्वामिस्व arfe rate का स्वामित्व feerefore, traारिश्र, सूक्ष्मपराय चारित्र का सम्ध स्वाfica आहारक जीवों का बन्धस्यामि गाथा २० उपशम सम्यक्त्व की विशेषता गाय २१, २२ eerमागंणा हा अस्वस्वाभिस्य गाथा २३ भव्य, अभव्य, संशी, अशी मार्गणाओं et waterfere स्वामित्व अनाहाराणा का गाया २४ याओं में गुणस्थान ग्रन्थ की समाप्ति का संकेत परिशिष्ट ७८ ७८ • जैन कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय • कर्मग्रन्थ भाग १ से ३ तक की मूल गावायें ● संक्षिप्त शब्दकोष vK & पृ० १-६४ ८२ पृ० ६४-६५ ८४ पृ० ६५-६६ ६. ५ ६ ५० ६६- १०१ १६ १०१ पु० १०३-२३६ ● मार्गणाओं में उदय उदीरणा सत्तास्वामित्व १०५ ● मार्गेणाओं में बन्ध, उदय, सत्तास्यामित्व frees दिगम्बर १३० साहित्य का ध • वेताम्बर-दिसम्बर कर्मसाहित्य के समान असमान मन्तव्य ● मार्गणाओं में बन्धस्वामित्व प्रदर्शक यंत्र १५७ १६० १६३ २०६ ५२२ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्ताव ना कर्मग्रन्थों में जीवस्थान, मार्गणास्थान और बतलाई जाती है । स्थान इन तीन प्रकारों (द्वारों द्वारा संसारी जीवों की विविताओं, विकान्सुखता मादि का कव हिक रूप में विवेचना है। इन तीनों में से जीवस्थान के द्वारा संसारी जीवों की शारीरिक आकार-प्रकार की fafe गुणस्थानों में आत्मा की सघन कर्मा दशा से लेकर परम निर्मल विकास श्री उज्ज्वल एवं सर्वोच्च भूमिका तक विकासोन्मुखी *मद श्रेणियों का कथन है और मार्गणास्थानों में आत्मा की दोनों स्थितियों का बाह्य (शारीरिक) और आतंरिक (आत्मिक ) भितra, fवविधताओं का वर्गीकरण करते हुए विवे वन किया गया है । इस दृष्टि से देखें तो मार्गास्थान मध्य द्वार (देहली)क्षेपक न्याय के समान अबस्थान के शारीरिक-माह्य और गुणस्थान के बास्मिक तरिक दोनों प्रकार के कथनों को अपने से पति करता है । इसके अतिरिक्त मार्गणास्थान की अपनी एक और विशेषता है कि जीवस्थान सिर्फ जीवों के प्रकारों, विविधताओं का कथन करता है और गुणस्थान आत्मा के क्रमभावी विकास को कमिक अवस्थाओं की सूचना करते हैं अतः उनका एक दुसरे के साथ सम्बन्ध नहीं है, वे कमभावी होते हैं; लेकिन मार्गणास्थान सहभावी हैं। इनका जीवस्थानों के साथ भी सम्बन्ध है और गुणस्थानों के साथ भी। दोनों प्रकार की मित्रताओं वाले जीवों का किसी न किसी मार्गणास्थान में अवश्य अन्तर्भाव- समावेश हो जाता है 1 * मामा का समय संसार में अनन्त जीव हैं और उन जीवों के बाह्य व आन्तरिक जीवन की निर्मिति में अनेक प्रकार की विचित्रता, विभिता, पवक्ता का दर्शन होता है । शरीर के आकार-प्रकार, रूप-रंग, इन्द्रिय-रचना, हलन चलन, गति, विचार, afae refधकता आदि आदि अनेक रूपों में एक दूसरे जीव में भिन्नता • .. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिगत होती है। यह भिन्नता इतनी अधिक है कि समस्त बीय जात विमित्रताओं का एक आश्चर्यजनकः संग्रहालय (अजायबघर) प्रतीत होता है । जीव जगत की विभिन्नसा, इतनी अनन्स हैं कि एक ही जाति के लोगों को भी परस्पर एक दुसरे से तुलना नहीं की जा सकती है। हम अपनी मनुष्य जाति को ही देख लें । सन्नके हाथ-पैर आदि अंग-गांग हैं, लेकिन भाकृति समान नहीं है, कोई लम्बा है तो कोई दिगना, कोई गौर वर्ण है तो कोई कृष्ण वर्ण आदि। यह तो हुई शारीरिक दृष्टि की विभिन्नता, लेकिन वोनिक दृष्टि की विभिन्नता का विचार करें तो किसी की बुद्धि मन्द है और कोई कुशाण नुधि, और. इसके बीच भी अनेक प्रकार की तरतमता देखने में आसी.ई. इसी प्रकारको अन्यान्य विभिन्नताएँ हम प्रतिदिन देखते हैं. अनुभव करसे एक माना। जाति में भी अनेकताओं की भरमार है सो अन्य पशु, पक्षी, देव, नारकी र में विद्यमान जीवों में पहने बाली भिन्नताभों की शाह लेना से सम्भव हो सकता है? फिर भी अध्यात्मविज्ञानी सर्वनों ने इन अनन्त भिन्नताओं का मार्गमा के रूप में वर्गीकरण करते हुए मार्गणा लक्षण कहा है..... जीथानों और गुणस्थानों में विद्यमान जीव जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों के द्वारा अनुमार्गण किये जाते हैं खो जाते हैं. सरर गनेशणी, मीमांसा की जाती है, उन्हें मार्गमा कहते हैं । ___ इस गोषणा के कार्य को सरल और व्यवस्थित रूप देने के लिए मार्गणा स्थान के चौदह विभाग किये हैं और इन पौदह विभागों के भी अचान्सर विभाग हैं। इनके नाम और अनान्तर भेदों की संज्या, नाम आदि यथास्थान इसी अन्य मैं अन्यत्र दिये गये जिनमें समस्त जीवों की बाय एवं मातरिक जीवन सम्बन्धी अनन्त भिन्नताएँ वर्गीकृत हो जाती है। इस तृतीय कर्मग्रन्थ में मानों के आधार ो गुणस्थानों को लेकर बन्धस्वामित्व का काथन किया गया है अर्थात किस-किस माणा में कितने मुमस्थान सम्भव हैं और उन मार्गणावर्ती जीवों में सामान्य से तथा गुणस्थानों के विभागानुसार कर्मबन्धः की योग्यताओं का क्यन किया गया है। ....... Frefareer कारण . . . . अर प्रत यह है कि जीदों में विद्यमान पिमित्रतामों, विविधताओं का Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण क्या है ? स 'क्या का समाधान करने के लिए विभिन दार्शनिकों, मिन्सकों ने अपने-अपने विचार एवं कृष्टिको प्रस्तुत किये हैं, जिनका संकेत श्वेताश्वतरोपनिषः १९ के निम्नलिखित श्लोक में देखने को मिलता है...... कालः स्वभावो निप्रतिपदच्छा भूतानियोनिः पुरुष इति पिश्यम् । संयोग एवा म स्वात्मभावादात्मायनोशः सुमधुःख हलोः ॥ कास, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथिव्यादि भूत और पुरुष-ये विभित्रता के कारण हैं | जीव स्याने दख-दुःस शाति के लिए है. वह न हैं। इसी प्रकार से अन्य-अन्य विचारकों ने अपने-अपने इष्टिकोण उपस्थित किये है । यदि उन सह विचारों का संकलन किया जाये तो एक महा निबन्ध तैयार हो सकता है। लेकिन यहां विस्तार में न जाफर संक्षेप में कारणों के रूप में निम्नलिखित विचारों के बारे में वर्षा करते हैं.. १ काल, २ स्वभाव, ३ नियति, ४ यहच्छा, ५ पौरुष, ६ पुरुष (ईश्वर)। ये सभी विचार परस्पर एक दूसरे का खंडन एवं अपने द्वारा ही कार्य सिद्धि का मंजुन करते हैं । इनका दृष्टिकोण क्रमशः नीचे लिखे अनुमार है। कालवाद-यह दर्शन काल को मुख्य मानता है । इस दर्शन का कथन है कि संसार का प्रत्येक कार्य बाल के प्रभाव से हो रहा है । काल के बिना स्वभाव, पौरुष आदि कुछ भी नहीं कर सकते हैं। एक मक्कि पाप या पुष्प कार्य करता है, किन्तु उसो समय उसका फल नहीं मिलता है। योग्य समय आने पर उसका अच्छा या बुग (शुभ-अशुभ फल मिलता है । यीम काल में सूर्य तपता है और शीत ऋतु में शीत पाहता है । इसी प्रकार मनुष्य स्वयं कुछ नहीं कर सकता है किन्तु * भय आने पर सब कार्य यथायोग्य प्रकार से होते जाते हैं । यह सब काल की महिमा है । कालवाद का दृष्टिकोण कालः सूजति भूतानि कालः संहरते प्रजा । कालः सुप्तेषु आगति कालोहि दुरलिकमः ।। १ महाभारत १.२४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का है त भूतों की सृष्टि करता है, संहार करता है । काल के प्रभाव से प्रजा का संकोच-विस्तार होता है । सभी के सो जाने पर भी काल सदैव जाग्रत रहता है । इसीलिए दुरसितम काल ही इस संसार की विचित्रता, विविधता और जीत्रों के सुख-दुःख आदि का मूल कारण है। स्त्र भावषाद-स्वभाषबाद का अपम अनूठा ही दृष्टिकोण है । उसके अपने सर्व है ! वह कहता है कि संसार में जो कुछ भी कार्य हो रहे हैं, वे सब अपनेअपने स्वभाव के प्रभाव से हो रहे हैं। स्वभाव के बिना काल, नियति आदि ... कुछ भी नहीं कर सकते हैं । आम की गुठली में आम होने का स्वभाव है, इसीलिये उससे आम का वृक्ष और फल प्राप्त होता है और नीम की निम्बोली में नीम का वृक्ष होने का स्वभाव है । नीम कक्ष्या और ईख मीठा क्यों है। सो इसका कारणा उन-उनमें विद्यमान स्वभाव है। स्वभाववाद के विचारों के लिये निम्नलिखित उद्धरण उपयोगी है यः कन्टकामा प्रकरोति समय विचित्रमा मगपशिना प . स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृस म कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः कांटों का नुकीलापन, मग त्र पक्षियों में पिपत्र-विचित्र म आदि होना स्वभाव से है । अन्य कोई कारण इम सष्टि के निर्माण आदि का नहीं दिखता है । सक स्वाभाविक है—नितक है, अन्य के प्रयत्न का इसमें सहयोग नहीं है। नियतिवाद-प्रकृति के अटल नियमों को नियति महते हैं । नियतिवाद का कहना कि जिसका जिस समय में नहीं जो होना है, वह होता ही है । सूर्य पूर्व से उदित होगा, कमल जल में उत्पन्न होगा, गाय, बैल आदि पशुओं के चार पैर और मनुष्य के दो हाथ, दो पर होंगे । ऐसा. क्यों होता है ? तो इसका एकमात्र कारण ऐसा होना नियत है। मखलि गोशालक इसी नियतिवाद . का अनुगामी था । उसका मत था कि प्राणियों के पलेश आदि के लिये कोई हेतु नहीं, प्रत्यत्य नहीं, बिना प्रत्यय, विना हेतु ही प्राणी मुख-दुःख, क्लेश पाते १ सूमातम टीका Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं आदि । नियतिवादी दृष्टिकोण के सम्बन्ध में सूचकृतांग टीका १/१/२ में संकेत किया गया हैप्राप्तध्यो निप्रति बसाश्रयेण योऽयः सोऽवश्यं भवति नृणां शुमामामो या मतानां महति कृतेऽपि प्रयरने माभाव्यं भवति म माशिनोऽस्ति माशः ।। ___ मनुष्यों को निर्यात के कारण जो भी शुभ और अशुभ प्राप्त होना है. वह अवश्य प्राप्त होता है । प्राणी कितना भी प्रशस्त कर ले, लेकिन जो नहीं होना है, वह महीं ही होगा और जो होना है, उसे कोई रोक नहीं सकता है । सब जीवों का सब कुछ नियत है, और वह अपनी स्थिति के अनुसार होगा। यहच्छावाद---जिस विषय में कार्यकारण परम्परा का सामान्य ज्ञान नहीं हो पाता है, उसके सम्बन्ध में पस्छा का सहारा लिया जाता है । यदृच्छा थानी अकस्मात ही कार्य-कारण का सम्बन्ध न जुड़ने पर ममीन कार्य की उत्पत्ति हो जाना । यहच्छा में एक प्रकार की उपेक्षा की भावना अलकती है, उसमें कार्यकारण भाथ आदि पर विचार करने का अवसर नहीं है। पोरुधवाय--पुरुषार्थ, प्रयत्न आदि इसके दूसरे नाम हैं । पुरुषार्थवाद का अपना दर्शन है । उसका कहना है कि संसार के प्रत्येक कार्य के लिये प्रयत्न होना जरूरी है। बिना पुरुषार्थ के कोई भी कार्य सफल नहीं होता है । संसार में जो कुछ भी उन्नति होती है, वह सब पुरुषार्थ का परिणाम है। यदि पेट में भूख मालूम पड़ती है तो उसकी निवृत्ति के लिये प्रयत्न करला पोहा, भूख की शाति विचारों से नहीं हो जायेगी । संसार में जितने भी पदार्थ हैं उनका स्वभाष आदि अपमा-अपना है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति पुरुषार्थ के बिना नहीं हो सकती है । इसीलिये कहा है कुरु कुरु परुषार्थ नि सानन्द हेतोः ।। मुक्ति सुख की प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ करो ! पुरुषार्थ करो ! उक्त वादों के अलावा सबसे प्रमुख वाद है--पुरुषवाद--- ईश्वरवाद । ईश्वरवाद के अतिरिक्त पूर्वोक्त विचारधारायें तो अपने-अपने चिन्तन सक १ मझिम निकाय २/३.६ में नियतिवाद का वर्णन किया गया है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमित रही और ईश्वरवाद के विशेष प्रभावशाली बन जाने पर एक प्रकार से विलुप्त-सी हो गई और प्रमुख रूप से ईश्वर को ही इस बोक-वैचित्य एवं जीवजगत के सुख-दुःख आदि का कारण माना जाने लगा। पुरुषकार--- सामान्यतः पुरुष ही इस जगत का कर्ता, हर्ता और विधाता है-यह मत पुरुषवाक्ष कहलाता है। पुरुषबाद में दो विचार गभित हैं. एक ब्रह्मवाद और दूसरा ईश्वरकतुं रखवाव । महाबाद में ब्रह्म हो जगत के चेतनअवेतन, मूर्त-अमूर्त आदि सभी पदार्थों का अपादान कारण है और ईश्वरवाद में ईश्वर स्वयंसिद्ध अड़-चेलान पदार्थों में परस्पर संयोजन में निमित बनता है। उपादान कारण और निमिस कारण के द्वारा ब्रह्म और ईश्वर यह दो भेद पुरुषवाद के हो जाते हैं। ब्रह्मवाद का मन्तव्य है कि जैसे मकड़ी जाले के लिये, वटवृक्ष जों लिये कारण होता है, उसी तरह पुरुष समस्त जगत के प्राणियों की सृष्टि, स्थिति, प्रलय का कारण है । जो हुआ है, जो होगा, जो मोक्ष का स्वामी है. आहार से वृद्धि को प्राप्त होता है. गतिमान है, स्थिर है, दूर है, निकट है, धेतन और अचेतन सब में व्याप्त है और सबके बाल है, वह सब ब्रह्म ही है। इसलिये इसमें नानात्व नहीं है, लेकिन जो कुछ भी दिखता है वह बह्म का प्रपंच दिखता है और ब्रह्म को कोई नहीं देखता।' १ कर्णनाम इवाशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव लक्षः स हेतु सर्व जन्मिनाम् ।। ---उपनिषद २ (क) पुरुष एवेदं सर्थ यद्भूतं यन्त्र भाष्यम् । उतामृतत्वस्येशामा यदन्नेनाति रोहति । ...म्वेव पुरुषसक्स (ख) यदेजति यन्नजति यद दूरे यदन्तिक । बसन्तरस्य सर्वस्प यदुत सर्वस्यारम चाहतः ।। —ईशावास्योपनिषद (ग) सर्व व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । * आराम तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कंचन !! ----छान्दोग्य उ० ३.१४ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) Eurवाद में ईश्वर को जगत में उत्पन्न होने वाले पदार्थों, जीवों को सुख-दुःख देने आदि के प्रति निमित्त माना है। इस विचार की पुष्टि के लिये वह कहता है कि स्थावर और जंगम ( जड़-चेतन) रूप विश्व का कोई पुरुषविशेष कर्ता है। क्योंकि पृथ्वी, वृक्ष आदि पदार्थ कार्य हैं और इनके कार्य होने से किसी बुद्धिमान कर्ता के द्वारा निर्मित हैं, जैसे कि घट आदि पदार्थ पृथ्वी आदि भी कार्य है अत: इनको बुद्धिमान कर्ता के द्वारा बनाया हुआ होना चाहिये और इनका जो बुद्धिमान कर्ता है, उसी का नाम ईश्वर है । सृष्टि के निर्माण की तरह ईश्वर उन्हें स्वर्ग-नरक आदि प्राप्त कराने में और परतस्थ हैं; वे तो ईश्वर को अनुभव करते हैं - —— संसार के प्राणियों को सुख-दुःख देने, कारण है । संसार के जीव तो दीन, आशा एवं प्रेरणा से सुख-दुःख का अशो सुखदुःखयोः । जन्तुरमीशोऽयमात्मनः ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ इसी प्रकार अन्यान्य विचारकों ने अगल-पंचिल्य के सम्बन्ध में अपने-अपने faere are किये हैं और उन विचारों का मन कर दूसरों के विचारों का खण्डन किया है । इस खंडन-मंडन का परिणाम यह हुआ कि साधारण जनों में भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गई और जो विचार सत्य को समझने-समझाने में सहायक बन सकते थे वे समन्वय के अभाव में सत्य के मूल मर्म को प्राप्त करने में असमर्थ हो गये । षिय : जंन दृष्टि लेकिन भगवान महावीर ने लोक- वैचित्य के एक विचारों के संघर्ष का समाधान किया । यह समाधान दो प्रकार से किया गया । जिन विचारों का समन्वय किया जा सकता या उनका समन्वय करके और जिन विचारों की उपयोगिता ही नहीं थी उनका सयुक्तिक खंडन और विचित्रता के मूल कारण २ महाभारत वनपर्यं Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संकेत करके संसार के सामने उस सत्य को रखा जो जीवन निर्माण के लिये उपयोगी आदर्श प्रस्तुत करता है। पूर्व में यह संकेत किया जा चुका है कि लोक में दो प्रकार के पदार्थ हैं..सधेतन और अचेतन । इन दोनों प्रकार के पदार्थों में बैंत्रिय, वैविध्य परिलक्षित होता है । जहाँ सक अचेतन पदार्थगत विचित्रसाों एवं आंशिक रूप से सचेतन तत्त्व की विविधताओं का सम्बन्ध है, उनके बारे में जैन इष्टि का यह मंतव्य है कि काल आदि पादों का समन्दय कारण है। किसी कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण से नहीं हो जाती किस्सु उस कार्य की उत्पत्ति आवश्यक सभी कारणों के मिलने पर होती है । ऐसा कभी नहीं होता है कि एक ही शक्ति अपने यस पर कार्य सिद्ध कर दे । हो, यह हो सकता है कि किसी कार्य में कोई एक प्रधान कारग हो और दूसरे गोग, किन्तु यह नहीं होता कि कोई अकेला ही कारण म्थतन्त्र *प से कार्य सिद्ध कर। यह कथन सयुक्तिक एवं पक्ष है। मारः ख नाम पती का अनुभव करते है एवं प्रतीति भी इसी प्रकार की होती है । लेकिन पुरुषवाद-ब्रह्मवाद और ईश्वरकत त्वदाय... लो लोक क ससन या अधेतन पदार्थों की विचित्रताओं और विविधताओं का किसी भी रूप में... मुख्य या गौण रूप में कार नहीं बनता है। क्योंकि जिस रूप में ब्रह्म और ईश्वर के स्वरूप को माना गया है, उस रूप में उसकी सिद्धि नहीं होती है और उनके महत्व को हानि ही पहुंचती है । लोक के सम्बन्ध में पुरुषवाद की धारणा का पूर्व में यत्किचित् संकेत किया है, लेकिन उस धारणा को निरर्थकता बतलाने के लिये यहाँ कुछ विशेष विचार करते हैं। पुरुषवाद का प्रथम रूप ब्रह्मवाद हैं और उसका यह पक्ष है कि एक ब्रह्म हो सत् है, उसके चाना रूप नहीं है, लेकिन जो कुछ भी नानारूपता हमें दिखलाई देती है वह सब प्रपंच है, यानी ब्रह्म का माया प है, लेकिन प्रहा स्वयं किसी को दिखलाई नहीं देता है और यह प्रपंच मिथ्या रूप है, क्योंकि उसमें मिथ्यारूपता प्रतीत होती है । जो मिष्यारूप प्रतीत होता है, वह मिथ्या है, असद है। जैसे सीप के टुकड़े में चांदी की मिथ्या प्रतीति होती है । उसी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार यह दृश्यमान जगल-प्रपंच मिथ्या प्रतीत होता है, इसीलिये यह मिथ्या है । इसका अपर नाम ब्रह्मातवाद है,। लेकिन जब ब्रह्मवाद के उक्त मंतव्य करे तर्क की कसौटी पर परखते हैं तो वह उपहासनीय-सा प्रतीत होता है । प्रथम तो यह कि यह प्रपंच रूप अगस्त पषि ब्रह्मा को माया है तो यह माया ब्रह्म से भिन्न है, हा अभिन्न भिन्न मानने पर ब्रह्म और माया इन दो पदार्थों का समाव मानना पड़ेगा । उस स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता है के मात्र एक प्रा हा है, अद्वैत है । यदि माया और मा अभिन्न है तो इस आगतिक प्रपंच की मायारूपता सिख नहीं होती है । यदि कहा जाये कि माया सतरूप है तो बड़ा और माया इन दो पदार्थों का सबभाव होने से अद्वैत की सिद्धि नहीं होती है । माया को असस् माना जाये तो तीनों लोकों के पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि प्रारूप एक ही तत्त्व विभिन्न पदार्थों के परिणमन में उपादान कैसे बन सकता है ? जगत के समस्त पदार्थों को माया कह देने मात्र से उनका पृथक-पृथका अस्तित्न व व्यक्तित्व नष्ट नहीं किया जा सकता है । उनका व्यक्तित्व, अस्तित्व अपना-अपना है । एक भोजन करता है तो दूसरे को सृप्ति नहीं हो जाती है । एक जीव का मुख सनका सुख नहीं माना जा सकता है। अतः जमत के अनन्त जड़-चेत्तर मत पदार्थों का अपलाप करके केवल एक पुरुष को अनन्त कार्यों के प्रति उपादान मानना काल्पनिक प्रतीत होता है और कल्पना से रमणीय भी मालूम होता है । अगत के पदार्थों में सत् का अन्वय देखकर एक सत् तत्व की कल्पना करना और उसे ही वास्तविक मानता प्रतीतिविरुद्ध है। इस अवकान्त की सिसि अधि अनुमान आदि प्रमाण से की जाती है तो हेतु, और साध्य इन दो के पृथक्-पृषक होने से अत की बजाय हुँत को सिद्धि होती है तथा कारण कार्य का, पुण्य-पाप का, कर्म के सुख-दुःख फल का; बहलोक-परलोक का, विद्या अविधा का, बन्ध-मोक्ष आदि का वास्तविक भेद ही नहीं रहता है। अतः प्रतीतिसिद्ध जगहस्यवस्था के लिये बयाद का मानमा उबित नहीं है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषवाद का दूसरा रूप है ईश्वरवा-ईश्वर कर्तृत्ववाद । इस जगतव्यापिनी विचित्रता का कतई ईश्वर है. पद ईश्वरकत नववाद का सारांशा है । ईश्वर को महानता बतलासे हुए ईश्वरवादी कहते हैं कि वह अद्वितीय है, सर्वव्यापी, स्वतन्त्र, निस्य है और ईश्वर के लिये प्रयुक्त इन विशेषणों का अर्थ इस प्रकार किया जाता है---- ईश्वर एक है.--- यानी भनितीय है। क्योंकि पदि बहुत से ईश्वरों को संसार का कर्ता माना जायेगा तो एक दूसरे की इच्छा में विरोध होने पर एक वस्तु के अन्य रूप में भी निर्माण होने पर संसार में ऐक्य व फ्रम का अभाव हो जायगा । ईश्वर सर्व पापी है. यदि ईश्वर को नियल देशव्यापी माना जाये तो अनियत स्थानों के समस्त पदार्थों की यथारीति से उत्पत्ति मन नहीं है । ईश्वर सर्वक है. यदि ईश्वर को सर्वज्ञ न मानें तो स्थायोग्य उपादान कारणों के न जानने पर वह उनके अनुरूप कार्यों को उत्पति में कर सकेगा। ईश्वर स्वतन्य है-.-बोषिः वह अपनी इच्छा से ही संपूर्ण प्राणियों को सुख-दुःख का अनुभव कराता है । ईश्वर नित्य हैनित्य यानी अदिमाशी, अनुत्पन और स्थिर रूप हैं । अमिस्थ मानने पर एक ईश्वर से दूसरे ईश्वर की उत्पत्ति, दूसरे से तीसरे को, इस प्रकार परम्परा का मन्स नहीं आ सकेगा और वह अपने अस्तित्व के लिये। पराश्रित हो जायेगा। ईश्वर को का मानने के सम्बन्ध में निम्नलिखित युक्तियों का अबलम्बन लिया जाता है'-- १ ---सृष्टि कार्य है अतः उसके लिये कोई कारण होना चाहिधे । २. सुष्टि के आदि में दो परमाणुओं में सम्बन्ध होने स इमणुक को उत्पत्ति होती है, इस आयोजन क्रिया का कोई कर्ता होना चाहिये । . ३. सुष्टि का कोई आधार होमा काहिये । en--AIR... १ ग्यायकसुमजिलि Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.-कपड़ा बुनने, घड़ा बनाने आदि कार्यों को पुष्टि के पहले किसी ने सिखाया होगा। इसलिये कोई आदि शिक्षक होना चाहिये। .....कोई अति का बनाने वाला होना चाहिए। ६- वेदवाइयों का कोई का होना चाहिये । ७ - दो परमाणुओं के सम्बन्ध से सणुक बनता है, इसका कोई माता होना चाहिये । ईश्वर का स्ववादियों की उरत कल्पनायें स्वयं अपने आप में विचारणीय हैं। क्योंकि सर्वप्रथम यह सोसना होगा कि जमत के निर्माध करने में ईश्वर की प्रवृति अपने लिए होती है अथवा दूसरों के लिए ? ईश्वर कृतकृत्य है, उसकी सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति हो सकी है, अत: वह अपनी इच्छायों को पूर्ण करने के लिए जगत का निर्माण नहीं कर सकता । यदि ईश्वर दूसरों के लिए सृष्टि की रचना करता है तो उसे बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता है । इस स्थिति में ईश्वर की स्वतन्त्रता में रुकावट आती है और उसे दूसरे की इमछा पर निर्भर रहना पड़ता है। करुणा से बाध्य होकर भी ईश्वर सृष्टि का निर्माण नहीं करता है । उस स्थिति में अगत के संपूर्ण जीवों को सुखी होना चाहिए था। कोई दुखी नहीं हो, यह करुणाशील व्यक्ति ध्यान रखता है। ईण्न र सबंगत भी नहीं है । यदि शरीर से सर्वगत माना जाये सो ईश्वर के तीनों लोकों में व्याप्त हो जाने से दुसरे बहने वाले पदार्थो को रहने का अवकाश ही नहीं रहेगा और यदि शान की अपेक्षा सर्वमत माना जाये तो वेद का विरोध होता है । क्योंकि वेद में ईश्वर को सर्वगत मानने के बारे में कहा है विश्वतश्चल विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिस्त विश्वतः पाद् । ईश्वर सर्वत्र नेत्रों का, मुख का, हाथों और पैरों का धारक है, यानी वह अपने शरीर के द्वारा सर्वश्यापी है । शारीरवान मानने पर दूसरा यह मी क्षेप Mi १ शुक्ल ऋजुर्वेद संहिता १७१६ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ । जाता है कि जनसाधारण की तरह उसका शरीर निर्माण अदृष्ट निमित्तक है - जैसे साधारण प्राणियों के शरीर का निर्माण उन-उनके अदृष्ट ( भाग्य, पूर्वकृत कर्म) से हुआ है, उसी प्रकार ईश्वर का शरीर भी अदृष्ट के कारण बना है और अशरीरी होने पर हृमयमान पदार्थों को उससे उत्पत्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि कारण के अनुरूप कार्य की उत्पति होती देखी जाती है | यदि यह कहा जाये कि ईश्वर का जगत रचने का स्वभाव है तो उसे जगत निर्माण के कार्य से कभी विश्राम नहीं मिलेगा और यदि विश्राम लेता है तो उसके स्वभाव को हानि पहुंचती है। यदि कहा जाये कि ईश्वर का जगत रखने का स्वभाव नहीं है तो ईश्वर कभी जगत को नहीं बना सकता है। सृष्टि और संहार यह दो अलग-अलग कार्य हैं और ईश्वर जगत को राष्टि व संहार दोनों कार्य करता है, तो उसमें दो स्वभाव मानने पड़ेंगे। क्योंकि निर्माण और नाश दो भिन्न-भिन्न कार्य हैं और एक स्वभाव से ही दोनों कार्य होने पर सृष्टि व संहार एक हो जायेंगे तथा एक स्वभाव रूप कारण से परस्पर विरोधी दो का उपन नहीं हो सकते हैं । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि aar teri aarfare से aपने अस्तित्व एवं तथा ईश्वर ने भी असत् से किसी एक भी सत् को वे सब परस्पर सहकारी होकर प्राप्त सामग्री के रहते हैं, तब सर्वशक्तिमान ईश्वर को मामने की जब जगत में सचेतन और स्वरूप से स्वतंत्र सिद्ध हैं उत्पन्न नहीं किया है और अनुसार परिणमन करते. Rear भी या है ? साथ ही जगत के उद्धार के लिए किसी ईश्वर की कल्पना करना तो पदार्थों के freeरूप को ही परतंत्र बना देना है 1 प्रत्येक प्राणी अपने विवेक और प्यार से अपनी उन्नति के लिए उत्तरदायी है, न कि अन्य किसी विधाता के प्रति जिम्मेदार हैं और न उससे प्रेरित होकर ही वह कर्तव्य एवं अवतंय का बोध प्राप्त करता है । अतः जगत में खिल्य के लिये पुरुषवाद निरर्थक है । प्राणियों में विद्यमान पूर्व कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सचेतन विषमता के कारण ईश्वर आदि नहीं है किन्तु स्वयं जीव अपने कर्मों के विकास व विनाश, उत्थान व पतन के मार्ग पर अग्रसर होता है । इसीलिए जैन दृष्टि ने कर्मवाद को जीव जगत की favaar का कारण माना है । यह दृष्टि Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) कल्पित नहीं किन्तु वास्तविक तथ्यों पर आधारित है। कर्मवाद का मूल प्रयोजन जगत की दृश्यमान विषमता की समस्या को सूझलाना है । कर्म का सामान्य अभियार्थ किया है, लेकिन जब उसके व्यंजनात्मक अर्थ को ग्रहण करते हैं तो जीव द्वारा होने वाली किया से आत्मशक्ति को अच्छाfer करने वाले पौगलिक परमाणुओं का संयोग होता है और इस संयोग के are at को fafar अवस्थानों की प्राप्ति होना कर्म कहलाता है और यही कर्म प्राणिजगत की स्वरूप स्थिति की विभिन्नताओं, विविधताओं, विषमताओं का बीज है। इस बीज के द्वारा जीव नाना प्रकार की आधि, व्याधि, और उपाधियों को प्राप्त करता है कसुणा उवाही जाय । इसी बात करू तुर्की के शब्दों में-कर्म प्रधान fवश्य कर रखा जो जस कर हि सो तस फल चला। प्राणी जैसा करता है, वैसा ही फल प्राप्त होता है। इसमें किसी प्रकार की मलभता नहीं है। जनसाधारण में सो कर्म के बारे में यह मान्यता है -- करमगति टा नहि टरं । भारतीय कों ने तो कर्मसिद्धान्त को अति महत्वपूर्ण स्थान दिया है। जिसने भी आत्मवादी -जैन, सांख्यादि अनात्मवादी बी एवं यहाँ तक कि ईश्वरवादी विचारक हैं, सभी मे कम की ससा और उसके द्वारा जीव को सुख-दुःख आदि की प्राप्ति होना माना है और कर्मविपाक के कारण यह जीव विविध प्रकार की विषमताओं को प्राप्त करता है। जिसने जैसा कर्म का अन्ध किया है, उसके अनुसार सी-सी उसको मति और परिणति होती जाती है। पूर्ववद्ध कर्म उदय में आता है और उसी के अनुसार नवीन कर्मबन्ध होता जाता है। यह चक्र अनादि से चल रहा है । कर्म के आशय को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न दर्शनियों ने माया अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार आदि शब्दों का १ आचारांग ३१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग किया और उन सब का फलितार्थ यही निकलता है कि जीव द्वारा की गई प्रत्येक क्रिया, प्रवत्ति ऐसे संस्कारों का निर्माण करती है जिससे यह ओव तत्काल या कालान्तर में सुख-दुःवरूप फल को प्राप्त करता रहता है और वे जीव को शुभ-अशुभ फल प्राप्त कराने के कारण बनते हैं। लेकिन जब पछ् आत्मा अपनी विशेष शक्ति से समस्त संस्कारों से रहित हो नासनानन्य हो जाती है तब वह मुक्त कहलाती है और इस मुक्ति के श६ पुनः कर्म आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं होते है और न अपना फल ही देते हैं। सचेतन तत्त्व की विचित्रता का समाधान कर्म को माने दिना नहीं हो सकता है । आश्मा अपने पूर्वात कमों के अनुसार वैसे स्वभाव और परिस्थितियों का निर्माण करती है, जिसका प्रभाव बाह्य सामग्री पर पड़ता है और उनके अनुसार परिणमन होता है ! तदनुमार कर्म-पल की प्राप्ति होती है । अब कर्म के परिपाक का समय आला है तन उनः उदय काल में भी हरा . क्षेत्र, काल, भाव की सामग्री होती है, वैसा ही उसका तीय. सद, मध्यम फल प्राप्त होता रहता है।' अब प्रश्न यह होता है कि जीव के साथ कामो का सम्बन्ध जुहा कसे, जिससे वह सुख-दुःख आदि रूप विषमताओं का भोक्ता माना जाता है और कर्म का उस उस रूप में फल प्राप्त होता है तो इसका उत्तर है कि माम के झानदर्शनमय होने पर भी बैंकारिक -.. कथामात्मक प्रति मैं द्वारा में पुदगलों को ग्रहण करता रहता है और इस ग्रहण करने की प्रत्रिया में मन-वचनकाय का परिस्पन्दन सहयोभी बनता है 1 नमः कषायाम जीव में विमान है तब तक तीन विपाकोदय बाले (फल देने वाले कर्मों का बन्ध होता है। इन इंधे हुए कर्मों के अनुसार शुभाशुभ फल प्राप्त होता रहता है । इस फल. प्राप्ति का न तो अन्य कोई प्रदाता है और न सहायक । यदि कर्मफल की प्राप्ति में दूसरे को सहायक माना जाये तो स्वकृत कर्म निरर्थक हो जायें । दूसरे बात यह भी है कि यदि जीव को कर्मफल की प्रारित दूसरे के द्वारा होना १ सुचिरणा कम्मा सुचिपगा। फला हवं ति । धिषणा कम्मा दुनिष्णा कला हदेखि । ....देशातः ६ २ सकषायत्वाम्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्त । सत्त्वार्थसूत्र १२ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) माना जाये तो इसमें जीव के पुरुषार्थ की हानि ही है। अब जीव को फल की प्राप्ति पराधीन है तो फिर सत्कर्मों में प्रवृत्ति एवं कर्मों से निवृति के लिए उत्साह जागत नहीं होगा और न इस ओर प्रयत्न परुषार्थ किया जायेगा । उक्त कथन का सारांश यह है कि संसारो जीवों में दृश्यमान विचित्रताओं, farmerओं आदि का कारण कर्म है । कर्माधीन होकर ही संसार के अनन्त tara fवभिन्न प्रकार के शरीरों, इन्द्रियों को न्यूनाधिकता वाले हैं। इतना ही नहीं, उनके आत्मगुणों के विकास की अल्पाधिकता का कारण भी कर्म है । मार्गणाओं में कबन्ध के कारण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक fer से युक्त इन्हीं संसारी जीवों का वर्गीकरण किया गया है । माणायें जीवों के विकास की सूचक नहीं है किन्तु स्वाभाविक वैभाविक रूपों का अनेक प्रकार से वर्गीकरण करके उनका व्यवस्थित रूप दिया गया है जिससे कि उनकी शारीरिक क्षमता का और क्षमता के कारण होने वाले आत्मिक free की तरलता का सही रूप में अंकन किया जा सके । मार्गणाओं में स्वामित्व के ज्ञान की उपयोगिता arat कर्मग्रन्थ में मार्गणाओं के आधार से जीवों को कर्मबन्ध की योग्यता का दिग्दर्शन कराया गया है, तो प्रश्न होता है कि जब दूसरे कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों के अनुसार समस्त संसारी जीवों के चौदह विभाग करके प्रत्येक विभाग की कर्मविषयक वन्ध, उदय, जदौरणा और सत्ता सम्बन्धी योग्यता का वर्णन किया जा चुका है और उससे सभी जीवों के आध्यात्मिक उत्कर्ष - अपकर्ष का ज्ञान हो जाता है तब मार्गणाओं के आधार से पुनः उनकी बन्धयोग्यता बतलाने की क्या उपयोगिता है और ऐसे प्रयास की आवश्यकता भी क्या है ? 2 इसका उत्तर यह है कि समान गुणस्थान होने पर भी भिन्न-भिन्न जाति के जीवों को न्यूनाधिक इन्द्रिय वाले जीवों की भिन्न-भिन्न लिग (वेद) धारी जीवों की, विभिन्न कषाय परिणाम वाले जीवों की योग वाले जीवों की तमा इसी प्रकार ज्ञान दर्शन संयम आदि आत्मगुणों की दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवों को योग्यता बतलाने के लिये मार्गणाओं का आधार लिया गय है। इससे दो लाभ हैं एक तो यह है कि अमुक गति आदि वाले जीव. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) } : के गुणस्थान कितने हो सकते हैं और दूसरा यह कि गुणस्थानों के समान होने पर भी जीव अपने शरीर, इन्द्रिय आदि को अपेक्षा कितने कर्मों का बन्ध करते हैं । यह कार्य गुणस्थानों की अपेक्षा हो स्वामित्व बतलाने से सम्भव नहीं हो सकता है। अतः आध्यात्मिक दृष्टि वालों को मनन करने योग्य है । ग्रन्थ परिचय sifare का ज्ञान कराने वाले अनेक ग्रन्थ हैं। उनमें कर्मविपाक, कर्मस्तव, स्वामित्व, पडशीति, ure और सप्ततिका नामक छह कर्मग्रन्थ हैं । इनको प्रामीन षट् कर्मग्रन्थ कहा जाता है। इनमें रचयिता भी मिश्र भित्र आचार्य हैं और रचना काल भी पृथक-पृथक है। इनके साथ प्राचीन विशेषण उनका पुरानापन बतलाने के लिये नहीं लगाया जाता है किन्तु उसके आधार सेवा के बने नवीन कर्मग्रन्थों से उनका पाय बतलाने के लिये लगाया गया है | श्रीमद्देवेन्द्र ने उक्तों का अनुसरण करत हुए पाँच कर्मग्रन्थ बनाये हैं। जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार है- लेकिन उनका कोई भी विषयों का भी संग्रह १. कर्मविपाक २ कर्मere. ३ स्वामित्व ४. परसीति ५ शतक ये कर्मग्रन्थ परिमाण में प्राचीन कर्मग्रन्थों से छोटे हैं, वर्ण्य विषय छूटने नहीं पाया है और अन्य अनेक नये किया गया है। फलतः कर्मसाहित्य के अध्येताओं ने इन ग्रन्थों को अपनाया और कतिपय विद्वानों के सिवाय साधारण जन यह भी नहीं जानते कि श्री देवेन्द्रसूरि के कर्मग्रन्थों के अलावा अन्य कोई प्राचीन कर्मग्रन्थ भी है। सामान्य रूप के कर्मग्रन्थों का प्रतिपादित विषय कर्मसिद्धान्त है। लेकिन जब प्रत्येक ग्रन्थ के को जानने की ओर उन्मुख होते हैं तो यह ज्ञातव्य है कि प्रथम कर्मग्रन्थ में ज्ञानावरण आदि कर्मों और उनके भेदप्रभेदों के नाम तथा उनके फल का वर्णन है। दूसरे कर्मचन्द में गुणस्थानों का स्वरूप समझाकर उनमें कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय उदीरणा और मत्ता का विचार किया गया : तीसरे कर्मग्रन्थ में मार्गेणाओं के आश्रय से कर्म प्रकृतियों के बन्ध के स्वामियों का वर्णन किया गया है कि अमुक मार्गणा वाला जीव किन-किन और कितनी प्रकृतियों का बन्ध करता है । चतुमं कर्मग्रन्थ में जीवस्थान, मार्गेणास्थान, गुण Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) r स्थान, भाव और संख्या से विभाग करके उनका विस्तार से वर्णन किया गया है। पंचम कथ में प्रथम कर्मग्रन्थ में afra प्रकृतियों में से कौन-कौन सी ध्रुव, अभूव, बन्ध, उदय, सत्ता वाली हैं. कौन-सी सर्व देशघाती अपाती, पुण्य पाप, परायर्तमान अपरावर्तमान है और उसके बाद उन प्रकृतियों में कौनसी क्षेत्र, जीव भव र पुद्गल विपाकी है यह बतलाया गया है। इसके बाद कर्मप्रकृतियों के प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश व इस बार प्रकार के बन्धों का स्वरूप बतलाया गया है तथा उनसे संबन्धित अन्य कथनों का समावेश करते हुए अन्त में उपशम श्रेणी क्षपक श्रेणी का पथ किया गया है। तृतीय कर्म का विषय प्रस्तुत कर्मग्रन्थ में गति आदि १४ मागंणाओं के उत्तरभेदों में सामान्य व गुणस्थानों की अपेक्षा कर्मकृतियों के गंध को बताया है। यानी किस मार्पणा वाला जीन fear - कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है । यया ग्रन्थ के प्रारम्भ में मार्गणात्रों और उनके उसरमेदों का कम-क्रम से गति, इन्द्रिय काय आदि मार्गाओं के 1 नामोल्लेख नहीं है लेकिन प्रभेदों का आय लेकर स्वामित्व का कथन किया है, जिससे अध्येता मार्गणाओं के मूल और उनके अवान्तर भेदों को सहज में समझ लेता है। 1 इस ग्रन्थ और प्राचीन कर्मम्य का वर्ण्यविषय समान है लेकिन इन दोनों में यह अन्तर है कि प्राचीन में विषय वर्णन कुछ विस्तार में किया गया है और इसमें क्षेत्र से लेकिन उसका कोई भी विषय इसमें छूटा नहीं है। गोम्मटलेकिन सार कर्मकाण्ड में भी इस ग्रन्थ के विषय का वर्णन किया गया है। उसकी वर्णन कुछ भिन्न है तथा जो विषय तीसरे कर्मग्रन्थ में नहीं है, परन्तु जिस विषय का वर्णन अध्ययन करने वालों के लिये उपयोगी है, वह सब कर्मे में है । तीसरे कर्मग्रन्थ में मागंगाओं में बन्धस्वामित्व का वर्णन किया arr है किन्तु कर्मकांड में बन्धस्वामित्व के अतिरिक्त उदय, उदीरणा व सत्तास्वामित्व का भी वर्णन है । यह वर्णन अभ्यासियों के लिए उपयोगी होने से परिशिष्ट के रूप में संकलित किया गया है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभवतः कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार कर्मकाण्ड के वर्णन में कहीं-कहीं भिन्नता हो सकती है । लेकिन ग्रह मित्रता आंशिक होगी और उसकी अपेक्षा समानता अधिक है । अत: जिभानुजन वादे-सादे जायते तत्त्वजो की दृष्टि से गोम्मटसार कर्मकाण्य . जदत अंश की उपयोगिता समा३२ कर्मसाक्षिय के तुलनात्मक अध्ययन की ओर प्रवृत्त हों, यह आकांक्षा है । अन्स में पाठकों को अब तक कम साहित्य पर लिखित विविध ग्रन्थों का ऐतिहासिक परिचय भी कर दिया है, ताकि विषय के शिज्ञासु, इन ग्रन्थों के परिशीलन की ओर आकृष्ट हों। प्रथम तीनों भाग की मूल गाथाएं भी इसलिए दी गई है कि कर्मग्रन्थ के रसिक उन्हें कण्ठस्थ करके पूरै ग्रन्थ को हाई हृदयंगम कर सकें । कुल मिलाकर प्रयत्न यह गया किया है कि अन्य सभी दृष्टियों से उपयोगी बन सके । मूल्यांकन पाठकों के हाथ में है। ...श्रीचन्द सुराना 'सरस' - देवकुमार जैन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दे वीरम् श्रीमन देवधरि विरचित बन्धस्वामित्व तृतीय कर्मप्रस्थ बन्धविहाणाधम, क्षय सिपिरमाणजिन । गइयाईसु बुच्छ, समासओ बंधसामित ॥१५॥ गाधार्थ-कर्मबन्ध के विधान से विमुक्त, चन्द्रमा के समान सौम्य श्री वर्धमान (वीर) जिनेश्वर को नमस्कार करके गति आदि मार्गणाओं में वर्तमान जीवों के बन्धस्वामित्व को संक्षेप में कहता है। विशेषार्थ-ग्रन्थकार ने ग्रन्थारम्भ में मंगलाचरण करते हुए ग्रन्थ में वर्णित विषय का संक्षेप में संकेत किया है। आरमप्रदेशों के साथ कर्म के सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं और यह सम्बन्ध मिथ्यात्वादि कर्मबन्ध के कारणों द्वारा होता है। अर्थात् मिध्यावादि कारणों द्वारा आत्मा के साथ होने वाले कर्मबन्ध के सम्बन्ध को कर्मविधान कहते हैं । इस कर्मविधान से विमुक्त यानी मिथ्यात्वादि कारणों से सर्वथा रहित होकर चन्द्रमा के समान प्रकाशमान, सौम्य और केवलज्ञानरूप श्री लक्ष्मी से समृद्ध वर्धमान-धीर जिनेश्वर की वन्दना करके संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवों के गति आदि मार्गणाओं की अपेक्षा संक्षेप में बन्धस्वामित्व-कौन-सा जीव कितनी प्रकृतियों को बांधता है—का वर्णन इस ग्रन्थ में आगे किया जा रहा है। मार्गणागति आदि जिन अवस्थाओं को लेकर जीव में गुणस्थान, जीवस्थान आदि की मार्गणा-विचारणा, गवेषणा की जाती है, उन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ asterfer अवस्थाओं को मार्गणा कहते हैं । अर्थात् जाहि व आसु न जीवा after जहा तहा दिट्ठा - जिस प्रकार से अथवा जिन अवस्था--- पर्यायों आदि में जीवों को देखा गया है. उनकी उसी रूप में विचारणा, गवेषणा करता मार्गणा कहलाता है। love 1 संसार में जीव अनन्त हैं । प्रत्येक जोन का बाह्य और आभ्यंतर जीवन अलग-अलग होता है। शरीर का आकार, इन्द्रियाँ, रंग-रूप, विचारrक्ति, मनोबल आदि farai में एक जीव दूसरे जीव से भिन है | यह भेद कर्मजन्य औदयिक, औtafts, क्षायोपशमिक और क्षायिक भावों के कारण तथा सहज पारिणामिक भाव को लेकर होता है | इन अनन्त भिताओं को ज्ञानियों ने ate free में faभाजित किया है। इन द विभागों के अवान्तर भेद ६२ हो । जीवों के बाह्य और आभ्यन्तर जीवन के इन विभागों को मार्गणा कहा जाता है । ज्ञानियों ने जीवों के आध्यात्मिक गुणों के विकासक्रम को ध्यान में रखते हुए, दुसरे प्रकार से भी चौदह विभाग किये हैं। इन विभागों को गुणस्थान कहते है । ज्ञानीजन जीव की मोह और अज्ञान की अवस्था को निम्नतम अवस्था कहते हैं, और मोहरहित सम्पूर्ण ज्ञानावस्था की प्राप्ति को जीव की उच्चतम अवस्था अथवा मोक्ष कहते हैं । निम्नतम अवस्था से शनैः शनैः मोह के आवरणों को दूर करता हुआ जीव आगे बढ़ता है. और आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का विकास करता है । इस विकास मार्ग में are ete अवस्थाओं में से गुजरता है । विकासमार्ग की इन श्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहा जाता है। इन क्रमिक असंख्यात अवस्थाओं को भी ज्ञानियों ने चौदह भागों में विभाजित किया है। इन चौदह विभागों को शास्त्रों गुणस्थान कहते हैं। णा और गुणस्थान में अन्तर मार्गणा में किया जाने वाला Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतीय कर्म ग्रन्थ विचार कर्म की अवस्थाओं के तरतम भाव का विचार नहीं है, किन्तु शारीरिक, मानसिक और शामगि शिनाओं से मिली का विचार मार्गणाओं द्वारा किया जाता है। जबकि गुणस्थान कर्मपटलों के तरतम भावों और योगों की प्रवृत्ति-निवृत्ति का ज्ञान कराते हैं। मार्गणाएं जीव के विकास क्रम को नहीं बताती हैं, किन्तु इनके स्वाभाविक वैभाविक रूपों का अनेक प्रकार से पृषक्करण करती हैं। जबकि गुणस्थान जीव के विकास-क्रम को बताते हैं और विकास की कमिक अवस्थाओं का वर्गीकरण करते हैं। मार्गणाएँ सहभावी हैं. और गुणस्थान क्रमभाषी हैं। अर्थात् एक ही जीव में चौदह मार्ग णाएं हो सकती हैं, जबकि गुणस्थान एक जीव में एक ही हो सकता है । पूर्व-पूर्व गुणस्थानों को छोड़कर उत्तरोत्तर गुणस्थान प्राप्त किये जा सकते हैं और आध्यात्मिक विकास को बढ़ाया जा सकता है, किन्तु पूर्व-पूर्व की मार्गणाओं को छोड़कर उत्तरोत्तर मार्गणाएँ प्राप्त नहीं की जा सकती है और उनमें आध्यात्मिक विकास की सिद्धि भी नहीं हो सकती है । तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त यानी केवलशान को प्राप्त करने वाले जीव में कषायमार्गणा के सिवाय बाकी की सब मर्माणाएं होती हैं । परन्तु गुणस्थान तो मात्र एक तेरहवा ही होता है । अंतिम अवस्था पात जीव में भी तीन-चार मार्गमाओं को छोड़कर बाकी की सव मार्गणाएँ होती हैं, जबकि गुणास्थानों में सिर्फ चौदहवा मुणस्थान ही होता है। इस प्रकार मार्गणाओं और गुणस्थानों में परस्पर अन्तर है। गुणस्थानों का कथन दूसरे कर्मग्रन्थ में किया जा चुका है। यहाँ पर मार्गणाओं की अपेक्षा जीव के कर्मबन्धस्वामित्व को समझाते हैं । जिस प्रकार गुणस्थान चांदह होते हैं, और उनके मिथ्यात्व, सास्वादन आदि चौदह नाम हैं, उसी प्रकार मार्गणाएँ भी चौदह होती हैं तथा उनके नाम इस प्रकार हैं Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचस्वामित्व १. गतिमार्गणा, २. इन्द्रियमार्गणा, ३. कायमार्गणा, ४. योगमार्गणा, ५, वेदमार्गणा, ६. कषायमार्गणा, ७. ज्ञानमार्गमा, ८. संयममार्गणा, ६. दर्शनमार्गणा, १०. लेश्यामार्गणा, ११. भव्यमार्गणा, १२. सम्यक्त्वमार्गणा, १३. संज्ञिमार्गणा, १४. आहारभार्गणा।' इनके लक्षण इस प्रकार हैं (१) गति--गति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय को अथवा मनुष्य आदि चारों मतियों (भव) में जाने को गति कहते हैं। (२) इन्द्रिय --आवरण कर्म का क्षयोपशम होने पर भी स्वयं पदार्थ का शान करने में असमर्थ शस्वभाव कप आन्मा को पदार्थ का शान कराने में निमित्तभूत कारण को इन्द्रिय कहते हैं । अथवा' जिसके द्वारा आत्मा जाना जाये, उसे इन्द्रिय कहते हैं। अथवा इन्द्र के समान १ (क) गइन्दिर य कार जोए वार कमायनाणेस । संगमरमणलेसा भव सम्मे मषि आहारे 11 -चतुर्थ कर्मप्रन्यह (a) गहन्दियेसू काये जोगे वैदे कसाया य ___ संजमदसणलेस्सादिया सम्मत्त समिण आहार ।३ ---रे जीवकांप ४१ २ अंणिश्य-तिरिवन-मणुस्सन्देक्षा णिच्चत्त कम्म त पदि गाम 1 ला १३३५, ५, १०११३६.३१६ ३ इन्दत्तीति इन्द्र आत्मा । सस्य शस्वभावस्य तदावरणश्योपशमे सति स्वयमर्यान् गृहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिंग तदिन्द्रस्य लिगनिन्धियमित्युच्यते । -सर्विसिद्धि १११४ ४ आत्मनः सूक्ष्मस्थास्तिस्याधिगमे लिगमिन्द्रियम् । .. समिति ११४ ५ महमिदा जह देवा अधिससं अहमहं ति मध्यता । ईसंति एक्कमेकं इन्दा इछ इन्दियं जाणे !! Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ अपने-अपने स्पर्शादिक विषयों में दूसरे की (रसना आदि की) अपेक्षा न रखकर जो स्वतंत्र हों, उन्हें इन्द्रिय कहते हैं। (३) काय -जाति नामकर्म के अविनाभावी अस और स्थावर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को काय कहते हैं। (४) योग-मन, वचन, काया के व्यापार को योग कहते हैं, अथवा पुदगल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन-काय से युक्त जीव की जो कमां के ग्रहण करने में काम शक्ति है, उसे योग कहते हैं।' (५) वेच-नोकषाय मोहनीय के उदय से ऐन्द्रिय-रमण करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं। (६) कवाय- जो आत्मगुणों को कषे (नष्ट करे अथवा जो जन्म-मरणरूपी संसार को बढ़ाये अथवा सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्र को न होने दे, उसे कषाय कहते हैं।' (७) शान... जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को जाने, उसे शान कहते हैं । १ मणमा वाया कारण वा वि झुतस्स विरिय परिणामो 1 ___ जिहप्पणिजोगो जोगो ति जिहि चिहिट्छ । --पंधसंग्रह २ आत्मप्रवृत्त मैथुनसंमोहोत्पादों वेदः । -सला ११४१४ ३ (को कपस्यात्मानं हिनस्ति इति कवाय इत्युच्यते । (ख) चारितपरिणाम कषयात् कषायः । ---रावालिका ४ ज्ञायते-परिमिछद्यते वस्त्यने नामादम्मिलि वा झार्न, जानाति चिपएं परिचिप्सीति का ज्ञानं । .....अनुयोगद्वारसूत्र इति Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्धस्वामित्व (८) संयम ---सावधयोग से निवृत्ति अथवा पाप-व्यापाररूप आरम्भ-समारंभों से आस्मा जिसके द्वारा काबू में आये अथवा पंच महावत रूप यमों का पालन अयका पांच इन्द्रियों के जय . को संयम कहते हैं। (E) बम-सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के विशेष अंश का . प्रहम करके केवल सामान्य अंश का जो जिविकल्प रूप से ग्रहण होता है, उसे दर्शन कहते हैं।' (१०) लेश्या-जिनके द्वारा आत्मा कर्मों में लिप्त हो, जीव के ऐसे परिणामों को लेश्या कहते हैं अथवा कषायोदय से अनुरक्त योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं।' (११) मध्य-जिस जीव में मोक्षप्राप्ति की योग्यता हो उसे भव्य कहते हैं। (१२) सम्यक्त्व-छह द्रव्य, पंच अस्तिकाय, नव पदार्थ सात तत्वों का जिनेन्द्र देव ने जैसा कथन किया है, उसी प्रकार में उनका श्रद्धान करना अथवा तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं। १ दर्शन शासन सामान्यानबोध लक्षणम् । --- शम समुच्चय २०१५ २ (क) लिई अपा की रइ एयाए शियय gur |च । जीचोसि होई लेसा लेसागुणजाण्यखाया ? ___ यससंग्रह १४२ (ख) भावलेश्या कषायोदयरजिता सापश्यतिरिति कृत्वा औदयकोत्युच्यते । सर्वार्थसिद्धि सई ३ (क) छह दल पद पयस्था सस्त तच्च शिदिवा । सदहाइ ताण रूवं सो सहिट्ठी भुणेभयो ।। -वर्शनपाहब ११२ (ख) तस्वार्थश्रमानं सम्यादर्शनम् । -- तत्स्वार्थपून १२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -A w -.- - - तृतीय कर्मग्रन्थ (१३) संमी-अभिलाषा को संज्ञा कहते है और यह जिसके हो वह संशी कहलाता है । अथवा नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या तज्जन्य ज्ञान को संशा कहते है। यह जिसके को जागो संशी कहते हैं।' अथवा जिसके लब्धि या उपयोगरूप मन पाया जाये उसको संशी कहते हैं। (१४) आहार....शरीर नामकर्म के उदय से देह, वचन और द्रव्यमान रूप बनने योग्य नोकर्मवर्गणा का जो ग्रहण होता है उसको आहार कहते हैं । अथवा तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण को आहार कहते हैं। मूल में मार्गणाओं के उक्त चौदह भेदों में से प्रत्येक मार्गणा के उत्तरभेदों की संख्या और नाम ५ यह है१ आहारादि विषयाभिलाषः संशति । .... सर्वार्थसिदि २१२४ २ गोइन्दिा पावरण खओक्सम तमनोहणं सशा। सा जस्मा सो दु सणणी इदरी सेसिदिय अचाहो । ...गोर जीवाट १३. ३ संशिनः समानरकाः ...तत्त्वार्थ पुष २५२४ ४ भयाणां शरीराणां पश्यां पर्याप्तीमा प्रोग्य पुद्गल ग्रहगामाहारः । ....... मार्थसिसि ३० ५ गुरनर तिरि भिरबगई इगबिलियच उपणिदि त्वया । भूजलजलणानिलवण तसा य अपवणस] जोगा। वेषमरिस्थिनपुसा कसाय कोह मयमायलो त । मइयवाहिमा केवल विहंगमइमुअनाण सामारा। सामायगरपरिहार मुहमअहवायदेम असनमा । चवखूअनक्यूमोही केवलक्षण वाम किपहा नीला काऊ तेल पम्हा य मुक भवियरा वेधगबगुवसममिछमीमसासाया सनियरे ।। आहारे अरभे.... ....... .............." --मातुर्थ कर्मग्रन्थ १०-१४ .................................... .............. ...... ......... -v -..-wi - -IAIAn -imw --krA Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गका नाम १. गतिमार्गणा २. इन्द्रियमाणा ३. काय मार्गणा ४. योगमार्गणा ५. वेदमार्गणा ६. कषायमार्गणा ७. ज्ञानमार्गणा ८. संयममार्गणा ६. वर्णन मागंणा १०. लेश्या मार्गणा मेव संख्या वार पांच ११. भव्यमार्गणा १२. सम्यक्त्वमाणा छह तीन तीन चार आठ सात स्वार छह दो छह दो दो free नाम नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव । एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय श्रीन्द्रिय, ि पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, स पद्म, शुक्ल । भव्य अभव्य वेदक, क्षायिक, मिश्र, मिथ्यात्व संज्ञि असशि | १३. संशिमार्गणा १४. आहारमार्गणा आहारक, अनाहारक । प्रश्न : मार्गणाओं के जो उत्तर भेद बताये हैं, उनमें ज्ञानमार्गणा के मतिज्ञान आदि पाँच ज्ञानों और मति अज्ञान आदि तीन अज्ञानों को मिलाकर कुल आठ भेद कहे हैं तथा संयममार्गणा के भेदों में सामायिक आदि भेवों के साथ संयम के प्रतिपक्षी असंयम मन, वचन, काय पुरुष, स्त्री, नपुंसक 1 क्रोध, मान, माया, लोभ 1 मति श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल, मतिअज्ञान, श्रुताज्ञान, अवधि-अज्ञान (विभंगज्ञान) | सामायिक, छेदोपस्थानीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्प राय यथाख्यात, देश विरति, अविरति । चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल 1 कृष्ण नील, कापोत, तेज, r उपशम सासादन । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ का भी समावेश किया गया है। फिर भी उनको ज्ञानमार्गणा और संयममार्गणा कहने का क्या कारण है ? उतर -- प्रत्येक मार्गणा का नामकरण मुख्य भेदों की अपेक्षा से किया गया है। मुख्य भेद vare हैं और प्रतिपक्षभूत भेद गौण । जैसे किसी वन में नीम आदि के वृक्ष अल्पसंख्या में और आम्रवृक्ष अधिक संख्या में होते हैं, तो उसे आम्रवन कहते हैं। इसी प्रकार ज्ञानमार्गणा के भेदों में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान यह पाँच ज्ञान मुख्य हैं तथा मति अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंग-ज्ञान गौण हैं, तथा संयममार्गणा के भेदों में सामायिक आदि ययाख्यातपर्यन्त प्रधान तथा संयम का प्रतिपक्षी असंयम गौण है । इसीलिए मति आदि ज्ञानों और सामायिक आदि संयमों की मुख्यता होने से क्रमश: ज्ञानमार्गणा और संयममार्गणा यह नामकरण किया गया है। मार्गणाओं में सामान्य रूप से तथा गुणस्थानों की अपेक्षा बंध स्वामित्व का कथन किया गया है। मार्गणाओं में सामान्यतया गुणस्थान नीचे लिखे अनुसार हैं गति - तियंचगति में आदि के पांच, देव और नरक गति में आदि के चार तथा मनुष्यगति में पहले मिथ्यात्व से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सभी चौदह गुणस्थान होते हैं । I इन्द्रिय-- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में पहला, और दूसरा ये दो गुणस्थान होते हैं । पंचेन्द्रियों में सब गुणस्थान होते हैं । काय - पृथ्वी, जल और वनस्पति काय में पहला और दूसरा ये दो गुणस्थान हैं। मतित्रस तेजःकाय और वायुकाय में पहला गुणस्थान है । उसकाय में सभी गुणस्थान होते हैं । wwww योग- पहले से लेकर तेरहवें ( सयोगिकेवली ) तक तेरह गुणस्थान होते हैं । वेद वेदत्रिक में आदि के नौ गुणस्थान होते हैं । (सदयापेक्षा ) -www Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनस्वामित्व कषाय-क्रोध, मान, माया में आदि के गौ गुणस्थान तथा लोभ में आदि के दस गुणस्थान होते हैं। (उदयापेक्षा झान --मति, श्रुत, अवधिज्ञान में अविरत सम्यग्दृष्टि आदि नौ गुणस्थान पाये जाते हैं। मनःपर्ययज्ञान में प्रमत्तसयत आदि सात गुणस्थान हैं। केवलज्ञान में सयोगिकेवली और अयोगिकेवली यह अंतिम दो गुणस्थान पाये जाते हैं। मति-अज्ञान, थुत-अज्ञान और विभंग-ज्ञान इन-तीन अशानों में पहले दो या तीन गुणस्थान होते हैं। संयम-सामागि, दोपस्थानीय में विचार गुणस्थान, परिहारविशुद्धि संग्रम में प्रमत्तभयत आदि दो गुणस्थान, सूक्ष्म-संपराय में अपने नाम वाला गुणस्थान अर्थात् दसवाँ गुणस्थान, यथाख्यातचारित्र में अंतिम चार गुणस्थान (ग्यारह में चौदही, देशविरत में अपने नाम वाला (पाँचवा देशवरत! गुणस्थान है। अविरति में आदि के चार गुणस्थान पाये जाते हैं । वर्शन- चक्षु, अचक्षुदर्शन में आदि के बारह गुणस्थान, अवधिवर्शन में चौथे से लेकर बारहवें तक नो गुणस्थान होते हैं। केवलदर्शन में अंतिम दो गुणस्थान पाये जाते हैं। लेक्या-कृष्ण, नील, कापोत इन तीनों लेश्याओं में आदि के छह गुणस्थान, तेज और पद्म लेश्या में आदि के सात गुणस्थान, और शुक्ल लेश्या में पहले से लेकर लेरहवें तक तेरह गुणस्थान होते हैं। ___ मस्य-भश्य जीवों के चौदह गणस्थान होते हैं। अभव्य जीव को पहला मिथ्यात्व गुणस्थान है। __ सम्यक्स....-उपशम सम्यक्व में चौथे म लेकर ग्यारहन्छ तक आठ गुणस्थान, वेदक (क्षायोपमिक) सम्यक्त्व में चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान, क्षायिक सम्यक्त्व में चौथा आदि ग्यारह गुणस्थान होते हैं। मिथ्यात्व में पहला, सास्वादन में दूसरा और मिथ इष्टि में तीसरा गुणस्थान होता है। सदिसंझी जीवों के एक से लेकर चौदह तक सभी मुणस्थान होते हैं तथा असंशी जीयों में आदि के दो मुणस्थान हैं। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कमप्रस्थ आहार---आहारक जीवों के पहले मिथ्यात्व में लेकर तेरहवें सयोगिकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं। अनाहारक जीवों के, पहला, दसरा, चौथा, तेरहवा, चौवहाँ, यह पांच गुणस्थान होते हैं । इस प्रकार मार्गणाओं के लक्षण और उनके अवान्तर भेदों की संस्था और नाम आदि बतलाने के बाद जीत्रों के अपने-अपने योग्य कर्म-प्रकृतियों के बन्ध करने की योग्यता का कथन करने में सहायक कुछ एक प्रकृतियों के संग्रह का संकेत आगे की दो गाथाओं में करते हैं। जिण सुरविड़वाहारवु वेवार य नरयसुहमविगलतिग । एगिदि थावराध्यय नषु मिन्छ हुड छेवळ ॥२६॥ अण मज्मागिद्द संधयण कुखग लिय इयि दुहायोगलिग । उस्लोयतिरि दुगं तिरि नराउ नर उर लगारिसहं ॥३॥ गावार्थ-जिननाम, सुरद्विक, वैक्रियतिक, आहारकद्विक, वायु, नरकटिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलनिक, एकेन्द्रिय, स्थावरनाम, आतपनाम, नपुसकयेद, मिथ्यात्व, हूं इसंस्थान, मेवात संहनन, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, मध्यम संस्थान चतुक, मध्यम संहननचतुक, अशुभविहायोगति, नीच गोत्र, स्त्रीवेद, दुभंगत्रिक, स्त्यानद्धित्रिक. उद्योतनाम, तियंचद्विक, तिर्यंचायु, मनुस्मायु, मनुष्यद्विक, औदारिकदिक, और वऋषभनाराच संहनन यह ५५ प्रकृतियाँ जीवों का बंधस्वामित्व बतलाने में सहायक होने से अनुक्रम से गिनाई गई हैं। विशेषार्थ-बंधयोग्य १२० प्रकृतियाँ है। उनमें से उक्त ५५ कर्मप्रकृतियों का विशेष उपयोग इस कर्मग्रन्थ में संकेत के लिये हैं । अर्थात इन दो गाथाओं में संकेत द्वारा संक्षेप में बोध कराने के लिए ५५ प्रकृतियों का संग्रह किया गया है, जिससे आगे की गाथाओं में बंध प्रकृतियों का नामोल्लेख न करके अमुक से अमुक तक प्रकृतियों की संख्या को समझ लिया नाय । जैसे कि 'सुरगुणधीस' इस पद से देवद्धिक से लेकर आगे की १६ प्रकृतियों को ग्रहण कर लेना चाहिये। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ www.lade गाथाओं में संग्रह की गई प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-(१) तीर्थङ्कर नामकर्म, (२) देवद्वि-देवगति, देवानुपूर्वी, (३) क्रियद्विक वैक्रिय शरीर वैक्रिय अंगोपांग, AURLAL (४) आहारकद्विक आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, (५) देवायु, (६) नरकत्रिक—– नरकगति, नरकानुपुर्वी, नरकायु, (७) सूक्ष्मत्रिक सूक्ष्म नाम, अपर्याप्त नाम, साधारण नाम: (८) विकसत्रिक हीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जाति चतुरिन्द्रिय F JAA जाति, (६) एकेन्द्रिय जाति, (१०) स्थावर नाम, (११) आतप नाम, (१२) नपुंसक वेद, (१३) मिथ्यात्व माहनीय, TELE www. turefire (१४) झुंड संस्थान, (१५) सेवा संहनन, (१६) अनन्तानुबंधी चतुष्क- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, ( १७ ) मध्यम संस्थानचतुष्क- न्योम्रध परिमंडल, सादि, वामन, अर्ध कुब्ज संस्थान, (१८) मध्यम संहननचतुष्क-- ऋषभनाराच, नाराच कीलिका संहनन, (१६) अशुभ विहायोगति, (२०) नीचगोत्र. TIT (२१) स्त्रीवेद, (२२) दुर्भगत्रिक दुभंग नाम, दुःस्बर नाम, अनादेय नाम, (२३) स्थानक - निद्र निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानa, (२४) स्रोत नाम, F नाराचं, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रथ (२५) तिर्यचद्रिक - तियंचगति तियंत्रानुपूर्वो. (२६) तिचायु (२७) मनुष्यायु, (२०) मनुष्यद्विक मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, (२६) औदारिकद्विक औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग. 1 १३ (३०) वज्रऋषभनाराच संहनन । इस प्रकार संक्षेप में बंधयोग्य प्रकृतियों का संकेत करने के लिए प्रकृतियों का संग्रह बतलाकर आगे की चार गाथाओं में चौदह मार्गेणाओं में में गतिमार्गभा के भेद नरकगति का बंध-स्वामित्व बतलाते हैं। सुरइगुणवीसचज्जं इस ओहेण वह निरया । तित्थ विणा मिछ सय सासणि नपुचउ थिणा छुई" 11 गाथार्थ ... बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में में सुरक्षिक आदि उन्नीस प्रकृतियों के सिवाय एक सौ एक प्रकृतियाँ सामान्यरूप से नारक जीव बांधते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में वर्तमान नारक तीर्थदूर नामकर्म के बिना सौ प्रकृतियों को और सास्वादन गुणस्थान में नपुंसक चतुष्क के सिवाय छियानवे प्रकृतियों को बांधते है । त्रिर्थ गाथा में सामान्य (ओ) रूप से नरकगति में तथा विशेष रूप से उसके पहले मिथ्यात्व गुणस्थान और दूसरे सास्वादन गुणस्थान में बंधयोग्य प्रकृतियों का कपन किया गया है। १. ओघबंध किसी ग्राम गुणस्थान या खाम तरफ की विवक्षा किये बिना ही सब नाक जीवों का जो बंध कहा जाता है. वह उनका ओषबंध या सामान्यबंध कहलाता है । २. विशेषबंध - किसी खास गुणस्थान या किसी खाम नरक को लेकर नारकों में जो बंध कहा जाता है, वह उनका विशेषबंध कहलाता है। जैसे कि मिध्यात्व गुणस्थानवर्ती नारक १०० प्रकृतियों को बाँधते हैं इत्यादि । इसी प्रकार आगे अन्यान्य मार्गणाओं में भी प्रोष और विशेष बंध का आशय Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामित्व नारक - नरकगतिनामकर्म के उदय से जो हों अथवा 'नरान्जीवों को, कार्यन्ति-क्लेश पहुँचायें उनको नारक कहते हैं। अथवा द्रव्य क्षेत्र, काल भाव से जो स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त न करते हों, उन्हें नारक कहते हैं। नारक निरन्तर ही स्वाभाविकशारीरिक-मानसिक आदि दुखों में दुखी रहते हैं ।' * सामान्यता व वंशाची जीवों को शा २० प्रकृतियां बन्धयोग्य मानी गई है। उनमें से पूर्व की दो गाथाओं में कही गई ५५ प्रकृतियों के संग्रह में से देवद्विक आदि से लेकर अनुक्रम से कही गई aate प्रतियf नरकगति में बन्धयोग्य ही न होने से सामान्यतः १०१ प्रकृतियों का बंध माना जाता है। अर्थात् गाथा में जो 'सुरराणी पद आया है उसमें – (१) देवगति, (२) व आनु पूर्वी, (३) वैक्रियशरीर. (४) चैक्रिय अंगोपांग, (५) आहारक शरीर (६) आहारक अंगोपांग, (७) देवायु, (८) नरकगति (2) नरक आनुपूर्वी (१०) नरकायु, (११) सूक्ष्म नाम, (१२) अपर्याप्त नाम, (१३) साधारण नाम (१४) द्वीन्द्रिय जाति (१५) श्रीन्द्रिय जाति (१६) चतुरिन्द्रिय जाति. (१७) एकेन्द्रिय जाति, (१८) स्थावर नाम तथा (१६) आतप नाम इन उनीस प्रकृतियों का नारक जीवों के भव-स्वभाव के कारण बंध ही नहीं होता है अतः योग्य १२० प्रकृतियों में से इन १६ प्रकृतियों को कम करने पर १०१ प्रकृतियों को सामान्य में नरकगति में बधयोग्य मानना चाहिए। t " क्योंकि जिन स्थानों में उक्त उन्नीस प्रकृतियों का उदय होता है, नारक जीव नरकगति में से निकलकर उन स्थानों में उत्पन्न नहीं १. ( क ) गति जदो दिन् सेस का अह जम्हा तम्हा से भारका भावे य शिया 11 • गो० जीवकान्ड १४६ ३३ (ख) नित्याशुभतरलेश्य परिणाम देवेनाविक्रियाः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ..... .... .. ततीय कर्मग्रन्थ होते है । अर्थात् उक्त १६ प्रकृतियों में से देवगति, देवानुपूर्वी, बैंत्रिय शरीर, वैक्रिय अगोपांग, देवायु, नरकगति, मरकानपूर्वी और नरकायु--येक प्रकृतियों देव और नारकीय-प्रायोग्य है और नारको जीव मरकर नरक अथवा देव गति में उत्पन्न नहीं होते हैं । अतः इन आठ प्रकृतियों का भरकगति में बंध नहीं होता है। सूक्ष्म नाम, अपर्याप्त नाम और साधारण नाम इन तीन प्रकृतियों का भी बंध नारक जीवों के नहीं होता है। क्योंकि सुक्ष्म नामकार्म का उदय सूक्ष्म एकेन्द्रिय के, अपर्याप्त नामक्रम का उदय अपर प्ति तिर्यचों और मनुष्यों के तथा साधारण नामकर्म का उदय साधारण वनरूपति के होला है।। ____ इसी प्रकार एकेन्द्रिय जाति, स्थावर नाम और आतप नाम ये तीन प्रकृतियां एकेन्द्रिय-प्रायोग्य है तथा विकलेन्द्रियत्रिक विकलेन्द्रियप्रायोग्य हैं। अतः इन छः प्रकृतियों को मारक जीव नहीं बांधते हैं तथा आहारक द्रिक का उदय चारित्रसंपन्न लब्धिधारी मुनियों को ही होता है, अन्य को नहीं 1 इसलिए देवद्रिक में लेकर आतप नामकर्म पर्यन्त १६ प्रकृतियाँ अबन्ध होने में नरकमति में सामान्य मे १०१ प्रकृतियों का बंध होता है। याषि नरकगति में सामान्य में १०१ प्रकृतियां बंधयोग्य हैं, लेकिन नारकों में पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में लेकर चौधे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं । अतः मिथ्यात्व मुणस्थान में सीर्थङ्कर नामकर्म का बंध नहीं होने में १०० प्रकृत्तियों का बंध होता है 1 क्योंकि तीर्थङ्कर नामकर्म के बंध का अधिकारी सम्यक्त्वी है, अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर ही तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध हो सकता है । लेकिन मिथ्यात्व गुणास्थान में सम्यक्त्व नहीं है, अतः मिथ्यात्व गुणस्थानवी नारक जीव के तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध नहीं होता है। इसीलिए मिथ्यात्व गुणस्थान में नारक जीवों के १०० प्रकृतियाँ बंधयोग्य है। दूसरे सास्त्राइन गुणस्मानी नारक जीव नपुसकवेद, मिथ्यात्व. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्वामिस्त्र मोहनीय, हंडसस्थान और सेवात संहनन-इन चार प्रकतियों को नहीं बांधते हैं। क्योंकि इन चार प्रकृतियों का बंध मिथ्यात्व के उदयकाल में होता है। लेकिन सास्वादन के समय मिथ्यात्व का उदय नहीं होता है। अर्थात् नरकत्रिक, जारिचतुष्क, स्थावरचतुष्क, हंड संस्थान, आतप नाम, मेवात संहनन, नप सक वेट और मिथ्यात्वमोहनीय-इन सोलह प्रकृतियों का बध मिथ्यात्व निमित्तक है। इनमें से नरकषिक, सूक्ष्मत्रिका विकलत्रिक. एकेन्द्रिय जाति. स्थावर नाम और आतप नाम-इन बारह प्रकृतियों को नारक जीव भन्न-स्वभाव के कारण बाँधते ही नहीं हैं। अतः देव द्विक आदि में ग्रहण करके इन बारह प्रकृतियों को सामान्य बंध के समय ही कम कर दिया गया और शेष रही नपुसक वेद, मिथ्यात्य मोहनीय. हंड संस्थान और मेवात संहनन-ये प्रकृतियां मिथ्यात्व के निमित्त से बँधती हैं और मास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है। अतः सास्वादन गुणस्थान में इन चार प्रकृतियों को मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती मारक जीवों की बंधयोन्य १०० प्रकृतियों में से कम करने पर दूसरे सास्वादन गुणस्थानवी नारक जीवों के ६६ प्रकतियाँ बंधयोग्य नहीं हैं। ___ सारांश यह है कि बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में मे नरकगति में सामान्य बंध की अपेक्षा सुरद्विक आदि आता नामकर्म पर्यन्त १६ प्रकृतियों के बंधयोग्य न होने में १०१ प्रऋतियों का बंध होता है। नरकगति में मिथ्यात्वादि पहले में नौथे तक चार गुणस्थान होते हैं । अतः नरकगति में बंधयोग्य १०१ प्रकृतियों में में तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध सम्यक्त्व निमित्तक होने से मिथ्यात्व गणस्थानवर्ती नारक' जीवों के तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध नहीं होने से १०० प्रकृतियों का तथा नपुसक वेद आदि चार प्रकृतियों का बंच मिथ्यात्व के उदय होने पर होता है और सास्वादन मुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं होने से मिथ्यात्व गुणस्थान की बंधयोग्य १०० प्रकृतियों में से नपुसक वेद आदि चार प्रकृतियों को कम करने से ६६ प्रकृतियों का बंध होता है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : तृतीय कर्मप्रन्य ૨૭ इस प्रकार नरकगति में सामान्य से तथा पहले और दूसरे गुणस्थान में नारक जीवों के कर्मप्रकृतियों के बन्धस्वामित्व का वर्णन करने के बाद अब आगे की गाथा में तीसरे और चौथे गुणस्थान तथा रत्नप्रभा आदि भूमियों के नारकों के बंधस्वामित्व को कहते हैं- for अणवीस मी बिसरि सम्मम्मि जिणनराज जुया । tय रयणाइस भंगो पंकासु तित्थयरहोणो ५ गाथार्थ -- अनन्तानुबंधी चतुष्क आदि छब्बीस प्रकृतियों के बिना मिश्रगुणस्थान में सत्तर तथा इनमें तीर्थङ्कर नाम और मनुष्यायु को जोड़ने पर सम्यक्त्व गुणस्थान में बहत्तर प्रकृतियों का बंध होता है । इसी प्रकार नरकगति की यह सामान्य बंधविधि रत्नप्रभादि तीन नरकभूमियों के नारकों के चारों गुणस्थान में भी समझना साहिए तथा पंकप्रभा आदि नरकों में तीर्थङ्कर नामकर्म के बिना शेष सामान्य बंधविधि पूर्ववत समझना चाहिए। विशेषार्थ - नरकगति में पहले और दूसरे गुणस्थान में बंधस्वामित्व कहने के बाद इस गाथा में तीसरे और चौथे गुणस्थान और रत्नप्रभा आदि छह नरकभूमियों के नारकियों के प्रकृतियों के बंध को बतलाते हैं। मिश्र गुणस्थानवर्ती नारकों के ७० कर्मप्रकृतियों का बंध होता है । क्योंकि अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से बँधने वाली अनन्तानुबंधी चतुष्क, मध्यम संस्थानचतुष्क. मध्यम संहननचतुष्क अशुभ विहायोगति नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय स्थानत्रिक, उद्योत और नियंत्रिक, इन २५ प्रकृतियों का मिश्र गुणस्थान में अनन्तानुबंधी का उदय न होने से बंध नहीं होता है । अनन्तान बंधी कषाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थान तक ह्री होता है, तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं । दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में अनन्तानुबंध कषाय की विसंयोजना या क्षय हो जाता है, · · Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धस्वामित्व इसलिये अनन्तानुबंधी के कास बैंधने वाली उक्त २५ प्रकृतियों का बंध तीसरे मित्र गुणस्थान में नहीं होता है तथा मिश्र गुणस्थान में रहने वाला कोई भी जीव आयुकर्म का बंध नहीं करता है। अतः मनुष्यानु की दE नहीं हो सकता है: ___ अतः दूसरे गुणस्थानवर्ती नारक जीवों के बंधने काली ९६ प्रकृतियों में से अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क आदि पूर्वोक्त २५ प्रकृतियों तथा मनुष्यायु, कुल मिलाकर २६ प्रकृतियों को कम करने से मिश्र गुणस्थानवर्ती नरकगसि के जीवों को ७० प्रकृतियों का बंधस्वामित्व मानना चाहिए। __लेकिन चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मारक जीव सम्यक्त्व के होने से तीर्थकरनामकर्म का बंध कर सकते हैं क्योंकि सम्यक्त्व के सद्भाव में ही तीर्थकरनामकर्म का बध होता है। तथा मिश्र गुणस्थानवी जीव के आयुकर्म के बंध न होने के नियम से जिस मनुष्यायु का बंध नहीं होता था, उसका चौथे गुणस्थान में बंध होने से मिश्र गुणस्थान में बंध होने वाली ७० प्रकृतियों में तीर्थकरनाम और मनुध्यायु-...इन दो प्रकृतियों को मिलाने से चौथे गुणस्थानवी नारक जीव ७२ प्रतियों का बंध करते हैं। नरक्रगति में चौथे गुणस्थानवर्ती भारकों के मनुष्यायु के इंच होने का कारण यह है कि मारक जीव पुनः नरकगति की आयु का बन्ध नहीं कर सकते और न देवायु का ही बन्ध कर सकते हैं। अतः यह दो आयुकर्म की प्रकृतियों भरकगति में अबन्ध हैं। इनका संकेत गाथा चार में 'सुरगुणनीसव' पद से पहले किया जा चुका है। लियंचायु का बन्ध अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय होने पर होता है और अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय पहले, दूसरे गुणस्थान १. (क) सम्मामिछद्दिट्टी आउयध पि न करेइ ति । (ख) मिस्सूणे आइस्म"....! -गो कर्म TER २. सम्मेव तित्मबंधो। -० कर्मकांड ११ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूतीय कर्म ग्रन्थ १६ तक ही होता है, आगे के गुणस्थानों में नहीं । अतः चौथे गुणस्थान में नारक जीवों के तिर्यचायु का बन्ध नहीं हो सकता । इस प्रकार नरक, देव और तिर्यंचायु के बन्ध नहीं होने से सिर्फ मनुष्यायु शेष रहती है तथा तीसरे मिश्रगुणस्थान में परभव सम्बन्धी बायु का बन्ध न होने का सिद्धान्त होने से चौथे गुणस्थानवर्ती नारक जीव मनुष्यायु का बन्ध कर सकते हैं । इस प्रकार नरकगति में गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद नरकभूमियों में रहने वाले नारकों को अपेक्षा बंधस्वामित्व बतलाते हैं । रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमः प्रभा - ये सात नरकभूमियाँ हैं। ये भूमियाँ घनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित हैं। एक दूसरे के नीचे हैं और नीचे की ओर अधिक विस्तीर्ण है।' इन सात नरकों में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा इन नरकों में सामान्य व चारों गुणस्थानों की अपेक्षा कहे गये नारक जीवों के aratarface के समान ही बन्धस्वामित्व मानना चाहिए। अर्थात जैसे नरकगति में पहले गुणस्थान में १००, दूसरे में ६६, तीसरे में ७० और चौथे में ७२ प्रकृतियों का बन्ध माना गया है, उसी प्रकार रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा - इन नरकों में रहने वाले नारक जीवों के अपने-अपने योग्य गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का स्वामित्व समझना चाहिए। गाथा में आये हुए 'राइसु' इस बहुवचनात्मक पद से यद्यपि रत्नप्रभा आदि सातों नरकों का ग्रहण होना चाहिए था, किन्तु यहाँ रत्नप्रभा आदि पहले, दूसरे और तीसरे नरक के ग्रहण करने का कारण १. रत्नशर्करा बालुकापंकधूमतमो महातमः प्रभा भूमियो धनाम्बुवताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः । -सवा ३३१ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्वामित्व यह है कि इसी गाथा में 'पंकाइस' पद दिया है, जिसका अर्थ है कि पंकप्रभा आदि मरकों में बन्धस्वामित्व का कथन अलग से किया जायगा । इसी कारण पंकप्रभा नामक चौथे नरक से पहले के राप्रभा, शर्कराप्रभा, बालकाप्रभा इन तीन नरकों का यहाँ ग्रहण किया गया है तथा 'कासु' पद से पंकप्रभा आदि शेष नरकों का ग्रहण करना चाहिए लेकिन 'पंकाइसु' इस पद से पंकप्रभा, धूमप्रभा और तमप्रभा इन तीनों नरकों का ग्रहण किया गया है, क्योंकि आगे की माथा में महातमःप्रभा नामक सातवे नरक का बन्धस्वामित्व अलग से कहा है। इस गाथा में तो लीर्थकरनामकर्म का बन्धस्वामित्व पंकप्रभा आदि महातम प्रभा पर्यन्त के नारक जीवों के होता ही नहीं है, इस बात को बताने के लिए पकाइम' पद दिया है। ___पंप आदि भौथा, पौसला और छठा-नम मौन नरकों में तीरनामकर्म का बन्ध नहीं होता है। पकप्रभा आदि में तीर्थ धरनामकर्म के बन्धस्वामित्व न होने का कारण यह है कि पंकप्रभा, धूमप्रभा और तमःप्रभा नरकों में सम्यक्त्व प्राप्ति होने पर भी क्षेत्र के प्रभाव से और लथाप्रकार के अध्यवसाय का अभाव होने से तीर्थकरनामकर्म का बन्ध नहीं होता है । क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि पहले नरक में आया जीव चक्रवर्ती हो सकता है । दूसरे नरक तक से आया जीव वासुदेव हो सकता है और तीसरे नरक तक से आया जीव तीर्थकर हो सकता है। चोथे नरक तक से आया जीव केवली और पांचवे नरक तक से आया जीव साधु एवं छठे नरक तक से आया जीव देशाविरत हो सकता है और सातवें नरक तक से आये जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं. परन्तु देशविरतित्व प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अतः पंकप्रभा आदि से आया नारक जीव तीर्थरत्व को प्राप्त नहीं करता है। इसलिए तीर्थङ्करनामकर्म पंकप्रभा आदि तीन नरकों में अवन्ध्य होने से १०० प्रकृतियों का बन्ध समझला वाहिए। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ पंकप्रभा आदि इन तीन नरकों में सामान्य और विशेष रूप में पहले गुणस्थान में १००, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में रत्नप्रभा आदि तीन नरकों के समान क्रमशः ६६ और ७० प्रकृतियों और चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व प्राप्ति होने पर भी क्षेत्र के प्रभाव से और तथाप्रकार के asaara का अभाव होने से तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध न होने से ७१ प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है । २१ सारांस यह है कि नरकगति में तीसरे गुणस्थान में ७० और ate गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का बन्ध होता है और गुणस्थानों की अपेक्षा कहे गये बन्धस्वामित्व के समान रत्नप्रभा आदि तीन नरकों में भी समझना चाहिए। लेकिन पंकप्रभा आदि तीन नरकों में तीर्थङ्करनामकर्म का बन्ध न होने में सामान्य और विशेष रूप में पहले गुणस्थान में १००, दूसरे में ६६. तीसरे में 30 और चौथे में ७१ प्रकृतियों का बन्ध होता है । इस प्रकार से नरकगति में पहले से लेकर छठे नरक तक के जीवों के स्वामित्व का कथन करने के बाद अब आगे की दो गाथाओं में सात नरक तथा तिर्यच गति में पर्याप्त तिर्थंदों के बन्धस्वामित्व को कहते हैं www अणि मआज आहे सलमिए नरतुतुच्च विणु मिच्छे। इन नवई सासणे तिरिआज नपुंसकउवज्जं ॥ ६ ॥ अणचजवीसविरहिया सनरगुच्चा यसरि मोसदुगे । सतरसउ ओहि मिछे पजतिरिया त्रिणु जिणाहारं ॥ ७ ॥ गाथार्थ सातवें नरक में सामान्य रूप से तीर्थकुरनामकर्म और मनुष्यासु का बन्ध नहीं होता है तथा मनुष्यद्विक और उच्च गोत्र के बिना शेष प्रकृतियों का मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध होता है। सास्वादन गुणस्थान में तिर्यंचायु और नपुंसकचतुष्क के बिना ६१ प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा इन ९१ प्रकृतियों Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाधस्वामित्व में से अनन्तानुबन्धी आदि चतुष्क २४ प्रकृतियों को कम करके और मनुष्यधिक एवं उच्चमोत्र इन तीन प्रकृतियों को मिलाने से मिश्रद्विक गुणस्थान में ७ प्रकृतियों का बन्ध होता है । तिर्यंचगति में पर्याप्त तिर्यन तीर्थकरनामकर्म और आहारकद्विक मेशिन सामान्य ने सपा जिम्मान गुमायार में ११७ प्रकृतियों को बांधते है। विशेषाय-इन दो गाथाओं में सातवें नरक के नारकों में सामान्य और गुणस्थानों की अपेक्षा में एवं तिर्यंचति में पर्याप्ततिर्यचों के बन्धस्वामित्व का कथन किया गया है। नरकगति में सामान्य में १०१ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य है। उनमें से क्षेत्रगत प्रभाव के कारण तीर्थङ्करनामकर्म के बन्धयोग्य तथाप्रकार के अध्यवसायों का अभाव होने से सातव नरक के नारक तीर्थकरनामकर्म का बन्ध नहीं करते हैं तथा मनुष्यायु का छठे नरक तक ही बन्ध हो सकता है और सात व सरक की अपेक्षा मनुष्यायु उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति है । अतः इसका बन्ध उत्कृष्ट अध्यकसायों के होने पर हो सकता है। इसलिए सातवें नरक के नारकों को मनुष्यायु का बन्ध नहीं होता है । __इस प्रकार नरकगति में सामान्य से बन्धयो १०५ प्रकृतियों में से तीर्थकरनामकर्म और मनुष्यायु इन दो प्रकृतियों को कम करने से सातथे नरक में ६६ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है । ___सातवें नरक में जो हर प्रकृतियाँ बाँधने योग्य बतलाई हैं. उनमें से उसी नरक के पहले मिथ्यात्व गुणस्थानवी नारक मनुष्पद्विका-- मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्र.इन तीन प्रकृतियों को तथाविध विशुद्धि के अभाव में नहीं बाँचते। क्योंकि सातवें नरक १ छोति म मणुआउ। कागो कर्मकाण्ड १०६ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ के नारक के लिये ये तीन प्रकृतियों उत्कृष्ट पुण्यप्रकृतियाँ हैं, जो उत्कृष्ट विशुद्ध मध्यवसाय से बांधी जाती हैं और उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थान सातवें नरक में तीसरे और चोथे गुणस्थान में होते हैं।' इसलिए मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्र- इन तीन प्रकृतियों के अवन्ध्य होने से सामान्य से बंधयोग्य ६६ प्रकृतियों में से इन तीन प्रकृतियों को कम करने पर मिथ्यात्व गुणस्थान में सातवें सर के नारकों के ६६ प्रकृतियों का बंध होना माना जाता है । सातवें नरक के नारकों के दूसरे सास्वादन गुणस्थान में तिर्यचायु और नपुंसकचतुष्क- नपुंसक वेद, मिध्यात्व, हुंड संस्थान और सेवार्त संहनन कुल पाँच प्रकृतियाँ अवन्ध्य होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में जो e६ प्रकृतियों का बंध कहा गया, उनमें से इन प्रकृतियों को कम करने पर ६१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। क्योंकि इस गुणस्थान में योग्य अध्यवसाय का अभाव होने में तिर्यंचायु का बन्ध नहीं होता है और नपुंसकचतुष्क मिथ्यात्व के उदय में होता है, किन्तु सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है । अतः नपुंसकचतुष्क का बन्ध नहीं होता है । इसलिये ६६ प्रकृतियों में से इन पाँच प्रकृतियों को कम करने से सास्वादन गुणस्थानवर्ती सातवें नरक के नारकों को ९१ प्रकृतियों का बन्ध होता है । HIINON २५ सातवें नरकवर्ती सास्वादन गुणस्थान वाले नारकों को जो ह प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है, उनमें से अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि तिर्यद्विक पर्यन्त २४ प्रकृतियों को, अर्थात् अनन्तानुबन्धी कोध, मान, माया, लोभ, न्यग्रोध परिमंडल, सादि वामन कुब्ज संस्थान, ऋषभनाराच नाराच अर्धनाराच कीलिका संहनन, अशुभ विहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला. स्त्यानदि उद्योत तिर्यंचगति तिर्यचानुपूर्वी इन 1 r 1 ww १ मि साबिर उच्च मत्रयुगं सत्तमे हवे बंधो । मिच्छा सासनसम्मा मनुष्णं ग ति ॥ www. मी० कर्मकांड १०७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दस्वामित्व २४ प्रकृतियों का बन्ध अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में होता है और अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थान तक होता है, अतः पूर्वोक्त ६१ प्रकृतियों में से इन २४ प्रकृत्तियों को कम करने पर ६७ प्रकृत्तियाँ रहती है। इनमें मनुष्याद्विक-मनुष्यगति, मनुष्यानु. पूर्वी तथा उच्चमोत्र हम तीन प्रकृतियों को मिलाने से तीसरे मिश्र गुणस्थान और चौथे अविरतसम्यग्दष्टि गुणस्थानवी सालवे नरक के नारकों के ७० प्रकृतियों का बन्ध होता है। . पूर्व-पूर्व नरक ने उत्तर-3र नरक में अमवसायों की झुद्धि इतनी कम हो जाती है कि पुण्यप्रकृतियों के बंधक परिणाम पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर नरक में अल्प से अल्पतर होते जाते हैं। यद्यपि आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक जीव प्रति समय किसी न किसी मति का बन्ध कर सकता है। किन्तु नरकगति के योग्य अध्यवसाय पहले गुणस्थान तक, तिर्यंचगति के योग्य आदि के दो गुणस्थान तक, देवगति के योग्य आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक और मनुष्यति के योग्य चौथे गुणस्थान तक होते हैं। नारक जीब नरक और देव गति का बन्ध नहीं कर सकते हैं । अतः तीसरे और चौथे मुणस्थान में सातवें नरक के नारक मनुष्य-गतियोग्य वन्ध कर सकते हैं। लेकिन वे जीव आयुष्य का बन्ध पहले गुणस्थान में ही करते हैं. अन्य गुणस्थानों में तयोग्य अध्यवसाय का अभाव होने से बन्ध नहीं करते हैं। पहले और चौथे गुणस्थान में सातवें नरक के जीव के मनुष्यमति प्रायोग्य बन्ध के लायचा परिणाम नहीं होने में मनुष्य प्रायोग्य बन्ध नहीं होता है। मनुष्याद्विक और उच्चगोत्र रूप जिन पुण्यप्रकतियों के बन्धक परिणाम पहले नरक के मिथ्यास्त्री नारकों को हो सकते हैं, उनके बन्धयोग्य परिणाम सातवें नरक में तीसरे, चौथे गुणस्थान के सिवाय अन्य गुणस्थान में असंभव है। सातवें नरक में उत्कृष्ट विशुद्ध परिणाम वे ही हैं, जिनसे उक्त तीन प्रकृतियों का बन्ध किया जा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सामग्रन्थ सकता हैं। अतएवं सातवें नरक में सबसे उत्कृष्ट मारियों उक्त तीन ही हैं। यपि मनुष्यधिक भवान्तर में उदय आता है. किन्तु सातवें नरक के जीव मनुष्यायु को बांधते नहीं हैं, तथापि उसके अभाव में तीसरे-चौथे गुणस्थान में मनुष्यद्विक का बन्ध करते हैं, इसका अर्थ यह है कि मनुष्यद्रिक का मनुष्यायु के साथ प्रतिबन्ध नहीं है, पानी आयु का बन्ध मति और आनुपुर्ती नामकर्म के बन्ध को साथ ही होना चाहिए, ऐसा नियम नहीं है। मनुष्य आयु के सिंचाय भी तीसरे और चौथे गुणस्थान में मनुष्यद्रिक का बन्ध हो सकता है और वह भवान्तर में उदय आता है । इस प्रकार सरकागति के बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद अब तिर्यंचगति का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं। जिनको तिथंचगति नामकर्म का उदय हो उन्को तिर्यच वाहते हैं। तिर्यंचों के दो भेद हैं. पर्याप्ततिर्यंच और अपर्याप्ततिथंच है इन दोनों में से यहाँ पर्याप्ततियंचों का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं। समस्त जीवों की अपेक्षा सामान्य से बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में मे तीर्थखरनामकर्म और आहारकद्विक इन दोन प्रकृतियों का बन्ध तिर्थनगति में नहीं होता है। अतः सामान्य से पर्याप्ततिथंचों के ११७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। क्योंकि तिर्यंचों के सम्यक्त्वी होने पर भी जन्म-स्वभाव में ही तीर्थकरनामकर्म के बन्ध्रयोग्य अध्यवसायों का अभाव होता है और आहारकद्विक--- आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग का बन्ध चारित्र धारण करने वालों को ही होता है। परन्तु तिर्यंच चारित्र के अधिकारी नहीं हैं। १ मद्विकस्य नरायुषा सह भावधयं प्रतिबन्धा यदुत र वायुर्वध्यते तय गल्यानुपूर्वीद्वयमपि, तस्याज्यदाऽपि बन्धात् । ...तीय कर्मसम्म अवचूरिका पृ० १०१ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ स्वामिन अतएव तिर्यंचगति बालों के सामान्य बन्ध में उक्त तीन प्रकृतियों की गिनती नहीं की गई है और इसीलिए तिर्यंचगति में सामान्य से ११७ प्रकृतियों बन्ध माना जाता है। तिर्यंचगति में पहले मिथ्यात्व से लेकर पांचवें देशविरत गुणस्थान तक पाँच गुणस्थान होते हैं । ये पांचों गुणस्थान पर्याप्ततिर्यथ को होते हैं और अपर्याप्ततिर्यंच को सिर्फ पहला मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । पर्याप्ति तिर्यों के जो सामान्य से ११७कृति स्वामित्व बतलाया गया है, उसी प्रकार पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में भी उनके ११७ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए। क्योंकि पहले बता चुके हैं कि तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध सम्यक्त्व होने पर होता है और आहारकढिक का बन्ध चारित्र धारण करने वालों के होता है। किन्तु मिध्यात्व गुणस्थान में न तो सम्यक्त्व है और न चारित्र है । अतः मिथ्यात्व गुणस्थान में पर्याप्ततिर्यच ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सारांश यह है कि सातवें नरक के नारक दूसरे गुणस्थान में जो ९१ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, उनमें से अनन्तानुबंधीचतुष्क आदि तिर्यचकि पर्यन्त २४ प्रकृतियों को कम कर देने से शेष रही ६७ प्रकृतियाँ तथा इन ६७ प्रकृतियों में मनुष्यद्विक और उच्च गोत्र, इन तीन प्रकृतियों को मिलाने से तीसरे मिश्र और बोथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- इन दो गुणस्थानों में ॐ प्रकृतियों का वन्ध करते हैं । तियंचगति में पर्याप्ततिर्यच बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से तथायोग्य अध्यवसायों का अभाव होने से तीर्थकरनामकर्म और आहाRafae का बन्ध नहीं कर सकते हैं। अतः सामान्य से और पहले freutra गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। इस प्रकार नरकगति में सामान्य और गुणस्थानों की अपेक्षा और Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ तियंचगति में पर्याप्ततियंत्र के सामान्य से तथा पहले मिथ्यात्व गुणस्थान की अपेक्षा बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद आगे की गाथा में पर्याप्ततिर्यच के दूसरे से पाँचवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में स्वामित्व को बतलाते हैं--- fer नरयसो सासणि सुराउ अण एगतीस विष्णु मीले। ससुराज सर्वार सम्मे मोयकसाए विना वेसे ॥ ८ ॥ गाथार्थ -- सास्वादन गुणस्थान में नरकत्रिक आदि सोलह प्रकृतियों के बिना तथा मिश्र गुणस्थान में देवायु और अनन्तानुबंधीचतुष्क आदि इकतीस के बिना और सम्यक्त्व गुणस्थान में tary सहित सत्तर तथा देशविरत गुणस्थान में दूसरे कषाय के बिना पर्याप्ततिच प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । विशेषार्थ - सामान्य से और मिथ्यात्व गुणस्थान में पर्याप्ततिर्यंचों के स्वामित्व को बतलाने के बाद यहाँ दूसरे मे लेकर पांचवें गुणस्थानपर्यन्त कर्मबन्ध को बतलाते हैं । पर्याप्त तचों के सामान्य से तथा पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का बन्ध होता है, उनमें से मिध्यात्व के उदय से बँधने वाली जो प्रकृतियाँ हैं, उनका सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय न होने से नरकत्रिक नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, जातिचतुष्क - एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावरचतुष्क. स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम, हुँड संस्थान, सेवाले संहनन, आतपनाम, नपुंसकवेद, और frerraratata इन सोलह प्रकृतियों का बन्ध नहीं होने से १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है ।' www. १. नरसिंग जाइ थावरच डायवछिक्ट्ठ नघुम सोलो हि स सासण KB www. - कर्मग्रन्थ १४ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्वामित्व पर्याप्ततिर्यचों के दूसरे गुणस्थान में जो ५०१ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया है उनमें से पर्याप्तलियंच मिश्र गुणस्थान में सद्योग्य अभ्यनसाय का अभाव होने से तथा मिश्च गुणस्थान में आयु बध न होने के कारण देवायु तथा अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय दूसरे गुणस्थान तक ही होता है, अतः उसके निमित्त से बंधने वाली नियंत्रिक-- तिर्यंचगति, तिथंचानुपूर्वी, तिर्यंचायु, स्त्यानाद्धत्रिक निद्रा-निद्रा, प्रथला-प्रचला, स्त्यानद्धि; दुर्भगत्रिक-दुभंग, दुःस्वर, अनादयनाम: अनन्तानुबन्धी कषायचतुक--अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मध्यमसंस्थानचतुष्क - न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, सादि संस्थान, वामन संस्थान, कुब्ज संस्थान; मध्यम महननचतुष्क -- ऋषभनाराच संहान, माराच तहमान, अर्धनाराच संहान, कीलिका संहनन, नीचगोत्र, उद्योतनाम. अशुभ विहायोगति और स्त्रीवेद इन पच्चीस प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं करते हैं तथा मनुष्यत्रिक-मनुष्यगति, मनुध्यानपूर्वी मनुष्यायु; औदारिकद्धिक --- औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग और वनऋषभनाराच संहनन-इन छह प्रकृतियों के मनुष्य गति योग्य होने से वे नहीं बांधते हैं। क्योंकि चौथे गुणस्थान की तरह तीसरे गुणस्थान के समय पर्याप्तमनुष्य और तिर्यच दोनों ही देवगति योग्य प्रकृतियों को बाँधते हैं, मनुष्यगति-प्रायोग्य प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं। इस प्रकार तीसरे मिश्र गुणस्यानवौं पर्याप्ततिर्यचों के देवायु अनन्तानुबन्धी कषाय निमित्तक पच्चीस प्रकृतियों तथा मनुष्यगतिप्रायोग्य छह प्रकृतियों का बन्ध नहीं होने से कुल मिलाकर ३२ प्रकृतियों को दूसरे गुणस्थान की बन्धयोग्य १०१ प्रतियों में में घटा देने पर शेष ६६ प्रकृतियों का बन्ध्र होता है। - १ ... ... .... ....... तिरियीणदुहगत्तिमं ।। अणमजलागिइसंघयणञ्च निउज्जोय खगहत्यि ति। कमसम्म २१४,५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ २६ पर्याप्ततित्रों के चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मिश्र गुणस्थान की बन्धयोग्य ६६ प्रकृतियों के साथ देवायु का बन्ध भी संभव होने में ७० safari at ranना जाता है । क्योंकि तीसरे गुणस्थान में आयु के बन्ध का नियम न होने से आयुकर्म का बन्ध नहीं होता है, किन्तु चौथे गुणस्थान में परभव सम्बन्धी आयु का बंध संभव है । परन्तु चौथे गुणस्थानवर्ती पर्याप्तितिथंच और मनुष्य दोनों देवगति योग्य प्रकृतियों को हैं, मनुष्यगति योग्य प्रकृ तियों को नहीं बाँधते हैं। अतः चौथे गुणस्थान में पर्याप्ततियंचों के वायु का बंध माना जा सकता है। इस प्रकार तीसरे गुणस्थान की बंधयोग्य ६६ प्रकृतियों में देवायु प्रकृति को मिलाने में पर्याप्त तिर्यचों के चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७० प्रकृतियों का बन्ध होता है । के fचवें देशविरत गुणस्थान में पूर्वोक्त ७० प्रकृतियों में से अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क - क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियों को कम कर देने पर ६६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का बन्ध पाँचवें और उसके आगे के गुणस्थानों में नहीं होता है। क्योंकि यथायोग्य कषाय का उदय तथायोग्य कषाय के बन्ध का कारण है | किन्तु पनि गुणस्थान में अप्रत्यास्थानावरण कषायचतुष्क का उदय नहीं होता है, अत: उनका यहाँ बन्ध भी नहीं हो सकता है। इनका उदय पहले से लेकर चौथे गुणस्थान तक होता है, अतः यहाँ तक ही बन्ध होता है । इसलिए अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का बन्ध नहीं पर्याप्ततिचों के ६६ प्रकृतियों का बंध पाँचवें गणस्थान में माना जाता है । सारांश यह है कि पर्याप्ततिर्यों के पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्धयोग्य ११७ प्रकृतियों में से मिथ्यात्व के उदय से बँधने वाली नरकत्रिक आदि सोलह प्रकृतियों को कम करने से दूसरे सास्वादन गुणस्थान में १०१ प्रकृतियों का तथा देवायु और अनन्ताgrat Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलस्वामित्व कषाय निमित्तक २५ प्रकृतियों और मनुष्यमशि-योग्य छह प्रकृतियों कुल ३२ प्रकृतियों का बन्ध न होने से दूसरे गुणास्थान की बंधोग्य १०१ प्रकृतियों में से जन ३२ प्रकृतियों को कम करने से मिश्रगुणस्थान में ६६ प्रकृतियों का तथा मिथ गुणस्थान की उक्त ६६ प्रकृतियों में देवायु का वन्ध होना संभव होने से चौथे गुणस्थान में ७० प्रकृतियों का तथा इन ७० प्रकृतियों में से अप्रत्याख्यानावरण चापायचतुष्क को कम करने से पाँच देशविरत गुणस्थान में ६६ प्रकृतियों का धन्ध होता है । इस प्रकार से सियंचगति में पर्याप्ततिर्यचों के बन्धस्वामित्व का वर्णन करने के बाद आगे की गाथा में मनुष्यमति के पर्याप्त और अपर्याप्त मनष्यों और अपर्याप्त नियंत्रों के बावाशिव को बतलाते हैं इय चउपुणेसु वि नरा परमजया सजिग ओह वेसाई । जिणइपकारसहोणं नवसङ अपजत्ततिरियनरा El गाथा--पर्याप्तमनुष्य पहले से चौथे गुणस्थान तक पर्याप्ततियंत्र के समान प्रकृतियों को बांधते हैं। परन्तु इतना विशेष समझना कि सम्यग्दृष्टि पर्याप्तमनुष्य तीर्थकरनामकर्म का बन्ध कर सकते हैं, किन्तु पर्याप्ततिबंध नहीं तथा पाँच गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में सामान्य से कमस्तव (द्वितीय कर्मग्रन्थ} में कहे गये अनुसार कर्मप्रशतियों को बांधते हैं । अपर्याप्ततियंच और मनुष्य तीर्थङ्कर नामकर्म आदि ग्यारह प्रकृतियों को छोड़कर शेष १०६ प्रकृतियों का बंध करते हैं। विशेषार्थ ---इस गाथा में पर्याप्तमनुध्य और अपर्याप्ततिपंच तथा मनुष्यों के बंधस्वामित्व को बतलाया गया है। मनुष्यगतिनामकर्म और मनुष्यायु के उदय से जो मनुष्य कहलाते हैं अपया जो मन के द्वारा नित्य ही हेय-उपादेय, तत्व Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कम अन्य अतरव, धर्म-अधर्म का विचार करें और जो मन द्वारा गुरुप-दोषादि का विचार, स्मरण कर सके. जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो, उन्हें मनुष्य कहते हैं। ___ तिर्यंचों के समान ही मनुष्यों के मुख्यतया पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद हैं। इन दो भेदों में से पर्याप्तमा सामान्य की अपेक्षा १२० प्रकृतियों का बन्ध करता है। इन बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों का वर्णन दुसरे कर्मग्रन्थ में विशेष रूप से किया जा चुका है। फिर भी संक्षेप में ज्ञान कर लेने के लिए उनकी संख्या इस प्रकार समझनी चाहिए___ज्ञानाबरण ५, दर्शनावरण ६. वेदरीघ २, मोहनीय २६, आयु ४, नाम ६७, गोत्र २. अन्तराय ५ । र भेदों को मिलाने में कुल १२० प्रकृतियाँ हो जाती हैं। उक्त १२० प्रकृतियों में से पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में पर्याप्ततिर्यों के समान ही पर्याप्तमनुष्य, तीर्थकरनामकर्म और आहारकट्रिक . आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, शून तीन प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते हैं । क्योंकि तीर्थ धरमामकर्म का बंध सम्यक्त्ती को और आहारकनिक का बन्ध अनमत्तसंगत को होता है, किन्तु मिथ्याद ष्टि गुणस्थान में जीवों के न तो सम्यक्त्व संभव है और न अप्रमत्तमयम ही। सम्मकत्व चौथे गुणस्थान से पहले तथा अप्रमत्ताराम सातवें गुणस्थान में पहले नहीं हो सकता है । अनः पहले गुणस्थान में पर्याप्त मनुष्य के ११५ प्रकृतियों का बन्ध होता है। पंच पर घोधिन छथ्वीसमन्नि व चउरो कमेण मतदी। दोणि य पंच य मणि या पाओ प्रवसापडीओ ।। -मो. कर्मकाष्ट ३५ २. सिस्थय राहारगदुगवलं मिच्छन्मि सतरमयं । —भप्राय २६३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ waterfora उक्त ११७ प्रकृतियों में से दूसरे गुणस्थान में दूसरे कर्मग्रन्थ में बताई गई 'रजाइयावरच डाव छिवक नमुच्छि (गाथा ४) इन १६ प्रकृतियों का अन्त पहले गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाने से पर्याप्तमनुष्य १०१ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं I ३ तीसरे मिश्र गुणस्थान में पर्याप्तमनुष्य पर्याप्तितिर्यच के लिये बताये गये बन्धस्वामित्व के अनुसार दूसरे गुणस्थान की १०१ प्रकृतियों में से देवायु तथा अनन्तानवन्धी कषाय के उदय से धने वाली २५ प्रकृतियों तथा मनुष्यगति-योग्य छह प्रकृतियों कुल ३२ प्रकृतियों को कम करने से ६० प्रकृतियों को बाँधते हैं । यद्यपि पर्याप्ततियंच चौथे गुणस्थान में तीसरे गुणस्थान की बंधयोग्य ६६ प्रकृतियों के साथ देवा का बन्ध करने के कारण ३० प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । किन्तु पर्याप्तमनुष्य के उक्त ७० प्रकृ सियों के साथ तीर्थरामकर्म का भी बंध हो सकने से ७१ प्रकृतियों का बन्ध कर करते हैं। क्योंकि पर्याप्ततिचों को चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व तो होता है, किन्तु तीर्थकरनामकर्म के बन्धयोग्य अध्यवसायों का अभाव होने से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध नहीं कर पाते हैं । कर्मग्रन्थ भाग २ (कर्मस्तव) में कहे गये बन्धाधिकार की अपेक्षा पर्याप्तमनुष्य और तिर्यच के तीसरे - मिश्र और चौथे-अविरतसम्यस्दृष्टि गुणस्थान में इस प्रकार की विशेषता है - कर्मस्तव में तीसरे मिश्र गुणस्थान में ७४ और चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है। परन्तु यहाँ तिर्यच मित्रगुणस्थान में मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और वज्रऋषभनाराच संहनन इन पाँच प्रकृतियों का अबन्ध होने से ६६ प्रकृक्तियों को बांधते हैं और १. 'सुराज ऋण एगतीस विष्णु मीसे । (तृतीय कर्मग्रन्थ गा०८) ३२ प्रकृतियों के नाम पृष्ठ पर दिये गये हैं । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मा अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में देवायु सहित ७० प्रकृतियों को एवं मनुष्य मिश्रगुणस्थान में ६९ और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तीर्थकर नामकर्म और देवायु सहित ७१ प्रकृतियों को बाँधते हैं। चौथे गुणस्थान की इन ०१ प्रकतियों में मनुष्यद्विक, औदारिकद्धिक, बऋषभनाराच संहनन और मनुष्यायु इन छह प्रकृतियों को मिलाने में कर्मस्तव बन्धाधिकार में सामान्य मे कही गई ७७ प्रकृतियों का तथा यहाँ पप्ति मनुष्य और तिर्यचों को तीसरे गुणस्थान में जो ६६ प्रकृतियों का बग्ध कहा गया है, उनमें पहले कही गई मनुष्यद्विक आदि छह प्रकृतियों में से मनुष्यायु के सिवाय शेष पाँच प्रकृतियों को मिलाने से ७४ प्रकृतियों का बन्ध समझा जा सकता है। पर्याप्त मनुष्य के पहले से चौथे गुणस्थान तक का बन्ध. स्वामित्व पूर्वोक्त प्रकार में समझना चाहिए और पांचवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त प्रत्येक गुणस्थान में दूसरे कर्मग्रन्थ के बन्धाधिकार में कही मई बन्धयोग्य प्रकृतियों के अनुसार उतनीउतनी प्रकृतियों का बन्ध समझ लेना चाहिए। जैसे कि पाँच गुणस्थान में ६७, छठे गुपास्थान में ६३, सातवें में ५६ या ५८ इत्यादि। विशेष जानकारी के लिए दूसरे कर्मग्रन्थ का बन्धाधिकार देख लें। पाँच गुणस्थान में पर्याप्त मनुष्य के ६.३ प्रकृतियों का और पर्याप्त तिर्यंच के ६६ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया गया है तथा दूसरे कर्मग्रन्ध में पांचवें गुणस्थान में ६७ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया गया है तो इस भिन्नता का कारण यह है कि पर्याप्त तिर्यचों के चौथे मुणस्थान में सम्यक्त्य होने पर भी तीर्थङ्कर नामकर्म के बन्धयोग्य अध्यवसायों के न होने से ७० प्रकृतियों का बन्ध बताया गया है और उन ७० प्रकृतियों में में अप्रत्यास्थानावरण कफायचतुष्का को कम करने से ६६ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है जबकि पर्याप्त मनुष्य चौथे गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म का भी :: बन्ध कर सकते हैं । अतः सामान्य से बन्धयोन्य ७१ प्रकृतियों में से Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ बन्धस्वामिद अप्रत्याख्याना वरणचतुष्क को कम करने से ६७ प्रकृतियों के बन्ध होने का कथन किया जाता है। पर्याप्त तिमंचों और मनुष्यों के बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद अब अपर्याप्त तिर्यंचों और मनुष्यों के सामान्य तथा विशेष दोनों प्रकार से बन्धवामित्व को बतलाते हैं ! ___ अपर्याप्त तिर्यच और अपर्याप्त मनुष्य- इनमें अपर्याप्त शब्द का मतलब लन्धि' अपर्याप्त समझना चाहिए, करपा अपर्याप्त नहीं । क्योंकि अपर्याप्त शब्द का उक्त अर्थ करने का कारण यह है कि अपर्याप्त मनुष्य तीर्थकरनामकर्म को भी बांध सकता है ।। इन लध्यपर्याप्त तिर्यचों और मनुष्यों के सामान्य में तीर्थंकर नामकर्म, देवद्विक, क्रियाद्विक, आहारकद्विक, देवायु, नरकत्रिक--इल ग्यारह प्रकृतियों को बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से कम करने पर १०६ प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा अपर्याप्त अवस्था में सिर्फ मिथ्यात्व सुणस्थान ही होने से इस मुणस्थान में भी १६ प्रकृतियों का बन्ध कर सकते हैं । क्योंकि मिध्यादृष्टि होने में तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक का बन्ध नहीं करते हैं तथा मरकर देवगति में जाते नहीं, अतः देवद्विक, वैक्रिय द्विक और देवायु का भी बन्ध नहीं करते हैं । अपर्याप्त जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होते, अतः नरकत्रिक का भी बन्ध नहीं करते हैं। इसलिए उक्त ग्यारह प्रकृतियों को कम करने से सामान्य की अपेक्षा और मिथ्यात्व मुगस्थान में अपर्याप्त तिर्यंचों और मनुष्यों के १०९ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है। सारांश यह है कि मनुष्यगति में पर्याप्त मनुष्यों के चौदह गुणस्थान होते हैं और सामान्य से १२० प्रकृतियों का बध हो सकता है। लेकिन अब सिर्फ मनुष्यगति की अपेक्षा बन्धस्वामित्व हो । १. मानावरण कर्म के क्षयोपशमविष को लंधिक । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বুৰীয় গল্প बतलाना हो तो पहले से लेकर पांचवें गुणस्थान तक पूर्व गाथा में कहे गये पर्याप्त तिर्यंचों के बंधस्वामित्व के अनुसार बन्ध समझना चाहिए । लेकिन इतनी विशेषता है कि चौथे और पाँच गुणस्थान में पर्याप्त तिपत्र ७० और ६६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, उसकी बजाय पर्याप्त मनुष्यों के चौथे गुणस्थान में तीर्थकर नामकर्म का भी बन्ध हो सकने से ७१ तथा पाँचव गुणगान में , प्रतियों का होगा। अर्थात् पर्याप्त मध्य पहले गुणस्थान में ११७. दूसरे गुणस्थान में १०१, तीसरे गुणस्थान में ६६, चौथे गुणस्थान में ७१ और पाँचवें गुणस्थान में ६७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और छठे गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक दूसरे कर्मग्रन्थ में बताये गये बन्धाधिकार के समान बन्ध समझना चाहिए। अपर्याप्त मनुष्य और तियंच के तीर्थकरनामकर्म में लेकर नरकत्रिक पर्यन्त ग्यारह प्रकृतियों का बन्ध्र ही नहीं होता है तथा पहला गुणस्थान होता है अतः सामान्य और गुणस्थान को अपेक्षा १०६ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए। इस प्रकार मनुष्यगति में बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में देवगन के बन्धस्वामित्व का वर्णन करते हैं... निरय व्य सुरा नवरं ओहे मिच्छे इगिदितिगसहिया ।। करपदुगे वि य एवं जिणहीणो जोइभवणवणे ॥१०॥ माधानारकों के प्रकृतिबन्ध के ही समान देवों के भी बन्ध समझना चाहिए। लेकिन सामान्य से और पहले गुणस्थान की बन्धयोग्य प्रकृतियों में कुछ विशेषता है। क्योंकि एकेन्द्रियत्रिक को देव बांधते हैं, किन्तु नारक नहीं बांधते हैं। कल्पद्विक में इसी प्रकार समझना चाहिए तथा ज्योतिष्कों, भवनपतियों और ब्यंतर देव निकायों के, तीर्थकरनामकर्म के सिवाय अन्य सब प्रकृतियों का बन्ध पहले और दुसरे देवलोक के देवों के समान समझना चाहिए। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्वामित्व विशेषार्थ-अब देवगति में सामान्य और गुणस्थानों की अपेक्षा बंधस्वामित्व बतलाते हैं । देवों के भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और कल्पवासी थे पार निकाय हैं और देवगति में भी नरकगति के समान पहले चार गुणस्थान होते हैं । अतः सामान्य से बंधस्वामित्व बतलाने के बाद चारों निकायों में गुणस्थानों की अपेक्षा बंधस्वामित्व का वर्णन किया जा रहा है। यद्यपि देवों को प्रकृतिबन्ध नारकों के प्रकृतिबन्ध के समान है। तथापि देवगति में एकेन्द्रियत्रिक-एकेन्द्रिय जाति, स्थावर नाम और आतप नाम-का भी वैध हो सकने से सामान्य बंधयोग्य व पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में नरकगति की अपेक्षा बन्धयोग्य प्रकृतियों में कुछ विशेषता होती है। __'निरय ध्य सुरा' नारकों की तरह देवों के भी बन्ध कहने का मतलब यह है कि जैसे नारक मरकर नरकगलि और देवगति में उत्पन्न नहीं होते हैं, वैसे ही देव भी मरकर इन दोनों गतियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसलिए देवनिक, नरकत्रिक और वैक्रियद्विक ...इन आठ प्रकृतियों का बन्ध्र नहीं करते हैं तथा सर्वदिस्त प्रथम के अभाव में आहारकद्विक का भी बंध नहीं करते हैं और देव मरकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा विकले न्द्रियों में भी उत्पन्न नहीं होते हैं, जिससे सूक्ष्मत्रिक और विकलेन्द्रियत्रिक इन छह प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते हैं । इस प्रकार उक्त कुल १६ प्रकृतियाँ बन्धयोग १२० प्रकृतियों में से कम करने पर सामान्य मे १०४ प्रकृतियों का बन्ध होता है। नरकगति में जो बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में में सुरद्विक से लेकर आसप नामकर्म पर्यन्त १६ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होने से १०१ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है, वहाँ एकेन्द्रियत्रिक--एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप इन तीन प्रकृतियों को भी ग्रहण किया गया है। लेकिन देव मरकर बादर एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो सकते हैं। अतएव नारकियों की अपेक्षा एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप- इन तीन प्रकृतियों को देव अधिक बांधते हैं। इसलिए नरकगति के Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतीय कर्मग्रन्थ समान ही देवों के सामान्य में बाध मानकर भी भरकगति की अवन्ध्य १६ प्रकृतियों में से एकेन्द्रियत्रिक का बन्ध होने से देवों के १०१ की बजाय १०४ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है। इस प्रकार सामान्य से देवगति में जो १७४ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया गया है, उसी प्रकार कल्पवासी देवों के पहले सोधर्म और दूसरे ईशान इन दो कल्पों तक समझना चाहिए। सामान्य मे बन्धयोग्य १०४ प्रकृतियों में से देवगति तथा पूर्वोक्तः कल्पट्टिक के देवों के मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थकरनामकर्म का बन्धन होने से १०३ प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा शेष दूसरे, तीसरे और चौथे गुग्गस्थान में मरकगति के समान ही क्रमशः ६, ७० और १२ प्रकृतियों का बन्ध होता है । ज्योतिष्क, भवनवासी और व्यन्तर निकाय के देवों के तीर्थकर नामकर्म का बन्ध नहीं होने से सामान्य और पहले मिथ्यात्व गुणास्थान की अपेक्षा १०३ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए क्योंकि इन सीन निकायों के देव वहाँ से निकलकर तीर्थकर नहीं होते हैं और तीर्थकर नाम की सत्ता वाले जीव भवनपति, अन्तर और ज्योतिरुक देवनिकायों में उत्पन्न नहीं होते हैं तथा इन तीन निकायों के जीव अवधिशान सहित परभव में जाते नहीं और तीर्थकर अवधिज्ञान महित ही घरभक में जाकर उत्पन्न होते हैं । इसलिए इन तीन निकायों के देवों के तीर्थकर नामकर्म का बन्ध नहीं होता है । इसलिए ज्योतिष्क आदि तीन निकायों के देवों के सामान्य से और पहले गुणस्थान में १०३, दूसरे में ६६. तीसरे में ७० और चौथे में तीर्थक र नामकर्म का बन्ध न होने से ७२ की बजाय ७१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। ___सारांश यह है कि देवमति में सामान्य की अपेक्षा नरकगलि के समान बन्ध होने का नियम होने पर भी एकेन्द्रियत्रिक का बन्ध अधिक होता है । इसलिए जैसे मरकमति में सामान्य र १०१ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनस्वामित्व प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है, उसकी अपेक्षा इन १.१ प्रकृतियों में एकेन्द्रियनिक को और मिलाने पर १०४ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए। इन १०४ प्रकृतियों का बन्ध सामान्य से कल्पवासी देवा तथा पहले और दूसरे कल्प के देवों को समझना चाहिए। लेकिन मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थकरनामकर्म का बन्ध नहीं होने से १०३ प्रकृतियों का, दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व के उदय से बँधने वाली एकेन्द्रिय जाति आदि सात प्रकृत्तियों के नहीं बंधने से १६ और इन ६६ प्रकृत्तियों में से अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि २६ प्रकृत्तियों को कम करने से तीसरे गुणस्थान में ७० प्रकृतियों का बन्ध्र होता है और चौथे स्थान में मनुष्यायु एवं तीर्थकरनामकर्म का बन्ध होने में मिश्र गुणस्थाल की ७० प्रकृतियों में इन दो प्रकृतियों को जोड़ने से ७२ प्रकृतियों का बन्न होता है। ___ज्योतिष्क, भवनति और व्यंसर निकाय के देवों के तीर्थकर नामकर्म का बन्ध नहीं होता है। अतः इन तीनों निकायों के देवों के सामान्य से बन्धयोग्य प्रकृत्तियाँ १०३ हैं तथा मिथ्यात्व मुणस्थान में भी १०३ प्रकृतियों का बंध होता है। दूसरे तथा तीसरे गुणस्थान में कल्पवासी देवों के समान ही ६६ और ७० प्रकृतियों का और चौथे गुणस्थान में तीर्थकरनामकर्म का बन्ध न होने से ७२ की बजाय ७१ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए। इस प्रकार से देवगति में सामान्य से तथा कल्पवासियों के कल्पद्विक तथा ज्योतिष्क, भवनपति और व्यंतर निकायों के गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद आगे की गाथा में सनत्कुमारादि कल्पों और इन्द्रिय एवं कार मार्मणा में बन्धस्वामित्व का वर्णन करते हैं... रयण व सणकुमाराई आणधाई उजोपचड रहिया । अपयतिरिय व नवसमिगिदि युद्धविजलसरविगले ॥११॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतीय कर्मथ गाया --सनत्कुमारादि देवलोकों में रत्नप्रभा नरक के मारकों के समान तथा आनतादि में उखोत चतुष्क के सिवाय शेष बन्ध समझना चाहिए। एकेन्द्रिय, पृथ्वी, जल, वनस्पति और विकले. न्द्रियों में अपर्याप्त तिबंधों के समान १०९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। विशेषार्थ-इस गाथा में सनत्कुमार आदि तीसरे देवलोक में लेकर नवग्रं वेयक देवों पर्यन्त तथा इन्द्रियमार्गणा के एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय--- द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय एवं कायमार्गणा के पृथ्वी, जल, धनस्पति काय के जीवों के बन्धस्वामित्व को बतलाया गया है। ___ गाथा में सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक से नवग्रंबेयक तक के देवों के वन्धस्वामित्व का वर्णन दो विभागों में किया गया है। पहले विभाग में सनत्कुमार से लेकर आमत स्वर्ग के पूर्व सहस्रार तक के देवों को और दूसरे विभाग में आनत स्वर्म से लेकर नवग्रंदे. यक पर्यन्त देवों को ग्रहण किया है । यद्यपि गाथा में अनुत्तर विमानों के बारे में संकेत नहीं किया गया है, लेकिन अनुत्तर विमानों में सदैव सम्यकृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं और उनके चौथा गुणस्थान ही होता है । इसलिए कर्मप्रकृतियों के बन्ध में न्यूनाधिकता न होने से सामान्य से व गुणस्थान की अपेक्षा एक सा ही बन्ध होता है । देवों के चौथे गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का बन्ध होता है, अतः इनके भी वही समझना चाहिए। उक्त दो विभागों में पहले विभाग के सनत्कुमार से सहलार देवलोक तक के देव जैसे रत्नप्रभा नरक के नारक सामान्य से और मुणस्थानों में जितनी प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, वैसे ही उतनी प्रकृत्तियों का बन्ध इन देवों को समझना चाहिए। क्योंकि ये देव उन-उन देवलोकों से जब कर एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिए एकेन्द्रिय-प्रायोग्य एकेन्द्रिय जाति, स्थावर नाम और आतप माम-इन तीन प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते हैं । इसलिए सामान्य से १०१ प्रकृतियों को बाँधते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थकरनाम Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XO গ্রামিং कर्म से रहित १००, सास्वादन गुणस्थान में नपुंसकचतुरुक के बिना १६ और मिश्र गुणस्थान में अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि २६ से रहित ७० और अविरत सम्यम्दृष्टि गुणस्थान में मनुष्यायु, तीर्थकरनामकर्म का भी बन्ध होने से ७२ प्रकृतियों को बाँधते हैं। आनतादि नवग्रं वेयक पर्यन्त के देव उद्योतचतुष्कः -- उद्योतनाम, तिर्यंचगति, तिथंचानुपूर्वी और सिना इन चार प्रकालिगों को नहीं बांधते हैं। क्योंकि इन स्वर्गों से च्यव कर ये देव मनुष्य गति मे ही उत्पन्न होते हैं, तिबंधों में नहीं । अतः तिर्यंच प्रायोग्य इन चार प्रकृतियों को नहीं बाधते हैं। इसलिए १२० प्रकृतियों में सुरद्विक आदि उन्नीस और उचोत आदि चार प्रकृतियों को कम करने में १५ प्रकृतियों का सामान्य में बन्ध करते हैं और गुणस्थानों की अपेक्षा पहले में १६, दूसरे में १२, तीसरे में १० और चौथे में ७२ प्रकृतियों का वध करते हैं। ____ अनुसर विमानों में सम्यक्त्वी जीव ही उत्पन्न होते हैं और सम्मानव की अपेक्षा चौथा गुणस्थान होता है । अत: इनके सामान्य से और गुणस्थान की अपेक्षा ७२ प्रऋतियों का अन्ध समझना चाहिए। इस प्रकार से गतिमार्गणा में बन्धस्वामित्व बतलान के बाद अब आगे इन्द्रिय और काम मार्गणा में बन्धस्वामित्व को बतलाते हैं। इन्द्रियमाणा में एकेन्द्रिय. द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा काधमार्गणा में पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकाय के जीव अपर्याप्त तिर्यचों के समान १०६ प्रकृतियों को बन्ध करते हैं।' क्योंकि अपनीप्त तिर्यंच या मनुष्य तीर्थकरनामकर्म से लेकर नरकत्रिक पर्यन्त ११ प्रकृत्तियों का बन्ध नहीं करते हैं, इसी प्रकार यह सातों मागंणा वाले जीवों के सम्यक्त्व नहीं है तथा देवगति और १ जिण कारस होणं नबसाउ अपातलिपियनरा । -मंन्य ३, गा०६ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतोष कर्मप्रस्थ नरकगति में उत्पन्न नहीं होते हैं । इसलिए तीर्थकरनाम, दवति, देवानुपूर्वी, देवायु, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, बैंक्रिय शरीर, बैंक्रिय अंगोपांग, आहारक' शरीर, आहारक अंगोपांग इन म्यारह प्रकृत्तियों का बन्ध नहीं करते हैं । इसलिए इनके सामान्य से 4 मिथ्यात्व गुणस्थान में १०६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। सारांश यह कि सनत्कुमार से लेकर सहस्रार देवलोकपर्यन्त के देव रत्नप्रभा नरक के नारकों के समान ही सामान्य से १०१ प्रकृतियों का और मिथ्यात्व गुणस्थान में १००, सास्वादन गुणस्थान में ६६, मिश्र गूणस्थान में ५० तथा अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। आनत से लेकर नव गंवेयक तक के देव तिर्यमगति में उत्पन्न नहीं होते हैं। अतः तिर्फ धगलियोग्य उद्योत, तिर्वचगति, तिर्यंचानपूर्वी और तिर्यंचायु का बन्ध नहीं करते हैं अतः सनत्कुमारादि देवा में सामान्य से बंधयोग्य बताई गई. १०१ प्रकृतियों में से इन चार प्रकृतियों को भी कम करने से सामान्य से दे १७ प्रकृतियों का बन्छ करते हैं । गुणस्थानों की अपेक्षा आनत आदि कल्पों के देवों में बन्धस्वामित्व क्रमशः ६६, ६२,७०, ७२ प्रकृतियों का समझाना चाहिए। अनुत्तर विमानों में सम्यक्त्वी जीन उत्पन्न होते हैं और उनके चौथा गुणस्थान होता है । अतः सनके सामान्य से और गुणस्थान की अपेक्षा पहले कहे गये देवों के चौथे गुणस्थान के बन्धस्वामित्व के समान ७२ प्रकृलियों का बन्ध समझना चाहिए। गतिमार्गणा के प्रभेदों में बन्धस्वामित्व को बतलाने के बाद क्रमप्राप्त इन्द्रिय और काय मार्गणा में बन्धस्वामित्व का कथन किया है। इन्द्रियाँ पाँच होती हैं-स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और धोत्र; . . और जिस जीव को क्रम से जितनी-जितनी इन्द्रियां होती हैं, उसको Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ मन्यशसिस्य उतनी इन्द्रियों वाला जीव कहते हैं। जैसे—जिसके पहली स्पर्शनेन्द्रिय होती है उसे एकेन्द्रिय, जिसके स्पर्शन, रसना---यह दो इन्द्रियां होती हैं, उसे द्वीन्द्रिय कहते हैं । इसी प्रकार क्रम-क्रम से एक-एक इन्द्रिय को. बढ़ाते जाने पर पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं । इन एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में से इस गाथा में एकेन्द्रिय, बीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जीवों का तथा कायमार्गणा के पहले बताये गये छह भेदों में में पृथ्वीकाय. अपकाय और वनस्पतिकाथ-इन तीन कायों का बन्धस्वामित्व बतलाया गया है। ये एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक तथा पृथ्वी, अप और वनस्पतिकाय कुल सात प्रकार के जीवों में पहले गतिमार्गमा में कहे गये अपर्याप्त तिर्यचों के बन्धस्वामित्व के समान ही १०९ प्रकृतियों का सामान्य से बन्ध समझना चाहिये तथा अपर्याप्त तिर्यो । के पहले गुणस्थान में अपर्याप्त नियंत्रों के समान १०६ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए। __इस प्रकार गतिमार्गणा में सनत्कुमार से अनुत्तर तक के देवों तथा इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय ब विकलेन्द्रियों और कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकाय के बन्धस्वामित्व को बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में एकेन्द्रिय आदि का सास्वादन गुणास्थान की. अपेक्षा बन्धस्वामित्व सम्बन्धी मतान्तर बतलाते हैं .... छनवई सासणि विण सुहमलेर केइ घुण बिति चलनवाइ । सिरियनराहि विणा तपज्जत्ति' मते जति ॥१६॥ गायार्थ पूर्वोक्त एकेन्द्रिय आदि जीव सूक्ष्मत्रिक आदि तेरह प्रकृत्तियों के बिना सास्वादन गुणस्थान में ६६ प्रकृति को बन्ध करते हैं । किन्हीं आचार्यों का मत है कि वे शारीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं करते हैं, अतः तिथंचायु और मनुष्यायु के बिना १४ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। "--...........-.-............. १. 'न जति जओ' ऐसा मी पाठ है । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ विशेधार्थ - इस गाथा में एक य. निमोनिय. सी, अप और वनस्पति काय के जीवों के सास्वादन गुणस्थान में बन्धस्वामित्व को बतलाया है। पूर्वगाथा में एकेन्द्रिय आदि जीवों के सामान्य मर और गुमस्थान की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान में अपर्याप्त तियंत्रों के समान १०६ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया था । इन १०१ प्रकृतियों में से सास्वादन गुणस्थान में सूक्ष्मत्रिक, विकलविक, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर नाम, नपुसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंड संस्थान और सेवात संहनन ये १३ प्रकृतियाँ मिथ्यात्व के उदय से बंधती है, किंतु सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय न होने से इनको कम करने पर ६६ प्रकृतियों का बिन्ध होता है क्योंकि भवनपत्ति, व्यन्तर आदि देवजाति के देव मिथ्यात्वनमित्तक एकेन्द्रिय-प्रायोग्य आयु का बन्ध करने के अनन्तर सम्यक्त्व प्राप्त करें तो वे मरण के समय सम्यक्त्व का वमन करके एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होते हैं । उनके शरीर पर्याप्ति पूर्ण करने के पहले सास्वादन सम्यक्त्व हो तो वे ६६ प्रकृत्तियों का बन्ध्र करते हैं । लेकिन दूसरे आचार्यों का मत है कि ये एकेन्द्रिय आदि दुसरे गुणस्थान के समय तिर्यंचायु और मनुष्यायु का भी बन्ध नहीं करने से ६४ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। इसी ग्रन्थ में आगे औदारिकमिश्र में भी सास्वादन गुणस्थान में आयुबन्ध का निषेध किया है। क्योंकि यह अपर्याप्त है। यह सिद्धान्त है कि कोई भी जीव इन्द्रियपर्याप्ति पूरी किये बिना आयु का बन्ध नहीं कर सकते हैं। १. सूक्ष्मनाम, साधारणनाम, अपर्याप्तनाम । २. द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय । ३. सासणि चजनवद विणा नरसिरिआऊ सुहमलेर । पन्ध ३, गाथा १४ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामामिस्व ६६ और ६४ प्रकृतियों के बन्धस्वामित्व की मतभिन्नता प्राचीन बन्धस्वामित्व में भी देखी जाती है । इस सम्बन्धी गाथाएँ निम्न प्रकार हैं साणा बन्नाह लोलस मरतिग होणा या मोत नउई । ओघेणं बोसुसर सयं च पंचिनिया सन्धे १३॥ सविलिदी साणा सणु पत्ति न मंति में तेण । नर तिरयाउ अगन्धा मयंसरण सु बजगाई ॥२४॥ १६ प्रकृतियों का बन्ध्र मानने वालों का अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि इन्द्रियपर्याप्ति के पूर्ण हो चुकने के बाद, जबकि आयुवन्ध का काल आता है, तब तक सास्वादन भाव बना रहता है । इसलिए सास्वादन गुणस्थान में एकेन्द्रिय आदि जीव तिर्यंचायु तथा मनुध्यायु का बन्ध कर सकते हैं। लेकिन ६४ प्रकृत्तियों का बंध मानने वाले आचार्यों का मत है कि एकेन्द्रिय जीव का जघन्य आयुष्य २५६ आलिका होता है । आगामी भव का आयुष्य इस भव के आयुष्य दो भाय बोल जाने के बाद तीसरे भाग में बंधता है, अर्थात् आगामी भव का आयुष्य २५६ आवलिका के दो भाग १७० आवलिका बीत जाने के बाद तीसरे भाग को १७१वी आवली में बंधता है और सास्वादन सम्यकद का समय (छह आवली) पहले ही पूरा हो जाता है। सास्वादन अवस्था में पहली तीन पर्याप्ति पूर्ण हो जाती हैं, यदि ऐसा मान भी लिया जाय तो भी आयुष्य-बन्ध सम्भव नहीं माना जा सकता है तथा औदारिकमिश्न मार्गणा में ६४ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है । अतः ६४ प्रकृतियों के बन्ध का मत युक्तिसंगत मालूम होता है । इसी मत के समर्थन में श्री जीवविजयजी तथा जयसोमसूरि ने अपने टवे में यही बात कही है। इसी मत का समर्थन गोम्मटसार कर्मकाण्ड में नमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी किया है पुरिणवर विगिविगले तस्थुषाणो हु ससाई वेहे । पज्जति मवि पावि इरितिरिपाऊस गरिथ ॥११३१॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ तृतीय कर्मग्रन्थ (एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय, अर्थात दो इन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय में, ferratoक अवस्था की तरह बन्धयोग्य १०६ प्रकृतियाँ समझना, क्योंकि तीर्थंकर, आहारकद्वय, देव यु. नरकायु और वैक्रिय बक इस तरह भ्यारह प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता और एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय में उत्पन्न हुआ जीव सास्वादन गुणस्थान में देह (शरीर) पर्याप्त को पूरा नहीं कर सकता है क्योंकि सास्वादन काल अल्प है और निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था का काल बहुत है । इस कारण इस गुणस्थान में मनुष्यायु तथा तिचा का भी बन्ध नहीं होता है ।) उक्त दोनों मतों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'एकेन्द्रिय आदि में सास्वादन गुणस्थान में ६६ और १४ प्रक्रतियों के बंध विषयक मतों में से ६६ प्रकृतियों के बन्ध वालों का मन्तव्य यह है कि शरीरपर्याप्त पूर्ण होने के बाद भी सास्वादन रहता है और उस समय आयुष्य का बन्ध करे तो ६६ प्रकृतियों का बन्ध हो ! इससे यह प्रतीत होता है कि छह आवलिका में अन्तर्मुहूर्त गध्यम हो जाता है, इसलिए शरीरपर्याप्त छह आलिका में पूर्ण हो जाती है, उसके बाद आयुष्य का बन्ध होता है, ऐसा मालूम होता है। परन्तु श्री जीवविजयजी और जयसोमसूरि ने अपने में तथा योम्मटसार कर्मकाण्ड में यह मत प्रदर्शित किया है कि एकेन्द्रिय आदि की जघन्य आयु २५६ आवलिका प्रमाण है और उसके दो भाग अर्थात १७० आवलिकाएँ बीतने पर ही आयुबन्ध संभव है । परन्तु उसके पहले ही सास्वादन सम्यक्त्व चला जाता है, क्योंकि वह उत्कृष्ट छह आवलिकापर्यन्त रहता है। इसलिये सास्वादन अवस्था में ही शरीर और इन्द्रियपर्याप्ति का पूर्ण बन जाना मान भी लिया जाये तथापि सास्वादन अवस्था में आयुबन्ध किसी तरह संभव नहीं है । इसके प्रमाण में औदारिकमित्र मागंगा के सास्वादन गुणस्थान सम्बन्धी ६४ प्रकृतियों के बन्ध का उल्लेख किया है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी बताया है कि एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय में पैदा हुआ सास्वादन सम्यक्त्वी जीव शरीरपर्याप्ति ! Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ को पूरी नहीं कर सकता है, इससे उसको उस अवस्था में मनुष्यायु और तित्रायु का बन्ध नहीं होता है।" अस्थमस्व उक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ४ प्रकृतियों के बन्ध का पक्ष विशेष सम्मत और युक्तियुक्त प्रतीत होता । फिर भी ६६ प्रकृतियों के बन्ध को मानने वाले आचार्यों का क्या अभिप्राय है, यह केबलीगम्य है | मारांश यह है कि एकेन्द्रिय, विकलत्रय द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पृथ्वीकra, अकाय और वनस्पतिकाय के जीव सास्वादन गुणस्थान में सुक्ष्मत्रिक आदि तेरह प्रकृतियों को पहले freera reस्थान की बंधयोग्य १०६ प्रकृतियों में से कम करने पर ९६ प्रकृतियों को बाँधने हैं तथा किन्हीं किन्हीं आचार्यों का मत है कि इन एकेन्द्रिय आदि वनस्पतिकायपर्यन्त सात मार्गेणा वाले जीवों के सास्वादन गुणस्थान में शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होने से परभव सम्बन्धी मनुष्यायु और तिचा का भी बन्ध नहीं होता है । अतः ये ६४ प्रकृतियों का बंध करते हैं । एकेन्द्रिय आदि के बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद आगे की गाथा में पंचेन्द्रिय, गतिवस और योग मार्गेणा सम्बन्धी duafora को बतलाते हैं ओहु पणिदि तसे गइतसे जिविकार नरतिमुच्च विणा । मणत्रयजोगे ओहो उसे नरभंगु तम्मिस्से १३ गाथार्थ - पंचेन्द्रिय जाति व सकाय में ओघ - वैधाधिकार में बताये गये बन्ध के समान बन्ध जानना तथा गलियस में जिनएकादश तथा मनुष्यमिक एवं उच्चगोत्र के सिवाय शेष २०५ प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा मनोयोग और वचनयोग में ओघ बन्धाधिकार के समान तथा औदारिक काययोग में मनुष्य गति के समान बन्ध समझना और औदारिक मिश्र में ant at afa आगे की गाथा में करते हैं । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ तृतीय कर्मप्रत्य विशेषार्थ - इस गाथा में पंचेन्द्रियजाति, जसकाय, गतिस के aa area करने के साय योग में के का प्रारम्भ किया गया है । पंचेन्द्रियजाति और xeera का बन्धस्वामित्व बन्धाधिकार में सामान्य से तथा गुणस्थानों की अपेक्षा कहे गये बन्ध के अनुसार ही समझना चाहिए अर्थात् जैसा कर्मग्रन्थ दूसरे भाग में सामान्य से १२० और विशेष रूप से गुणस्थानों में पहले से लेकर तेरहवें पर्यन्त क्रमश: ११७ २०१, ७४, ७७ आदि प्रकृतियों का बन्ध कहा है, वैसा ही पंचेन्द्रियजाति और साथ में सामान्य से १२० और गुणस्थानों में क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७ आदि प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिये । इसी तरह आगे भी जिस मार्गणा में बन्धाधिकार के समान बन्ध स्वामित्व कहा जाय, वहाँ उस मार्गणा में जितने गुणस्थानों की संभावना हो, उतने गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान बन्धFarfare समझ लेना चाहिये । शास्त्र में स जीव दो प्रकार के माने गये हैं-गतिवस, लब्धियस । जिन्हें स नामकर्म का उदय होता है और जो चलते-फिरते भी हैं, उन्हें लब्धिस' तथा जिनको उदय तो स्थावर नामकर्म का होता है, परन्तु गतिक्रिया पाई जाती हैं, उन्हें गतित्रस कहते हैं । उक्त दोनों प्रकार के नसों में से four के Pataria को बतलाया जा चुका है । अब गतित्रस के बन्धस्वामित्व को बतलाते हैं । गतिस के दो भेद हैं- danta और वाकाय । इन दोनों के स्थावर नामकर्म का उदय है। लेकिन गति साधर्म्यं से उनको गतिस कहते हैं । १ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, ये कहलाते हैं क्योंकि - इनको स नामकर्म का उदय है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ मन्यस्वामित्व इन दोनों बसों के सामान्य में बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में में जिन-एकादश अर्थात तीर्थकरनामकर्म से लेकर नरकत्रिकपर्यन्त ११ प्रकृतियों तथा मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र इन १५ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है । अतः १२० प्रकृतियों में से १५ प्रकृतियों को कम करने में १०५ प्रकृतियों का बन्ध होता है। तीर्थकरनामकर्म आदि १५ प्रकृतियों के बन्ध न होने का कारण यह है कि काय और वायुकाय के जीव देव, मनुष्य और नारकों में उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिए उनके योग्य १४ प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते हैं। तेउकाय और वायुकाय जीव तिथंचगति में उत्पन्न होते हैं तथा वहाँ भवनिमित्तकनी मन उदय में होता है; इसलिए उच्च गोत्र का बध नहीं कर सकते हैं। इन दोनों गतित्रसों के सिर्फ मिध्यात्व गृणस्थान ही होता है, सास्वादन गुणस्थान नहीं होता है, क्योंकि सम्यक्त्व का वमन करता हुआ कोई जीव इस गुणस्थान में आकर उत्पन्न नहीं होता है। इसलिए सामान्य से जैसे सेउकाय और वायुकाय के जीव १०५ प्रकतियों को बांधते हैं, उसी प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान में भी १०५ प्रकृतियों का बन्ध होता है। ___काय मार्गणा में बन्धस्वामित्व का काथन करने के बाद अब योगमार्गणा में बन्धस्वामित्व बतलाते हैं। योग के मूल में मनोयोग, वचस्योग और काययोग-ये तीन मुख्य भेद हैं और इनमें भी मनोयोग के चार, वचनयोग के चार और काययोग के सात भेद होते हैं । मनोयोग और मनोयोग महित वचन योग इन दो भेदों में तेरह गुणस्थान होते हैं, अतः उनमें दूसरे कर्म ग्रन्थ में बतलाये गये वन्ध के अनुसार ही बन्ध समझना चाहिये । गाश के 'मणवयमओगे ओहो उरने दरभंग' पद में मणश्य योगे तथा उरले- ये दोनों पद सामान्य हैं तथापि 'ओहो' और 'भरमंगु पर के मध्य में प्रयोग' का मतलब मनोयोग सहित वचनयोग Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कमपन्य और उरल का मतलब मनोयोग, वचनयोग सहित औदारिक काययोग समझना चाहिये । उसी दृष्टिकोण की अपेक्षा बन्धस्वामित्व का विचार किया गया है। लेकिन अयोग से केवल वचनयोग और वरल से केवल औदारिक काग्रयोग ग्रहण किया जाय तो मनोयोग रहित बचनयोग में बन्धस्वामित्व विकलेन्द्रिय के समान और काययोग में एकेन्द्रिय के समान समझना चाहिए । अर्थात् जैसे विकलेन्द्रियों और एकेन्द्रिय में क्रमशः सामान्य से १०६. मिथ्यात्व गुणस्थान में १०६ और सास्वादन गुणस्थान हद अ रियों का नई पासवा है उसी प्रकार इनमें भी बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। ___ सारांश यह है कि पंचेन्द्रिय तथा अस मार्गणा में सामान्य बन्धाधिकार के समान बन्ध समझना और गलित्रसों में जिन-एकादश, मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र इन १५ प्रकृतियों को कम करने मे १०५ प्रकृत्तियों का सामान्य से और पहले गुणस्थान में बंध होता है। योग मार्गणा में मनोयोग, बचनयोग सहित औदारिक काययोग वालों के पर्याप्त मनुध्य में कहे गये बन्ध के समान ही बन्ध समझना । केवल बचनयोग और काययोग का बन्धस्वामित्व एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के समान बताये गये बन्छ के समान समझना चाहिए। इस प्रकार मन, वचन व उन सहित औदारिक काययोग में पूर्ण रूप से तथा काययोग में औदारिक काययोग का बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद आगे काययोग के शेष भेदों में बन्धस्वामित्व बतलाते हैं। उनमें में सर्वप्रथम औदारिकमिश्र काययोग का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं-- आहार छग विणोहे चउससड मिच्छि जिणयमगहीन । सासणि चलनवा विणा नरतिरिम सहमतेर ॥१४॥ १. तिरिअनसक ...इति पाठान्तरम् । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम्हस्वामिय गामार्थ- (पूर्व गाथा में लम्मिसे पद यहाँ लिया जाय) औदारिक मिश्रयोग में सामान्य से आहारकपटक के बिना १६४ प्रकृतियों का : बन्ध होता है और मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननामपंचम : से होन १०६ प्रकृतियों का बन्ध मानना चाहिए तथा सास्वादन में मनुष्यायु और तियंचायु तथा सूक्ष्मत्रिक आदि तेरह कुल १५ प्रकृतियों के सिवाय १४ प्रकृत्तियों का बन्ध होता है । विशेषार्थ -- गाथा में औदारिकमिश्र काययोग मार्गहा में सामान्य रूप से और पहले, दूसरे गुणस्थान में बन्धस्वामित्व का कथन किया गया है। पूर्वभव में आने वाला जीव अपने उत्पति स्थान में प्रथम समय में केवल कार्मणयोग द्वारा आहार ग्रहण करता है । उसके बाद औदा. रिक काययोग की शुरुआत होती है, वह शरीरपर्याप्ति श्नने तक . कार्मण के साथ मिथ होता है और केवलिसमुद्धात अवस्था में दूसरे, छठे और सातवें समय में कार्मण के साथ औदारिकमिध योगद होता है। __औदारिकामश्च का योगयमनुष्य और तिर्यंचों के अपर्याप्त अवस्था में ही होता है और इसमें पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवा ये चार गुणस्थान होते हैं। औदारकमिथ काययोग में सामान्य में आहारकटिक---आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, देवायु और नरकत्रिक... नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु इन छह को बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से कम करने में ११४ प्रकृतियों का बंध होता है । क्योंकि विशिष्ट चारित्र के अभाव में; सथा सातवें गुणस्थान में ही बन्ध होने से माहारकृतिक का औदारिकमिश्र काययोग में बन्ध नहीं हो सकता तथा देवायु और .. नरकत्रिक-... इन चार प्रकतियों का बंध सम्पूर्ण पर्याप्ति पूर्ण किये बिना नहीं होता है, अतः इन छह प्रकृतियों का बंध औदारिकमिधः । काययोग में नहीं माना जाता है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ असीम कर्म प्रस्त्र ___औदारिकमिश्र काययोग में पहले मिथ्यात्व गुणस्थान के समय जिनपंचक- तीर्थङ्करलामकर्म, देवति, देवानुपूर्वी, बैंक्रिय शरीर, वैकय अंगोपांग को सामान्य से बंधयोग्य ११४ प्रकृतियों में से कम करने पर १०६ प्रकृतियों का बंध होता है। औदारिकमिश्र काययोग में जो १०१ प्रकृतियों का बंधस्वामित्व मिथ्याश्व गुणस्थान में माना गया है, उसमें मनुष्यायु और तिथंचायु का भी प्रहण किया गया है। इस सम्बन्ध में शीलांकाचार्य का मत है कि औदारिकमिश्र काययोग शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने के पूर्व तक होता है। श्री भद्रबाहु स्वामी ने भी इसी मत के समर्थन में युक्ति दी है.---. जोएण कम्मएणं आहारे अतरं जीवो। लेग पर मौसेनं जरख सरोर मिस्फती ।। इसको लेकर श्री जीवविजयजी ने अपने टब में शंका उठाई है कि औदारिकमिश्र काययोग शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने पर्यन्त रहता है, आगे नहीं और आयुबंध शरीरपर्याप्ति और इन्द्रियपर्याप्ति पूरी हो जाने के बाद होता है, पहले नहीं । अतएव औदारिकमिश्र काययोग के समय, अर्थात् गरीरपर्याप्ति पूर्ण होने से पूर्व आयु का बंध सम्भव नहीं है। इसलिए उक्त दो आयुओं का १०६ प्रकृतियों में ग्रहण विचारणीय है। लेकिन यह कोई नियम नहीं है कि शरीरपर्याप्ति पूरी होने पर्यन्त औदारिकमिश्न काययोग माना जाय, आगे नहीं। श्री भद्रबाहु स्वामी ने जो युक्ति दी है उसमें 'सरीर निक्कली' पद का यह अर्थ नहीं है कि शरीर पूर्ण बन जाने पर्यन्त उपक योग रहता है । शरीर की पूर्णता केबल शरीरपर्याप्ति के बन जाने से नहीं हो सकती है । इसके लिए जीव का अपने-अपने योग्य इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन सब पर्याप्तियों के पूर्ण हो जाने में ही शरीर का १. औदारिककाययोगस्ति मनुष्ययोः शरीरपर्याप्तकर्वम् । ...आबाटोका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अन्धस्वामिक पुरा बन जाना माना जा सकता है । 'सरीर निपफत्तो' पद का यह अर्थ स्वकल्पित नहीं है। इस मर्ग का सपन पद सरकारी देने सूरि में स्वरचित चौथे कर्मग्रन्थ की चौथी माया' के 'समुप जरलमग्ने 'इस अंश की निम्नलिखित टीका में किया है -- यपि तेषां शरीर पर्यादितः अवजनिष्ट संबायोनियोधासा. मामाध्यनिध्ययन गरीरस्यासपूर्णस्वातएव कार्मणस्यास्यापि धाप्रियमा स्वाचारिक मिश्रमेव सेवा युक्त्या घाटमामकार्मात । ___ अब यह भी पक्ष है कि स्वयोग्य सब पर्याप्तियां पूरी हो जाने तक औदारिकमिश्न काययोग रहता है, सब औक्षारिकांमध काय योग शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने पर्यन्त रहता है, आगे नहीं और आयुबंध भरीरपर्याप्ति और इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण हो जाने के बाद होता. हैं, पहले नहीं--इस संदेह को कुछ भी अवकाश नहीं रहता है । क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन जाने के बाद जब कि आयुबंध का अवसर आता है, तब भी औदारिकमिश्र काययोग तो रहता ही है । इसलिये औदारिकमिश्र काययोग में मिथ्याल मुणस्थान के समय मनुष्यायु और तियं चायु--इन दो आयुओं का बन्धस्वामित्व माना जाना इस पक्ष की अपेक्षा युक्त ही है। ___ मिथ्यात्व गुणरथाम के समय औदारिकमिश्र काययोग में उक्त दो आयुओं के .संध का पक्ष जैसा कर्मग्रन्थ में निर्दिष्ट किया गया है। वैसा ही गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी बताया है लोरा या मिस्मे ण सुरणिरयाउहाणि रयधुर्ग : मिहसुन बमोतिर ण हि अविरदे अत्यि ॥११॥ अर्थात् ....औदारिकमित्र काययोग में औदारिक काययोमचत रचना जानना । विशेष बात यह है कि देवायु, नरकायु, आहारकाद्विक, नरकगति, नरकानुपूर्वी-- इन छह प्रकृतियों का बन्ध भी नहीं होता है। १ अपमसछविक कम्मुरलमीस जोगा अपजमन्निसु से ! - सविन्धमीस एस. तापजे उरलमन्ले ।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कम प्रत्य ५३ अर्थात् ११४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । उसमें भी मिथ्यात्व और सास्वादन- इन दो गुणस्थानों में देवचतुष्क और तीर्थकर नामकर्म इन पाँच प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, परन्तु चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में इनका बन्ध होता है । न की पुष्टि भी सूरि ने अपने दबे में भी की है। उन्होंने लिखा है कि 'यदि यह पक्ष माना जाय कि शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने तक ही औदारिकमिश्र काययोग रहता है तो मिथ्यात्व में तिर्यंचा तथा मनुष्यायु का वध कथमपि नहीं हो सकता है । इसलिए इस पक्ष की अपेक्षा उस योग में सामान्य रूप से ११२ और मिध्यात्व गुणस्थान में १०७ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिये ।' इस कथन से स्वयोग्य पर्याप्त पूर्ण वन जाने तक औदारिकमिश्र काययोग रहता हैं - इस पक्ष की स्पष्ट सूचना मिलती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि औदारिकमिश्र काययोग में सामान्य से बंधयोग्य ११४ प्रकृतियाँ और पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में १०२ प्रकृतियाँ योग्य मानना युक्तिसंगत है । पहले गुणस्थान में औदारिकमिश्र काययोग का बन्धस्वामित्व बत लाने के बाद अब दूसरे सास्वादन गुणस्थान में स्वामित्व बतलाते हैं । इस गुणस्थान में मनुष्यायु और तिर्यचायु का बन्ध नहीं होता है । क्योंकि सास्वादन गुणस्थान में बर्तता जीव शरीरपर्याप्त पूर्ण नहीं करता है। क्योंकि शरीपर्याप्त पूर्ण हो जाने के बाद आयुबन्ध होना संभव है तथा यहाँ मिथ्यात्व का उदय न होने से मिथ्यात्व के उदय से बाँधने वाली सुक्ष्मत्रिक से लेकर सेवा संहनन पर्यन्त १३ प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता है । अतः उक्त दो और तेरह ये कुल पन्द्रह प्रकृतियों को पहले मिध्यात्व गुणस्थान की बन्धयोग्य १०६ प्रकृतियों में से कम करने पर ९४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । अर्थात् उक्त १५ प्रकृतियों में से १३ प्रकृतियों का विच्छेद मिथ्यात्व गुणस्थान के चरम समय में हो जाने से तथा दो आयु अबन्ध होने से औदारिकfor काययोग वाले के तूने समस्थान में प्रकृतियों का बन्ध होता हैं । - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......... बस्वामित्व सारांश यह है कि औदारिकमित्र काययोग मार्गणा में सामान्य से ११४ प्रकृतियों बन्धयोग्य हैं और इस योग वाले के पहला, दूसरा तेरा ये स्थान होते हैं। इनमें से पहले गुणस्थान में १०६ तथा दूसरे गुणस्थान में ६४ प्रकृतियों का होता है । .. ५४ इस प्रकार औerfoकमिश्र काययोग मागंणा में सामान्य से तथा गुणस्थान की अपेक्षा पहले, दूसरे गुणस्थान में बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद आगे की गाथा में चौथे और तेरहवें गुणस्थान में बन्धस्वामित्वं बतलाते हैं। साथ ही कार्मण काययोग और आहारक काययोगद्विक में भी स्वामित्व बतलाते हैं अणचवीसाइ विणा जिणपणजय सम्भि जोगिणी सायं । दिणु तिरिनराउ कस्मे वि एवमाहारवुगिओहो ||१५|| गाथार्थ पूर्वोक्त ९४ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धचतुष्क आदि चौबीस प्रकृतियों को कम करके शेष रही प्रकृतियों में तीर्थंकर नामक के मिलाने से औदारिकमित्र काययोग में चौथे गुफा स्थान के समय ७५ प्रकृतियों का तथा सयोगिकेवली गुणस्थान में सिर्फ एक सातावेदनीय का बन्ध होता है। कामंण काययोग तिर्यच्त्रयु और मनुष्यायु के बिना और सब प्रकृतियों का tarfrator काययोग के समान ही है और आहारकद्विक में गुण स्थानों में बताये बन्ध के समान बन्ध समझना चाहिए। विशेषार्थ -- पूर्वगाथा और इस गाथा में मिलाकर औदारिय मिश्र काययोग के पहले, दूसरे, चौथे और तेरहवें गुणस्थान के बन् स्वामित्व का विचार किया है । दूसरे गुणस्थान में २४ प्रकृतिय का बन्ध बतलाया गया है, उनमें से अनन्तानुबन्धी चतुष्क से लेक तिर्यद्विक पर्यन्त २४ प्रकृतियों को कम करने मे ७० प्रकृतियाँ शे १ तृतीय कर्मग्रन्थ, गा० ३ के अनुसार J Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रथ 1 रहती हैं, और उनमें जिनपंचक तीर्थंकर नामकर्म देवद्विक और वैक्रियfre को मिलाने से ७५ प्रकृतियों का बन्ध चौथे गुणस्थान में होता है । 我装 शंका- चौथे गुणस्थान के समय औदारिकमिश्र काययोग में जिन ७५ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व कहा है, उनमें मनुष्यद्विक, aarfrefae और वज्रऋषभनाराच सहनन इन पांच प्रकृतियों का समावेश है। इस पर श्री जीवविजयजी ने अपने टबे में शंका उठाई है कि चौथे गुणस्थान में औदारिकमिश्र काययोगी उक्त पाँच प्रकृतियों at afs नहीं सकता है। क्योंकि तिच तथा मनुष्य के सिवाय दूसरों से यह योग संभव नहीं है और नियंत्र तथा मनुष्य इस गुणस्थान में उक्त पाँच प्रकृतियों को बाँध नहीं सकते हैं. अतएव तियंचगति और मनुष्यगति में चौथे गुणस्थान के समय कम में जो ७० और ७१ प्रकृतियों का Fatafore कहा गया है, उसमें उक्त पांच प्रकृतियों नहीं आती हैं । 4 इसका समाधान श्री जयसोमसूरि ने अपने टबे में किया है कि गाथागत 'असा' इस पद का अर्थ 'अनन्तानुबन्धी आदि २४ प्रकृतियाँ' यह नहीं करना चाहिए, किन्तु 'आह' शब्द में और भी पांच प्रकृतियाँ लेकर अनन्तानुबन्धी आदि २४ तथा मनुष्यद्विक आदि पाँच कुल २६ प्रकृतियाँ यह अर्थ कदना चाहिये। ऐसा अर्थ करने से उक्त सन्देह नहीं रहता। क्योंकि ९४ में से २० घटाने से शेष रही ६५ प्रकृतियों में जिनपंचक मिलाने से ७० प्रकुतियाँ होती हैं. जिनका बन्धस्वामित्व उस योग में उक्त गुणस्थान के समय किसी तरह विरुद्ध नहीं है । यह समाधान प्रामाणिक जान पड़ता है । दूसरी बात यह है कि मूल गाथा में ७५ संख्या का बोधक कोई : पद नहीं है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती भी दूसरे गुणस्थान में २० प्रकृतियों का विच्छेद मानते हैं पण्णरससुनती मिरगे अविर छिवी चउरो । गो० कर्मकाण्ड, माया ११६ + Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्वस्वामिन यद्यपि टीका' में ७५ प्रकृतियों के बन्धस्वामित्व का निर्देश स्पष्ट किया है-प्रागुक्ता बनर्वात रमसानुबयादिशतिप्रतीविना जिमनामाविप्रतिपक्षमता व पंचसप्ततिस्तामोवारिक निकाययोगी सम्म बध्नाति तथा बन्धस्वामित्व नामक प्राचीन सीसरे कर्मग्रन्थ (गाथा २८२६) में भी ७५ प्रकृतियों के ही बन्ध का विचार किया गया है । इसी प्रकार प्राचीन बन्धस्वामित्व की टीका में श्री गोविन्दाचार्य ने भी इस विषय में किसी प्रकार का शंका-समाधान नहीं किया है । इससे जान पड़ता है कि यह विषय यों ही बिना विशेष विचार किये परम्परा से मूल और टीका में चला आया है । इस ओर कर्मग्रन्थकारों को विचार करना चाहिए । तब तक श्री जयसोमसूरि के समाधान को महत्व देने में कोई हानि नहीं है। ___ औदारिकमिश्र काययोग के स्वामी मनुष्य और तिर्यच है और चौथे गुणस्थान में उनको क्रमशः ७१ और २० प्रकृतियों का बंध कहा है तथापि औदारिकमिश्र काययोग में चौथे मुणस्थान के समय ७१ प्रकृत्तियों का बंध म मानकर ७० प्रकृतियों के बंध को मानने का समर्थन इसलिए किया जाता है कि यह योग अपर्याप्त अवस्था में होता है और अपर्याप्त अवस्था में मनुष्य अथवा तिथंच देवायु का बंध नहीं कर सकते हैं। क्योंकि तिच तथा मनुष्य की गंधयोग्य प्रकृतियों में देवायु परिगणित है। परन्तु औदारिक मिश्र काश्योग को बंधयोग्य प्रकृतियों में से उसको निकाल दिया है । तेरहवें गुशस्थान में औदारिकमिश्र काययोग में एक सातावेदनीय प्रकृति का बंध होता है। __ औदारिकमिश्र काययोग में उक्त बंधस्वामित्व का कपन कर्म- .. अाय के मतानुसार किया गया है। लेकिन सिद्धान्त के मतानुसार १ उक्त टीका मूसकर्ता श्री देवेन्द्रसूरि की नहीं है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ इस योग में और भी दो (पाँचां, छठा) गुणस्थान माने जाते हैं । इस सम्बन्ध में सिद्धान्त का मत है कि बैंक्रियलब्धि से बैंक्रिय शरीर का प्रारम्भ करने के समय अर्थात् पाँचवें, छठे गुणस्थान में और आहारकलब्धि से आहारक शरीर की रचना के समय अर्थात् छठे गुणस्थान में औदारिकमिश्र काययोग होता है।। इस मत की सूचना चौथे कर्मग्रन्थ की गाथा ४६ में की गई है.. सारपसावे नाणं विजयमाहारगे उरलमिस । गिदिस सामाणो नेहाभियं सुयमपं घि इसकी स्वोपज्ञ दीका में अन्धकार में स्पष्ट किया है ...- औदारिक शरीरवाला नैनियलम्विधारक मनुष्य, पंचेविदय लियच मा बादर पर्याप्त वायुकाय जिस समय चक्रिय शरीर रचता है, उस समय वह औदारिक शरीर में रहता हुआ अपने प्रदेशों को फैलाकर और बैंक्रिय शारीर-योग्य पुदगलों को लेकर जब तक बैंक्रिय शरीर पर्याप्ति को पूर्ण नहीं करता तब तक उसके औदारिक काययोग की वैकियारीर के साथ मित्रता है, परन्तु व्यवहार औदारिक को लेकर औदारिक-मिथता का करना चाहिए, क्योंकि उसी की प्रधानता है। इसी प्रकार आहारक शरीर करने के समय भी उसके साथ औदारिक काययोग की मिश्रता को जान लेना चाहिए। सिद्धान्त के उक्त कथन का आशय यह है कि बैंक्रिय और आहारक का प्रारम्भ काल में औदारिक के साथ मिश्रण होने से औदारिकमिश्र कहा है। बैंक्रियलब्धि, आहारकलब्धि सम्पन्न जब उक्त शरीर करता है तब औदारिक शरीरयोग में वर्तमान होता है। जब तक वैक्रिय शारीर या आहारक शरीर में शरीरपर्याप्ति पूर्ण न कर ले तब तक मिश्रता होती है। परन्तु औदारिक की मुख्यता होने से व्यपदेश औदारिकमिश्र का होता है । अर्थात् वैश्यि और आहारक करते समय लो औदारिकमिथ यह कहा जाता १. प्रमापना, पद १६, पत्र ३१६-१ (चतुर्थ कर्मणम्प वोपम टीका पृ. १२ पर सवत) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ स्वामिल है और परित्याग काल में अनुक्रम में वैश्थिमिश्र और आहारकमिथ यह व्यपदेश होता है । लेकिन कर्मग्रन्थकार मानते हैं कि किसी भी शरीर द्वारा काययोग का व्यापार हो परन्तु औदारिक शरीर अन्मसिद्ध है और बैंक्रिय व आहारक लब्धिजन्य है अतः लन्धिजन्य शरीर की प्रधानता मानकर प्रारम्भ और परित्याग के समय वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र व्यवहार करना चाहिए, न कि औदारिकमिश्र। औदारिकमिश्र काययोग में चार गुणस्थान मानने वाले कर्मग्रन्थ के विद्वानों का तात्पर्य इतना ही जान पड़ता है कि कामण शरीर और औदारिक शरीर दोनों के सहयोग से होने वाले योग को औदारिकमिश्र काययोग कहना चाहिए जो पहले, दूसरे. चौधे और तेरहवें इन चार गुणस्थानों में ही पाया जा सकता है। किन्तु सैद्धान्तिकों का आशय यह है कि जिस प्रकार कामण शरीर को लेकर औदारिक मिश्रता मानी जाती है, उसी प्रकार लम्धिजन्य वत्रिय और आहारक शरीर की मित्रता मानकर औदारिकमिश्र काययोग मानना चाहिए। सिद्धान्त का उक्त दृष्टिकोण भी ग्रहण करने योग्य है और उस दृष्टि से औदारिकमिश्र काययोग में पांचवां, छठा यह दो गुणस्थान माने जा सकते हैं । किन्तु, यहाँ बन्धस्वामित्व कर्मग्रन्थों के अनुसार बतलाया जा रहा है अतः पांचवें, छठे गुणस्थान सम्बन्धी अन्धस्वामित्व का विचार नहीं किया है । औदारिकमिश्र काययोग के बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद अब फार्मण काययोग के बन्चस्वामित्व को बतलाते हैं । कार्मण काययोग भवान्तर के लिए जाते हुए अन्तराल मति के समय और जन्म लेने के प्रथम समय में होता है । कार्म काययोग वाले जीवों के पहला, दूसरा. चौथा और तेरहवा.... ये चार गुणस्थान होते हैं। इनमें से तेरहवां गुणस्थान केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवे समय में सयोगिकेवली भगवान को होता है और Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मवत्मा शेष तीन गुणस्थान अन्य जीवों के अन्तराल पति के समय तथा जन्म के प्रथम समय में होते हैं। इस कार्मण काययोग मार्गणा में सामान्य स तथा मुस्थानों के समय औदारिकमिश्र काययोग के समान बन्दस्वामित्व समझना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसमें तिथंचायु और मनुघ्यायु का भी बन्ध नहीं हो सकता है। अर्थात् दूसरे कर्मग्रन्छ के बन्धाधिकार में जो बन्धयोग्य १२० प्रऋतियां बतलाई हैं, उनमें में औदारिकमिश्र काययोग मार्गणा में आहारक शरीर, आहारक अंगो पांग, वायु, नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु इन ६ प्रकृतियों के कम करने से ११४ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया है। किन्तु कार्मण काययोग में उक्त छह प्रकृतियों के साथ तिर्यंचायु और मनुथ्याथु को और कम करने में सामान्य मे ११२ प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में उक्त ११२ प्रकृतियों में में औदारिकमिश्र काययोग की तरह तीर्थकरनामकर्म आदि पांच प्रकृतियां के बिना १०७ तथा इन १०.७ प्रकृतियों में से दूसरे मुणस्थान में सुक्ष्मत्रिक आदि १३ प्रकृतियों को कम करने में ६४ एवं इन ६४ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि २४ प्रकृतियों को कम करने तथा तीकरमामकर्म आदि पाँच प्रकृतियों को जोड़ने से चौथे गुणस्थान में ७५ प्रकृतियों का बन्ध होता है और तेरहवें मुगुणस्थान में सिर्फ एक सासावेदनीय कर्मप्रकृति का बन्ध होता है । __यद्यपि कार्मण काययोग बन्दस्वामित्व औदारिकामथ काययोग के समान कहा गया है और चौथे गुस्थान में औदारिकमिश्र काययोग में ७५ प्रकृतियों के बन्ध को लेकर का उठाकर ७० प्रकृतियों के बन्ध का समर्थन किया है । लेकिन कार्मण कामयोग में चतुर्थ गुणस्थान के समय उक्त शंका करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि औदारिकमिश्र काययोग सिर्फ मनुष्यों और सिर्यों के ही होता है, किन्तु कार्मण काययोग के अधिकारी मनुष्य तथा सियंत्रों के अतिरिक्त देव और नारक भी हैं, जो मनुष्यतिक Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्धस्वामित्व आदि पाँच प्रकृतियों को बाँधते हैं । इसी से कार्मण काययोग के चौथे गुणस्थान में उक्त पांच प्रकृतियों को भी ग्रहण किया गया है। आहारक काययोगनिक, अर्थात आहारक काययोग और आहा. रकमिश्न काययोग-ये दोनों छठे गुणस्थान में पाये जाते हैं । अतः छठे गुणस्थान के समान इन दोनों योग मार्गणाओं में ६३ प्रकृतियों का बंध होता है। आहारक काययोग में प्रमत्त और अप्रमत्त विरत ये दो गुणस्थान होते हैं। जब चौदह पूर्वधारी आहारक शरीर करता है, उस समय लब्धि का उपयोग करने से प्रमादयुक्त होता है, तब छठा मुगास्थान होता है । उस समय आहारक शरीर का प्रारम्भ करते समय वह औदारिक के साथ मिश्र होता है। अर्थात् आहारकमिश्र और आहारक इन दो योगों में छठा गुणस्थान होता है, किन्तु बाद में विशुद्धि की शक्ति से साल गुणस्थान में आता है, तब आहारकयोग ही होता है । अर्थात् आहारकयोग में छठा और सातवां ये दो मुणस्थान तथा आहारकमिश्र काययोग में छठा गुणस्थान होता है । तब छठे गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों का बन्ध करता है । उक्त प्रकृतियों में शोक, अरति, अस्थिरद्विक, अयश कीति और असाता वेदनीय इन छह प्रकृलियों को कम करने पर सातवें में ५७ प्रकृतियों का और देवायु का बन्ध में करे तो ५६ प्रकृतियों का बन्ध करता है । पंचसंग्रह सप्ततिका की गाथा १४६ में बताया गया है कि आहारकयोग और आहार कमिश्य काययोग वाले अनुक्रम से ५७ और ६३ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। यानी' आहारक काययोग वाला छठे गुणस्थान में ६३ और सातवें गुणस्थान में ५७ प्रकृतियों का बन्ध करता है और आहारकमिश्न काययोग वाला छठे गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों का बन्ध करता है। जैसा इस कर्मग्रन्थ में माना हैं, उसी प्रकार प्राचीन बन्धस्वामित्व Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ में आहारक काययोगदिक में छठे गुणस्थान के ममान बन्धम्नामिन्य मारता है तथा ..... टहारगे जहा मसास' - शबीन बधस्वामित्व. मा ४२ किन्तु नेमिचन्द्राचार्य अपने संश्च योम्मटमार कर्मकाण्ड में यद्यपि आहारक काययोग में छठे गुणायाम के समान ६३ प्रकृतियों का बन्ध मानते हैं. लेकिन आहारकमिश्न काययोग में देवायु का बन्ना नहीं मानते हैं। उनके मतानुसार ६२ कृलियों का इन्च होता है...... छरगाबाहारे लम्भिो स्थि देवाऊ । .....गी. कर्म का मा० ११८ अर्थात -- आहारक का प्रयोग में छठे गशस्थान की सरह बन्धप्रस्वामित्व है परन्तु आहारकमिथ काय योग में वायु का बन्ध नहीं सारांश यह है कि कर्मग्रन्थ के अनुसार औदारिकारनं काययोग में चौथे गुणस्थान में सम्मान ५ प्रकलियों का सव होता है, जबकि मिहान्त के अनुसार 90 कलियों का बन्न माना जाता है तथा सिद्धान्त में कियानि और हारकलब्धिका प्रयोग करते समय भी जीद्वारिकापयोग माना है, लेकिन यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है क्योंकि कमअन्धकार बैसा नहीं मानते हैं, इसलिए पाँचवें और छठे गुणस्थान का बन्ध नहीं कहा है। ___ सिद्धान्त में जो १२ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है. उममें गाया में आये बाणग्य बीमाई' पद आदि याद में अन्य च प्रकलियों का ग्रहण किया जाना कर्मग्रन्थ और सिद्धान्त के मत में कोई शंका नहीं रहती है। इस प्रकार दूसरे गुणस्थान की बन्धयोग्य ४ प्रकृतियों में से अनातानुबन्धीचतुष्क आदि २४ और अन्य ५ प्रकृतियों को कम करने से और तीर्थकरनामकर्मपंचक प्रकृत्तियों को मिलाने से ७० प्रकविशालोमा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्वमिस्व कार्मण काययोग में भी औदारिक मिश्रयोग के समान बन्ध समझना चाहिए, किन्तु तिर्यवायु और मनुष्यायु इन दो प्रकृत्तियों को कम करने में सामान्य से ११२ प्रकृतियों का बन्ध्र मानना चाहिए और गुणस्थानों की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान में १७७, दूसरे में १४, चौधे मैं ७५ और तेरहवें मैं १ सातावेदनीय का बन्ध होता है। आहारक काययोगद्विक में गुणस्थान के समान ही बन्ध समझना चाहिये । अर्थात् छठे गुणस्थान में जैसे १३ प्रतियों का मधोसा है, वैसे ही इस योग में समझना चाहिए। मतान्तर मे ६३. ४७ प्रकृतियों का भी बन्ध कहा गया है । किन्हीं आचार्यों ने ६२ प्रकृतियों का बन्ध आहारकमिध काययोग में माना है। इस प्रकार औदारिक, कार्मण और आहारक काययोग में बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में बैंक्रिय काययोगद्विक, वेद तथा कषाय मार्गणा के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरमा और प्रत्याख्यानावरण कषाय भेदों में बन्धस्वामित्व बतलाते हैं... सुरओहो उच्चे तिरियभराउ रहिओ प सम्मिस्से । बेयतिगाहम बिय तिय कसाय नव दु च पंच गुणा ॥१६॥ गाथार्थ---वैक्रिय काययोग में देवमति के समान तथा वैक्रियमित्र काययोग में तिर्यंचायु और मनुष्यायु के सिवाय अन्य सञ्च प्रकातियों का बन्ध बैंक्रिय काययोग के समान तथा वेद और कपाय मार्गणा में श्रमशः वेद मार्गणा में आदि के नौ, अनन्तानुबन्धी कषाय में आदि के दो, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय में आदि के बार, तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय में आदि के पाँच गुणस्थान की तरह बन्धस्वामित्व समझना चाहिए । विशेषा-माथा में बैंक्रिय काययोग और बैंक्रियमित्र काययोग या वेद और कषाय मार्गणा के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणमतुष्क के बन्धस्वामित्व को बतलाया है। . . - - - - . . . - . . .. . . . ... .. . Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ after rape के अधिकारी देव तथा नारक होते हैं। क्योंकि देव और नारकों का उपपातजन्म होता है । जन्म वालों को वैश्रिय शरीर होता है। इससे इसमें गुणस्थान देवगति के समान ही माने गए हैं और इसका स्वामित्व भी देवमति के समान हो, अर्थात् सामान्य से १०४, पहले गुणस्थान में १०३. दूसरे में ६६, तीसरे में 90 और चौथे में ३२ प्रकृतियों का है । aftaar aata के स्वामी भी वैयि काययोग की तरह देव और नारक होते हैं। अतः इस योग में भी देवगति के समान बन्ध होना चाहिए था। लेकिन इतनी विशेषता समझना चाहिए कि इस योग में आयु का बन्ध असंभव है। क्योंकि यह योग अपर्याप्त अवस्था में ही देवों तथा नारकों के होता है । देव तथा नारक पर्याप्त अवस्था में, अर्थात् छह महीने प्रमाण आलू शेष रहने पर ही परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध करते हैं। इसलिये वैक्रियमिश्र काययोग में तिर्यंचा और मनुष्यायु के सिवाय बाकी को अन्य सब प्रकृतियों का are aक्रिय काययोग (देवगति) के समान समझाना चाहिए । वैकिय काययोग की अपेक्षा वैक्रियमित्र काययोग में एक और विशेषता समझनी चाहिए कि वैयि काययोग में पहले के चार गुणस्थान होते है, जबकि वैक्रियमिश्र काययोग में पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान ही होते हैं। क्योंकि यह योग अपयप्ति अवस्था में होता है । इससे इसमें अधिक गुणस्थान होना १. नारक देवानामुपपातः । सूत्र २१३५ उत्पत्तिस्थान में स्थित त्रि पुगलों को पहले-पहल शरीर रूप में परिणत करना उपपात जन्म है। २. क्रियमोपपातिकम् । - तवार्य २/४७ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ || असंभव है। प्राचीन बन्धस्वामित्व में भी इसी प्रकार मिच्छे सासाने या अविश्यसम्मम्मि अब महिय अंति किया परखोए सेसेक्कारसने मीस अर्थात - जीव मरकर परलोक में जाते हैं, तब वे पहले, दूसरे या गुणस्थान को ग्रहण किये हुए होते हैं, परन्तु इन तीनों के सिवाय शेष ग्यारह गुणस्थानों को ग्रहण कर परलोक के लिए कोई जीव समन नहीं करता । अतएव इसमें सामान्य रूप से १०२, पहले गुणस्थान में १०१, दूसरे में ६४ और चौथे गुणस्थान में ७१ प्रकृतियों ar area fire समझना चाहिए । वैक्रिय काययोग लब्धि से भी पैदा होता है। जैसा कि पाँचवें गुणस्थान में वर्तमान अम्बड़ परिव्राजक' आदि ने तथा छठे गुणस्थान में वर्तमान विष्णुकुमार आदि मुनि ने वैक्रिय लब्धि के बल से वैयि शरीर किया था। यद्यपि इससे वैयि काययोग और वैश्रियमिश्र काययोग का पfer और छठे गुणस्थान में होना संभव है, तथापि वैक्रिय काययोग वाले जीवों के पहले से लेकर चौथे तक चार गुणस्थान तथा क्रियमिश्र काययोग में पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान बतलाये गये हैं, उसका कारण यह जान पड़ता है कि यहाँ aa और नारकों के स्वाभाविक भवप्रत्यय वैकिय शरीर की विवक्षा है । इसलिए उनके आदि के चार गुणस्थान माने गये हैं । लब्धिप्रत्यय वैक्रिम काययोग की विवक्षा से मनुष्य, तिर्यंच की अपेक्षा अधिक गुणस्थानों में उसकी विवक्षा नहीं है । अर्थात केवल भवप्रत्यय वैकिय शरीर को लेकर ही वेत्रिय काययोग तथा क्रियमित्र काययोग में क्रम से उक्त चार और तीन गुणस्थान बतलाये हैं । -II १ वेध्वं पञ्जसे इदरे खलु होदि तस्म मिसं तु . सुरणिग्यचउठाणे मिस्से महि मिजोगो है 11 २ लब्धप्रत्ययं च । ३ अम्बड़ परिवाजक का वर्णन औपपातिकः स्वामित्व । 4 है ० खोड ६८२ --तस्वार्थसूत्र २१४e Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय कर्मप्रन्य योगमागंणा के बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद अब वेद और कषायमार्गणा के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्यास्थानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय भेदों का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं । वेद के तीन भेद हैं-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नमकवेद । इन तीनों प्रकार के वेदों का उदय नौवें गुणस्थान तक ही होता है।' अर्थात् वेद का उदय नौवें गुणस्थानपर्यन्त ही होता है, इसलिए वेद का बन्धस्वामित्व वधाधिकार की तरह नौ गुणस्थानों जैसा मानना चाहिए । अर्थात् जैसे बन्धाधिकार में सामान्य से १२०, पहले गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१, तीसरे में ७४. चौथे में ७७. पांचवें में १७, छठे में ६३, सातवे में ५६-५८, आठय में ५८, ५६ तथा २६ और नौ में २२ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया है, उसी प्रकार वेदमार्गमा वाले जीवों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। ___ अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय पहले, दुसरे-दो गुणस्थानों में ही होता है। इससे इस कषाय में उक्त दो ही गुरुस्थान माने जाते हैं। उक्त दो गुणस्थानों के समय न तो सम्यक्त्व होता है और न चारित्र । अतः तीर्थरनामकर्म (जिसका बन्ध सम्यक्त्व से ही होता है और आहारकद्विक (जिनका बन्ध चारित्र से ही होता है), ये तीन प्रकृतियां अनन्तानुबन्धी कषाय वालों के सामान्य बन्ध में वर्जित हैं । अतएव अनन्तानुबन्धी कषाय वाले सामान्य से तथा पहले गुणस्थान में ११७ और दूसरे में १०१ प्रकृतियों का बन्ध्र करते हैं। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषायों का उदय पहले चार गुणस्थानपर्यंत होता है। अत: इनमें पहले चार गुणस्थान होते हैं । इन कषायों के समय सम्यक्त्व का संभव होने मे तीर्थकरमाम का बन्ध हो सकता है। लेकिन चारित्र का अभाव होने से आहारकद्विक का बन्ध नहीं होता है । अतएव इन कषायों में सामान्य से ११८ और १ अणियटिस य पढमी भालोति जिणेहि णिहिट । ...मो. सरकार mmmmmmmmmMM Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधस्वामित्व पहले गुणस्थान में ११७. दूसरे में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे में ५५७ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए । प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय पांचवें गुणस्थानपर्यन्त होता है 1 अतः इनमें पहले से लेकर पनवं गुणस्थान पर्यन्त पनि गुणस्थान माने जाते हैं । यद्यपि इन कपायों के समय सर्वविरति चारिश न होने से आहारकद्धिक का नन्ध नहीं हो सकता है, तथापि सम्यक्त्व होने से तीर्थङ्करनामकर्म का बन्ध हो सकता है। इसलिए सामान्य रूप से ११८ और पहले गुणस्थान में ११४, दूसरे में १०१, तीसरे में १४, चौथे में ७७ और पांच में १६७ प्रकृतियों ६७ बन्ध जानना चाहिए। कषायमार्गणा में गदि अनन्तानुबन्धी आदि संञ्चलमपर्यन्त की अपेक्षा से प्रत्येक का अलग-अलग बन्श्वस्वामित्व का कथन न कर कोच. मान, माया और लोभ ----इन सामान्य भेदों में मुण्यस्थान का कथन किया जाये तो क्रोध, मान, माया--में तीन कषाय नौवें गुणस्थान के क्रमशः दूसरे. तीसरे और चौथे भाग पर्यन्त तथा लोभः कषाय दसवें गुणस्थान तक रहता है इस अपेक्षा से यदि गुणस्थान मान जायें तो कषायमामणा में पहले में लेकर दसवें गुणस्थान पर्यन्त दस गुणस्थान होते हैं और उनका बन्धश्वामित्व बन्धाधिकार के अनुसार समझना चाहिये । लेकिन ग्रन्थकार ने यहां कषाय मार्गणा में अनन्तानुबन्धी आदि की अपेक्षा में उनका गुस्थानों में इन्धस्वामित्व का कथन किया है। ___ सारांश यह है कि वैकिय काययोग में बन्धस्वामित्व देवगति के समान, अर्थात् सामान्य से १०४ एवं गुणस्थानों में पहले में १०३, दूसरे में ९३. तीसरे में 5 और चौथे में ७२ प्रकृत्तियों का है और वैक्रियमिध काययोग में तिर्यंचायु और मनुष्यायु इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होने से इनके बिना शेष प्रकृतियो का बन्ध वैक्तिय काययोग के समान समझना चाहिए। जिसका अर्थ यह है कि क्रिय मित्रयोग में सामान्य से बन्धयोग्य १०२ प्रकृतियां हैं तथा यह योग dim. i n . Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ अपर्याप्त अवस्था में होने से तीसरा गुणस्थान नहीं होता है ! अतः पहले गुणस्थान में १०१. दूसरे में १६ और चौथे में ७२ प्रकृतियों का बन्ध होता है। वेब का उदय नौवें गुणस्थान तक होता है । अतः बन्धाधिकार में कहे गये अनुसार ही सामान्य से और नौवें गुणस्थान तक बताये गये प्रकृतियों के बन्ध के अनुसार समझना चाहिए। कषायमार्गणा में अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थान तक होता है, अतः गुणस्थानों की अपेक्षा बन्ध तो बन्धाधिकार में बताये गये बन्ध के समान ही होता है, लेकिन सामान्य से १२० की बजाय ११७ का बन्ध होता है, क्योंकि इस काय वाले को सम्यक्रम और चारित्र नहीं होने से तीर्थङ्करनामक और आहारकद्विक का हार नहीं होता है। ___ अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय चौथे गुणस्थान तक होता है और इस कषाय के समय सम्यक्त्व संभव होने से तीर्थकरनामकमं का बन्ध हो सकता है। अतः सामान्य से बन्धयोग्य ११८ प्रकृतियां है और गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान ११७, १०१, ७४ और ७७ प्रकृतियाँ समझना चाहिए। प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय पाँचवें गुणस्थानपर्यन्त होता है । अतः इसमें पहले से लेकर पांचवें लक पाँच गुणस्थान होते हैं। इस कषाय के रहने पर सम्यक्त्व हो सकता है, लेकिन सर्वविरति चारित्र न होने से आहारकद्विक का बन्ध नहीं होने से सामान्य रूप से ११८ प्रकृतियों का बन्ध होता है और गुणस्थानों में क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७ और ६७ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व अब आगे को गाथा में कषायमार्गणा की शेष रही संज्वलन कषाय तथा संयम, ज्ञान और दर्शन मार्गणा के बन्धस्वामित्व का कथन करते हैं Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ গ্রাফি संजलगलिगे नव इस लोभे घउ अनइ छ ति अनाणतिगे। बारस अचक्खुचक्खुमु पढमा अखाइ चरमच ॥१७॥ गाथार्थ-संज्वलनत्रिक (संज्वलन क्रोध, मान, माया) में नौ गुणस्थान और गौर संजना जोन में स्थान होते हैं तथा अविरति में चार, अज्ञानशिक (मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगशान) में दो या तीन और अचक्षुदर्शन, चक्षुदर्शन में आदि के बारह और यथाख्यातचारित्र में अन्त के चार गुणस्थान होते हैं । अतः उक्त मार्गणाओं में बन्छस्वामित्व बन्धाधिकार में बताये गये अनुसार सामान्य से और गुणस्थानों में समझना चाहिए। विशेषार्थ-कषायमार्गणा के अन्तिम भेद संज्वलन कषाय के क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार भेदों में से क्रोध, मान और माया में नो और लोभ में दस गुणस्थान होते हैं । अतः इन चारों कषायों का बन्धस्वामित्व सामान्य रूप से और विशेष रूप से गुणस्थानों के समान ही हैं। अर्थात् मज्वलन क्रोध, मान, माया का उदय नौन्हें गुणस्थान तक होता है, अतः उनका बन्धस्वामित्व जैसा बन्धाधिकार में गुणस्थानों की अपेक्षा बतलाया गया है, उसी प्रकार समझना चाहिए । यानी सामान्य से १२० और गुणस्थानों में पहले से लेकर । मौवें गुणस्थान तक क्रमशः ११७, १०१, ७४, १७७. ६७. ६३, ५६, ५८ और २२ प्रकृतियों का समझना चाहिए। संज्वलन लोभ में एक से लेकर दस गुणस्थान होते हैं, अतः इसमें नौवें गुणस्थान तक तो पूर्वोक्त संज्वलनत्रिक के अनुसार बन्ध- . स्वामित्व समझना चाहिए और दसवें गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। ___संयममार्गणा में सामायिक आदि संयम के भेदों के साथ संयम प्रतिपक्षी असंयम-अविरति को भी माना जाता है । अतः संयम मार्गणा के भेदों के बन्धस्वामित्व को बतलाने के पहले असंयम अधिरति में बन्धस्वामित्व का कथन करते हैं । अविरति का मतलब Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ है कि सम्यक्त्व भी हो जाये किन्तु चारित्र का पालन नहीं हो सके। अतः इसमें आदि के चार गुणस्थान होते हैं और चौधे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने के कारण तीर्थक्षरनामकर्म का बन्ध संभव है, परन्तु आहारकद्विक का बन्ध संयमसापेक्ष होने से इनका बन्ध नहीं होता है। इसलिए अविरति में सामान्य रूप से आहारकद्विक के सिवाय ११८, पहले गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे गुणास्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। ज्ञानमार्मणा में ज्ञान और अज्ञान-दोनों को माना जाता है । इनमें मतिः श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान ये मान के पांच भेद हैं। इनमें मति, श्रुत और अवधिज्ञान विपरीत भी होते हैं। अर्थात-अज्ञान के मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अधांध-अज्ञान... ये तीन भेद होते हैं। ज्ञानमार्गणा के इन आठ भेदों में से यहाँ अशानत्रिक का बन्धस्वामिस्क बतलाते हैं। अज्ञानत्रिक में आदि के दो या तीन गुणस्थान होते हैं। इनके सामान्य बन्ध में से तीर्थकरनामकर्म और आहारकद्विक ये तीन प्रकृतियों कम कर देना चाहिए। क्योंकि अज्ञान का कारण मिथ्यात्व है और इन अज्ञानत्रिक में मिथ्यात्व का सद्भाव रहता है, जिससे सामान्य से तथा पहले गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१ और तीसरे में ७४ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिये। अज्ञानत्रिक में दो या तीन गुणस्थान माने जाने का आश्य यह है कि तीसरे गुणस्थान में वर्तमान जीव की दृष्टि सर्वथा शुद्ध या अशुद्ध नहीं होती है, किन्तु शुद्ध कुछ और कुछ अशुद्ध तथा किसी अंश में अशुद्धमिश्र होती है । इस मिश्रइष्टि के अनुसार उन जीवों का ज्ञान भी मिश्र रूप-किसी अंश में ज्ञान रूप तथा किसी अंश में अज्ञान रूप माना जाता है । जब उसमें शुद्धता अधिक होती है, तब दृष्टि की शुद्धि की अधिकता के कारण और अशुद्धि की कमी के कारण १ मतिश्रुतावधयो विषय पश्च । तस्वार्थपून, १९३२ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्वामित्व मिश्रज्ञान में ज्ञान की मात्रा अधिक होती है और अज्ञान की मात्रा कम होती है, तब इस प्रकार के मिश्र ज्ञान से युक्त जीवों की गिनती शानी जीवों में भी की जा सकती है. लेकिन वह है अशान हो। इस दृष्टि से उस समय पहले और दूसरे दो गुणस्थानों में जीव को ही अशानी समझना चाहिए। परन्तु जब दृष्टि में अशुद्धि की अधिकता के कारण मित्रज्ञान में अज्ञान की मात्रा अधिक होती है और शुद्धि की कमी के कारण झान की मात्रा कम तब उस मिश्रज्ञान को अज्ञान मानकर मिश्र शानी जीवों की गिमती अज्ञानी जीवों में की जाती है । अतएव उस समय पहले, दूसरे और तीसरे.. इन ती गुमाका सन्यासी और को अज्ञानी समझना चाहिए। उक्त दोनों स्थितियों का कारण यह है कि जो जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान में आता है, तब मिश्रदृष्टि में मिव्यात्वांश अधिक होने से अशुद्धि विशेष होती है और जब सम्यक्त्व छोड़कर तीसरे गणस्थान में आता है, तब मिश्रदृष्टि में सम्यक्त्वांश अधिक होने के शुद्धि विशेष रहती है। इसीलिए अज्ञानत्रिक में दो या तीन गुणस्थान माने जाते हैं। यहाँ अज्ञानत्रिक में दो या तीन गुणस्थान मानने विषयक मतान्तर का दिग्दर्शन किया गया है। कर्मग्रन्धकार सास्वादन को अज्ञान ही मानते हैं। पहले गुणस्थान में मिथ्यात्य मोहनीय का उदय होने से अज्ञान ही है और बाकी रहा मिश्र, वहाँ भी मोहनीयकर्म का उदय होता है। वहाँ यथास्थित तत्व का बोध नहीं होने से : कितने ही आचार्य अज्ञान रूप ही मानते हैं। क्योंकि पंचसंग्रह में कहा है मिश्र में ज्ञान से मिश्रित अज्ञान ही होते हैं, शुद्ध ज्ञान नहीं . होते हैं। यहाँ शुद्ध सम्यक्त्व की अपेक्षा से ही ज्ञान माना गया है। यदि अशुद्ध सम्यक्त्व वाले को शान मानें तो सास्वादन को भी शान मानना पड़ेगा। किन्तु कर्मग्रन्थकारों को यह इष्ट नहीं है, क्योंकि कर्मग्रन्थ में सास्वादन को अज्ञान होता है, ऐसा कहा है । इस अमेक्षा - - - --- Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ तृतीय कर्मच से तीन गुणस्थान होते हैं। जबकि feaनेक आचार्य मिश्रमोहनीय पुद्गलों में मिथ्यात्वमोहनीय के पुदगल अधिक हों तो अज्ञान अधिक और ज्ञान अल्प तथा सम्यक्त्वमोहनीय के पुद्गल अधिक हों तो ज्ञान अधिक और अज्ञान अल्प ऐसा मानते हैं से ज्ञान का लेश-अंश मिश्र गुणस्थान में मानते हैं। इसलिए उस अपेक्षा से अज्ञानत्रिक में प्रथम दो गुणस्थान ही होते हैं। (यह कथन जिनrecite safeा की टीका में किया गया है | इस प्रकार से दो अथवा तीन गुणस्थान कर्मग्रन्थकारों के मतानुसार होते हैं । ज्ञानमार्गणा के अज्ञानत्रिक का बन्धस्वामित्व यहां बतलाया गया है। शेष मतिज्ञानादि पाँच भेदों का avatarfire आगे बतलाया जायगा | अब दर्शन मार्गेणा के भेद चक्ष दर्शन और अक्षदर्शन का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं । A क्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन इन दो दर्शनों में पहले से लेकर बारह गुणस्थान होते हैं। क्योंकि ये दोनों क्षायोपrfमक भाव हैं और क्षायोपशमिक भाव बारह गुणस्थान पर्यन्त होते हैं। अतः इनका स्वामित्व सामान्य रूप से तथा प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान है। अर्थात् बन्धाधिकार में जैसे सामान्य से १२० और गुणस्थानों में पहले में ११७ आदि गुणस्थान के क्रम से लेकर बारहवें गुणस्थानपर्यन्त बन्ध बतलाया गया है. इसी प्रकार चक्षुदर्शन और अक्षदर्शन मार्गणा में बन्ध समझना चाहिए। यथाख्यात चारित्र अंतिम चार गुणस्थानवर्ती जीवों में होता है | अतः ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक- ये चार गुणस्थान होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में तो योग का अभाव होने से बन्ध होता ही नहीं है । किन्तु ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में बन्ध के कारण योग का सद्भाव होता है । अतः योग के निमित्त से बँधने वाली सिर्फ एक प्रकृति - सातावेदनीय का बन्ध होता है। इसलिए इस चारित्र में सामान्य और विशेष से एक प्रकृति का स्वामित्व समझना चाहिए। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕܚ Waterfere सारांश यह है कि कषायमागंणा के चौथे भेद संज्वलन कोध, मान, माया और लोभ में से क्रोध, मान, माया नौवें गुणस्थान तक रहती है । अत: इन तीनों के पहले से लेकर नो गुणस्थान होते हैं तथा लोभ दसवें गुणस्थानपर्यन्त रहता है। अतः इनका बन्धस्वाfere सपनों के अनुसार ये समझना चाहिए । संयममार्गणा के भेद अविरति में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने के कारण तीर्थकर नामकर्म का बन्ध संभव है, परन्तु आहारकद्विक का वध संयसापेक्ष होने से नहीं होता है । अतः अविरति में सामान्य से आहारकद्विक के सिवाय १८ प्रकृतियों का तथा गुणस्थानों में में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे में ७७ होता है । पहले में ११७. दूसरे प्रकृतियों का बन्ध अज्ञानत्रिक में दो या तीन गुणस्थान होते इसलिए इसके सामान्य बन्ध में से तीर्थकुरनामकर्म और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियों को कम कर लेना चाहिए। अतः सामान्य से और पहले गुणस्थान में १७७, दूसरे में १०१ और तीसरे में ७४ प्रकृतियों का Tatarfara समझना चाहिए । चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन-- इनमें आदि के बारह गुणस्थान होते हैं और इनका बन्धस्वामित्व सामान्य से एवं गुणस्थान की अपेक्षा गुणस्थानों के समान समझना चाहिए। यथाख्यात चारित्र में ग्यारह से चौदह अंतिम चार गुणस्थान होते हैं और चौदहवें गुणस्थान में योग का अभाव होने से बन्ध नहीं होता और शेष तीन- ग्यारह बारह और तेरह इन तीन गुणस्थानों में सिर्फ एक सातावेदनीय का बन्ध होता है । " इस प्रकार कषायमार्गणा के संज्वलनचतुष्क और संयममार्गणा के अविरति और यथाख्यात चारित्र, ज्ञानमार्गणा के अज्ञान Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतीय कर्मप्रग्य त्रिक, दर्शनमार्गणा के दर्शन और अचक्षुशन में बन्धस्वामित्व का कषन करने के बाद आगे की गाथा में संयममार्गणा और शानमार्गणा के मतिज्ञान आदि भेदों में बन्प्रस्वामित्व बतलाते हैं--- रणनाणि सग जयाई समय छेय उ कुन्नि परिहारे । केवलिगि दो घरमाऽअयाइ नब मइसुमोहिदुगे ॥१८॥ गाभार्थ- मनःपर्याय ज्ञान में प्रमत्तसंयत आदि अर्थात् छठे से लेकर बारहवें गुणस्थानपर्यन्त सात तथा सामायिक और छेदोपस्थानीय चारित्र में प्रमत्तसंयत आदि चार गुणस्थान एवं परिहारविशुद्धि चारित्र में प्रमत्तसंयत आदि दो गुणस्थान होते हैं । केवलद्विक में अन्तिम दो गुणस्थान तथा भतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिनिक में अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर नौ मुणस्थान होते हैं। विशेधार्थ.....? स गाथा में ज्ञानमागंणा के भेदों .. मनःपर्यायज्ञान, मतिज्ञान, अ तशान. अवधिज्ञान, केवलज्ञान, संयममागंणा के सामायिक, छेदीपस्थानीय और परिहारविशुद्धि चारित्र. दर्शनमार्गणा के अवधिवर्शन और केवलदर्शन में बन्धस्वामित्व का कथन किया गया है। इनका विशद अर्थ गाथा में बताये गये क्रम के अनुसार किया जाता है। मनःपर्यायज्ञान में छठे गुणस्थान-प्रमससंयत से लेकर क्षी कषायपर्यन्त सात गुणस्थान होते हैं । यद्यपि मनःपर्यायज्ञान का आविर्भाव सातवें गुणस्थान में होता है, परन्तु इसकी प्राप्ति के बाद मुनि प्रमादवश छछे गुणस्थान को भी प्राप्त कर सकता है तथा इस ज्ञान के धारक मिथ्यात्व आदि पाँच गुणस्थानों में वर्तमान नहीं रहते हैं तथा यह क्षायोपशमिक होने से अंतिम गुणस्थान ... तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में नहीं रहता है, क्योंकि क्षायिक अवस्था में क्षायोपशामिक स्थिति रहना असंभव है। इसलिए मनःपर्याय शान में छठे से लेकर बारहब गुणस्थान तक माने जाते हैं। इसमें आहारक Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान द्विक का भी बन्ध संभव है। इसलिए इस ज्ञान में सामान्य रूप से ६५ प्रकृतियों का तथा छठे से लेकर बारहवें मुणस्थानपर्यन्त प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान हो प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। अर्थात मनःपर्यायज्ञानमार्गणा में सामान्य से ६५ प्रकृतियों का और छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक छठे में ६३, सातवें में ५.६।५८, आठवें में ५८५६।२६. नौवे में २२१२११२०११६ १८, दसवें में १७, म्यारहवें में १, बारा में १ प्रकृति का बन्ध समझना चाहिए। सामायिक और छंदोपस्थानीय ये दो संयम छठे, सातवें, आठवें और नौवें इन चार मुणस्थानों में पाये जाते हैं । इन संयमों के समय आहारकद्विक का बन्ध होना भी संभव है । अतः सामान्य से ६५ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं और गुणस्थानों की अपेक्षा छठ आदि प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान ही बनध समदरना चाहिए। अर्थात छठे में ६३, सातवें में ५६३५८, आठवें से ५८:५६२६, नौचे में २२१२११२०।१६।१८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। परिहारविशुद्धि संयमी सातवें गुणस्थान से आगे के मुणस्थानों को नहीं पा सकता है। अतः यह संयम सिर्फ छठे और सातवें गुणस्थान में ही होता है। इस संयम के समय यद्यपि आहारकद्विक का उदध नहीं होता, क्योंकि परिहारविशुद्धि संयमी को दस पूर्व का भी पूर्ण ज्ञान नहीं होता और आहारकद्धिक का उदय चतुर्दशपूर्वधर के संभव है । तथापि इसको आहारकद्विक का बन्ध संभव है। इसलिए बन्धस्वामित्व सामान्य रूप से ६५ प्रकृतियों का और मुणस्थानों की अपेक्षा बन्धाधिकार के समान, अर्थात् छठे गुणस्थान में ६३ और सातवे में ५६ या ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। केवलहिक अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शन में तेरहवी और चौदहवां ये दो गुणस्थान होते हैं। लेकिन वक्त दो गुणस्थानों में से बौदह मुणस्थान में बन्ध के कारणों का अभाव हो जाने से किसी भी कर्मप्रकृति का बन्ध नहीं होता है, लेकिन देरहवें गुणस्थान Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतस्य कर्म प्राय में होता है, और वह बन्ध सिर्फ सातावेदनीय का होता है। इसलिए इन दोनों में सामान्य से और गुणस्थान की अपेक्षा बन्छस्वामित्व एक ही प्रकृति का है। ___मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक–अवधिज्ञान और अवधिदर्शन इन चार मार्गणाओं में पहले के तीन मुशस्थान तथा प्रतिम दो गुणस्थान नहीं होते हैं । अर्थात् और विचार बारह क्षीणकषाय गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं। आदि के तीन गुणस्थान न होने का कारण यह है कि ये चारों सम्यक्त्व के होने पर यथार्थ माने जाते हैं और आदि के तीन गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व नहीं होता है तथा अन्तिम दो गुणस्थान न होने का कारण यह है कि उनमें क्षायिक ज्ञान होता है. क्षायोपशमिक नहीं है इसलिए इन चारों में चौथे से लेकर बारहवं गुणस्थान तक कुल नो गुणस्थान माने जाते हैं। इन चारों मार्गणाओं में भी आहारकाद्विक' का बन्ध संभव होने से सामान्य में १६ प्रकृत्तियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्धस्वामित्व समझना चाहिए । अर्थात् चौथे गुणस्थान को बन्धयोग्य ७७ प्रकृतियों में आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग --- इन दो प्रकृतियों को और जोड़ने से सामान्य की अपेक्षा ७६ प्रकृतियों का बन्ध होता है और गुणस्थानों की अपेक्षा चौथे में ३७, पांचवें में ६७, छठे में ६३, सातवें में ५६१५८, आठवें में ५५६१२६. नौ में २सरश२०११६१८, दसवें में १७, ग्यारहवें में ?. बारहवें में प्रकृति का बन्ध समझना चाहिए। सारांश यह है कि मनःपर्याय ज्ञानमार्गणा में छठे से लेकर बारहवे गुणस्थानपर्यन्त सात गुणस्थान होते हैं और इसमें आहारकद्विक का बन्ध संभव होने से सामान्यतया ६५ प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धाधिकार के समान छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्ध समझना चाहिए। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Wrrenामि सामायिक और छेदोपस्थानीय ये दो संयम छठे से लेकर नौवें तक चार गुणस्थान पर्यन्त होते हैं तथा इनमें आहारकद्धिक का भी बन्ध संभव है । अतः इन दोनों में बन्धस्वामित्व सामान्य रूप से ६५ प्रकृतियों का और छठे से लेकर नौवें तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान ही है। परिहार विशुद्ध संयम और मात्रा को गुणस्थान होते हैं । यद्यपि इस संयम के समय आहारकद्धिक का उदय नहीं होता है, किन्तु बन्ध संभव है । अतः इसका बन्धस्वामित्व सामान्य रूप से ६५ प्रकृतियों का और विशेष रूप से बन्धाधिकार के समान छठे गुणस्थान में ६३ और सातवें में ५६ या ५८ प्रकृतियों का होता है। केवल द्विक - केवलज्ञान और केवलदर्शन--में अन्तिम दो गुण. स्थान-तेरहवां और चौदहवा होते हैं। लेकिन उक्त दो गुणस्थानों में से चौदहवें गुणस्थान में बाध के कारणों का अभाव होने में बन्ध नहीं होता है और तेरहवें गुणस्थान में सिर्फ एक सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। इसलिए इसका सामान्य और विशेष बन्ध एक सातावेदनीय प्रकृति का ही है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक अवधिज्ञान और अवधिदर्शन इन चार मार्गणाओं में पहले तीन गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व नहीं होने से तथा अन्तिम दो गुणास्थान क्षायिकभाव वाले होने से और इन चारों के सायोपशमिक भाव वाले होने से चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यन्त नो गुणस्थान होते हैं । इन चार मार्गणाओं में आहारकद्रिक का बन्ध सम्भव होने से सामान्य से ७६ प्रकृतियों का और गुग्धस्थानों की अपेक्षा चौथे से लेकर बारह तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान अन्धस्वामित्व' समझना चाहिए। इस प्रकार के ज्ञानमार्गणा के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और कवलशान तथा दर्शनमार्गणा के अवधिदर्शन और केवलदर्शन तथा संयममार्गणा के सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि भेद Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मपन्य में सामान्य और गुणस्थानों की अपेक्षा बलस्वामित्व का कपन किया जा चुका है। अब आगे की गाथा में सम्यक्त्व मार्गणा तथा संयम मार्गणा के शेष भेदों और आहारक मार्गणा में बन्धस्वामित्व बतलाते हैं अड उपसमि चउ व्यगि खइए इकार मिच्छतिगि से। सुमि सठाणं तेरस आहारगि नियनियगुणोहो ॥१६॥ re:- -उपशम सन्यारव' म मा दा दायोपशमिक सम्यक्त्व में चार, क्षायिक सम्यक्त्व में ग्यारह, मिथ्यात्वत्रिक और देशचारित्र, सूक्ष्मसंपराय संयम में अपने अपने नाम वाले एक-एक गुणस्थान होते हैं तथा आहारक मार्गणा में तेरह गुणस्थान होते हैं और सामान्य से अपने-अपने गुणस्थान के समान बन्ध समझना चाहिए। शिवायं- इस गाथा में सम्यक्त्व मार्गणा के उपशम, वेदक (क्षायोपमिक), क्षायिक, मिथ्यात्व, सास्वादन और मिथ तथा संयम मार्गणा के देशविरत, सूक्ष्मसंपराय एवं आहारक मार्गणा का बन्धस्वामित्व बतलाया गया है। उपशमणि को प्राप्त हुए अथवा अनन्तानुबन्धी कषायचलष्क और दर्शनमोहत्रिक को उपमित करने वाले जीवों को उपशम सम्यक्त्व होता है। यह उपश्चम सम्यक्त्व अविरत सम्यक्त्व के सिवाय देशविरति, प्रमत्तसंयतविरति या अप्रमत्तसंवतविरति गुणस्थानों में तथा इसी प्रकार आठवें से लेकर ग्यारहवें तक चार गुणस्थानों में वर्तमान उपशम श्रेणी वाले जीवों को रहता है। इसी कारण इस सम्यक्त्व में चौथे से लेकर ग्यारह गुणस्थान तक कुल आठ गुणस्थान कहे गये हैं। इस सम्यक्त्व के समय आयु का बन्ध नहीं होता है । इससे चौथे गुणस्थान में देव और मनुष्यायु इन दोनों का बन्ध नहीं होता है .. और पांच अदि गुणस्थान में देवायु का बन्ध नहीं होता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अतएव इस सम्यक्त्व में सामान्य रूप से ७५ प्रकृतियों का सथा पौधे गुणस्थान में ७५, पांचवें में ६६, छठे में ६२, सातवें में ५८, आठवें में ५८५६२६. नौवे में २२०२११२०।१६।१८, दसवें में १७ और ग्यारहवें गुणस्थान में १ प्रकृति का बन्धस्वामित्व बताया है। वेदकसम्यक्रन का दूसरा नाम क्षायोपमिक सम्यक्त्व भी है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी उदय प्राप्त मिथ्यात्व का क्षय और अनुदयप्राप्त का उपशम करता है। इसीलिए इसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । यह सम्यक्त्व चौथे से सात तक चार गुणस्थानों में होता है। इसमें आहाराविक का भी संघसा इसा बन्धस्वामित्व सामान्य से ७९ प्रकृतियों का और विशेष रूप से मुणस्थाम की अपेक्षा चौथे गुणस्थान में ७७, पांचवें में ६७, छठे में ६३ और सातवे में ५६ या ५८ प्रकृतियों का है । उसके बाद श्रेणी का प्रारम्भ हो जाता है । इसलिए उपशम श्रेणी में उपशम सम्यक्त्व और क्षपक श्रेणी में क्षायिक सम्यक्त्व होता है। ___औपशमिक और क्षायोपामिक सम्यक्त्व में यह विशेषता है कि क्षायोशपमिक सम्यक्त्वी मिथ्यात्वमोहनीय के प्रदेशोदय का अनुभव करता है, और उपशम सम्यक्त्वो विपाकोदय तथा प्रदेशोदय दोनों का ही अनुभव नहीं करता है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में मिथ्यात्व मोहनीय के पुद्गल होते हैं, इसीलिए उसे वेदक कहा जाता है । सारांश मह है कि औपशमिक सम्यक्त्व में मिथ्यात्व के दलिकों का विपाक और प्रदेश से भी वेदन नहीं होता है. किन्तु बायोपामिक सम्यक्त्व में प्रदेश की अपेक्षा वेदन होता है। संसार के कारणभूत तीनों प्रकार के दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। इस सम्यक्त्व में चौथे से लेकर चौदहवें तक ग्यारह गुणस्थान होते हैं। इसमें आहारकद्विक का बन्ध हो सकता है। इसलिये सामान्य रूप से इसका बन्धस्वामित्व ७९ प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान है । अर्थात् अविरत में ७७, देशविरत मैं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ ७९ ६७, प्रमत्तविरत में ६३, अप्रमत्तविरत में ५६ या ५८. अपूर्वकरण में ५८५६३२६. अनिवृत्तिकरण में २२६२११२०११६६१८, सूक्ष्मसंपराय में १७ तथा उपशान्तमोह, क्षीणोइ. सयोगिमस्थान में ११ प्रकृति का बन्ध समझना चाहिये और अयोधि गुणस्थान प्रबन्धक होता है। मिथ्यात्वत्रिक यानी मिथ्यात्व, सास्वादन और मिश्रदृष्टि में तीनों सम्यक्त्व मा के अवान्तर भेद हैं। इनमें अपने अपने नाम वाला एक-एक गुणस्थान होता है । अर्थात् मिथ्यात्व में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन में दूसरा सास्वादन गुणस्थान और मिश्रदृष्टि में तीसरा मिश्र गुणस्थान होता है । अतएव इन तीनों का सामान्य व विशेष बन्धस्वामित्व इन-इन मुणस्थानों के बन्धस्वामित्व के समान ही समझना चाहिए । अर्थात् सामान्य और विशेष रूप से मिथ्यात्व में ११७, सास्वादन में १०१ और मिश्र गुणस्थान में ७४ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व होता है। देशविरत और सूक्ष्मसंपराय ये दो संयममार्गणा के भेद हैं और इन दोनों संयमों में अपने अपने नाम वाला एक-एक गुणस्थान होता है। यानी देशविरति संयम केवल पांचवें मुशस्थान में और सूक्ष्मसंपराय केवल दसः गुणस्थान में होता है । अतएव इन दोनों का बन्धस्वामित्व भी अपने-अपने नाम वाले गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान हो है 1 अर्थात् सामान्य और विशेष रूप से देशविरति का बन्धस्वामिस्थ ६७ प्रकृतियों का और सूक्ष्मसंपराय का बन्धस्वामित्व १७.प्रकृतियों का है। ... “समय-समय जो आहार करे उसे आहारक (आहारी) कहते हैं । जितने भी संसारी जीव हैं, वे जब तक अपनी-अपनी आयुष्य के कारण संसार में रहते हैं, अपने-अपने योग्य कमों का आहरण करते रहते हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा पहले गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त के सभी जीव आहारक हैं और इन सब जीवों का : अहण आहारमार्गणा में किया जाता है। अतएव इसमें पहले Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम्घस्वामित्व मिथ्या कर तेज नरोगि हानी गुम्मस् न राम रह गुणस्थान माने जाते हैं। इस मार्गणा में विद्यमान जीयों के सामान्य से तथा विशेष से अपने-अपने प्रत्येकः गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान बन्धस्वामित्व समझना चाहिए 1 जैसे कि बन्धाधिकार में सामान्य मे १२० प्रकृत्तियों का बन्ध बताया गया है. बैग ही आहारमागंणा में भी १२० प्रकृतियों का तथा गुणस्थानों की अपेक्षा पहले में ४१७, दूसरे में १७१. तीसरे में ७४, चौथे में ७, पाँचवें में ६५, छठे में ६३, सातवें में ५६ या ५८, आठवें में ५८।५.६।२६, नौवें में २२॥२१॥ २०।१६।१८, दसवें में १७, क्यारहवें में १. बारहवें में १. और तेरहवें में १ प्रकृति का बन्ध समझना चाहिए। __ सारांशा यह है कि सम्यक्त्व के औपमिक. क्षायोपशामिक और शायिक तीन भेद हैं। उनमें से औषामिक सम्यक्त्व, उपशम भाव चौथे से लेकर ग्यारहवं गुणस्थानपर्यन्त आठ गुणस्थान तक रहता है। इसलिए उपशम सम्यक्त्व मार्गणा में आठ गुणस्थान माने जाते हैं । उपआम सम्यक्त्व के समय आयुबन्ध नहीं होता है, अत: सामान्य की अपेक्षा ७५ प्रकृतियों का बन्ध होता है । वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व) चौथे से लेकर सात गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में होता है । इसके बाद श्रणी प्रारंभ हो जाती है और श्रेणी दो प्रकार की हैं.- उपशम श्रेणी और क्षापक श्रेणी । अतः क्षायोपथमिक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान होते हैं। इसमें आहारकटिक का बन्ध होना संभव है। इसलिए इसका सामान्य से बन्धस्वामित्व ७६ प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा बन्ध्राधिकार के समान चौथे से लेकर सातयें गणस्थान तक का बन्धस्वामित्व समझना चाहिए । क्षायिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर चौदहवें गुणस्थान तक ग्यारह गुणस्थानों में पाया जाता है। इसमें भी पनि का retiremannary Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मण्य और गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धाधिकार के समान चौथे से लेकर alega तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार समझना चाहिए । 1 मिथ्यात्व सास्वादन और मिश्र- ये तीनों भी सम्यक्व मार्गमा के भेद हैं और इनमें अपने-अपने नाम वाला एक-एक गुणस्थान होता है । अतएव इन तीनों का सामान्य तथा विशेष बन्ध अपने-अपने नाम गुणस्थान के उमा संग बाहिए । संयममार्गणा के देशविरति और सूक्ष्मपराय संयम में अपने-अपने नाम वाला एक-एक गुणस्थान, अर्थात् देशविरति में देशविरल नामक feat और सूक्ष्म पराय में सूक्ष्मसंपराय नामक दसवाँ गुणस्थान होता है । अतएव इन दोनों का बन्धस्वामित्व भी इन-इन गुणस्थान के समान सामान्य और विशेष रूप से समझना चाहिए। आहारकमार्गणा में मोक्ष न होने से पूर्व तक के सभी संसारी जीवों का ग्रहण किया जाता है। अतएव इस मार्गणा में पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान हैं। इस मार्गणा में सामान्य से तथा प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। इस प्रकार से सम्यक्त्वमार्गणा व संयममार्गेणा के कुछ भेदों तथा आहारमार्गणा में सामान्य और विशेष में बन्धस्वामित्व का कथन करने के पश्चात अब सम्यक्त्वमार्गेणा के भेद उपशम सम्यक्त्व की विशेषता को आगे की गाथा में बताते हैं- परमुमि वता आज न बंधंति तेण अजयगुणे । देवमणुआउहोणो देसाइस पुण सुराउ विणा ॥२०॥ गाणार्थ - उपशम सम्यक्त्व में वर्तमान जीव बायुबन्ध नहीं करते हैं। इसलिए अयत अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में देवायु और मनुष्या को छोड़कर अन्य प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामि देशविरति आदि गुणस्थानों में देवायु के बिना अन्य स्वयोग्य अकृतियों का बन्ध होता है । - पूर्व गाथा में सम्यक् मार्गणा के उपशम, क्षयोपवन और क्षायिक भेदों में बन्धस्वामित्व बतलाया गया है। उनमें asara के चौथे से लेकर ग्यारहवें तक आठ गुणस्थान बतलाये गये हैं और सामान्य एवं गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धस्वामित्व किया गया है। लेकिन सम्यक् में गहू विशेषता है कि इसमें वर्तमान जीव के अध्यवसाय ऐसे नहीं होते हैं, जिनसे आयु का बन्ध किया जा सके। क्योंकि उपशम सम्यक्त्व दो प्रकार का 2--- (१) ग्रन्थिभेदजन्य तथा (२) उपशम श्रेणी में होने वाला। इनमें से ग्रन्थिभेदजन्य उपशम सम्यक् अनादि मिथ्यात्व जीव को होता है और उपशम श्रेणी वाला आठवें में ग्यारह इन चार गुणस्थानों में होता है। उक्त दोनों प्रकारों में से उपशम श्रेणी सम्बन्धी गुणस्थानों में आयु का बन्ध सुर्वा वर्जित है । क्योंकि आयुबन्ध सातवें गुणस्थान तक होता है, उससे आगे नहीं । ग्रन्थिभेदजन्य उपशम सम्यक्त्व चौथे में लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है। लेकिन इन गुणस्थानों में औपशमिक सम्यक्त्वी आयु १. गमाया के विषय की स्पष्टता के लिए प्राचीन स्वामित्व (पा ५१, ५२ ) में है -- ए उसमे दात ते タ उन्हक्किपि आउयं नेयं । या सुरनरमाउहि अणस्तु ॥ arit are सुराउहोणो जाव उवसन्तो । उप में वर्तमान जीव चारों में से एक भी आयु का अविरत सम्यदृष्टि जीव का नहीं करता है। इसलिए औपामिक अविरत सम्यम् दृष्टि देवायु और मनुष्यायु का बन्ध नहीं करते हैं तथा देशविरति आदि मैं देवा का ब नहीं करते हैं। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मप्राय बन्ध नहीं कर सकता है। क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध, उसका उदय, आयु का बन्ध और मरण इन चार कार्यों को सास्वादन सम्यवस्वी कर सकता है, परन्तु इनमें से एक भी कार्य उपशम सम्यादृष्टि नहीं कर सकता है। अतः उपशम सम्यक्त्व के समय आयुबन्धयोग्य परिणाम नहीं होते हैं। अतएव उपशम सम्यक्त्व के योग्य आठ गुणस्थानों में से चौथे गुणस्थान में उपम सम्मादृष्टि को देवायु और मनुष्यायु इन दो का वर्जन इसलिए किया कि उसमें इन दो आयुओं का बन्छ संभव है, अन्य आयुओं का बन्ध नहीं क्योंकि चौथे गुणस्थान में वर्तमान देव तथा नारक मनुध्यायु को और तिथंच तथा मनुष्य देवायु को ही बाँध सकते हैं । इसलिए सामान्य से बन्धाधिकार में जो चौथे गणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया गया है. उसके स्थान पर अपशम सम्म म्हष्टि ७५ प्रकृतियों का बन्ध करता है। उपशम सम्यग्दष्टि के पांचवें आदि गुणस्थानों के बन्ध में केवल देवायु को छोड़ दिया है। इसका कारण यह है कि उन गुणस्थानों में केवल देवायु का बन्ध संभव है। क्योंकि पांचवें गुणस्थान के अधिकारी तिथंच और मनुष्य हैं और छठे एवं सातवें गुणस्थान के अधिकारी मनुष्य ही हैं, जो केवल देवायु का ही बन्ध कर सकते हैं । सामान्य बन्ध में से मनुष्यायु पहले ही कम की जा चुकी है । अतएव उपशम सम्यग्दृष्टि के देशविरत में ६६, प्रमत्तविरत मैं ६२ और अप्रमत्तविरत में ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। सारांश यह है कि उपशम सम्यक्त्व अन्थि भेदजन्य और उपशम श्रेणीपत के भेद दा प्रकार का है। उनमें से अधिभेदजन्य उपशम सम्यक्त्व में चौथे से सातवें तक और वेणीगत में आठवें से लेकर ग्यारहवें तक कुल आठ गुणस्थान होते हैं । इनमें से उपशम श्रेणीगत ...------ -- १. अणबन्धोदयमाउगबन्यं का च सासको कृष्ण ई । उत्रसमसमादिट्ठी चदाहमिमकषि नो कुगई ।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धस्वामिय गुणस्थानों में तो आयुबन्ध होता ही नहीं है। क्योंकि आपुबन्ध के साग्य अध्यवसाय सासवें गुणस्थान तक ही होते हैं और इन गुणस्थानों में भी ऐसे अध्यवसाय नहीं होते हैं कि जिनसे आयुवन्ध हो सके ! इसलिए कौथे से लेकर सातवें गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्ध न होने की बजाय चौथे में ७५. पाँचवें में ६६, छठे में ६२ और सातवें में ५८ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए। इस प्रकार से सम्यक्त्वमार्गणा के भेद उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी विशेषता बतलाने के बाद अब आगे की दो गाथाओं में लेण्यामार्गणा का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं ओहे अठारसयं आहारदमण आइलेसति । तं तित्थोणं मिन्छे साणाइस सस्वहि ओहो ॥२१॥ तेऊ नरवनवणा उजोयचर नरयवार विण सुक्का । विणु नरमवार पम्हा अजिणाहारा इमा मिच्छे ॥२२॥ गाथार्थ आदि की तीन--कृष्ण, नील, कापोतलेश्याओं में आहारकद्धिक को छोड़ कर शेष ११८ प्रकृतित्रों का सामान्य बन्धस्वामित्व है। उनमें से मिथ्यारल गुणस्थान में तीर्थकर प्रकृति कम और सास्वादन आदि तीन गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान बन्छस्थाभिस्व समझना चाहिए 1 तेजोलेश्या का बन्धस्वामित्व नरकनवक के सिवाय अन्य सब प्रकृतियों का है तथा उद्योतचतुष्क एवं नरकद्वादश इन सोलह प्रकृत्तियों को छोड़कर अन्य सब प्रकृतियों का बन्ध शुक्ललेश्या में होता है तथा पालेश्या में उक्त नरकद्वादश के सिवाय अन्य सब प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में तेज आदि उक्त तीन लेश्याओं में बन्धस्वामित्व तीर्थकरनामकर्म और आहारकद्विक को छोड़कर समझना चाहिए। विशेषार्थ-इन दोनों गाथाओं में लेयामार्ग का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं । लेश्याओं के छह भेद हैं-(१) कुष्ण, (२) नील, (३) कापोत, (४) तेज, (५) पदम और (६) शुक्ल । योगान्तर्गत कृष्णादि Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E: तृतीय कर्मग्रन्थ द्रव्य के सम्बन्ध से आत्मा के जो शुभाशुभ परिणाम होते हैं, उन्हें लेश्या कहते हैं । कषाय उसकी सहकारी हैं । कषाय की जैसी जैसी तीव्रता होती है, वैसी वैसी लेश्याएँ अशुभ से अशुभतर होती हैं और कषाय को जैसी जैसी मन्दता होती है, वैसे-वैसे लेश्याएं विशुद्ध से विशुद्धतर होती हैं। जैसे कि अनन्तानुबन्धी कषाय के तीव्रतम उदय होने पर कृष्णश्या होती है और मन्द उदय होने पर शुक्ल लेश्या होती है । W x कहीं-कहीं देवों और नारकों के शरीर के वर्णरूप लेश्या मानी हैं। क्योंकि उनकी अवस्थित होती है। उक सम्यक्त्व प्राप्ति मानी है। वहाँ द्रव्य की अपेक्षा कृष्णलेश्या भी मानी है और सम्यक्त्व की प्राप्ति शुभलेश्याओं में ही होती है। जब ऐसा है तो कृष्णलेण्या में रहने वाले जीव को सम्यक्त्व कैसे हो सकता है ? इसके लिए ऐसा माना जाता है कि द्रव्यलेश्या शरीर के वर्णरूप होती हैं किन्तु मratश्या उसमे free भी हो सकती है और उससे सातवें नरक के नारकों के सम्यक्त्व प्राप्ति के समय विशुद्ध भावलेश्या होती है, किन्तु द्रव्य से तो कृष्णलेश्या होती है अर्थात प्रतिविम्ब रूप से तेजोलेश्या सरीखी होती है। तात्पर्य यह है कि देव और नारकों की लेश्याएँ अवस्थित होती है, परन्तु शरीर के वर्णरूप द्रव्यलेश्याएँ होती है और भाव को अपेक्षा वे लेश्याएँ उस उस समय के भावानुसार होली है। यहाँ यह विचारणीय है कि तीसरे कर्मग्रन्थ में कृष्ण, नील, कापोत - इन तीन लेश्याओं में मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान और चौथे कर्मग्रन्थ में पद्मप्रतिसास उच्च' (गाथा २३३ द्वारा छह लेश्याएँ बतलाईं हैं। तो इसका समाधान यह है कि पूर्वप्राप्त ( पहले से पाये हुए) पाँचवें, छठे गुणस्थान वाल के कृष्णादिक तीन लेश्याएं हो सकती हैं, किन्तु कृष्णादिक तीन लेश्या वाले पाँचवां, छठा गुणस्थान प्राप्त नहीं कर सकते हैं । अतः इस दृष्टि से चार बर Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्छस्वामित्व छह गुणस्थान कृष्णादि सीन लेश्या वालों के होने में कोई विरोध नहीं है। जैसे कि. सम्मल सु सवार लइइ, सुद्धीस सि हय धारि । पुग्नदिवमओ पुष अन्नपीए ३ लेसाए । सम्यक्रव श्रुत सर्व लेश्याओं में होता है और चारित्र तीन शुभ लेण्याभों-तेज, पम और शक्ल में प्राप्त होता है तथा पूर्वप्रतिपन्न (सम्यक्त्वादि सामायिक, श्रुत सामायिक, देशबिरति सामायिक, सविरति चारित्र सामायिक ये पूर्व में प्राप्त हुए हों वैसे) जीब छह में से किसी भी लेश्या में होते हैं। उक्त कृष्ण आदि का लेश्यालों में मा, नगर कापोटइन तीन लेश्या वालों के आहारकद्धिक का बंध नहीं होता है। क्योंकि आहारकदिक का बन्ध सातवें गुणस्थान के सिवाय अन्य गुणस्थानों में नहीं होता है तथा उक्त कृष्णादि तीन लेश्या वाले अधिक से अधिक छह गुणस्थानों तक पाये जाते हैं । अतएव उनके सामान्य से ११८ प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा पहले गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म के सिवाय ११७, दूसरे में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे में ७७ प्रकृत्तियों का बन्ध माना है। कृष्णादि तीन वेश्याओं में चौथे गुणस्थान के समय ७७ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व 'साणाइस सहि ओहो' इस कथन के अनुसार माना है और इसी प्रकार प्राचीन बन्धस्वामित्व में भी उल्लेख किया गया है सुरनरमादयसहिया अविरयसम्माड होति यया । तिस्थपरेण जुयाः सह तेऊलेसे परं बोच्छं ।।४।। उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि कृष्यादि तीन लश्याओं के चतुर्थ गुणस्थान की ७७ प्रकृतियों में मनुष्यायु की तरह देवायु की गिनती हैं। इसी प्रकार गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी वेदमार्गणा से लेकर आहारकमार्गणा पर्यन्त सब मार्गणाओं का बन्धस्वामित्व गुण Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कमंपन्ध 24 स्थान के समान कहा है और चतुर्थ गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध स्पष्ट रूप से माना है। इस प्रकार कर्मग्रन्थकार कृष्णादि तीन लेण्याओं में चतुर्थ गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध मानते हैं, जबकि सिद्धान्त की अपेक्षा इसमें मतभिन्नता है। सिद्धान्त में बतलाया गया है कि कृष्णादि तीन लेण्याओं के चौथे गुणस्थान में जो आयु का बन्ध कहा है, वहाँ एक ही मनुष्याघु का बन्ध्र सम्भव है ! क्योंकि नारक, देव तो मनुष्यायु को बाँधते हैं। परन्तु मनुष्य और तिर्यंच देवायु को नहीं बांधते हैं ! पयोंकि जिस लेश्या में आयुबन्ध हो, उसी लेश्या में उत्पन्न होना चाहिए और सम्यग्दृष्टि तो वैमानिक देवों का ही आयु बांधते हैं और वैमानिक देवों में कृष्ण, नील एवं कापात संश्या नहीं है. अशुद्ध लामा वाले सम्यगदृष्टि देवायु का बन्ध नहीं करते हैं । इस सम्बन्ध में "भगवती' मातक ३०, उद्देशक १, का पाठ यह है कण्हलेसाणं मंते ! खोया किरियादी बैंक परामं परति पुछा ? गोयमा ! णो र इमाउषं पहरेंति. परे तिरिक्खोपिया परति, मस्सावध पति, णो देवाउयं पकरेंति । अकिरिया अशानिय वेगइयवावी य सारिधि आउयं पकरति । एवं जीस लहसायि कालेस्सादि । 'कण्हमेस्साणं असे ! किरियाधादी विषयतिरिक्षोणिया कि रइयाउयं पुछा ? अश्यमा ! पो परमाउयं परति, णो तिरिक्लोणियाज्य पकरेंति भो मणुस्साज्यं पक रेंति णो देधाज्यं पकति । अकिरियावादी अगाणियवाची वेणइयवादी साम्यहं पि पकरेंति 1 जहः करहस्सा एवं बोललेस्साय काउलेस्सादि । .. 'महा पाँचनियतिरिमखोणियाणं वत्तम्या भforer एवं मस्सापनि मानियब्बा।' १ वेदादाहारोति य सगुणाणमभोघं तु । -हो , ११६ २ गो० कर्मकांड, मा० १०३ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामित्व 'हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले क्रियावादी (सम्यग्दृष्टि)' औव क्या नरकायु का बन्ध करते हैं इत्यादि ? हे गौतम! नरक आयु को नहीं बांधते हैं, तिच आयु को नहीं बाँधते हैं, मनुष्यायु को बांधते हैं, देवायुं को नहीं बाँधते हैं, और अक्रियावादी आदि मिथ्यादृष्टि चारों आयु का बन्ध करते हैं। इसी प्रकार नील और कापोत लेग्या वालों के लिए भी समझना ! ८५ 'हे भगवन ! कृष्णलेश्या वाले सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यच क्या नरकायु का बन्ध करते हैं ? गौतम ! वै नरकायु का वध नहीं करते हैं, तिचायु का बन्ध नहीं करते हैं, मनुष्यायु का बन्ध नहीं करते हैं, देवायु का बन्ध नहीं करते हैं और मिथ्यादृष्टि चारों आयु का बन्ध करते हैं। इसी प्रकार नील और कापोत लेश्या के लिए भी समझना चाहिए। 'जिस प्रकार से पंचेन्द्रिय तिर्वच जीवों के लिए कहा है वैसे ही मनुष्यों के लिये भी समझना चाहिए ।' सिद्धान्त के उक्त कथन के आधार पर श्री जीवविजयजी और श्री जयसोमसूरि ने अपने-अपने टबे में शका उठाई है कि चौथे गुणस्थानवर्ती कृष्णादि तीन लेश्या वाले जीवों को देवायु का बन्धः नहीं माना जा सकता है । अतः चतुर्थ गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों के बजाय देवायु के बिना ७६ प्रकृतियों का बन्ध माना जाना चाहिए। इस मभिन्नता का समाधान कहीं नहीं किया गया है। टबाकारों ने भी बहुतगम्य कहकर उसे छोड़ दिया है । गोम्मटसार कर्मकांड में तो इस शंका को स्थान ही नहीं है, क्योंकि वहाँ भगवती का पाठ मान्य करने का आग्रह नहीं है । परन्तु भगवती सूत्र को मानने वाले कर्मग्रांथिकों के लिए यह शंका उपेक्षणीय नहीं है । १ 'किरियावादी' शब्द का अर्थ टीका में क्रियावादी सम्यक्त्वी—किया गया है । www. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एग् अतएव उक्त शंका के सम्बन्ध में जब तक दूसरा प्रामाणिक माधान न मिले, तब तक यह समाधान मान लेने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि कृष्ण आदि तीन लेया वाले सम्यष्टि के जो प्रकृति में देवrg की गणना की गई है वह कर्मग्रन्थ सम्बन्धी मत है, संद्धान्तिक मत नहीं है। कर्मग्रन्थ और सिद्धान्त का कई विषयों में मतभेद है। इसलिए इस कर्मग्रन्थ में भी उक्त देवायु का बन्ध होने न होने के सम्बन्ध में कर्मग्रन्थ और सिद्धान्त का मतभेद मानकर आपस में विरोध का परिहार कर लेना उचित है । 1 इस प्रकार कृष्ण, नील कापोत इन तीन अशुभ श्याओं का बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद अब तेज, पद्म और शुक्ल – इन शुभ श्याओं का बन्धस्वामित्व बतलाते हैं । तेजोलेश्या पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक पाई जाती है और नरकनवक - नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकआयु, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणनाम, द्वीन्द्रिय, चीन्द्रिय और चतुरि न्द्रिय इन नौ प्रकृतियों का बन्ध अशुभ लेश्याओं में होने के कारण तेजोलेश्या धारण करने वालों के उक्त नो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होने से और तेजोलेश्या वाले उन स्थानों में पैदा नहीं होते जिनमें नरकगति, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में उक्त प्रकृतियों का उदय होता है, अतः तेजोलेश्या में सामान्य से १११ प्रकृतियों का बन्ध १. सासणभावे नाणं विश्व्वगाहारये उरलमि दिसासाणो नेागिवं सुथमयं । wwwww 英 सासादन अवस्था में सम्यग्ज्ञान, क्रियशरीर बनाने के समय औदारिकमिश्व काययोग और सासादन गुणस्थान का अभाव यह तीन बातें यद्यपि तथापि इस ग्रन्थ में इनका अधिकार नहीं है । — कर्मग्रन्थ ४४£ तथा आहारक शरीर एकेन्द्रिय जीवों में सिद्धान्त सम्मत हैं wwwww wwwwwwwwww. wwww Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aratarfara माना जाता है तथा पहले गुणस्थान में तीर्थङ्करताकर्म और आहारकटिक का बन्ध न होने से सामान्य से बन्धयोग्य १११ प्रकृ तियों में से ३ प्रकृतियों को कम करने पर १०८ प्रकृतियों का और दूसरे से सातवें गुणस्थान में कार के समान बन्धस्वामित्व है। अर्थात दूसरे में १०१, तीसरे में ७४. चौथे में ७७, पाँचवें में ६८, छठे में ६३ और सातवें में ५७ या ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। यद्यपि गाथा के संकेतानुसार पहले शुक्ललेश्या का बन्ध स्वामित्व बतलाना चाहिए । लेकिन सुविधा की दृष्टि से पहले तेजोलेश्या के बाद क्रमप्राप्त पद्मलेश्या का बन्धस्वामित्व बत लाते हैं । ६० पद्मश्या मे भी तेजोलेश्या के समान पहले मिथ्यत्व गुणस्थान से लेकर सात गुणस्थान होते हैं, किन्तु तेजोलेश्या की अपेक्षा पद्मलेश्या की यह विशेषता है कि इस लेश्या वाले तेजोलेश्या की नरकनवक के अतिरिक्त एकेन्द्रिय, स्थावर और आप इन तीन प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं करते हैं। क्योंकि तेजोलेश्या वाले एकन्द्रिय रूप से पैदा हो सकते हैं, किन्तु पद्मलेश्या वाले नरकादि एवं एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिए एकेन्द्रिय आदि तीन प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता है | aage cover का बन्धस्वामित्व सामान्य रूप से १०८ प्रकृतियों का और पहले गुणस्थान में तीर्थंकरनामकर्म तथा आहारकद्विकका बन्न न होने से १०५ का और दूसरे से सातवें तक प्रत्येक गुणस्थान में इन्धाधिकार के समान ही प्रकृ तियों का बन्ध समझना चाहिए। दूसरे से लेकर सातवें गुणस्थान में बraयोग्य प्रकृतियों की संख्या ऊपर बतलाई जा चुकी है। शुक्ललेश्या में पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं । पथलेश्या की अपेक्षा शुक्ललेश्या की यह विशेषता है freera की नहीं बंधनेयोग्य नरकगति आदि बारह प्रकृतियों ド Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ तृतीय कर्मम्य के अलावा उद्योतचतुष्क उद्योतनामकर्म, तियंचगति, तियेचानुपूर्वी और तिर्यंचा का भी बन्ध नहीं होता है । क्योंकि ये कार प्रकृतियाँ तिर्यचप्रायोग्य हैं । पद्मलेश्या वाला तो उन तिर्यथों में उत्पन्न हो सकता है, जहाँ उद्योतचतुष्क का उदय होता है, किन्तु शुक्ललेश्या वाला इन प्रकृतियों के उदय वाले स्थानों में उत्पन्न नहीं होता है। अतएव उक्त १६ प्रकृतियाँ शुक्ललेश्या में बन्धयोग्य नहीं है अतः सामान्य से १०४ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक के सिवाय १०१ प्रकृतियों का और दूसरे गुणस्थान में नपुंसक वेद, हुडसंस्थान, मिथ्यात्व और सेवार्त संहनन इन चार प्रकृतियों को पहले मिथ्यात्व गुणस्थान की बन्धयोग्य १०१ प्रकृतियों में से कम करने पर ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। नपुंसकवेद आदि इन चार प्रकृतियों को कम करने का कारण यह है कि ये चारों मिथ्यात्व के सद्भाव में बंधती हैं, किन्तु दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्य का अभाव है । तीसरे से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों का बन्ध जैसा बन्धाधिकार में बतलाया है, उसी प्रकार शुक्ललेश्या वालों के लिए समझ लेना चाहिए । Judul शुक्लश्या के बन्धस्वामित्व में नरकगति आदि तिर्यंचायु पर्यन्त १६ प्रकृतियों का बन्ध नहीं माना है । अतः यहाँ शंका है--- तत्वार्थभाष्य में 'पोतपद्मशुक्लेश्या द्वित्रियेषु 1 (अ० ४, सूत्र २३) शेषेषु सासकादिध्यासर्वार्थसिद्धा छुक्ल लेश्याः तथा संग्रहणी में. कम्पपिहले संताइस सुबकलंस हुति सुरा ( गाथा १७५) । प्रथम दो देवलोकों में तेजोलेश्या, तीन देवलोकों में पलेश्या और लान्तककरूप सर्वार्थसिद्धपर्यन्त शुक्ललेश्या बताई है । तो यहाँ प्रश्न होता है कि लान्सककल्प से लेकर सहस्रार कल्प पर्यन्त के शुक्ललेश्या वाले देव तिर्यंचों में भी उत्पन्न हो जाते हैं तो तत्प्रायोग्य उद्योतचतुष्क का बन्ध क्यों नहीं करते हैं तथा इसी ग्रन्थ की ग्यारहवीं गाथा में आनतादि देवलोकों के बन्धस्वामित्व Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्वामित्व के प्रसंग में 'आणाई उजोयस उहिया' आमतादि कल्प के देव उद्योतचतुष्क के सिवाय शेष प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, ऐसा कहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि सहस्रार कल्प तक के देव उद्योतचतुष्क का बन्ध करते हैं और यहाँ शुक्ललेश्या मार्गणा में बन्ध का निषेध किया है । इस प्रकार पूर्वापर विरोध है । श्री जीवविजयजी और श्री जयसोमसूरि ने भी अपने-अपने दावे में इस पूर्वापर विरोध का दिग्दर्शन कराया है। इस कमंच के समान ही दिगम्बरीय कर्मशास्त्र में भी वर्णन है । दिगम्बरीय कर्मशास्त्र गोम्मटमार कर्मकाण्ड की गाथा ११२ में कहा है कप्पिस्थीस् ण सिस्थ सदरसहारमोति तिरियकुगं । सिरिया ओगे यि लड़ी गतिय सदरचऊ ।' गोम्मटसार कर्मकाण्ड की इस गाथा में जो सहसार देवलोक तक का बन्धस्वामित्र कहा है, उसमें इस कर्मग्रन्थ की ग्यारहवीं गापा के समान ही उद्योतचतुष्क की गणना की गई है। तथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा १२१ में शुक्ललेश्या के बन्नस्वामित्व के कथन में भी उद्योतचतुक का वर्णन है। ___ अतः कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार में बन्धस्वामित्व समान होने पर भी दिगम्बरीय शास्त्र में उपयुक्त विरोध नहीं आता है । क्योंकि १. कल्पवामिनी स्त्रियों में तीर्थकरप्रकृति का बन्ध नहीं होता है और लियंक तिक, तिथंचायु और उद्योत इन चार प्रकृतियों का बन्ध श्यलारसाहसार नामक स्वर्ग तक होला है। आनतादि में इन चार प्रकृतियों या बन्न नहीं होता है । अत: इन चार को सतार चतुष्पः ची काहसे हैं: क्योंकि पातारयुगल तक ही इनका बन्ध होता है । २ सुबके सदरचउर्फ वामतिमबारसं च ण 4 अस्थि । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कांग्रन्थ दिगम्बर मतानुसार लान्तय (लान्तक) देवलोक में पालेश्या ही है।' अतएव उक्त दिगम्बरीय सिद्धान्तानुसार यह कहा जा सकता है कि सहस्रारकल्पपर्यन्त के बन्धस्वामित्व में उद्योतचतुष्क की जो गणना की गई है, सो पद्मलेश्या वालों की अपेक्षा से है, शुक्ललेश्या वालों की अपेक्षा से नहीं । लेकिन तत्त्वार्थ भाष्य, संग्रहणी आदि ग्रन्थों में देवलोकों की लेश्या के विषय में किये गये उल्लेखानुसार उक्त विरोध का परिहार नहीं होता है। यद्यपि इस विरोध का परिहार करने के लिए श्री जीवविजयजी ने अपने टबे में कुछ नहीं लिखा है, लेकिन धी जरासोमसूरि ने इसका समाधान करते हुए लिखा है कि यह मानना चाहिए कि नौवें आदि देवलोकों में ही शुक्ललेण्या है।' इस कथन के अनुसार छठे आदि तीन देवलोकों में पद्म-शुक्ल दो लेण्याएँ और नौवें आदि देवलोकों में केवल शक्ललेश्या मान लेने से उक्त विरोध का परिहार हो जाता है। लेकिन इस पर प्रश्न होता है कि तत्त्वार्थभाष्य और संग्रहणी सूत्र में छठे, सातवें और आठवें देवलोक में शक्ललेश का भी उल्लेख क्यों किया गया है ? इसका समाधान यह है कि तत्वार्थभाष्य और संग्रहणी सूत्र में जो कथन है वह बहुलता की अपेक्षा से है । अर्थात् छठे आदि तीन देवलोकों में शुक्ललेश्या की बहुलता है और इसीलिए उनमें पद्मलेश्या संभव होने पर भी उसका कथन नहीं किया गया है। अर्थात शुक्ललेश्या वालों के जो अन्धस्वामित्व कहा गया है, वह विशुद्ध शुक्ललेश्या की अपेक्षा से है। - इस प्रकार तत्वार्थभाग्य और संग्रहणीसूत्र की व्याख्या को उदार बनाकर विरोध का परिहार कर लेना चाहिए। सारांश यह है कि कृष्णादि लेश्याओं में कृष्ण, नील, कापोल इन तीन लेश्यावाले आहारकट्रिक को छोड़कर सामान्य से ११८ २ ब्रह्मलोकनहोस्सरलान्तवकापिटेषु एन लेण्या शुत्रमहाशुक्रालारसहसारेषु गरपानलेश्याः । --- पूत्र, ४।२२ सर्वार्थसिधि टीका Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यमानित प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और मिथ्यात्व गुगुणस्थान में तीर्थकरप्रकृति का बन्ध न होने से ११७ प्रकृतियों का तथा दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान में बन्धस्वामित्व के समान ही बन्ध समाना चाहिए। चौथे गुणस्थान के समय इन कृष्णादि तीन लेश्याओं में ७७ प्रकृतियों का बन्ध माना है, उसमें देवायु का भी ग्रहण है, जो कर्मअन्धकारों की दृष्टि से ठीक है । लेकिन भगवती सूत्र में बताया है कि कृष्णादि तीन लेश्यावाले सम्यक्त्वी मनुष्यायु को बांध सकते हैं, अन्य आयु को नहीं। इस प्रकार ७६ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता चाहिए । इस विरोध का परिहार करने का सरल उपाय यह है कि कृष्णादि तीन लेश्या वाले सम्यक्तियों के प्रकृतिबन्ध में जो देवायु की गणना की गई है, वह कर्मग्रन्धकारों के मतानुसार है, संद्धान्तिक मत के अनुसार नहीं। तेजोलेश्या पहले सात गुणस्थान में पाई जाती है और इस लेण्या वाले नरकनवक का बन्ध नहीं करने से सामान्य से १११ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और पहले गुणस्थान में तीर्थकरनामकर्म और आहारकद्विक के सिवाय १०८ और दूसरे से सातवें तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। पदमलेश्या में भी तेजोलेश्या के समान ही सात गुणस्थान होते हैं । लेकिन तेजोलेश्या से इसमें विशेषता यह है कि पद्मलेश्या वाले नरकनवक के अतिरिक्त एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप इन तीन प्रकृतियों को भी नहीं बांधते हैं । अतएव पालेश्या का बन्धस्वामित्व मामान्य रूप से १०८ प्रकृतियों का तथा पहले गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म तथा आहारकचिक को घटाने से १०५ का और दूसरे में लेकर सातवें गुणस्थान तक प्रत्येक में बन्धाधिकार के समान ही बन्छ समझाना चाहिए। mumwwwAALI-. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय फर्मग्रन्थ शुक्लेश्या पहले से तेरहवे गुणस्थान तक पाई जाती है। इसमें पालेश्या की अबन्ध्य बारह प्रकृतियों के अतिरिक्त उद्योत चतुष्क का भी बन्ध नहीं होने से सोलह प्रकृतियाँ सामान्य बन्ध में नहीं गिनी जाती हैं । इसलिए सामान्य रूप से १०४ प्रकृतियों का बन्ध होता है और विध्यात्वगुणस्थान में तीर्थकरनामकर्म और आहारafar के सिवाय १०१ का तथा दूसरे गुणस्थान में नपुंसक वेद, हुडसंस्थान, मिथ्यात्व और सेवा संहनन इन चार को १०१ में में कम करने से शेष ६७ प्रकृतियों का और तीसरे मे लेकर तेरहवें गुणस्थान तक गुणस्थानों के समान ही स्वामित्व समझना चाहिए । ६५. इस प्रकार avatarर्गणा का बन्धस्वामित्व बतलाने के बाद आगे की गाथा में भव्य आदि शेष रहो मार्गणाओं के स्वामित्व का कथन करते हैं सव्वगुणभव्यसन्निसु ओह अभःवा असन्निमिन्समा । सासणि असन्नि सन्नि व कम्मभंगो अणाहारे ||२३|| गाथार्थ---- भव्य और संज्ञी मार्गणाओं में सभी गुणस्थानों में बन्धधिकार के समान बन्धस्वामित्व है तथा अभव्य और असशियों का बन्धस्वामित्व मिथ्यात्व गुणस्थान के समान है । सास्वादन गुणस्थान में असंज्ञियों का बन्धस्वामित्व संशी के समान तथा अनाहारकमार्गेणा का चन्वस्वामित्व कार्मणयोग के समान जानना चाहिए । विशेषार्थ - इस गाथा में भव्य व संज्ञी मार्गणा के भेदों में तथा prefer के भेद अनाहारक arer में स्वामित्व बत लाया है। भव्य और संज्ञी - ये दोनों चौदह गुणस्थानों के अधिकारी हैं । इसलिए इनका बन्धस्वामित्व सामान्य से १२० प्रकृतियों का और गुणस्थानों की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान में ११७, सासादन गुण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ६ स्थान में १०१ आदि बन्धाधिकार के समान समझना चाहिए । सामान्य और गुणस्थानों में बन्ध का वर्णन दूसरे कर्मग्रन्थ में विद रूप से किया गया है, अतः यहां पुनरावृत्ति नहीं की गई है । द्रव्यमन के बिना भावमन नहीं होता है जैसे कि असंज्ञी | केवली भगवान के भावमन के बिना भी द्रव्यमन होता है, ऐसा सिद्धान्त में बताया गया है ।' अर्थात् केवली भगवान के मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमजन्य मनन परिणाम रूप भावमन नहीं हैं, परन्तु अनुत्तर विमान के देवों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर द्रव्यमन से देते हैं । इसलिए के बिना होता है और नह मन चौदह गुणस्थान तक होता है। सिद्धान्त में उसे नोज्ञीनोअसंज्ञी कहा है। यहाँ संज्ञीमार्गणा में द्रव्यमन की अपेक्षा संज्ञी मानकर चौदह गुणस्थान बतलाये गये हैं । अभव्य जीवों के पहला मित्रयात्व गुणस्थान ही होता है और सम्यक्त्व एवं चारित्र को प्राप्ति न होने के कारण तीर्थङ्कुरनामकर्म तथा आहारकद्विकका बन्ध संभव हो नहीं है । इसलिए सामान्य से तथा पहले गुणस्थान में तीर्थरामकर्म, आहारefere इन तीन प्रकृतियों को छोड़कर सामान्य व गुणस्थान को अपेक्षा अभव्यजीव ११७ प्रकृतियों के बन्ध के अधिकारी हैं। स्वाम अशी जीवों के पहला और दूसरा यह दो गुणस्थान होते हैं । इनके सामान्य से और पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थरामक और आहारकfe का बन्ध नहीं होने से तीन प्रकृतियों को छोड़कर ११७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। दूसरे गुणस्थान में संज्ञी जीवों के समान वे १०१ प्रकृतियों के बन्धाधिकारी हैं । अनाहारक मार्गणा में कार्मण काययोग मार्गणा के समान aavarfree antar चाहिए | यह मार्गणा पहले, दूसरे चौथे. wwwwwwww. after faar वचित' न स्वसंनियत् । विनाऽपि माचिस तु द्रव्यं केवलिनो भवेत् ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्म प्राय तेरहवें और चौदहवें इन पांच गुण स्थानों में पाई जाती हैं। इनमें से पहला, दूसरा और चौथा-..ये तीन गुणस्थान उस समय होते हैं, जिस समय जीव दूसरे स्थान में पैदा होने के लिए विग्रहगति से जाते हैं, उस समय एक, दो या तीन समय पर्यन्त जीव को औदारिक आदि स्थूल शरीर नहीं होने से अनाहारक अवस्था रहती है तथा सेरहवें गुणस्थान में केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारकत्व रहता है। चौदहवें गुस्थान में योग का निरोध (अभाव) हो जाने से किसी तरह का आहार संभव नहीं है। इसीलिए उक्त पांच गुणस्थानों में अनाहारक माणा मानी जाती है। किन्तु यहां जो कामण योग के समान अनाहारक मार्गणा में बन्धस्वामित्व कहा है उसका कारण यह समझना चाहिए कि यहाँ चार गुणस्थान बन्ध की अपेक्षा से बताये गये हैं, क्योंकि अयोगी तो योगनिरोध (अभाव) के कारण अवन्धक ही हैं । शेष रहे पहले, दूसरे, चौथे और तेरहवें गुणस्थान, उनमें भी विग्रहाति स्थित जीव के भवधारणीय शरीर के अभाव के कारण अनाहारक अवस्था होती है तथा तेरहवें गुणस्थान में जब केवली समुदघात करे, तब तीसरे चौथे और पांचवें समय में अनाहारक अवस्था होती है । इस अपेक्षा से तेरहवाँ गुणस्थान समझना चाहिए। ___ अनाहारक मार्गणा में कार्मण योग के समान सामान्य से ११२ १. (क) पढमतिमदगअजया अणाहारे मग्मणामु गुणा ! ___... कर्मास्य, ४॥२३ (ख) विग्गदिमावण्णा केवनिणो समाषदो अजोगीय । सिद्धा य अणाहास सेसा आहारया जीचा ॥ —पो जीवका, ६३५ २. एक हौ बीन्दानाहारकः । स्वासून २१ - - - ---.....ANEvA... PRIMIAINMMUNIndia Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधत्वादस्य प्रकृतियों का और पहले गुणस्थान में १०७, दूसरे में २४, चोथे में ७५. और तेरहवें में १ प्रकृति का स्वामित्व समझना चाहिए । अनाहारक मार्गणा में ओ सामान्य आदि की अपेक्षा बन्ध स्वामित्व बतलाया है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैं बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से आधारकत्रिक देवायु, नरकषिक, मनुष्यायु, तिचा इन आठ प्रकृतियों को कम करने पर सामान्य से ११२ तथा इनमें से जिननाम देवनिक तथा चैकियद्रिक इन पाँच प्रकृतियों को कम करने से पहले गुणस्थान में १०७ प्रकृतियों का और इन १०७ प्रकृतियों में से सुक्ष्मत्रिक, विक्लत्रिक. एकेन्द्रियजाति स्थावरनाम, आलपनाम. नपुसकवेद मिथ्यात्वमोहनीय. हुंड संस्थान और सेवा संहनन न तेरह प्रकृतियों के कम करने पर दूसरे सास्वादन गुणस्थान में ३४ प्रकृतियों का तथा इनमें से अन न्तानुबन्धचतुष्क आदि चौबीस प्रकृतियों को कम करने तथा free प्रकृतियों को मिलाने पर चौथे गुणस्थान में ७५ प्रकृतियों का तथा योगकेवल गुणस्थान में एक सातावेदनीय प्रकृति का बन्ध होता है । सारांश यह है कि भव्य और अंशी इन दो मार्गणाओं में वह ही स्थान होते हैं. अतः इनका सामान्य से और गुणस्थानों की अपेक्षा aafna Fatधिकार में बस गये अनुसार समझना चाहिए । अतः मका अभव्य पहले ही गुणस्थान में अवस्थित रहते बन्धस्वामित्व सामान्य एवं गुणस्थान की अपेक्षा पहले गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का है । ૬ AA." असं जीवों के पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान होते हैं और इनमें तीर्थङ्कर नामकर्म और आहारकविक इन तीन प्रकृतियों का बन्ध होना संभव नहीं है, अतः सामान्य गे और पहले गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का और दूसरे में बन्धाधिकार के समान १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है । - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ permswar " तृतीयं कर्मपत्य यद्यपि रहने. दुसरे, चौथे, लेरह और चौदह, इम पाँच गुणस्थानों में अनाहारक अवस्था होती है। किन्तु बन्धकी अपेक्षा से अनाहारक मार्गणा में कार्मण कानयोग के समान पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवा ... गे चार गुणस्थान होते हैं । क्योंकि कर्म बन्ध होना वहीं तक संभव है, और इनमें सामान्य व गुणस्थानों की अपेक्षा बन्ध कामयोग के समान समझना चाहिए । अति सामान्य से ११२, पहले गुणरबान में १०७. दूसरे में १४, चौथे में : ५ च तेरहवें में १ कृति का धन्ध होता है । इस प्रकार गति दिनदह गाओं में मना मिल किया जा चुका है। अब आगे की गाथा में ग्रन्थ-समाप्ति एवं लेश्याओं में गुणस्थानों का कथन करते है ..... तिसु दुसु सुइकाई गुणा बङ सा तेर ति सामित । देविन्द रिलिहियं यं का सत्यव खोइ ॥२४॥ गयाथं ... पहली तीन लेण्याओं में आदि को चार मुणस्थान, तंज और पद्म इन दो लेश्याओं में आदि के सात गुणस्थान तथा शुक्लतेश्या में तेरह मुणस्थान होते है । इस प्रकार श्री देवेन्द्रसूरि द्वारा रचित इस बन्धस्वामित्व प्रकरण का ज्ञान 'कमस्तक' नामक दुसरे कर्मग्रन्थ को जानकर करना चाहिए। विशेषायें - इस गाया में ग्रन्थ-समाप्ति का संकेत कर हालंधमाओं में गुणस्थानों को बतलाया है। लेण्याओं में गुणस्थानों का कथन अलग से करने का कारण यह है कि अन्य मार्गणाओं में जितने कितने गुणस्थान चौथे कर्मग्रन्थ में बतलाये गये हैं, उनमें कोई मतभेद नहीं हैं, पर- लेश्यामार्गमा के सम्बन्ध में सा नहीं है । चौथे कर्मग्रन्थ के मतानुसार कृष्ण आदि तीन लेण्याओं में छह गुणस्थान है। परन्तु इस तीसरे कर्मग्रन्थ के १ अस्माभिम पक्षमदुर्ग परमतिलेसासु छच्च दुस सला Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० बाधकामित्व मतानुसार उनमें चार गुणस्थान ही माने हैं । यह चार गुणस्थानों का कथन पंचसंग्रह और प्राचीन बन्धस्वामित्व के मतानुसार है। पंचसंग्रह और प्राचीन बन्धस्वामित्व की तत्सम्बन्धी गाथाएँ घर प्रकार है'छल्लेस्सा जाब सम्मोति' पंचसंग्रह १-३० 'छस्मसु सिक्षिण सीमुछएहं सुक्का अमोगी अलेस्सा ।' __प्राचीन बंधस्वामिस्व, गाथा ४० उक्त मलों का समर्थन गोम्मटसार में भी किया गया है। अतएव कृष्णादि तीन लेश्याओं में बन्धस्वामित्व भी चार गुणस्थानों को लेकर ही किया गया है। कृष्ण आदि तीन लेण्याओं को पहले चार गुणस्थानों में मानने का आशय यह है कि ये लेश्याएं अशुभ परिणाम रूप होने से आगे के अन्य गुणस्थानों में नहीं पाई जा सकती हैं । तेज आदि तीन लेश्याओं में से तेज और पा.--- ये दो लेश्याएं शुभ हैं परन्तु उनकी शुभता शुक्ललेण्या से बहुत कम है, इसलिए वे दो लेण्याएं सात गुणस्थान तक पाई जाती हैं और शुक्ललेश्या का स्वरूप परिणामों की मन्दता (शुद्धता) से इतना शुभ हो सकता है कि वह तेरहवें गुणस्थान सक पाई जाती है । इन छह लेश्याओं का सामान्य 4 गुणस्थानों की अपेक्षा बंधस्वामित्व गाथा २१ और २२ में बतलाया जा चुका है। अतः वहाँ से समझ लेना चाहिए। १ थावरकायप्पहुदो अविरक्षसम्मोत्ति अमुहतिहलेस्सा। सारणी दो अपमलो आव दु सुझतिपिपलेस्साओ ।। ___..-गो जीवकांड ६९१ अर्थात् पहली तीन अशुम लक्ष्याएँ स्थावरकाय से लेकर चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त होती हैं और अन्त को सीन शाभ लेण्याएं संशी मिथ्याष्टि से लेकर अप्रमत्तपर्वन्त होती है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्म ग्रन्थ इस ग्रन्थ में मार्गणाओं को लेकर जीवों के बन्धस्वामित्व का कथन सार रूप से पायान को लेकर विशेष सम से किया गया है। इसलिए इस प्रकरण को स्पष्ट रूप से समझने के लिए दूसरे कर्मग्रन्थ का अध्ययन कर लेना जरूरी है। क्योंकि दूसरे कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों को लेकर प्रकृतिबन्ध का विचार किया गया है जो इस प्रकरण में भी आता है कि अमुक मार्गणा का बन्धस्वामित्व बन्धा. धिकार के समान है। इस प्रकरण का नाम बक्षस्वामिम रखने का कारण यह है कि इसमें मार्गणाओं के द्वारा जीवों को प्रकृतिबन्ध सम्बन्धी योग्यता के बन्धस्वामित्व का विचार किया गया है। __इस प्रकार श्री देवेन्द्रसूरि विरचित बन्धस्वामिस्ट नामक यह तीसरा कर्मग्रन्थ समाप्त हुआ। बन्धस्वामित्व नामक तृतीय कर्मग्रंथ समाप्त। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 3 मार्गणाओं में उदय उदीराभित मार्गणाओं में बन्ध-वय-सा-स्वामित्व विषयक ferrer कर्मसाहित्य का मन्तव्य !] श्वेताम्वर- दिगम्बर कर्म साहित्य के समान असमान मन्तव्य 1] मार्गणाओं में बन्धामि प्रदर्शक यंत्र 10 जैन- कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय कर्मग्रन्थ भाग १ से ३ तक की मूल गाथाएं 11 संक्षिप्त शब्द-कोश Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KirtamAlANKavryayv४:१५:57.. मार्गणाओं में उदय-उदीरणा-सत्ता-स्वामित्व तीसरे कर्मग्रन्थ में सामान्य और गुणस्थानों के माध्यम से मागाओं में बन्धस्वामित्व का कथन है किन्तु उदय, उदीरशा, सत्ता के स्वामित्य का विधार नहीं किया गया है । लेकिन उपयोगिता की दृष्टि से संक्षेप में उनका विवेचन आवश्यक प्रतीत होना है । अत: उनसे सम्बन्धित स्पष्टीकरण किया जाता है। उदयस्वामित्व मरगति- इस मार्गणा में मिथ्यात्व से लेकर अविरतसमष्टि मुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं। सामान्यतया उदययोग्य १२२ प्रकृतियां हैं, उनमें से ज्ञानावरण गर, दर्शनावरण चार, अंतराय पाँच, मिथ्यात्वमोहनीय, जसनाम, कार्मणनाम. वर्णपण, अनुरुलधु नाम, निर्माणनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम और अशुभनाम में सलावीस प्रकृतियाँ ध्रु बोबधी – अपनी-अपनी उदय भूमिका पयः अवश्य उदयवती होती हैं। उनमें मिथ्यात्वमोहनीय की उदयभूमि प्रथर गुपस्थान है और वहाँ वह ध्रुवोययी है। पांच झातावरणीय, चार दातावरणीय और पांच अन्तराय इन चौदह प्रकृतिमों का उदय बारहवें गुणस्थान लक और शेष बारह प्रकृतियों का उदय ले रहवं गुणस्थान सक सभी जीवों के होने से वेध बोल्यो है । ये सत्तावीस धूवोदयी प्रकृतियों तथा निद्रा प्रपला, वेदनीय विक, नीच गोत्र. नरकत्रिक. पत्तेन्द्रिय जाति, वैशियतिक, हुण्डसंस्थान, अशुभविहायोगति, पराधात, उच्छवासनाम, उपघात, मचतुष्क, दुर्भग, इस्वर, अनादेश , अयश, सोलह कषाय. हास्यादिषट्क, नपा वेद. सम्ममत्वमोहनीय और मिश्र मोहनीय ये ७६ प्रकृतियाँ सामागम से नारकों के उदय में होती हैं । उनमें से पंचसंग्रह और कर्मप्रकृति के मत से सत्यानर्वित्रिक का उदय क्रिय भारीरी देव और नारकों के नहीं होता है । कहा है कि असंख्य वर्ष की आयु Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट वाले मनुष्य, लियंच, बैंक्रिय शरीर वाले, आहारक शरीर काले और अनमल साधु के सिवाय शेष अन्य के स्स्थानचिन्त्रिक का उदय और वारणा होतो __ सामान्य से उदयवती ७६ प्रकृतियों में से सम्यक्वमोहनीय और मिश्र मोहनीय को कम करने पर मिथ्यात्व गुणास्थान में ६८ प्रकृनियो तथा नरकानुपूर्वी और मिथ्यात्वमोहनीव के सिवाय ७२ प्रकृतियां सास्वादन गुणस्थान में उदार नोग्य हैं, उनमें से अगम्लानुवन्धी चतुष्का को कम करने और मित्रमोहनी को जोड़ने पर मिश्रगुणस्थान में ६६ प्रकृतियों और उनमें से मिश्रमोहनीय को कम करने और सभ्यकरन मोहनीय तथा नरकानुपूर्वी का प्रक्षेप करने से अविरलसम्यष्टि गुणस्थान में ७० प्रकृलियाँ उदय में होती हैं । तिबंधगति-.'इस मार्गणा में पनि गुणस्थान होसे हैं । इसमें देवतिक, नरकविक, वैक्रियतिका. आहारकाद्विक, मनुष्यमिक, उच्च गोत्र और जिननाम-इन पन्द्रह प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। इसलिए उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से पन्द्रह प्रकृतियों को कम करने पर सामान्य से १०७ प्रचालियाँ उदय में होती हैं। तियंत्रों के भवधारणीय वैक्रिय शरीर नहीं होता है. किन्तु लब्धिप्रत्यय .वैक्रिय शरीर होता है, अत: उसकी अपेक्षा से वैरिद्विक को साथ जोहने पर १.६ प्रकृतियाँ उदय में मानी जा सकती है लेकिन सामान्य मे १०.७ प्रकलियां सदययोग्य मानी जाती हैं। पूर्वोक्त १०७ प्रकृतियों में से सम्यक और मित्र मोहनीय..... इन दो प्रकृतियों को कम करने से मिथ्यात्व गुणस्थान में १०५ प्रकृतिया, सक्षम, अपर्याप्त, साधारण, आतपनाम और मिथ्यात्वमोहनी-~-न पाँच प्रकृतियों के सिवाय सास्वादन गुणस्थान में १०० प्रकृलियाँ जदययोग्य होती हैं, उनमें से अनन्तानुवन्धीचतुश्क, १ (क)-देखें कर्मप्रकृति उदीर.पााकरण गाथा १९.'संम्परत वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज मनुष्य और लियंच के इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद स्त्यानदिनिका जपय में आने योथ्य है, उसमें आहारकलब्धि तथा वैशियलब्धि वाले को उसका उदय नहीं होता है। (ब)-धीणतिगुरुओ परे, सिरिये 1 । -नो कर्मकाय २५ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Du r ammemy........... मार्गणाओं में उदय-उधोरण ससा-स्वामित्व स्थावर नाम, एकन्दियादि जातिचतुक और तिर्थबानुपूर्वीइन दस प्रकृतियों को कम करने पर और मिथमोहनीय को जोड़ने से मिथ गुणस्थान में ६१ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं। उनमें से मिधमोहनीय के कम करने और सम्यकस्यमोहनीय तघा तिथंचानुपूर्वी-इन दो प्रकृतियों को मिलाने में अविरत गुणस्थान ग ६२ अक्षर में होती हैं । अप्रस्थाच्यानावरणचतुष्क, दुर्भग, अनादेय, अपश और नियमानुपूर्वी इन आठ प्रकृत्तियों के सिवाय देणाविरति मुणस्थान में ८४ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं । यहीं नर्वत्र नन्धिप्रत्यय वैक्रिय शरीर को विवक्षा नहीं की है, अतएक नै क्रिय शरीर. वैकिर अंगोपांग इन दो प्रकृतियों को सर्वत्र काम समाना बाहिए। मनुष्यगति- इसमें चौदह गुणस्थान होते हैं। देवत्रिक, नरकनिका, बैंक्रियधिक बालिबतष्क तिर्यचत्रिक, उझोत, स्थावर, मुक्ष्म, साधारण और आतप----इन २० प्रकृतियों का उदय मनुष्य के होता नहीं है, इसलिए उनको कम करने पर सामान्य से १०२ प्रकृतियाँ सदय में होती हैं । परन्तु मधिनिमिसक बैंक्रिए शरीर की अपेक्षा उसरवैक्रिय शारीर करने पर बैंक्रियतिक और जात नाम का उदय होने से इन तीन प्रकृत्तियों सहित १५ प्रकृतियाँ भी उदय में हो सकती है। लेकिन उनकी यहाँ अपेक्षा नहीं की गई है । यहाँ सामान्य से जो १.२२ प्रकृत्तियाँ उदय में आती हैं, उनमें से मिथ्यात्व गुणस्थान में आहारकाद्वक, जिमनाम, सम्मान और मिथमोहनीय --इन पाच प्रकृत्तियों का उदय नहीं होने से, उन्हें कम करने पर २ प्रकृतियाँ उदन में होती हैं । अपर्याप्तनाम और मियामोहनीय—इन दो प्रकृतियों के मिवाय सास्वादन मुणस्थान में ९५ प्रकृतियाँ उदर में होती हैं। उनमें अनन्तामुबन्धी चतुष्क और मनुष्यानुपूर्नी इन पांच प्रकृतियों को कम करने और मिश्र मोहनीय को जोड़ने पर मिथ गुणस्थान में ६१ प्रकृतियां हैं तथा इनमें से मित्रमोहनीय को कम करने तथा सम्यक्त्यमोहनीय एवं मनुष्यानुपूर्षों को मिलाने पर अविरत सम्यष्टि गुणस्थान में ९२ प्रकृतियां उदय में होती हैं। अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, दुमंग, अनादेश, अयाःकोति और नीधगोत्र इन 8 प्रतियों के सिवाम देशविरत मुस्थान में १३ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ शुश काल : बि. सिप प्रकृलियां उदययोग्य हैं । उक्त २३ प्रकृतियों में से प्रत्याख्यानावरणपतुक का उदयविच्छेद पत्रिवें गुणस्थान में हो आने से छठे प्रमसबिरत गुणस्थान में ७६ प्रकृतियों उदययोग्य हैं, लेकिन आहारकद्विक का उपय छठे गुणस्थान में होता है अत: इन दो प्रकृतियों को मिलाने से ६१ प्रकृतियों का उदय माना रुवानचित्रिक और आहारकद्धिक-इन पांच प्रकृत्तियों के सियाय अप्रमत मुणस्थान में ७६ प्रकृलियां होती हैं। सम्यक्त्वमोहनीय और अंतिम तीन संहनन इन दार प्रकृतियों को कम करने पर अपूर्वकरण में ७२ प्रकृतियां उदय में होती हैं । हास्यादिषट्क के सिवाय अनिश्रृप्ति गुणस्थान में ६६ प्रकृतिमा उदय में होती हैं । वेदमिक और संज्वलनत्रिक इन छह प्रकृतियों के अलाना सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में ६० प्रकृतियां उदय में होती हैं। संज्वलन लो के बिना उपशांतमाह गुणस्थान में ५६ प्रकृतियां होती हैं। ऋषभनाराच और नारान इन दो प्रकृतियों के सिवाय क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय में ५७ प्रकृतियाँ और निद्रा, प्रचसा के सिवाय क्षीणमोह के अंतिम समय में '५५ प्रकृतियाँ सोती हैं। ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४ और अन्तराम ५... इन बौदह प्रकृतियों में उदयविद होने तथा तीर्थंकर नामकर्म उदययोग्य होने से सयोगिकेवली गुणस्थाम' में ४२ प्रकृतियों होती हैं। औदारिफट्रिक. बिहायोगसिद्धिक, अस्थिर. अशुभ, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, मंस्थानषट्क. अगुरुलअनलष्क, वर्णचनुम्क. निर्माण जस, कार्मण, वन भनारसत्र संहनन, दुःस्वर, सुरुवर, सातावेदनीय और असातावदनीय में मे कोई एक-इन ३॥ प्रकृसियों के बिना अयोगिकंवली गुणस्थान में १२ प्रकृतियों का उदय होता है। सुभग, आदेश, यश-कोति, साता या असाता वेदनीय में से कोई एक, प्रस, बादर, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यतिक, जिननाम और उश्च गोत्र में १२ प्रकृतियो भयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय उदय बिच्छन्न होती हैं। घेषगति-इस मार्गणा में प्रथा चार गुणस्थान होते हैं । नरकनिक तिर्यंचत्रिक, मनुष्यषिक, जातिचतुष्क, औदारिकद्विक, आहारकद्धिक, संहननषदक, यग्रोधपरिमण्डलादि पांच संस्थान, अशुभ विहामोगति, भातय, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाओं में उदय उदीरणा-सा स्थामित्व १०६ 1 1 उद्योत जिननाम स्थावरचतुष्क दुःस्वर, नपुंसक वेद, नीच गोत्र और terrafafter ४२ प्रकृतियों के सिवाय ओष से देवों के ८० प्रकृतियों उदय में होती हैं । यहाँ उपकिय परीष करने को देवों के शोध नामकर्म का उदय संभव है. परन्तु भवप्रत्यय शरीर निमित्तक उद्योत का उदय विवक्षित होने से दोष नहीं है। मिथ्यात्व गुणस्थान में मिश्र व सम्यक्त्व मोहमीव का अनुषय होने से ७८ प्रकृतियाँ उदयोग्य है | free का बिछे हो जाने से सास्वादन में ७७ प्रकृतियाँ, अनन्तानुबन्धचतुष्क और देवानुपूर्वी -इन पांच प्रकृतियों को कम करने और मिश्रमोहनी को मिलाने पर मिश्र गुणस्थान में ७३ प्रकृतियाँ, मिश्रमोहनीय को कम करने तथा सम्यक्त्व मोहनीय और देवापुर्वी इनसे प्रकृतियों को जोड़ने पर अविरतसम्पण्डष्टि गुणस्थान में ७४ प्रकृतियाँ उदययोग्य है।" F एकेन्द्रिय जाति- एकेन्द्रिय मार्गणा में आदि के दो गुणस्थान होते हैं वैष्टक, मनुष्यधिक उच्चगोत्र स्त्रीवेद, पुरुषवेद, द्वीन्द्रियजातिचतुष्क, आहारकक्षिक, औदारिक अंगोपांग आदि के पाँच संस्थान, बिहागतिक जिननाम, बस, छह संहनन, दुःस्वर, सुस्वर, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोट नीय, सुभगनाम आदेयताम इन ४२ प्रकृतियों के बिना सामान्यतः और मिध्यात्व गुणस्थान में ८० प्रकृतियों होती हैं और क्रिय शरीर P नाम का उदय होने से एकेन्द्रिय मार्गणा में १ प्रकृतियों में होती हैं। सूक्ष्मत्रिक aayनाम, उद्योतमाम मिथ्यात्वमोहनीय, गधातनाम और श्वासोच्छ्वासनाम- इन आठ प्रकृतियों के सिवाय सास्वादन गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों उदय में होती है। क्योंकि सास्वादन गुणस्थान एकेन्द्रिय पृथ्वी, अ और वनस्पति को अपर्याप्त अवस्था में भारीपर्याप्त पूर्ण होने के पहले होता है और आतपनाम, उद्योतनाम, परावातनाम और उच्छ्वास का अदभ > ! १ गो० कर्मकांड में दुभंग, अनादेय और अयशःकीति नवीन प्रकृतियों को देवगति में उदयोग्य नहीं माना है । अतः प्रकृतियों सामान्य से उदयोग्य हैं। अतः नारों गुणस्थानों में श्रमशः ७५ ७४, 20 और ७१ प्रकृतियों का उय होता है। -गो कर्मकांड ३०४ ❤ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० तृतीय कर्मग्रन्थ परिशिष्ट : शरीरपर्याप्ति एवं पूरी होने के बाद होता है । औपfee सम्यक्त्व का मन करने वाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि- अपर्याप्त और साधारण वनस्पति में उत्पस नहीं होता है, अतः उसके वहाँ सूक्ष्मत्रिक उदय में नहीं हैं ।' I r जाति - एकेन्द्रिय के समान हीन्द्रिय के भी दो गुणस्थान होते हैं । वैक्रियाष्टक, मनुष्यत्रिक, उच्चगोत्र, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, द्वीन्द्रिय के बिना एकेन्द्रिय जातिचतुष्क आहारकद्विक, आदि के पाँच संहनन, पाँच संस्थान, शुभ विहायोगति जिननाम स्थावर सूक्ष्म साधारण आतप सुभग, आदेय, सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीय -- इन चालीस प्रकृतियों के उदय-अयोग्य होने से सामान्यतः और मिथ्यात्व गुणस्थान में ८२ प्रकृतियां उदय योग्य हैं । उनमें से अपर्याप्त नाम, उद्योत मिध्यात्म पराधास अशुभ विहायोगति, उच्छ्वास सुस्वर, दुःस्बर इन आठ प्रकृतियों के बिना सास्वादन गुणस्थान में ३४ प्रकृतियों उदय में होती हैं, क्योंकि मिथ्यात्वमोहनीय का उदय तो वहाँ होता नहीं है और उसके सिवाय शेष प्रकृतियों का उदय शरीरपर्याप्त पूर्ण होने के बाद ही होता है और सास्वादन तो शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले ही होता है। www श्रीन्द्रिय और चतुरिश्रिय जातिदन दोनों मार्गणाओं में भी द्वीन्द्रिय के समान हो दी गुणस्थान होते हैं और उदवस्वामित्व भी उसके समान जानना चाहिए, किन्तु दीन्द्रिय के स्थान पर श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय समझना ।" पंचेन्द्रिय जाति इसमें वह गुणस्थान होते हैं। जातिचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और आप इन आठ प्रकृतियों के बिना सामान्य से ११४ १ गो० कर्मकांड में सामान्य से पहले गुणस्थान में दूसरे गुणस्थान में ६६ (स्त्या रहित) प्रकृतियों का उदय बताया है। -गो० कर्मकांड ३०६-३०८ २ विकलेन्द्रियों (न्द्रिय, श्रीन्द्रिय, फ्लुरिन्द्रिय) में सामान्य से पहले गुणस्थान में ५१ व दूसरे में ७१ प्रकृतियों का उदय गो० कर्मकांड में बताया है । -गो० कर्मकांड ३०६-३०८ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्गणाओं में जय-जवीरण ससा स्वामित्व प्रकृतियों उदय में होती हैं। उनमें से आहारकविक, जिननाम, सम्यक्त्व और मिश्मात्यमोहमीय-इन पांच प्रकृतियों को कम करने पर मिया गुणस्थान में १०६ प्रकृतियां उदय में होती हैं तथा मिथ्यात्वमोहनीय, अपर्याप्त और नरकानुपूर्वी....इन तीन प्रकृतियों के सिवाय सास्वादन गुणस्पन मे १०६ अनि । बागुमधाचतुष्क और अनुपूर्वीत्रिक इन सात प्रकृत्तियों के बिना और मित्र मोड्नीय को मिलाने से मि गुणस्थान में १०३ प्रकृतियां उदय में होती हैं । मित्रमोहनीय को कम करने और भार आनुपूर्वो तथा सम्यक्त्वमोहनीय को संयुक्त करने पर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में १०४ प्रकृतियां होती हैं ! अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, वैक्रियाष्टका, मनुष्यानुपूर्वी, तिथंचानुपूर्ची, दुर्भग, अनाव और अयशकीति इन १७ प्रकृ. सियों के सिवाय देशविरप्त गुणस्थान में १५ प्रकुत्तियां उदय में होती हैं और छ गुणस्थान से लेकर धौरहवें गुणास्थान तक मनुष्यगति के समान ८१,७६, ७२, ६६, ६०, ५६, ५७, ४२, और १२ प्रकृतियों का उदवस्वामित्व समझना चाहिए। पृथ्वीकाय ... इस मार्गणा में ऐकन्धिय की तरह दो गुणस्थान समझना पाहिए । ऐकेन्द्रिय मार्गणा में कही गई ४२ प्रकृतियां और साधारपनाम के सिवाय सामान्य हो और मिध्यान्त्र नपस्थान में ६ प्रकृतियों का उदय होता है । सूक्ष्म, लब्धि-अपर्याप्त, मातर, उचौत, मिथ्याश्य, पराधात, मासोच्छ्यास इन सात प्रकृतियों के बिना सास्वादन गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों उदय में होती हैं । सास्वादन गुणस्था करण-अपर्याप्त पृथ्वीकायादि को होता है. किन्तु समिध-अपर्याप्त को नहीं होता है। अपाय-पृथ्वीकाय के समान यहाँ भी दो मुणस्थान होते हैं । पृथ्वींकाय मागंणा में कही गई ४३ अकृतियाँ और आतपनाम के सिधाय सामान्य में और मिथ्यास्त गुणस्थान में प्रकृतियों का उदय होता है। ममें सूक्ष्म, अपर्याप्त, उयोत, मिथ्यात्व, पराधात और उच्छवास इन छह प्रकृतियों के अलाश सास्वादन गुणस्थान में ७२ प्रकृतियां होती है। क्योंकि भूम, ऐकेन्दिर और लब्धि-अपर्याप्त में सम्यक्त्व का उदवमन करने वाला कोई जीव उत्पन्न नहीं होता है । अतएव सास्वादन गुणस्थान में सूक्ष्म और अपर्यास नाम का अवय Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्म ग्रन्थ : परिशिष्ट नहीं होता है । पारीरपति पूर्ण होने के बाद उद्योत नाम और पराधात माम का उदय होता है । श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति पूर्ण होने के अनन्तर श्वासोमछ्वास का उपम होता है और मिथ्यात्वमोह का उदय यहाँ होता नहीं है । हेजस्काय, कासुकाय-- इनमें पहला गुणस्थान होता है। तेजस्काय में अपकाय की '४४ तथा अग्रोस और यश-कीति इन ४६ प्रकृतियों के सिवाय ७६ प्रकृतियों का सथा वायुकाम में ऋिप शरीर सहित ७७ प्रकृतियों का उदय होता है। बनस्पतिकाय... इस मागंणा में दो गुणस्थान होते हैं। एकेन्द्रिय मागणा में कही बाई ४२ प्रकृतियों और आतपनाम के अतिरिक्त सामान्य से और मिथ्यात्व गुणस्थान में ७६ और सास्वादन गुणस्थान में ७२ प्रकृतियाँ जदय में होती हैं। सकाय इसमें चौदह गुणस्थान होते हैं । उसमें स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आसप और एकेन्द्रिय जाति इन पांच प्रकृतियों के अलावा सामान्य से ११७ व आहारकविक, जिननाम. सम्यक्त्वमोहनीय और मिधमोहनीय इन पाँच प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व गुणस्थान में ११२ प्रकृतियां अक्ष्य में होती हैं । उनमें से मिथ्याल, अपर्याप्त और नरकानुपूर्वी-इन तीन प्रकृतियों को कम करने से सास्वादन गुणस्थान में १०९ प्राप्तियां होती हैं। उनमें से अनन्तानुबन्धीचतुष्क, विकलेन्द्रियनिक और आनुपूर्वी चिक-इन दस प्रकृतियों का उदयविकछेद होता है और मिश्रमोहनीय को मिलाने पर मिश्र गुणस्थान में १०० प्रकृतियाँ उदय में होती हैं। आनुपूर्वीचतुष्क और सम्यक्त्वमोहनीय इम पाँच प्रकृतियों को मिलाने और मिश्रमोहनीय को कम करने पर अविरत सम्यग्दृष्टि गुणल्यान में १०४ प्रकृतियाँ उयय में होती हैं। देशविरत आदि गुणस्थानों में सामान्य उदयाधिकार में कहा गया ८७, ८१, ७६, ७२, ६६, ६०, ५६, ५७, ४२ और १२ प्रकृतियों का उदय प्रामाः समझना चाहिए । प्रमोमोग-यहाँ तेरह गुणस्थान होते हैं । स्थावरचतुष्क, जातिचतुष्क, भातप और आनुपूर्वीचतुष्का-...इन तेरह प्रकृतियों के सिमाय सामान्य से १०६ प्रकृतियां उदय में होती हैं। आहारकतिक, जिनगाम, सम्यक्त्व और मिन इन पांच प्रकृतियों के अलावा मिथ्यात्व गुणस्थान में १२४ प्रकृतियाँ, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: मार्गणाओं में उषध उदीरणा-सत्ता स्वामिस्व ११३ मिथ्यात्व से रहित सास्वादन में १०३. अनन्तानुश्रीचतुष्क को कम करने और मन को मिलाने पर मिश्र गुणस्थान में १०० तथा मिश्रमोड़fre को कम करने और सम्यक्त्वमोहनीय को छोड़ने पर अविरतम्यष्ट गुणस्थान में १००, अप्रत्यास्थानावरणचतुष्क वैदिक देवगति देवायु, नरकति नरकायु दुर्भग, अनादेय और अवश - इन तेरह प्रकृतियों के सिवाय देशविरस गुणस्थान में ५७ प्रकृतियां उदय में होती है। शेष रहे गुणस्थानों में मनुष्यगति मार्गणा के समान उदय समझना चाहिए । · वचनयोग यहाँ तेरह गुणस्थान होते हैं । स्थावरचतुष्क एकेन्द्रिय जाति आतप और आनुपूर्वीक --- इन दस प्रकृतियों के सिवाय सामान्य से ११२. आहारकविक, जिननाम. सम्यवत्व और मिश्र - इन पाँच प्रकृतियों के fear मिथ्यात्व गुणस्थान में १०७ मिध्यात्वमोहनीय और विकलेन्द्रियत्रिक इन चार प्रकृतियों के सिवाय सास्वादन गुणस्थान में १०३ प्रकृतियों होती है । यद्यपि विकलेन्द्रिय को वचनयोग होता है, परन्तु भाषापर्याप्ति पूर्ण होने के बाद ही होता है और सास्वादन से मरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले होता है। इसलिए दस मागंणा में सास्वादन गुणस्थान में वचनयोग नहीं होता है । अतएव विकलेन्द्रियत्रिक निकाल दिया है। उसमें से अनन्तामुarates को कम करने और मिश्रमोहनीय को मिलाने पर मिश्र गुणस्थान में १०० प्रकृतियाँ उदय में होती है | अविरतसम्यष्टि से लेकर आगे के गुणस्थानों में मनोयोग मार्गणा के समान समझना चाहिए। काययोग- इस मार्गणा में तेरह गुणस्थान होते हैं। इसमें सामान्य से १२२. मिध्यात्व गुणस्थान में ११७ सास्वादन में १११ इत्यादि मामान्य उदयाधिकार में कही प्रकृतियों का उदय समझना चाहिए । पुरुषबेब इसमें नौ गुणस्थान होते हैं । नरकविक, जातिचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप अपर्याप्त जिननाम, स्त्रीवेद और नपुंसक इन १५ प्रकृतियों के सिवाय सामान्य से १०७ प्रकृतियों का उदय होता है । उनमें से बाहारकद्विक, सम्यक्त्व और मिश्र इन चार प्रकृतियों के अलावा मिथ्यात्व गुणस्थान में १०३ प्रकृतियाँ, मिथ्यात्व प्रकृति के बिना सास्वादन में १०२ प्रकृतियाँ, उनमें से अनन्तानुबन्धचतुष्क और जानुपूर्थी wwwww ............................................ ....... Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूतीय कपन्य : परिशित रिफ ---इन सात प्रकृतियों को कम करने और मिश्चमोहनीम को जोड़ने से मिश्च गुणस्थान में ६६ प्रजातियों और उनमें से मिश्र मोहनीय को निकालकर सम्यक्स्य तथा आनुपुर्वीत्रिक-इन चार प्रकृतियों को जोड़ने से अभिरति शाय गुणरु ग में नहीणों होती हैं ! अधिक, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्फ, देवगति, देवायु, नैत्रियद्विक, दुर्भग, अनादेय और अयश्च इन १४ प्रकृतियों के बिना देणविरत गुणस्थान में ८५ प्रकृतियां होती है। प्रत्याश्यानावरण चतुरुक, नियंचगति, तिथंचायु, उद्योत और नीचगोत्र इन आऊ प्रकृतियों को कम करके आहारकद्विक को मिलाने से प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ७६ प्रकृतियाँ होती हैं। उनमें से स्त्यानद्धित्रिक और आहारकद्विक-इन पाँच प्रकृत्तियों के सिवाय अप्रमत्त गुप्पस्थान में ७४ प्रकृसिया, सम्यक्त्वमोहनीय और अंतिम तीन संहनन इन चार प्रकृतियों के बिना अपूर्वकरण गुणस्थान में :प्रकृतियाँ होती है और हास्यादि यह प्रकृतियों के बिना अनिवृत्ति गुणस्थान में ६४ प्रकृतियाँ होती हैं । ____ स्त्रोवेव-इसमें भी पुरुषवेद के समान नो गुणस्थान होते हैं और यहां सामान्य से तथा प्रमत्त गुणस्थान में आहाराविक के विना तथा चौथे गुणस्थान में आनुपूर्वीत्रिक के सिवाय शेष रहीं प्रकुतियों का उदय समझना चाहिए । क्योंकि प्रायः स्त्रीवादी के परभव में जाते समय चतुर्थ गुणस्थान नहीं होता है । अत: आनुपूर्थीत्रिक का उदय नहीं होता है और स्त्री चतुर्दश पूर्वधर नहीं होती है । इमलिया उसे आहारकद्विक का भी सवय नहीं होता है। अतः सामान्य से तथा नौ गुणस्थानों में अनुक्रम से १०५, १०३, १०२, ६६, ६५, , ७४, २० और ६४ इस प्रकार उदय समझना चाहिए । __नपुसकावेद इसमें भी नौ गुणस्थान होते हैं। इसमें देवत्रिक, जिननाम, स्त्रीवेद और पुरुषवेद, आहाराद्विक इन ८ प्रकृतियों के सिवाय सामान्य से ११४, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय-इन दो प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व गुणस्थान में ११२ प्रवृत्तियाँ उदय में होती हैं। उनमें से सूक्ष्मरिक, आसप, मिथ्यात्व, नरकानुपू.-...-इन छई प्रकृतियों को कम करने पर सास्वादन गुणस्थान में १०६ प्रकृतियां होती हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, तिथंचानुपूर्वो, स्थावर और जातिचतुक इन ११ प्रकृतियों के कम करने और Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र UruaruwelkewiswavidyaiikiVM100000000mikankviovbecणदेशालारसपाराश मार्गणाओं में उपय-उदोरक्षा-ससा-स्वामित्व मिश्रमोहनीय को पिलाने पर मिश्र स्थान में ६ प्रकृत्तियों और मित्र. मोहनीय के क्षय व सम्यकस्व व मरकानुपूर्वी के उदयोग्य होने से विस्त सम्बरष्टि गुणस्थान में ६७ प्रकृतिमा उदय में होती हैं। उनमें से अत्यारुपानाबरणचतुष्क, नरकधिक, वैक्रियादिक, दुभंग. अनाये और अय -इन बारह प्रकृतियों के बिना देणविरत गुणस्थाम में ८५ प्रकृतियां होती हैं । सिर्वचगति, सियंत्रामु, नीमगोत्र, उद्योत और प्रत्यासमतावरणचतुगक - इन आ3 प्रकृतियों को कम करने से ७५ प्रकृतियाँ प्रमत्त गुणस्थान में होती हैं। स्स्यानक्षित्रिक... इन तीन प्रकृतियों के सिवाय अप्रमत्त गुणस्थान में ७४ प्रकृतियाँ, सम्यक्त्वमोहनीय और अंतिम तान संहनन-इन सार प्रकृतियों के बिना अपूर्वकरण शुणस्थान में ७० प्रकृतियों और हास्याविषद के के बिना अनिति गुणस्थान में ६४ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं । क्रोध-..यहाँ नौ गुणस्थान होते हैं । मान-..-४, माया.४, लोभ-... और जिननाम- इस तेरह प्रकृतियों के विमा सामान्य से १०६, साम्यवस्क, मिथ और आहारकाद्विक-.-इन ४ प्रकृत्तियों के बिना मिथ्यात्व गमस्थान में १०५, रामविक, आतप, मिथ्यात्व और नरकानुपू:-- इन छह प्रकृतियों के बिना सास्वादन में १ प्रकृतियाँ उदय में होती है । अनन्तानुबन्धी शोध, स्थाकर, आतिश्चक और आनुपूर्वीविक-इन मो प्रकृतियों को कम करने और मिश्रमोहनीय को मिलाने पर मिन गुणस्थान में ६१ प्रकृसियों, उनमें से मिश्रमोहनीए को कम करने और सम्धस्यमोहनीय तथा आनुपूर्वीयतुटक को मिलाने पर अविरत गुणास्थान में १५ प्रकृत्तियां, उनमें से अप्रत्यारत्यान्दावरण क्रोध, आनुपूर्वीचतुष्क, देगति, देवायु, नरकमति नरकायु, वैत्रिय विक, दुर्भग, अनादेय और अयय...-इन फौदह प्रकृतियों के बिना देशविरस गुणस्थान में ८१ प्रकृतियाँ होती है । विर्यधगति, तिथंचायु, उद्योत, नीचगोत्र और प्रत्याख्यानावरण क्रोध--- इन पांच प्रकृतियों के न्यून करने और आहारकविक के मिलाने पर प्रमत शुषस्थान में ८ प्रकृत्तियों होती हैं। स्स्यानद्धित्रिक और आहारकतिक-इन पांच प्रवासियों को कम करने पर अप्रमत गुणस्थान में ७३ प्रतियो, सम्यवस्वमोहनीय और अन्तिम लोन संहनन-इन चार प्रकृतियों के बिना अपूर्वकरण गुणस्थान में ६६ और हास्यादिषट्क बिना अनिवृत्ति गुणस्थान में ६३ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्भप्राय : परिशिष्ट मान, माया और लोम --यहाँ उदयस्वामित्व पूर्ववत् समझना चाहिए । परन्तु मान और माया कषाय माणा में नौ गणस्थान होते हैं । इसी प्रकार अपने सिवाय अन्य तीन कषायों की बारह प्रकृतियां भी कम करनी चाहिए। जैसे कि मान माणा में अन्य तीन कषाय के अनन्सानुबन्धी आदि बारह भेद और जिननाम—इन तेरह प्रकृतियों के सिवाय सामान्य से १०९ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं । इसी प्रकार अन्य ऋषायों के लिए भी समझना चाहिए । लोभ मार्गणा में इस. गुणस्थान में तीन वेवों को कम करने पर ६० प्रकृतियाँ उदय में होती हैं। मति, भूत और अवधि शान. यहां चौथे से लेकर बारहवें तक मौ गुणस्थान होते हैं । सामान्य में १.६ प्रवृत्तियाँ उदययोग्य हैं । आहारकनिक के सिवाय अविरत गुणस्थान में १०४ और देशविरत आदि गुणन्यानों में सामान्य उदयाधिकार के अनुसार क्रमशः ८७, ८१,७६, २२, ६६, ६०. ५६ और ५७ का अदयस्वामित्व समझना चाहिए। मनःपर्यायजाम ---- इस मार्गणा में प्रमत्त गुणस्थान से लेकर बारहः गुणस्थान तक सात गुणस्थान होते हैं, इसलिए सामान्म से ५१ और प्रमादि गुणस्थानों में अनुभम से +१,७६, ७२, ६६, ६५, ५६ प्रकृतियाँ उदय में समलनी चाहिए। केवलमान-...इस मार्गणा में तेरहवां और भावहां ये दो गुणस्थान होते हैं। उनमें सामान्यतः ४२ और १२ प्रकृतियां अनुक्रम से समझना चाहिए । ___ मलि-अज्ञान और अत-अजाम-यहाँ आदि के तीन गुणस्थान समझना चाहिए । आहारकद्विक, जिननाम और सम्यक्त्वमोहनीय के बिना सामान्य से और मिथ्यात्व गुणस्थान में ११८, सास्वादन गुणस्थान में १११ और मिश्र गुणरथान में १०० प्रकृतियां उदय में होती हैं । विमंग जान....यहाँ भी पूर्व कथनानुसार तीन गुणस्थान होते हैं । आहारकदिक, जिननाम, सम्यक्त्व, स्थावरचतुष्क, जातिचतुष्क, आतप, मनुष्यानुपूर्वी और तियंचामपूर्वी इन पन्द्रह प्रकृतियों के सिवाय सामान्य से १०५ प्रकृतियाँ उपययोग्य होती है। मनुष्य और तिर्थच में विग्रहगति से विभंगशाम' सहित नहीं उपजता है. ऋजुगति से उपजता है, अतएव यहीं मनुष्यानुपूर्वी और सियंचानुपूर्वी का निषेध किया है । मिथ्यात्व गुणस्थान में मिश्रमोहनीय के सिवाय १०६ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रासस mmmmarwarermveveo0000000TTERVISHAwereorompOTO मार्गणामों में सबय-उवीरमा-सत्ता-स्वामित्व प्रकृतियों, सास्थायन में मिथ्यात्व और नरकानुपूर्वी के बिना १०४ प्रकृतियाँ, अनन्तानुवन्धीभाष्क और देशानुपूर्वी को कम करने और मिश्र मोहनीय को मिलाने पर मिन गुणस्थान में १०० प्रकृतियाँ उदय में होती हैं। सामाथिक और छेदोपस्थापनीय संयम-इन दोनों धारिमों में प्रमत्त से नेकर चार गुणस्थान होते हैं। उनमें ८१.७६, ७२ और ६६ प्रकृतियों का कमशः उपयस्वामित्व समझना चाहिए । परिहारविशशि--यहाँ छठा और सातवाँ ये दो गुणस्थान होते हैं । उनमें पूर्वोक्त ८१ प्रकृतियों में से आहारकतिक, स्त्रीवेद, प्रथम संहनन के सिवाय शेष पौध संहनन... इन आठ प्रकृत्तियों के बिना सामान्य से और प्रमत में ७३ प्रकृतियां होती है। परिहारविशुद्धि चारित्र वाला चतुर्दश पूर्वघर नहीं होता है तथा स्त्री को परिहारविधि पारित नहीं होता है और वजऋषभनाराच संहनन वाले को ही परिहारविमुद्धि चारित्र होता है, अमीलिए यहाँ पूर्वोत आठ प्रकृतियों के उदय का निषेध किया है। सस्थानाचत्रि के सिवान अप्रमाद गुणस्तान में प्रकृति में है ।' सूक्ष्मसंपराय-यहाँ मि दसयाँ मूक्ष्मसंपराव गुणस्थान ही होता है ! सामान्यतः यहाँ ६० प्रकृतियों का उदय ममाना चाहिए। यथासबात—यहाँ अन्त के ११, १२, १३ और १४ ये कार गुणस्थान होते हैं। उनमें उपशान्त मोह में ५६, ऋषभनारव और मागच इन दो संहनन के सिवाय सीण गोह में विचरम समय में ५७, निद्रादि के हिना अन्तिम समय में ५५, मबोगिकोवाली गुणस्थान में ४२ और अयोगिनती गुणस्थान मैं १२ प्रकृसियों का उदय होता है। देशविरत—यहाँ पाँच एक हो गुणस्थान होता है और उसमें मामान्य से प्रकृत्तियों का उदय जानना चाहिए। अविरत इस मार्गणा में प्रथम चार गुगणस्थान होते हैं। इसमें जिननाम और आहारमाबिक इन तीन प्रवलियों के सिवाय सामान्य से ११६, १ दिगम्बराचार्यों ने ७७ प्रकृतियां उदययोग्य मानी है और nd. सासवें गुणस्थान में क्रमश: ७७, ७४ प्रकृतियों का उदय कहा है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIMIREvokrushnaviROR... ११८ तृतीय कर्मनन्ध : परिशिष्ट सम्यकाव और मिश्र मोहनीय ---इन दो प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व में ११७, सुमत्रिक, पातप, मिथ्यात्व और नरकानुपूर्वी --- इन छह प्रकृतियों के बिना सास्वादन में १११, अनन्तानुबन्धीनतुष्क. स्थावर, जातिचतुष्क और अन्नपूर्वी त्रिक- इन बारह प्रकृतियों को कम करने और मिश्र मोहनीय को मिलाने पर मिथ गुणस्थान में १.० प्रकृतियां होती हैं, उनमें आनुपूर्वोचतुटक और सम्यक्त्वमोहनीय-इन पांच प्रकृतियों को मिलाने और मिश्रमोहनीय की कम करने पर अविरत गुणस्थान में १०४ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं । चक्षवर्शन—यहीं बारह गुणस्थान होते हैं। जातिषिक, स्थावरचतुष्क, जिननाम, आसप, आनुपूर्वीचतुष्क----इन तेरह प्रकृतियों के बिना सामान्य मे १.६. आहारकलिका, सम्यक्त्व और मिश्र-इन चार प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व गुणस्थान में १०५, मिथ्यात्व के बिना सास्वादन में १०४, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और. जगन्द्रिय मालि-..इन्पन सय ६, जि। और मिधमोहनीय को मिलाने पर मित्र गुणस्थान में १०२ तथा अविरतसम्यगदुटि में १००, देशविरत आदि गुणस्थानों में सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए। ____ अमक्षुदर्शन----इम मार्गणा में भी बारह गुणस्थान होते हैं । इसमें जिननाम के बिना मामान्य से १२१, आहारकद्रिक, सम्यक्त्य और मित्र-इन चार प्रकृतियों के बिना मिथ्यास्य गुणस्थान में ११५ प्रतियां होती हैं । शेष मुणस्थानों में क्रमश: १११,१७०, १०४, ५, ८१, ६, ७२, ६६, ६०, ५६ और ५७ का उदयस्वामित्व समझना चाहिए । अवधिदर्शन -- यहाँ चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तकनी गुणस्थान होते हैं। सिद्धान्त के मतानुसार विभंगशानी को भी अनिदर्शन कहा है। अताव उनके मन में आवि के हीन गुणस्थान भी होते हैं। परन्तु कामग्रन्थ के मत में विभंगमानी को अवनिदान नहीं होता है। असगर्व अवधिज्ञानी के समान सामान्य से १०६ व अविरत गुणस्थान में १०४ प्रकृतियां होती हैं । आगे के गुणस्थानों में सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए । केवलदर्शन ..यहाँ अन्तिम दो गुणस्थान होते हैं और उनमें ४२ तथा १२ प्रकृतियों का अनुक्रम से उदय' समझना चाहिए। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाओं में अवय-उदीरणा-ससा-स्वामित्व ११६ कृष्ण, नील, कायोत लेश्या-त्यहाँ पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा प्रथम से लेकर छह गुणस्थान होते हैं। जिननाम के बिना सामान्य से १२१ प्रकृत्तिर्या होती हैं, परन्तु प्रतिषश्चमान की अपेक्षा आदि के चार गुणस्थान होते हैं। उस अपेक्षा से आधारकट्रिक के बिना मामान्य से ११६ प्रतियां होती हैं और मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अनुक्रम में ११३. ११६. : " . ५०४, ५ ६ ५१ प्रकृतियों का उदय समझना चाहिए । तेजोलेश्या- इसमें पहले से लेकर अपमत तक सात गुणम्यान होते हैं । इसमें सूक्ष्मत्रिक, विकसत्रिक, नरवत्रिश, जातपनाम और मिननाम इन ११ प्रकृतियों के बिना सामान्य से १११, आहारफद्रिक, सम्पावरक और मिश्र मोहनीय के सिवाय मिथ्यात्व शुणस्थान में १०७, मिथ्याय के बिना सास्वादन में १०६, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्थावरनाम, एकेद्रिय और आनु. पूर्वीत्रिक-इन नौ प्रकृतियों के सिवाय और मिश्नमोहनीय के गिलाने पर मिश्र गस्थान में 6. आनुपूर्वी त्रिक और सभ्यत्व मोहनीय का प्रक्षेप करने और मिनमोहनीय को कम करने पर ति सम्शादृष्टि तपस्यान में १०१, अप्रत्याश्यानावराय. आनुपुर्नीत्रिक, टिदिकयाति, देवायू, मंगनाम, अनाव और अयश न १४ प्रकलियों के बिना देअविरत गुणस्थान में ८५. प्रगत गुणः थान में हैं और अप्रमत्त में ७६ प्रकृतिया होती है। पवमलेश्या- इसमें साल गुणस्थान होते हैं । इसमें स्थावर चतुष्क, जाति असुष्म, नरकषिक, जितनाम और आताप इन तेरह प्रकृत्तियों के बिना मामान्य से १.६ प्रकृत्तियाँ उदग्र में होती है । सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक के देवों के पद्मलेश्या होती है और वे मरकर एकेन्द्रिय में नहीं जाते हैं. तथा नरक में पहली तीन लेश्वार होती हैं और जितनाम का उदय शुवललेश्या वाले को ही होता है । असायन शावरचत आदि तेरह प्रकृत्तियों का विच्छेद कहा है। आहारकटिक, मभ्यस्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय-...इन चार प्रकृतियों के बिना मिथ्याल गणस्थान में १३५, सास्वादन में मिथ्यात्न के बिना १०४. अनन्तानुबन्धीचताक और आनुपूर्वीरिक इन सात प्रकृतियों को कम करने और मिश्रमोहनीय को मिलाने पर प्रकृतियां मित्र गुणस्थान में होती है। उनमें से मिश्रमोहनीय को कम करने और आनुपू/त्रिक तथा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट सम्यक्त्यमोहनीय को मिलाने से १०१ प्रकृतियाँ अविरत गुणस्थान में होती हैं। अनमें से अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, आनुपूर्वीत्रिक, देवगति, देवायु, बैंक्रियादिक, दुभंग, अनादेय और अयश-~-इन चौदह प्रकृतियों के बिना देशविरत गुणस्थान में ७, प्रमस में ८१ और अनमत में ७६ प्रकृतियाँ होती है। __ शुक्लालेश्या- इसमें तेरह गुणस्थान । स्थावरचतुष्क, जातिवतृषक, नरकत्रिक और आतप नाम - इन १२ प्रकृतियों के बिना सामान्य से ११० प्रकृतियाँ होती हैं। आहारकतिक, सम्यक्स्व, मिथ और जिननाम इन पाँच प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व में १०५ प्रकृतियां होती हैं 1 मिश्यारस के बिना सास्वादन मैं १०४, उनमें से अनन्सानुबन्धीचतुष्क और आनुपूर्वीविक को कम करके मित्रमोहनीय को मिलाने से मित्र गुणस्थान में ६८, अविरत गुणस्थान में १०१ और देशविरति में ८७ प्रकृतियाँ होती हैं। आगे के गुणस्थानों में सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए। भव्य ... यहाँ चौदह गुणस्थान होते हैं और उनमें सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए। अभव्य- इसमें सिर्फ पहला गुणस्थान होता है । सम्यक्त्व, मिश्र. जिननाम और आहारकनिका - इन पांच प्रकृतियों के बिना सामान्य से और मिथ्यात्व मुणस्थान में ११७ प्रकृतियां होती है। उपशम सम्यकथ... स मार्गणा में चौथे से लेकर ग्यारहवें तक आठ गुणस्थान होते है । ज्यावरचलुव. जातिचतुष्क, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व. मोहनोय, मिश्रमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, जिननाम, आहारकविक, आतप. नाम और आनुपूर्वीचतुक...इन तेईम प्रकृतिमों के बिना मामान्य से और अविरत गुणस्थान में ६६ प्रकृतियां होती है। अन्य आचार्य के मत से उपशम सम्यग्दृष्टि आयु पूर्ण होने से मरकर अनुत्तर देवलोक तक उत्पन्न होता है, तो उस समय उसे अविरत गुणस्थान में देवानुपूर्वी का उदय होता है, इस अपेक्षा सामान्य से और अविरत गुणस्थान में १०० प्रकृतियां होती है। अप्रत्माख्यानाने रणचतुष्क, देवगति, देवानुपूर्वी, देवाय, नरकगति, मरकायु, वैक्रियद्धिक, दुभंग, अनादेय और अयश-न १४ प्रकृतियों के बिना देश Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाओं में उदय-दोषणा-सत्तास्वामित्व विरत तुणस्थान में ५५ या ८६ प्रकृतियां होती हैं । तिर्यंचति, तिथंचायु, नीच पोन, उद्योल और प्रत्याख्यानाधरणस्तष्क इन आठ प्रकृत्तियों के बिना प्रमत गुणस्थान में ७५, स्स्यामद्धित्रिक के बिना अप्रमत्त गणाधान में ७५ और अन्तिम तीन संहनन के बिना अपूर्वकरण में ७२ प्रकृतियों होती हैं और उसके बाद आगे के मृणास्थानों में अनुक्रम से ६६, ६७. ५.६ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं । सायिक सम्यक्त्व-यहाँ चौथे से लेकर चौदहवं तक ग्यारह पुषस्थान होते हैं । इसमें जासिचतुष्क, स्थावरचतुष्क, अनन्तानुबन्धीचतुक, आसप, सम्यक्त्त, मिन, मिशात्य इन १६ प्रकृसियों के बिना सामान्य से १.६, आहारकनिक और जिननाम इन जातियों में ना अनिता युगाणान में १०३. अप्रत्याख्यानावरणचतुक, बैंक्रियाष्टक, मनुष्याम्पूर्वी, लियंत्रिक, दुभंग, अमादेय, अयम और उद्योत - इन २० प्रकृतियों के बिना देशविरत गुणस्थान में ३ प्रकृतियाँ होती हैं। प्रत्याख्यानाचरणमनुष्क व नीष गोत्र को कम करके आहारकट्टिक के मिलाने पर प्रमत्त गुणस्थान में प्रकृतियाँ होती है। स्त्यानदिनिक. आहारकदिक-इन पांच प्रकृत्तियों के बिना अधारस शुणस्थान में :१५, अपूर्वकरण में अन्तिम तीन संहान कम करने में १२ तथा आगे गुणस्थानों में उपयस्वामित्व के समान समझना चाहिए आयोगशभिक सम्यक्त्त्र-इसमें चौथे से लेकर सातवें तक चार गुणस्थान होते हैं। भि यात्व. मित्र. जिननाम, जातिचतुष्क. स्थावरचतुष्क, आसप और अनन्सानुबन्धी चक इन सोलह प्रकृतियों के बिना सामान्य से १.६, आहारकडिक के बिना अविरत गुणस्थान में १०४, देशविरत स्थान में ६७, प्रमत्त में ८१ और अप्रमत्त में ७६ प्रतियों का उदय समझना चाहिए । मिन सम्पबश्व..- इसमें एक तीसरा मित्र पुषस्थान होता है और उसमें १०० प्रकृतियों का उदय होता है । सास्तावन..यहाँ सिर्फ दूसरा सास्वादन गुणस्थान होता है और उसमें १११ प्रकृसिंगों का उदय समझना चाहिए। मिष्यास्य–समें प्रथम गुणस्थान होता है और उसमें आहारकटिक, जिननाम, सम्यनत्व और मिन इन पाय प्रकृतियों के बिना ११७ प्रकृतियों का उदय होता है। -rwwin -RAIN Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WAVIMA १२२ तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट संतो—इसमें चौदह गृणस्थान होते है । यमन के सम्बन्ध से केवलशानी को संझी कहा है, अतः यहाँ चौदह गुणस्थान होते हैं । परन्तु यदि मतिभानावरण के क्षयोपशमजन्य मनन-परिगामरूप भावमन के सम्बन्ध में संशी कहें तो इस मार्गणा में बारह मुणस्थान होते हैं । इसमें स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आता और जातिचतुश्क-इन आद प्रतियों के बिना सामान्य से ११४ प्रतियाँ उदय में होती हैं। यदि भावमन के सम्बन्ध से संशी काहै सो मंत्री मार्गणा में विलनाम का उदय न होने से उसे कम करने पर. ११३ प्रकृतियाँ होती हैं। प्राहारकष्टिक, सम्यक्त्व और मिश्र-इन चार प्रकृलियों के बिना मिशाब में १७६, अपर्याप्त नाम, मिथ्यात्व, नरकासुपूर्वी-इन तीन प्रकृतियों के बिना सास्वादन में १३६ प्रकृतियाँ होती हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्क और आपत्रिक... इन सात प्रकतियों के सिवाय और मिश्रमोहनीम के मिलने पर मिश्च गुणस्थान में १०. प्रकृतियों होती हैं और निरत आदि आने के गुणस्थानों में सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए । असंझो.....इस में आदि के दो गुणस्थान होते हैं । वैक्रियाष्टक, जिमनाम, श्राहारकद्विक, सभ्यपत्य. मिश्रमोहनीय, उच्चगोत्र, स्त्रीनेद और पुरुषवेद इन सोलह प्रकृतियों के बिना सामान्य से १०६ प्रक्तियां होती हैं। उनमें में भूक्ष्मत्रिक, आतए, उद्योत, मनूष्यविक, मिथ्यास्व. गराधात, जनाम सुस्वर, दुःस्वर, शुभ विहामोगति और अशुभ विहायोगति-इन पन्द्रह प्रकतियों के बिना सास्वादन में ११ प्रफ तियाँ होती हैं। मन्तति में उदयस्थानक में असंत्री को छह महनन और ग्रह संस्थान के मांगे दिये हैं. इसलिए उसे वह संहनन और छह संस्थान तथा सुभग, आदेष और शूभ विहायोगलि का भी सवय होता है। आहारष-हममें लेरह गुणस्थान होते हैं। आनुपूर्वीचतुष्क के बिना सामान्य से ११८, महारकादिक, जिननाम, सम्मकत्वमोहनीय और मिनमोहनीय...-इन पाँच प्रतियों के बिना मियाद गस्थान में ११३, सुक्ष्मविक, आतप और मिन्याय इन पाँध प्रकसियों के सिवाय मास्वादन में १५८, उनमें से अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्थावर नाम और जाति चतुष्क - इन नौ प्रकृतियों को कम करने और मिश्रमोहनीय को मिलाने पर मित्र मुणस्थान में Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाओं में उदय-उदोरणा-ससर स्वामित्व १२३ १५०, उनमें से मिश्र मोहनीय को निकालकर बदले में सम्पनत्यमोहनीय को जोड़ने से अविरस गणस्थान में १००, अप्रत्याभ्यानावरणचतुष्क, बैंक्रियतिक, देवगत, वायु, परकमति, नरकायु, दुभंग, अनाथ और यज्ञ-- इन तेरह प्रकृतियों के बिना देशविरत गृणस्थान में ८७ प्रकृतियां होती हैं। आने के गुणस्थानों में सामान्य उपयस्वामित्व समझना चाहिए । अनाहारक- इस मार्गणा में १. २, ४, १३ और १४—ये पाय गुणास्थान होते हैं। औदारिकद्विक वैक्रियतिक, आहारकद्रिक, संहननषदक, संस्थानषक, विहायो गतिद्विक, उपधास, पराघात, उमद्यास, पासप, उधोत, प्रत्येक, साधारण. मुस्वर, दुःस्वर, मिश्रमोहनीय और निद्रापंचक ---इस ३५ प्रकृतियों के बिना सामान्य खे ८. जिननाम और सम्यक्त्वमोहनीय-इन दो प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व में २५. सूक्ष्म, अपर्याप्त, मिथ्यात्य और नरकत्रिक-इन छह प्रकृतियों के सिवाय सास्वादन में ७६ प्रकृतियां होती है । मिश्र गुणस्थान में कोई अनाहारक नहीं होता है । अनन्तानुबन्धोचतुष्क, स्थावर और जातिपतष्क-इन नौ प्रकृतियों के बिना और सम्यक्त्वमोहनीय तथा नरकत्रिक इन चार प्रकृतियों को मिलाने पर अविरत गुणस्थान में ७४ प्रकृतिका होती हैं। वर्णवतरक. म. कार्मण. अमुकल , निर्माण, स्थिर, अस्थिर. भ. अभ, मनुष्यगति. पंचेन्द्रिय जाति, जिननाम, प्रसाधिक मुंभग, आदेय. यश. मनुष्याय, वेदनीयनिक और उच्चगोत्र-ये पच्चीस प्रकृतिमा ले रहर्वे मधोगिनली गुणस्थान में केवलममुश्वास करने पर तीसरे, चौथे और पांच समय में उदय होती हैं। वसत्रिका, ममुख्यगति, मनुष्यायु, उच्चगोत्र. मिननाम, साता अथवा असाता में से कोई एक वेदनीय, सुभग, आदेय, यश और पंचेन्द्रिय जाति---ये बारह प्रकृतिमा चौदहवें भूभस्मान में उदय होती हैं। यहीं सर्वत्र उदय में उसरवैक्रिय की विवक्षा नहीं की है। सिद्धान्त में पृथ्वी, अप और वनस्पति को सास्वादन मुणस्थान नहीं बताश है, सास्वादन गुणस्थान वाले को मतिश्रुतशानी कहा है । विभंगवानी को अवधिदर्शन कहा है और क्रियमित्र तथा पाहारकामिय में औदारिकमिय कहा है, परन्तु यह कर्मग्रन्थ में विवक्षित नहीं है। ....................... . ........- -ITH Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट उदोरणास्वामित्व उदय-समय से लेकर एक आवलिका तक के काल को उदयावसिका कहते हैं । उदयावलिका में प्रविष्ट कर्मपुगल को कोई भी करण लागू नहीं पड़ता है । उदपावलिका के बाहर रहे हुए कर्म पुदगल को उदयालिका के कर्मपदाल के साथ मिलाकर भोगने को उदीरणा कहते हैं । जिस आति के कर्मों का उदय हो, जसी जाति के कर्मों की उदीरणा होती है। इसलिए सामान्य रीति से जिस मागंणा में जिस गुणस्थान में जितनी कर्मप्रकृत्तियों का उदय होता है, उस मागंणा में उस गुणस्थान में उत्तनी प्रकृतियों की उधीरणा भी होती है। परन्तु इतना विशेष है कि जिम प्रकृति को भोगते हुए उसकी माला में मान एया आवलिका काल में भोगने योग्य कर्मपद्गल शेष रहे, तब उसकी जदौरगा नहीं होती है, अश्रत उदयाव स्मिक्का में प्रविष्ट कर्म उदीरणायोग्य नहीं रहता तथा शरीरपर्याप्त पूर्ण होने के बाद जब सक इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तवा पाँच निद्रानों की उदीरणा नहीं होती, उदय रहता है। छठे गुणस्थान से आने मनुष्यायु, साता और असाता वेदनीय कर्म की तयोग्य अध्यवसाय के अभाव में दीरणा नहीं होती है, उषय ही होता है तथा चौदहवें गुणस्थान में योग के अभाव में किसी भी प्रकृति की उदीरणा नहीं होती है, सिर्फ उदय ही होला है। ससास्वामित्व जूदग-जी रया-स्वामिन के अनन्तर ६२ उत्तर-मार्गणाओं में प्रकृतियों की सत्ता का काथन करते हैं । सत्ताधिकार में १४८ प्रकृतियाँ विवक्षित है। मरपति और वेव गति- इन दोनों मार्गणाओं में एक दूसरे के वायु और नरमायु के सिवाय ११७ प्रकृतियों की सत्ता होती है । क्योंकि नरकगति में देवायु की और देवगति में सरकार की सस्ता नहीं होती है । मिथ्यात्व गुणस्थान में देवमति में जितनाग की ससा नहीं होती है, परन्तु मरकगति में होती है. इसलिए देवगति में मिथ्यात्व गुणस्थान में १४६ और नरकगति में १४७ प्रकृत्तियों की सत्ता होती है । दूसरे और तीसरे गुणस्थान में जिननाम के सिय १४६ प्रकृतियों की सत्ता होती. है । अविरत मुणस्थान में क्षायिक Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाओं में उपय-उबीरणा-सप्ता-स्वामित्व १२५ सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, मिथ्यास्वमोहनीय और दो आयु ....इन नो प्रकृतियों के बिना १३६ कृतियों की सत्ता होती है । औपमिक और क्षायोपणमिक सम्यष्टि के एक आयु के बिना १४७ प्रकृतियों को सत्ता होती है । क्योंकि मारकों के देवायु और देवों के नरकायु सभा में नहीं होती है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि के सिवायु भी सत्ता में नहीं होती है। मनुष्यगति--यहाँ सामान्य से और मिथ्यात्व गुणस्थान में १४८ प्रजातियों की सत्ता होती है | खूसरे और तीसरे गुणस्थान में जिननाम के सिवाय १४३ प्रकृतियों की सत्ता होती है। अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्पादस्टि अचरमशरीरी) मारित्रमोह के उपशमक को तिथंचायु. नरकायु. अनन्तानुबन्धीचतुक और दर्शनमोहनीयत्रिका--इन नौ प्रकृतियों के बिना १३६ प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं और बरमधारीरी चारित्रमोह के उपशमक उपशमसम्यग्दृष्टि को अनतानुबन्धीचालक की विसंयोजना करने के बाद तीन आयु के सिवाय १४१ प्रकृतियां सत्ता में होती हैं । धरायोपामिक सम्यग्दृष्टि भविष्य में क्षपणी का प्रारम्भ करने वाले घरमशरीरी को नरकरयु, तिर्यंचायु और देवस्यु-इन तीन प्रकृसियों के सिवाय १४५ की सत्ता होती है और अनन्तानुबन्धीचतुष्क तथा दर्षनमोहनीयविक-इन सात प्रकृतियों का क्षय करने के बाद १३८ प्रकृतियों को ससा होती है । भविष्य में उपशम श्रेणी के प्रारम्पक बरशमसम्यग्दृषिट (चरम शारीरी) को नरक और तिर्यंच आयु के सिवाय १४६ प्रकृतियों को और अनन्तानुसन्धीतुष्क की विसंयोजना करने के बाद १४२ प्रकृतियों की सत्ता होती है। देशाविरत, प्रमप्स और अप्रमत –इन तीन स्थानों में उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी का आश्रय लेने वाले के चौथे गुणस्थान असो सत्ता होती है। अपूर्वकरण गुणस्थान में चारित्रमोह के उपशमकः उपशमसभ्यष्टि के मनन्तानुबन्धीचतुष्क, तिर्यंचायु और नरकाधु-----इन छह प्रकृतियों के बिना १४२ प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं । चारित्रमोह के उपक्षमा क्षायिक सम्पष्टि Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५६ J केक, नरकायु और तिर्यचायु के बिना १३६ प्रकृतियों की सत्ता होती है और अपक श्रेणी के पूर्व में कड़े गये अनुसार सत्ता होती है । तृतीय कर्मग्रन्थ परिशिष्ट : अनिवृस्यादि गुणस्थान में दूसरे कर्म ग्रन्थ में कहे गये सत्ताधिकार के समान यहाँ भी समझ लेना चाहिए । ~2w तियंचगति यहाँ सामान्य से और मिथ्यास्व सास्वादन और मिश्र गान में जिननाम के सिवाय १४७ प्रकृतियों की सत्ता होती है। अविरत गुणस्थान में क्षायिक सम्यष्टि को दर्शनसप्तक, नरकागु और मनुष्यायु के सिवाय १३८ और उपशम सम्पन्हृष्टि तथा आयोपशमिक सम्यग्दष्टि को जिननाम के सिवाय १४७ प्रकृतियों को सत्ता होती है । देशविर गुणस्थान में औपणामिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दष्टि के जिननाम के सिवाय १४० प्रकृतियों की सत्ता होती है। क्षायिक सम्पष्टि तिच असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाला होता है और उसको देशाविरत गुणस्थान नहीं होता है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय इन चार मार्गणाओं (एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, श्रोत्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति) में सामान्य से और मिथ्यात्व सारवादन गुणस्थान में जिननाम देवासु और नरकायु के सिवाय १४५ प्रकृतियों की सत्ता होती है । परन्तु सास्वादन गुणस्थान में आयु का बन्ध नहीं होने की अपेक्षा से मनुष्यायु के सिवाय १४४ प्रवृतियों की सत्ता होती है 1 - इस मार्गणा में मनुष्यगति के अनुसार सत्ता समझना चाहिए । पृथ्वी, अप् और वनस्पतिकाय -- इन तीन मार्गणाम में एकेन्द्रिय मार्गणा के समान सत्ता समझना चाहिए | SHIMA स्काय और वायुकाय – यहाँ सामान्य से और मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननाम, देव, मनुष्य और नरकायु इन चार प्रकृतियों के बिना १४४ प्रकृतियों को सस्ता होती है । यहाँ मनुष्यगति प्रमाण सशा समझना चाहिए। प्रसका मनोयोग, योग और कश्ययोग- इन तीन मार्गणाओं में मनुष्यगति मार्गणा की तरह तेरह गुणस्थान तक ससा समझना चाहिए । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mammysDIA.OTOS) ५५.0M.M.IMALAIMIMMM....... .. . .। माणाओं में उदय-बधीरणासला-स्वामित्व लीन पंद, क्रोध, भान, माया.. इनमें मनुष्यगतिमार्गणा की तरह नी गुणस्थान तक सत्ता समझना चाहिये। लोभ-ग्रही मनुष्यगति के समान व मुणस्थान तक ससा समझना चाहिए । भतिज्ञान, भुतहान और अधिमान-इम तीन मागंणाओं में ममुम्बपतिमागंणा के समान पौधे से लेकर भारहो मुणस्थान तक ससास्वामित्व समझना चाहिए। मनापर्यवशान –यहां सामान्य से तिर्यंचायु और नरकायु के सिवाय १४६ प्रकृतियों की सस्ता होती है और छठे गुस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक मनुष्यगतिमाया के समान सत्तास्वामित्व जानना चाहिए । केवलशान... यहाँ मनुष्मगति के समान अन्तिम हो गुणस्थानों में कहा गया सत्तास्वामित्व समझना चाहिए । मस्यज्ञान. भूताशान और त्रिभंगज्ञान----इनमें सामान्य से और मिथ्याल्न गणस्थान में १४८ और दूसरे, तीसरे गुणस्थान में जिननाम के बिना १४५ प्रकृतियों की सत्ता होती है। सामायिक और खेवोपस्थानीय...इन दो मार्गणाओं में सामान्य से १४८ प्रकृतियों की सत्ता होती है और इसमें छठे गुणस्थान से लेकर नौ स्थान तक मनःपवाममार्गणा को समान सत्तास्वामित्व समझना चाहिए । परिहारविशुद्धि.....इसमें छठं और सातवें गुणस्थान में काहे गये अनुमार सत्तास्वामित्व समझना चाहिए। सूक्ष्मसंपराय-इसमें सामान्य से तिचा और परकायु के सिवाय १४६ प्रकृतियों की सत्ता होती है अश्व अनन्तानुबन्धी मनुष्क की विसंयोजना करने वाले को अनन्तानुबन्धीचतुष्क, लियंचायु और नरकायु इन छह प्रकृलियों के सिवाय १४२ प्रकृतियों की सत्ता होती है। यथास्यात—यहाँ ग्यारह से लेकर चौदहा गुणस्थान तक सत्तास्वामित्व मनुष्यगतिमार्गगा के समाम समझना चाहिए। देशविरत...यहाँ सामान्य से १४८ प्रकृतियां सत्ता में होती हैं। इसमें एक पाचवा गुणस्पाम ही होता है और उसमें मनुष्यगति के समान सत्तास्वामित्व समझना चाहिए। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्म ग्रन्थ : परिशिष्ट अविरत यहाँ पहले से चौथे गुणस्थान तक सत्तास्वामित्व मनुष्यगति मार्गणा के समान समझना चाहिए। १२८ दर्शन और अवशुदर्शन- इन दोनों मार्गणाओं में पहले से बारहवें गुणस्थान तक स्वामित्व मनुष्यगति मार्गणा के समान समझना चाहिए। अवधिवर्शन --- यहाँ अवधिज्ञानमार्गणा के अनुसार सत्तास्वामित्व समझता चाहिए । केवल दर्शन केवलज्ञानमार्गेणा के सद्दश्य सत्तास्वामित्व समझना चाहिए। YPALLA कृष्ण, नील और कापोत लेवा-तीन मार्गणात्रों में पहले से लेकर छठे गुणस्थान तक मनुष्यगति के अनुसार सत्तास्वामित्व समझना चाहिए। तेज और पद्म लेश्या - पहले से सातवें पुणस्थान तक मनुष्यगति के समान सत्तास्वामित्व समझना चाहिए। शुक्ला पहले से लेकर तेरहवं गुणस्थान तक मनुष्यगति के समान ससा समझना चाहिए । भव्य -- मनुष्यगति के समान सत्तास्वामित्व समझना चाहिए । अभव्य - सामान्य से और मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननाम, जाहारकaare, area और मिश्रमोहनीय इस सात प्रकृतियों के बिना १४१ J प्रकृतियों की सता होती है । औपशमिक सम्यक्त्व. -- - चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान तक मनुष्यगति के समान सत्ता समझना चाहिए । The arattern सम्यक्रव - इसमें चौथे से सातवें गुणस्थान तक मनुष्यगति के समान सत्ता समझना चाहिए । क्षायिक सम्यक्त्व - यहाँ अनन्तानुबन्धचतुष्क और दर्शनमोहनीय त्रिक इन सात प्रकृतियों के बिना सामान्य से १४१ प्रकृतियों की सत्ता होती है और चौथे से चौदह गुणस्थान तक मनुष्यगति के समान स्वामित्व समझना चाहिए । सास्वादन - यहाँ सामान्य से और दूसरे गुणस्थान में जिननाम के बिना १४७ प्रकृतियों की सत्ता होती है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागंगाओं में उदय उदीरणा-सा स्वामित्व मिथ्यात्थ यहाँ सामान्य से और मिथ्यात्व गुणस्थान में १४८ प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं । - संज्ञी - पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक मनुष्यगति के समान सत्तास्वामित्व जानना चाहिए। इसमें केवलज्ञानी को ब्रव्यमन के सम्बन्ध से संजी कहा है । यदि भावमन की अपेक्षा रखी जाय तो संसी मार्गणा में बारह गुणस्थान होते हैं । असंती - यहाँ सामान्य से और मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननाम के सिवाय १४७ प्रकृतियों की सत्ता होती है और सास्वादन गुणस्थान में नरकायु के सिवाय १४६ प्रकृतियों की सत्ता होती है, परन्तु यहाँ अपर्याप्तावस्था में देवायु और मनुष्यायु का ध करने वाला कोई संभव नहीं है, इसलिए उस अपेक्षा से १४४ प्रकृतियों की सत्ता होती है । L आहारक - पहले से लेकर तेरहवें पुणस्थान तक मनुष्यमति मार्गमा के समान सत्तास्वामित्व जानना चाहिए। अनाहारक- इस मार्गणा में पहला, दूसरा, चौथा ये पांच गुणस्यान होते हैं और उनमें मनुष्यगति के चाहिए । TRYAM इस प्रकार उदय, उदीरणा और सतास्वामित्व का विवेचन पूर्ण हुआ । विशेष तेरहवां और चौदहवाँ समान ससा जानना अपनी निकटतम जानकारी के अनुसार मागंणाओं में उदय उदीरणा एवं ससा स्वामित्व का विवरण प्रस्तुत किया है। संभवतः कोई त्रुटि या अस्पष्टता रह गई हो तो विज्ञ पाठकों से सानुरोध निवेदन है कि संशोधन कर सूचित करने की कृपा करें जिससे अपनी धारणा च त्रुटि का परिमार्जन कर सकें । उनके सहकार एवं मार्गदर्शन के लिये आभारी रहेंगे | सम्पादक Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... ••••••••••••••••14PANAYA ************* मार्गचाओं में बन्ध, उदय और सत्ता-सामित्व ferre दिगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तव्य तृतीय कर्मग्रथ में गुणस्थानों के आधार से मार्गणाओं में बंधस्वामित्व का से कथन किया गया है। इसी प्रकार से गोम्मटसार कर्मकाण्ड में गाधा १०५ १२१ तक में भी किया गया है तथा सामान्य से उसको जानने के लिए जिन बातों की जानकारी आवश्यक है, उनका संकेत भी गाथा ६४ से १०४ में है । उपस्थानों के वाथों में का विचार प्राचीन a नवीन तृतीय कर्मग्रन्थ में नहीं है, वह भी मो० कर्मकाण्ड में गा० २६० से ३३२ तक में किया गया है तथा इसके लिए आवश्यक संकेत गाथा २६३ से २८६ तक में संगृहीत हैं। इस उदयस्वामित्व प्रकरण में उदीरणास्वामित्व का विचार भी सम्मिलित हैं। इसी प्रकार मार्गणाओं में सत्तास्वामित्व का विचार भी गो० कर्मकाण्ड में है, किन्तु कर्मग्रस्थ में नहीं यह प्रकरण गो. कर्मकाण्ड में गाथा ३४६ से ३५६ तक है तथा इसके लिए सामान्य संकेत गावा ३३३ से ३४५ में है । い कर्मशास्त्र के अध्येताओं को उस अंश तुलनात्मक अध्ययन करने एवं विज्ञान की दृष्टि से उपयोगी होने से कतिपय आवश्यक अंश उत किये जाते हैं। पूर्ण विवरण के लिए गी० कर्मकाण्ड के उक्त अंशों को देख लेना चाहिए 1 aratवामित्व गुणस्थानों पूर्वक मार्गणाओं में बंधस्वामित्व का विवेचन करने के लिए गुणस्थानों में सामान्य से बन्धयोग्य, अवन्धयोग्य तथा बन्धविच्छिन्न होने वाली कर्मकृतियों की संख्या को तीन गाथाओं द्वारा बतलाते हैं Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधादि स्वामित्व विगम्बर कर्मसाहित्य का बंध प्रकृतियों की संख्या सत्तरसेकग्गस्यं चउसततरि समट्ठ तेवट्ठी । धावणादुवीस सत्तारसेको ।। १*३॥ 1 मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में क्रमशः ११७, १०१ ७४७५ ६७, ६३, ५६, ५८, २२. १७, १, १ १. इस प्रकार का बन्ध तेरहवें गुणस्थान तक होता है | चौदहवें गुणस्थान में बन्ध नहीं होता है । इसका अर्थ यह है कि सामान्य से बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ हैं, उनमें में मिध्यादृष्टि गुणस्थान में areer और आहारकदिक इन तीन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होने से १२० - ३ः ११७ प्रकृतियों शेष रहती हैं। इसी प्रकार से द्वितीय आदि गुणस्थानों में भी समझना चाहिए कि जैसे पहले गुणस्थान में व्युचि प्रकृतियाँ १६ हैं और ३ प्रकृतियां बन्ध है तो १६ + ३ == १६ प्रकृतियां दूसरे गुणस्थान में बन्धरूप है, यानी १६ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार अगे के गुणस्थानों में भी व्युच्छिन्न प्रकृतियों को घटाने से प्रत्येक गुणस्थान की बन्धसंख्या निकल आती है । अवन्ध प्रकृतियों की संख्या लिय उणवीसं छसियताल तेवण्ण सत्तवण्णं च । इगिदुगसट्ठी विरहिय सय तियडणवीससहिय वीस सयं ॥ १०४॥ १३१ मिथ्यादृष्टि आदि जीवह गुणस्थानों में क्रम से १६,४६, ४३, ५.३, ५७. ६१ ६२ ६ १०३ ११६ ११६, ११६ और १२० प्रति अबन्ध ! हैं । अर्थात् ऊपर लिखी गई संख्या के अनुसार प्रत्येक गुणस्थान में कमप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है । बन्धनि प्रकृतियों की संख्या · सोलस पणवीस गर्भ दस यउ छक्केक्क बन्धवोहिणा । दुग तीस चकुरपुवे पण सोलस जोगिणो एक्को Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......... तृतीय कर्मप्रन्थ : परिशिष्ट मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों में क्रमशः १६, २५, ० (शून्य), १ ४, ६, १, ३६ (२+३४), ५, १६. ०.०१ प्रकृति व्युच्छिन होली है । १३२ गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध का सामान्य नियम इस प्रकार हैंसम्मेa farest आहारदुगं पमादरहिदेसु । मिस्सू आउस् य मिच्छादिसु सेसबन्धी ॥२॥ अविरतम्यष्टि गुणस्थान से तीर्थकर प्रकृति का कध होता है । आहारकद्रिक का अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में बन्ध होता है। मिश्र गुणस्थान में आयु का बन्ध नहीं होता है तथा शेष प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यादृष्टि आदि afe गुणस्थानों में अपने बन्ध की व्युच्छित्ति तक होता है । मार्गणाओं में बन्ध, अबन्ध, बन्धयुच्छित्ति छति- मार्गणाओं में कर्मप्रकृतियों का बन्ध, अara और बन्ध ये तीनों अवस्थाएँ गुणस्थान के समान समझना चाहिए । लेकिन उनमें जोजो विशेषता है, उसको गति आदि प्रत्येक मार्गणा को अपेक्षा क्रमशः स्पष्ट करते हैं । गतिमार्गणा ओये वा आदेसे णारयमिच्छ िचारि वोच्छिणा । उवरिम वारस सुरचउ सुराज आहारयमबन्धा ॥ १०५ ॥ मार्गणाओं में युति आदि गुणस्थानों के समान समझना, लेकिन मिथ्यात्व गुणस्थान में व्युच्छिन्न होने वाली सोलह प्रकृतियों में से नरकगति *********... १ किसी भी प्रकृति का बन्धविच्छेद नहीं । F २ व्युच्छिन्न नाम है विलड़ने का । जिस गुणस्थान में कम की व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों की संख्या कही गई है, उसका अर्थ यह है कि उस गुणस्थान तक तो उस ति का संयोग रहता है, उसके आगे के गुणस्थान में उसका बन्ध, उदय और सत्ता नहीं रहती है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धादि स्वामिee विगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तब्य में मिध्यात्व, हुड संस्थान, नपुंसक वेद, सेवार्त संहनन इन चार की व्युत होती है तथा इनके अतिरिक्त शेष चार प्रकृतियों तथा देवनति देवानुपूर्वी, वैय शरीर वैयि अंगोपांग, देवायु, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांगये सब १६ प्रकृतियाँ हैं । अर्थात् नरकपति के मिध्यात्व गुणस्थान में ११ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता | aaca सामान्य से बन्धयोग्य १०१ प्रकृतियाँ हैं । घम्मे fari Traft वसामेधाण पुगो वेव । छट्ठोत्तिय मणुवाऊ बरिमे मिच्छेव तिरियाऊ ॥११०६॥ १५३ । वर्मा ( प्रथम नरक) में पर्याप्त, अपर्याप्त दोनों मवस्थाओं में तीर्थकुर प्रकृति का बन्ध होता है। दूसरे, तीसरे (मंशा भैया) नरक में पर्याप्त जीव को तीर्थङ्कर प्रकृति का वध होता है । छटे ( मघवी ) नरक तक मनुध्यायु का बन्ध होता है। सातवें (Heat) नरक में मिथ्यात्व गुणस्थान में ही ि का बन्ध होता है। - मिस्साfवर उच्च मणुवदुगं सत्तमे हवे बंधो। मिच्छा arenaम्मा मदुगुच्च ण बंधति ॥ १०७॥ सातवें नरक में मिश्र और अविरत गुणस्थान में होग मनुष्य गलि. मनुष्यानुपूर्वी इन तीन प्रकृतियों का बंध है। मित्या व सामादन गुणस्थान वाले जीव कहाँ पर जब गोत्र और मनुष्यद्रिक इन तीन प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं। —— तिरिये ओधो तित्याहारूणो अविर छिदी चउरो । उवर छिदी सामणसम्मे हवे नियमा ॥ १०८॥ F तिगति में भी व्युच्छित्ति आदि गुणस्थानों की तरह ही समझना । परन्तु frer है कि तीर्थकर आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग—इन तीन प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं होता है। अतः सामान्य से ११७ प्रकृतियों चि गति में बन्धयोग्य हैं। बीधे अविरत गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि ४ की ही व्युच्छित होती है तथा सेय रही मनुष्यगति-योग्य वा www.************** Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTRANNover.... मृतीय कर्म प्रश्य : परिशिष्ट ऋषभनाराच संहनन आदि छह प्रकृतियों की व्युछिक्ति दूसरे सास्वादन गुणस्थान में हो जाती है । क्योंकि यहां पर नियंच मनुष्यगति सम्बन्धी प्रकृतियों का मिश्यादिक में बन्ध नहीं होता है। उक्त कथन निर्गच में सामान्य विच ( मत्रों का समय 1), पंथेन्द्रिय तियंच, पर्याप्त तिर्यच, स्त्रीय विच और लध्यपर्याप्त नियंत्र--- इन पाँच भेदों में से लयपर्याप्त भेद को छोड़कर शेष चार प्रकार के तिर्यत्रों की अपेक्षा समझना चाहिए। लध्यपर्याप्त नियंचों के तीर्थर नाम और आहारक शरीर. आहारक अंगोपांग-मन लीन प्रकृतियों के साथ निम्न लिखित सुरणिरयाउ अपुषों केगुम्वियाक्कमवि स्थि ।।१०६ ।। देवायु, नरकायु और वैश्यिषटक–देवगति. देवानुपूर्वी, नरकगति. नरकानुपूर्वी, वैक्रिय पारीर, बैंक्रिय अंगोपांग-इन आ3 प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता है। तिरियेध गरे गवरि हु तिस्थाहारं च अस्थि एमेव ॥११०।। मनुष्यति में अन्धयुमिति वगैरह तिर्यक्गति के समान समझना चाहिए, लेकिन प्रसनी निशेषता है कि मनुस्मगति में तीर्थ क्रूर और आहारकद्रिक आहारक अरीर, थाहारक अंगोपांग--इन सीन का भी बन्ध होने से १२० प्रकृतियाँ बनायोग्य है। मनुष्यगति में गुणस्थान १४ होते हैं, अतः गुणस्थानों की तरह मनुष्यगति में भी बन्धविच्छेद समझना चाहिए। मनुष्यगति में उक्त प्रतिबन्ध विच्छेद सामान्य से बताया है. किन्तु ललि-अपर्याप्त मनुष्य के बन्ध आदि तिर्यंच लब्धि-अपर्यास्त के समान समझना चाहिए । अर्थात् मधि-अपर्याप्त मनुष्य के भी १०६ प्रकृतियाँ बधयोग्य हैं। णिरयेव होदि देवे आईसाणोत्ति सत्त काम छिदी 1 सोलस चेव अबन्धा भवतिए णस्थि तिस्थयरं ॥११॥ देवगति में कर्मप्रकृतियों का बन्धविनोद आदि नरकगति के समान Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधावि ग्वामित्व : विगम्बर कर्म साहित्य का मन्सम्य १३५ समझना चाहिए । परन्तु इतनी विशेषता है कि मध्यावृष्टि गुणस्थान में ईशान स्वर्ग तक पहले गुणस्थान की सोलह प्रकृतियों में से मिथ्यारा प्रादि साल REतियों को ही व्यच्छिास होतो है । मेष रही हुई सूक्ष्मादि नौ सवा देवमति, देवानुपूर्ती, वैक्रिय भारीर, क्रिम अंगोपांग, देवायु, माहारक शारीर, बाहारक अंगोपांग-७ कुल सोलह अन्धरूप हैं। इसलिए यहाँ बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १०४ हैं । भवनवासो, स्यंतर और ज्योतिषी देवी में सीकर प्रकृति का गन्ध नहीं होने से १.३ प्रतिमा बन्धयोन्य है। नित व काम मार्गणा पुणिदरं विगिविगले तत्थुप्यायो हु ससाण्ड) देहे। पज्जत्ति वि पावदि इदि गरितिरियाउग पत्थि ।।११३।। एकेन्द्रिय और विकलय कोन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और मसुरिन्द्रिय) में लम्धिअपर्याप्त अवस्था की तरह बन्धयोग्य १०६. प्रकृतियाँ समरना माहिए । क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में तीर्घर, आहारकठिक, देवायु, नरकागु और कियपदक... इन ११ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। केन्द्रिय एवं विकलत्रय के पहला और दूसरा ये दो शृणस्थान होते हैं। इनमें से पहले गुजस्थान में बन्धभ्यूक्षित्ति १५ प्रकृतियों की होती हैं। क्योंकि यषि पहले गुणस्थान में १६ प्रकृतियों का बन्धविच्छेद कहा गया है, परन्तु यहाँ पर उनमें से मरकद्रिक और गरमायु ट जाती है तथा मनुष्यायु और तिर्यचायु बढ़ जाती है । अत: १५ मा ही चिच्छेद होता है। मनुष्यायु और सिय वायु के सन्धविश्वेद को पहले गुणस्थान में कहने का कारण यह है कि एकेन्द्रिय और विफलेन्द्रिय में उत्पन्न हुआ जीन सास्वादन मृणास्थान में भरीरपर्याप्सि को पूर्ण नहीं कर सकता, क्योंकि सास्वादन गुणस्थान का काल अल्प है और नियति अश्याप्त अवस्था का काल अधिक । इस कारण सास्वादन मृगस्थान में मनुष्या व तिचाय का बन्ध नहीं होता है और प्रथम गुणस्थान में ही बन्ध और विच्छेद होता है। पंचेन्दिगेसु ओषं एयरले वा वणपदीयते । मणुवदुगं मणुकाऊ उन्ध गहि तेउ बाउम्हि ।।११४।। .............. .. . Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ततीय कर्मनन्य : परिशिष्ट पंचेन्द्रिय जीवों के व्युछित्ति आदि गुणस्थान की सरह समझना चाहिए । कायमार्गणा में पृथ्वीकाय आदि बनस्पतिकायपर्यन्त में एकेन्द्रिय की तरह ज्युछित्ति आदि जानना । विशेषता यह है कि तेजस्काय तथा वायुकाय में मनुष्य गति, मनुष्यानुपूओं, मनुष्यायु और उच्च गोल- इन चार प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है और गुणस्थान एक मिश्यादृष्टि ही है। যাল ओघं सस मणवपणे ओराले मणुगइभंगो ।।११।। श्रमकाय में अन्ध-विद आदि गुणस्थानों की तरह समझना चाहिए । योगमार्गणा में मनोयोग तथा वचनमोग की रसना भी गुणस्थानों की तरह है तथा औदारिक काययोग में बन्ध विच्छेद आदि मनुष्यगति के समान है। ओराले वा मिस्से ण सुरणिरयावहारणिरयदुर्ग । मिच्छदुगै देवचओ तित्थं हि अविरदे अस्थि ।।११६।। औमारिकमिध काययोग में औदारिक काययोग की तरह बन्ध-विच्छेद आदि हैं, लेकिन इतनी विशेषता है कि देवाय, नरकायु, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, नरकागति, नरकासुपूर्वी..इन छह प्रकृतियों का बता नहीं होता है, अर्थात् ११४ प्रकृतियों का ही बन्ध होता है 1 इनमें भी मिथ्यात्व और सास्वादन....इन दो गुणस्थानों में देवचतुष्क और तीर्थङ्कर नाम... इन पाँच प्रकृत्तियों का बन्ध नहीं होता, किन्न भ्रीय अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में इनका बन्ध होता है। पणारसमुनतीस मिच्छदुो अविरदे सिंदी बजरी। वरिमपणमट्ठीवि य एक्कं सादं सजोगिम्हि ॥११७।। औदारिकमिश्र काययोग में मिश्याच और सास्वादन' इन दो गुणस्थानों में १५ व २६ प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद क्रम से जानना चाहिए । चौधे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ऊपर की चार तथा अन्य ६५ –कुल मिलाकर ६६ प्रकृतियों क सन्धविनोद होता है। तेरह सयोगिकेवली गुणस्थान में सिर्फ एक सासावेदनीय की व्युमिछत्ति होती है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धविस्वामिस्व विगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तभ्य देवे वा वे मिस्से परतिरियआउन गुर्णवाहरे तम्मिस्से पत्थ १३७ पत्थि । देवाक ॥११॥ fer काययोग में देवर्गात के समान बंधविच्छेद आदि समझना चाहिए । क्रियमिश्र काययोग में सौधर्म ऐशान सम्बन्धी अपर्याप्त देवों के समान बंधयुति है, किन्तु उस मिश्र में ममुष्यायु और विषाणु का बन्ध नहीं होता है । आहारक काययोग में छठे गुणस्थान जैसा बन्धविच्छेद आदि होता है । आहारक मिश्रयोग में वायु का बन्ध नहीं होता है । कम्मे उराल मिस्स वाणावदुषि व हिंदी अयदे 1 कार्मण काययोग में वन्धविच्छेद आदि औदारिकमिव काययोग के सदृश हैं। लेकिन विमति में आयु का बन्ध न होने से मनुष्यायु तथा तिचायु- इन दो का भी नहीं होता है और वो गुणस्थान में नौ प्रकृतियों की व्युत होती है । वेद से आहारक मार्गणा पर्यन्त वेदादाहारोति य सगुणट्ठाणा मोचं तु ॥ ११६ ॥ वरिय सत्रसम्मै रसुरक्षाऊणि गस्थि नियमेण । frewriter raj वारंण हि तेउपम्मेसु ॥ १२० ॥ सुक्के सदर वामतिमबारसं च व अfe | कम्मेव अणाहारे बंधस्संतो मगंतो य ॥१२१॥ वेणा से लेकर आहारकमागंणा तक का कथन गुणस्थानों के साधारण कथन जैसा समझना चाहिए । लेकिन सम्यक्त्रमार्गणा तथा लेण्यामार्गणा को शुभलेश्याओं में और आहारमार्गणा की कुछ विशेषता है कि · मार्गेणा में सभी अर्थात् दोनों ही उप सम्यक्त्व जीवों के मनुष्यायु और वायु का बन्ध नहीं होता | Heereint में तेजोलेश्या वा के मिध्यात्व गुणस्थान की अन्त की नौ तथा पदमलेश्या वाले केमिया गुणस्वान की अन्य की बारह प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। शुक्ललेश्या Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तसीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट वाले के शातार चतुष्क (तियंगति, तिर्यमानुपूर्वी, लियंधायु, उचीत) और मिध्याहृष्टि गुणस्थान के अन्त की १२ कुल मिलाकर १६ प्रकृसियों का बन्ध नहीं होता है । आहारमार्गणा में अनाहान या में कार्य योग जसा बन्धविच्छेद आदि समझना चाहिए। उदय एवं उदीरणास्वामित्व मार्गणाओं में उदय और उदीरणा स्वामित्व का कथन करने के पूर्व निम्नाकित गाथाओं में सामान्य नियमों को बतलाते हैंगुगस्थानों में उदय प्रकृतियों सत्तरसेपकारखचदुसहियसयं सगिगिसीदि दुसदरी। छावठ्ठि सठि णवसगवण्णास दुदासबारुदया ॥२७॥ मिघ्याइष्टि आदि चौदह गुणस्थानों में कम से ११७, १११, १००, १०४, ८७, ८१,७६, ७२, ६६, ६०, ५६, ५७, ४२, १२ प्रकृतियों का उदय अनुषय प्रासियों पंचेक्कारसबावीसट्ठा रसपंचतीस इगिछादालं । पपर्ण छप्प बितिपणसििय असीदि दुगुयाघणयण्णं ॥२७७|| मिश्याटि आदि गुणस्थानों में कम से ५, ११, २२, १५, ३५, ४१. '४६, ५०, ५६, ६२, ६३, ६५, ८०, ११० प्रकृतियाँ अनुदय रूप हैं। उपविभिन्न प्रकृतियों पण णव इगि सत्तरसं अड' पंच च चउर छक्क छच्चेव । इगिद्ग सोलस तीसं बारस उदरे अजोगता ।।२६४ मिग्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों में क्रमश: ५, ६, १, १७, १, ५, ४, ६, ६. १, २, १६, ३० और १२ प्रकृतियों का उदरदिस्त होता है । । जिन कृतियों का उदय नहीं होता है, उन्हें अनुक्ष्य कहते हैं। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धविस्वामित्व दिगम्बर कर्मग्राहित्य का मन्तब्य : गदिआणु आउउदओ सपदे भूपुण्णबादरे ताओ । उच्बुदओ परदेवे श्रीमतिगुद गरे तिरिये ॥ २८५॥ किसी भि के पूर्व समय में ही उस विवक्षित भय के योग्य गति, आनुपूर्वी और आयु का उदय होता है। आय नामक का उदय बादर पर्याप्त पृuatara जीवों को ही होता है। गोत्र का उदय मनुष्य और देवों को ही होता है और स्त्यानद्ध आदि तीन निद्राओं का उदय मनुष्य और तिचों के होता है 1 स्त्यादि आदि तीन विनाओं के उदय का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है - संखाउगण र तिरिए इन्दियपज्जतगादु थोणतिय । जोगमुदेदु वज्जिय आहारविगुव्वशुद्धवमे ||२८६ ॥ १३६ संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज मनुष्य और सियंत्रों के ही इन्द्रियपर्याप्त के पूर्ण होने के बाद स्त्यानद्धि आदि तीन निद्राओं का उदय हुआ करता है । परन्तु आहारक ऋद्धि और मैक्रिय ऋद्धि के धारक मनुष्यों को इनका उदय नहीं होता है। अदाणे ण हि थी संदोवि य धम्मणारयं मुन्ना । श्रीमंदs कमसो णाणुचऊ चरिमदिष्णाण ॥२८७॥ निर्वृत्यर्यातक के असंगत गुणस्थान में वेद का उदय नहीं है। इसी प्रकार प्रथम नरक घर्मा (रत्नप्रभा) के सिवाय अन्य तीन गतियों को चतुर्थ गुणस्थानवर्ती नित्य पर्याप्त अवस्था में नपुंसकत्वेद का भी उदय नहीं होता है। इसी कारण से स्त्रीवेद वाले तथा नपुंसकवेद वाले असंयत के कम से चारों अनूपूर्वी तथा नरक के चिना अन्त की तीन आनुपूर्वी प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। afrfanmurarचऊ तिरिए अपुष्णो णरेवि संघडणं । ओराल परतिरिए वेगुव्वदु देवणेरमिए ॥२८॥ -------- Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतोप कर्मबन्ध : परिशिष्ट एफेन्द्रिय तथा दीन्द्रिय आदि विकलत्रय और स्थावर आदि चार प्रकृतियों का उदय रिंगमंच के होवे योग्य है । अपर्याप्त प्रकृति तिर्यच व मनुष्य के भी उदय होने योग्य है । वजऋषभनाराच आदि छह संहनन और औदारिक पारीर युगल नामकर्म (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग) मनुष्य ब तियंप के उदय होने योग्य है । क्रिय शरीर व बकिय अंगोपांग ये दो प्रकतियां देव नारकों के उदययोग्य हैं। तेउतिगूणतिरिक्खेसुम्जोवो बाहरेसु पुण्णेसु । माणं पयडीणं ओघ वा होदि उदओ दु ॥२६॥ तेजस्कायिक, वायुकायिक और साधारण वनस्पतिकायिकः-५न तीनों को छोड़कर अन्य बापर पर्याप्तक लियचों के उद्योत प्रकृति का उदय होता है। इनके अतिरिक्त अन्य शेष रही प्रकृतियों का उदय गुणस्थानों के अनुसार जानना चाहिए। इस प्रकार से कमप्रकलियों के उदय-नियमों को फहकर अब मार्गणाओं में उदय-प्रकृतियों का कथन करते हैं। गतिमार्गणा थोणतिथीपुरिस्णा घादी णिरयाउणीचयणियं । णामे समचिठाणं गिरमाण णार सुदया ।।२।। स्त्यानद्धि आदि तीर, स्त्रीवेद और पवेद इन पाँच के सिवाय घाति कर्मों की ४२ प्रकृत्तियां, चरकायू, नीच गोत्र और साता असाता वेदनीय तथा नामकर्म में से चारकियों के भाग्यापत्ति के स्थान में होने वाली २६ प्रकृलियाँ तथा नरकगत्यानपूर्वी ये ७६ प्राकृतियाँ भरकगति में उदय होने योग्य हैं। २६ प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं... वेगुव्वतेजविरसुदुग दुग्गदिहुंडणिमिण पंधिन्दी । पिरयगदि दुब्भमागुरुतसवण्णच य बचिठाणं ।२६१३॥ क्रिय, तैजा, स्थिर, शुभ-~इनका युगल और अप्रास्त विहायोगति, हुँस संस्थान, निर्माण, पंखेन्द्री, नरकगति सथा दुभंग-अगुसलधु-बस-वर्ण Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धादि स्वामित्व : विगम्वर कर्म साहित्य का मन्तव्य १४१ इनका खतुष्कः, इस प्रकार कुल मिलाकर ये २६ प्रकृतियो मारक भावों के वचनपर्यास्त के स्थान पर उदय रूप होती है। मिछमणतं मिस्सं मिच्छादितिए कमा छिदी अयदे । विदियकसाया दुभगणादेज्जदुगाउणिरयचाउ ३३२६२।। प्रथम नरक के मियादृष्टि आदि तीन, शुषस्थानों में भ से मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सम्यग्मिथ्यात्व यह उदयविच्छिन्न होते हैं और चौथे सुणस्थान में अप्रत्यारूपानावरणचतुका, दुर्भग, स्वर, अनादेय, अयान कोति नरकायु, नरकद्विक, वैकिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग -.... यह १६ प्रतियां उदयविधि होती हैं। बिदियाविसु छसु पुढविमु एवं गरि य असंजदट्ठाणे । पास्थि णिरयाणपन्थी तिस्से मिच्छेब बोच्छदों ॥२ दूसरे से लेकर सातवें भरक तक पहले नरक के सामान उदयादि मानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयत गुणस्थान में नरकानुपूर्वी का उदय नहीं है । इस कारण मिथ्यात्व गुणस्थान में ही स्वास्न प्रकृति के साथ नरकानु. पूर्वी का भी उपयथिच्छेद हो जाता है। तिरिथे ओधो सुरणरणिरयाऊनच्छ महारदुर्ग 1 वेगुन्वछक्कलित्थं पथि हु एमेव सामग्णं ॥२६४॥ तिधति में गुणस्थान ने समान ही उदय जानना । गरन्तु उनमें से देवायु, मनुष्यायु, नरकायु, उच्चगोत्र. मनुष्मतिनिक, आहारकाद्धिक सथा बैंक्रिय भरीर आदि ६, तथा लीर्थकर ये सब १५ प्रति उदययोग्य नहीं हैं। इस कारण १०५ प्रकृतियों का ही उदय हना करता है। इसी प्रकार तिथंच के पाँच भेदों के सामान्य तियानों में भी जानना । थावरदुगसाहारणताविगिविगलुग ताणि पंचक्खे । इत्थिअपज्जत णा ते पुण्णे उदयपयडीओ ||२६|| उक्त सामान्य तिमंच की १०७ प्रकृतियों में से स्थावर आधि २, साधारथा, आतप, एकेन्द्रिय, विकलत्रय----इन आठ प्रकृतियों को घटा देने वर शेष बची Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४२ सृसोय कम्म : परिशिष्ट ६६ प्रकृतियां पंचेन्द्रिय तिर्गच के उपययोग्य हैं और इन ६६ प्रकृतियों में से भी स्वीय तथा अपर्याप्त इम दो को कम करने से शेष रहीं ६७ प्रकृतियाँ पर्याप्ततिबंध के उदययोग्य होती हैं। तिर्यधनी के एल 11: HT : पुणे व मधु कावेद की कम करके और स्त्रीवेद को मिलाने से ६६ प्रकृतियाँ उदययोग्य है । उसमें भी चोथे अविरतसम्यग्टफिट शुणस्थान में तिथंचानुपूर्वी का उदय नहीं है। लब्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिप लियंच के उक्तः ६६ प्रकृतियों में स्त्रीवेद, त्यानद्धि आदि ३, परधातादि २, तथा पर्याप्त. उद्योत. स्वर युगल, बिहायोगलियुगल, यश कीति, आदेय, समचतुरस आदि पांच संस्थान, वज्रऋषभनाराच आदि पांच संहनन, सुभग, सम्यक्त्व, सम्पमिथ्यात्व...इन १६ प्रकृलियों को कम करके तथा अपर्याप्त व नपुसकावेद इन दो प्रकृतियों को मिलाने से कुल ५१ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। मणुके ओधो पावरतिरियादावदुगएयविलिदि । साहरणिदरातिय बेमुब्बियछक्क परिहीणो ॥२६॥ सामान्य मनुष्य के गुणस्थानों में कही गई १३२ प्रकृतियों में से स्थावर, तिथंचगति, आतप, इन तीनों का युगल और एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिया, साधारण, मनुष्यायु के अतिरिक्त अन्य सीन आयु और क्रिय शरीर आदि छह प्रकृतियों को कम करने से शेष उदययोग्य १०२ प्रतियां हैं। मणुसोपं वा भोगे दुःभगच उणीवसंवथीपतियं । दुग्गदितिस्थमपुण्णं संहदिसठाणचरिमपणं ॥३०२।। हारदुहीणा एवं तिरिये मणुदुच्चगोदमणुवाउं । अवणिय पविखव णीचं तिरियतिरियाउउज्जोय ।।३।०३।। भोगभुमिक मनुष्यों में सामान्य मनुष्य की ६०५ प्रकृतियों में से दुभंग आदि चार, नीच गोत्र, नपुसकवेद, स्त्यानदि आदि तीन, अप्रशस्त विहायोपति, तीर्थङ्कर, अपर्याप्ति, वज्रनाराच आदि पान संहनन, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि पाँच संस्थान और आहारक शरीर का युगल इन्न २४ प्रकृतिमों को कम कर देने पर शेष रहीं ७८ प्रकृतियां उदययोग्य है । इसी प्रकार भोगभूमिक emairmanenimammmm.-- ... Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ masininewwwwwrectorxmooompu धादि स्वामित्व : विगाधर कर्मसाहित्य का मसम्म १४३ तिचों में मनुष्यों की तरह ७१ प्रकृतियों में मनुष्यक्ति आदि दो, उभागोत्र और मनुष्यायु इन पार प्रकृतियों को कम करने तथा नीचकोत्र, तिषगति आधि दो, तिचायु और उद्योत इन पांच को मिलाने से ७६ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। भोग व सुरे परचवणराउणज्जूण सुरवसुरा। खिव देवे वित्थी इथिम्मि ण पुरिसवेदो य॥३०४| सामान्य से देवी में भी भोगभूभिक मनुष्य की तरह ७८ प्रकृतियों में मनुष्यगति आदि चार, मनुष्यायु, ऋषभनास संहनन' इन छह प्रकृतियों को कम कर और देवगति आदि चार, देवापु इन पाँध को मिलाने से ७७ प्रकृतियां उदयनीय है। परन्तु देवों में स्त्रीवेद का उदय और देवांगनाओं में पुरुषवेद का उपम नहीं होता है । अतः देव और देवांगनाओं में ७६ प्रतियाँ ही अश्ययोग्य समझना चाहिए। अविरदठाणं एक अदिसादिसु सुरोधमेव हवे । भवणतिकप्पित्थीणं असंजदे अस्थि देवाणू ॥३०॥ अनुइिंश कादि विमानों में एक असंयत गुणस्थान ही है । अत: देशों के अविरत सुणस्थान की सरह उपमयोग्य ५० प्रकृतियाँ जानना । भवनत्रिक (भवनकासी, ध्यंतर, ज्योतिषी) देव, देवियों तथा कल्पवामिनी स्त्रियों के सामान्य देवों की तरह ७७ प्रकृतियों में स्त्रीवेद अथवा पुरुषवेध के बिना ४६ प्रकृतियाँ उदधयोग्य हैं, किन्तु चौधे अचिरस गुणस्थान में देवानुपूर्वी का उदय नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मरण करके भवत्रिक में उत्पन्न नहीं होता। अर्थात् भवनन्त्रिक व कल्पवासिनी देवियों के चलु गुणस्थान में व सासरे में भी उदययोग्य ६६ प्रकृतियां ही हैं। नियमार्गमा तिरियअपुण्णं वगे परषादवउपकपुष्णसाहरणं । एइन्दियजसपीणतिषावरजुगलं च मिलिदब्वं ॥३०॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470Nmmarrormim तृतीय कर्भग्रन्थ : परिशिष्ट रिणमंगोवंगतसं संहदिपंचकसमेवमिह थिराले । अवणिय थावरजुगलं साहरणयक्षमादावं ॥३०७।। खिव तसदुम्मदिदुस्सरमगोवंग सजादिसेवटै ।। ओघ सयले साहरणिगिविगलादाक्थावरदुगुणं ॥३०॥ एकेन्द्रिय मार्गणा में तिर्थच लब्धि-अपर्याप्त की ७१ प्रकृतियों में पराचात आदि बार, पर्याप्त, साधारण, एकेन्द्रिय जाति, यश-कीर्ति, स्थानमित्रिक, स्थावर और सूक्ष्म कुल तेरह प्रकृतियां मिलाकर और अंगोपांग, बस, सवार्त संहनन, पंचेन्द्रिन इन चार को कम करमे से ८० प्रकृतियां उदययोग्य जानना । विकलाय में एकेन्द्रिय के समान १० प्रकृतियों में से स्थावर युगल, साधारण, एकन्द्रिय, आतप इन पांच प्रकृतियों को कम करके तथा प्रस, अप्रशस्तविहायोगति, दुःवर, अंगोपांग, अपनी-अपनी जाति, सेवातं संहनन, इन छह प्रकृतियों को मिलाने से उदययोग्य ८१ प्रकृतियां हैं। पंचेन्द्रिय में गुणस्थान की तरह १२२ में से साधारण, एकेन्द्रिय, विकलत्रय, आला. शानगर - 5 प्रकृतियों को कम करने पर ११४ प्रकृतियाँ ज्ययोग्य है । कायमा योगमार्गणा एयं वा पणकाये ण हि साहरणमिणं च आदाबं । दुसु सद्गमुज्जावं कमेण चरिमम्हि आदादं ।।३०।। पृथ्वीकाय आदि पांचों कायों में एकेन्द्रिय की तरह ८० प्रकृतियों में से एक साधारण प्रकृति को कम करने पर पृथ्वीकार में हैं और साधारण व आतप प्रकृति को घटाने पर अलकाय में उदयोग्य ७६ तथा तेजस्काय, यायुकाय, इन दोनों में साधारण, मालप, उश्चोत- इन तीन प्रकृतियों को घटाने पर ७७ प्रकृतियां उन्द्रययोग्य हैं। वनस्पतिकाय में सिर्फ आतप प्रकृति को कम करने पर ७६ प्रकृतियां उदययोग्य हैं। ओषं तसे ण थावरदुगसाहरणेयतावमथ ओघं । मणवयणसत्तगेण हिताविगिविमलं च थावरागुचओ ॥३१० घसकाय में गुणस्थान सामान्य को १२२ प्रकृतियों में से स्थावर आदि Prammar -- . . ............ A mA- ...................... - - - .. - - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAMMAMAALIM मग्धावि स्वामित्व : दिगम्बर कमसाहित्य का मन्तव्य १४५ दो, साधारण, एकेन्द्रिय, आतपय पात्र प्रकृतिमा म होने से ५१७ प्रतियां उदय होने योग्य हैं। चार मनोयोग तथा तीन वचनयोग कुल सात योगों में आतए, केन्द्रिय, विकलत्रय, स्थावर आदि कार, चार आनुपूर्वी-ये १३ प्रकृतियां नहीं होती हैं, लतः १०१ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। अणुभयवचि वियलजुदा ओघमुराले पहार देवाल। वेगुष्यछक्कणरतिरियाणु अपज्जत्तणिरयाऊ ॥३११ अनुभय बचनयोग में १०६ प्रकृतियों में बिकलत्रय मिलाकर ११३ प्रा. तियाँ उदयोग्य है। औदारिक काययोग में ११२ में से आहारक शरीर युगल, देशयु, क्रिमषट्क, मनुष्यानुपूर्वी, लियंचानुपूर्वी, अपर्याप्त. नरकासु-इन १३ प्रकृतियों के न होने से १०६ प्रकृतियाँ उदययोग्य है । तम्मिम्मे पुण्णजुदा या मिस्सीणतियसरविहाय दुगं । परघादचओ अयदे णादेजदुदुभगं छा संहिती ॥३१॥ साणे तेसि छेदो वामे चत्तारि चोदसा साणे । चदाल वोछेदो अयदे जोगिम्हि छत्तीसं १३१३ औदारिकमिश्र काप्रयोग में पूर्व की १०१ प्रकृतियों में पर्याप्त के मिलाने तथा मिन्धप्रकृति, त्यानमिश्कि, स्वरदय, बिहायोगलियुगद, पराधातादि चारइन बारह प्रकृतियों के न होने से ६८ प्रकृतियां उदयोग्य हैं ! चौथ अविरत गुणस्थान में अनादेय युगल, दुर्भग, नए सकवेद, स्त्रीवेद इनका उदय नहीं है, इन प्रकृतियों की व्युच्छित्ति सास्वादन गुणस्थान में ही बानना साहिए । इसके मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यास्थ, सूक्ष्मन्त्रय ये पार प्रकृतियाँ व्युछिन्न होती हैं । सास्वादन में अनन्तानुबन्धी आदि १४, असंयत में अप्रत्याख्यानादि ४४ तथा समोगिकेवरली में ३६ प्रकृतियों का उदय विच्छेद जानना देवोषं गुध्धे ण सुराण पक्लिवेज्ज णिरयाऊ ! निरयगदि उसद दुग्गदि दुरुभगवओ णीचं ॥३१४॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सूतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट वैक्रिय काययोग में देवगति के समान ७७ प्रकृतियों में से देवासपूर्वी को कम करने और नरकायु, नरकगति, हुंड संस्थान, नपुसकवेद, अशुभ विहायोगति, दुर्भग आदि चार, नीच गोय. इन दस प्रकृतियों को मिलाने से ८६ प्रकृतियों उदययोग्य हैं। वेगुब्वं वा मिस्से | मिस्स परधादसरविहायदुर्ग । साणे ण हुडसंह दुब्भगणादेज्ज अजसयं ॥३१५|| पिरमादिआखणीच ते खिसयदेवणिज्ज थीवेद । छट्ठगुणं वाहारेण थीणतियसबथीदं 1३१६|| दुग्गदिदुस्सरसंहदि ओरालदु चरिमपंचसंहाणं । ते तम्मिस्से सुस्सर परधाददुसत्थयादि होणा ॥३१.७।। वैक्रियमिश्न काययोग में बैंक्रिय की ८६ प्रकृत्तियों में से मिनमोहनीय, पराधात--स्वर-विहायोगति- इन तीन का युगल उबयरूप नहीं है, अर्थात ये सात प्रकृतियाँ उदय योग्य न होने से ७६ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। इनमें भी सास्वादन गुणस्थान में हु संस्थान, नपुसकवेद, दुर्भग, अनादेय, अयश.कीर्ति मरक्कमति, परकायु, नीघगोत्र का उदय नहीं है, क्योंकि सास्वादन गुणस्थान बाला मरकर नरक को नहीं आता, किन्तु अविरत गुणस्थान में इनका उदय रहता है । सास्वादन में स्त्रीवेद और अनन्तानुबन्धीचतुवा इन पांच एकत्तियों की व्युच्छित्ति है । अधिरति में अप्रत्याख्यानकषायचतुक, क्रियतिक, देवगति, मरकगति, देवायु, नरवायु और दुर्भगत्रिक इन तेरह प्रकृतियों की थ्युच्छिति होती है । आहारक काययोग में छठे गुणस्थान की ८१ प्रकृतियों में से प्रत्याद्धित्रिक, मसकवेद, स्त्रीवेद, अप्रशस्तविहायोगति, दुःरकर, छह संहनन, औदारिकविक, अंत के पांच संस्थान . न २० प्रकृतियों का उक्ष्य नहीं है । आहारकमिश्न काययोग में इन ६१ प्रतियों में से मुस्वर, पराधातादि दो, प्रशस्तविहायोगति इन चार को कम करने से ५७ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। ओघ कम्मे सरगदिपत्त याहारुरालदुग मिस्स । उवघादपणविगुल्धदुधीणतिसंठाणसंहदी पास्थि ॥३१॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धादि स्वामित्व विगम्बर साहित्य का मन्तव्य साणे पीयेदछिदी णिरयदुणिरयाउ ण तियदसमं । afrati arati fमच्छादिसु चसु वोच्छेदो ॥३१६ TWRAA कार्मण काययोग में १२२ प्रकृतियों में से स्वर - विहायोगति प्रत्येक---- आहारकशरीर - भौदारिकशरीर इन सबका युगन, मिश्रमोहनीथ, उपधात आदि पाँच, गिल, स्त्यानद्वित्रिक, छह संस्थान, छह संहनन, इन प्रकृतियों के न होने से यह प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। उसमें भी सास्वादन गुणस्थान में स्त्रीवेद की व्युच्छित होती है और नरकगतिडिक, नरकायु- इन तीन का उदय नहीं होता है तथा मिध्यात्वादि (मिथ्यात्व सास्वादन, अविरत, सयोगिकेवली) चार गुणस्थानों में क्रम से ३, १०, ५१.२५ प्रकृतियों को उपस्थिति होती है। चे r १४७ AAJLA मूलोषं पुंवेदे थावरचउणिरयजुगलतित्थयरं ॥ इगिविगलं थोडं तावं णिरयाउगं गत्थि ॥ ३२० ॥ इत्थोवेदेवि तहा हारदुपुरिपूण मिस्थिसंत्तं । ओ सं ण हि सुरहारथीपुंसुरा उतित्ययरं ।। ३२१॥ पुरुषवेद में मूलवत् १२२ प्रकृतियों में से स्थावर आदि बार, नरकगति द्विक, तीर्थङ्कर एकेन्द्रिय, विकलत्रिक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, आतप, नरकाधुन १५ प्रकृतियों के न होने से १०७ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। puru, शाम, संयम व दर्शन मागा स्त्रीवेद में उक्त १०७ प्रकृतियों में से आहारकशरीर गुमय, पुरुषवेद इन तीन प्रकृतियों को कम करके और स्त्रीवेद को मिलाने से १०५ प्रकृतियां उदययोग्य हैं। नपुंसकवेद में १२२ प्रकृतियों से से देवगतियुगल, आहारकडिक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, देवायु, तीर्थदूर इन आठ प्रकृतियों के कम होने से ११४ प्रकृतियाँ उक्ययोग्य हैं । तिश्वचरमाणमायालोहचउक्कूण मोघमिह कोहे । अणरहिदे णिविविगलं तावणकोहाणथावरचउनक ||२२|| Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय फर्मग्रन्थ : परिशिष्ट एवं माणादितिए मदिसुद अण्णाणगे दु सगुणोपं । वेभगेवि ण तादिगिविगलिंदी थावराणुचक ।।३२३।। सण्णाणपंधयादी सणमग्गाणपदोत्ति सगुणोध । मणपज्जव परिहारे णवरि ण संदिस्थि हारदुर्ग ।।३२४३ चक्खुम्मि ण साहारणताविगिबितिजाइ थावर सुहम । क्रोध कषाय मागंणा में सामान्य १२२ प्रकृतियों में से तार्थङ्कर तथा मान, माया, लोभश्चतुष्क सम्बन्धी १२ कषामों - इन १३ प्रकृसियों को कम करने से १०६ प्रकृतियाँ उदययोग्य है तथा अनन्तानुबन्धीरहित भोध में एकेन्द्रिय, विकलनिक, आतप, अनन्तानुबन्धी क्रोध, चार आनुपूर्वी, स्थावर आदि चार, इस प्रकार १०६ में से १४ प्रकृतियां तथा अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन व मिथ्यास्त्र ये कार कुल १८ प्रकृत्तियों को छोड़कर उदययोग्य ६१ प्रकृतियाँ हैं । इसी प्रकार मान आदि सीन कषायों में भी अपने से अन्य १२ कषाय तथा तीर्थ र प्रकृति छन १३ प्रतियों के न होने से १०६ प्रकुतियां उत्ययोग्य समाना। ___ ज्ञान मागंणा में कुमति और कुवत ज्ञान में सामान्य गुणस्थानबत् १२२ में से पाहारक आदि ५ के सिवाय ११७ प्रकृतियाँ उदयोग्य हैं। विभंग (कुअवधि) शान में भी उक्त ११७ प्रकृतियो में से आसप, एकेन्द्रिय, विकालेन्द्रिय त्रय, स्थावर आदि चार, आनुपूर्थी भार, कुल मिलाकर १३ प्रतियां उदय न होने के कारण १०४ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। पांच सम्यग्ज्ञान से लेकर दर्शन मार्गणास्थान पर्यन्त अपने-अपने गुणस्थान सरीखी उदययोग्य प्रकृतियाँ हैं, लेकिन मनःपावसान के विषय में यह विशेष जानने मोम्म है कि नपुसकवेद, स्त्रीवेद, आहारक युगल में चार प्रकृतियाँ उदययोग्य नहीं हैं। दर्शन मार्गणा के चक्षुदर्शन में १२२ में से साधारण, अतिप, एकेन्द्रिय, वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, तीर्थकर ...इन आठ प्रकृतियों का उदय न होने के कारण ११४ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mineers सन्धादि स्वामित्व : दिगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तव्य १४ श्या मार्गमा किण्हदुगे सगुणोघं मिन्छे गिरयाणु वोच्छेदो ३५३२५।। साणे सुराउसुरगदिदेवतिरिक्खायु दोछिदी एवं । काओदे अयदगुणे पिरयतिरिक्वाणुयोछेदो ॥३२६॥ तेतिये सगुणोघं शादाविगिविमलयावरच उक्के । गिरयदुतदातिरियाणु पराण पड़ मिच्छदुगे ॥३२५॥ लेश्या मार्गणा में कृष्ण, नील----इन दो लेश्यामों में अपने-अपने मुणस्थानवत् तीर्थरादि तीन प्रकृतियों के सिधाय ११६ प्रकृतियां उपयोग्य है । लेकिन मिथ्याइष्टि गुणस्थान में नश्कानपूर्वी भी छिन समझना । सासादन गुणस्थान में देवाथु. देवगति. देवानुपूर्वी, लियंत्रानुपुची... इन चार की व्युछित्ति होती है । इसी प्रकार कापरेत लेल्या में भी, किन्न अभिरत मणस्थान में नरमानपूर्वी व तिर्यंचानुपूर्वी इन दो प्रकृतियों की व्युछित्ति है ।। तेजोलेश्या आदि तीन शुभ लेण्याओं में अपने-अपने स्थानवत् १२२ में से आत्तप, एकन्द्रिय, विकलेन्द्रियनिक, स्थावर बादि पार, परकगसिद्धिक, नरकायु, तिर्यंचा नुपूर्वी--एन १३ प्रकृतियों का उदय न होने से १.६ प्रकृतिमा उदथयोरख है । उसमें भी मिघ्याट्टष्टि आदि दो गुणस्थानों में मनुष्यानुपूर्वी का भी उदय नहीं है। भव्य, सम्धव व संज्ञी प्राणा वाश्यमम्मो वेसो पर एक जदो तहि ण तिरियाऊ । उज्जोवं तिरियमदी लेसि अयाम्हि वोच्छेदो ॥३२॥ भव्य, अभय, उपशमसम्यक्त्व, वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यमत्व और नायिकमध्यम मार्गमानों में अपने अपने गुणवान के कथन की तरह जानना किन्न विशेष यह जानना कि उपशमसम्यवस्न तथा साधिकसम्यक्त्व में सम्यक्त्वमोहनीय उदययोग्य नहीं है तथा उपणमसम्यवस्व में आदि की नरकानुपूर्वी आदि तीन आनुपूर्वी और आहारकद्रिक ये प्रकृतियाँ उत्ययोग्य नहीं है। भविदरुवसमवेदगखाइये सगुणोधभूवसमे खयिये । ण हि सम्ममुवसमे पुणा मादितियाणू य हारदुर्ग १५३२६।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwMilliAIMIM५Malay तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट देशसंयत नामक यांचवं गुणस्थान में शायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही होता है, इसलिए लियंकायु, उद्योत, तिर्यगति इन तीन प्रकृतियों का उदय नहीं है, अत: इन तीन की उदयव्युछित्ति अविरल गुणस्थान में हो आती है । मेसाणं सगुणोष सणिस्सवि त्यि तावसाहरण । थावरसुहमिगिविगलं असणिणोदि य ग मणुदुच्च ।।३३०।। वेगुब्बछ पणसंहदिसंठाण सुगमण सुभगाउतिर्थ । शेष मिथ्यास्त्र , सासादन, मिश्र सम्यक्त्व, इन तीनों में अपने-अपने गुणस्थान की तरह उत्यादि जानना । अर्थात मिस्यात्व में ११७ प्रमातियाँ उदययोग्य है इत्यादि । संकी मार्गणा में संशी के भी सामान्य १२२ में से आतप, साधारण, स्थानर, सूक्ष्म, एकेन्दिर, विकलेन्द्रियधिक और पूर्वोक्त तीर्थङ्कर प्रकुप्ति कुल ६ प्रकलियाँ उदययोग्य नहीं हैं । अमांजी के मनुष्यगलिविका, उन गोत्र, वक्रिय शरीर आदि षट्क, आदि के पांच संहनन, आदि के पांच संस्थान, प्रशस्त विहरयोगक्ति, सुभगादि तीन, मरमादि सीन आयु..ये २६ प्रकृतियाँ उदययोग्य नहीं हैं। असः मिश्थाष्टि की ११७ में से २६ प्रकृतियाँ घटाने पर ६१ प्रतिया जदययोग्य हैं। आहारमाया आहारे सगुणो णवरिण मन्त्राणुपुब्बीको ॥३३॥ कम्मे व अणाहारे, पयडीण उदयमेवमादेसे ॥३३२॥ সাল্লামা সাকি সবকথা # মাদাখ মুখাসন সুবি समझाना, परम्न चारों आनुषी प्रकृतियों का उपय नहीं होता है । अत: जदययोग्य ११८ प्रकृतियां है। अनाडारक अवस्था में काम काययोग की तरह ६६ प्रकृतिमा उदययोग्य हैं। सत्तास्वामित्व पति आदि मार्गणाओं में प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aarfe office : दिगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तब्य १५.१ भेदों को लिये हुए प्रकृतियों के सच का यथायोग्य क्रम से कथन किया जा रहा है। सत्व को बतलाने के लिए सर्वप्रथम परिभाषा सूत्र कहते हैं तित्थाहारा जुगयं सव्वं तित्यं ण मिच्छ्गादितिए । तस्तम्मियाणं वग्गुणठाणं ण संभवदि |||३३३ ॥ मिथ्यादृष्टि सासादन, मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में क्रम से पहले में तीर्थंकर और आहारकद्विक एक काल में नहीं होते, तथा दूसरे में तीनों ही किसी काल में नहीं होते और मिश्र में तोकर प्रकृति नहीं होती । अर्थात् मिथ्यात्व में नाना जीवों की अपेक्षा १४८ प्रकृतियों की सत्ता है, सासादन में तीनों ही के किसी काल में न होने से १४५ की ससा है और मिश्र गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति के न होने से १४० प्रकृतियों की सत्ता है। क्योंकि इन स्व प्रकृतियों वाले जीवों के ये मिध्यात्वादि गुणस्थान हो संभव नहीं हैं। चत्तारिवि खेत्ताइ आउगबन्धेण होइ सम्मतं । अणुवद महदाई ग लहइ देवाउगं मोतु ॥ ३३४ ॥ नारों ही गतियों में किसी भी काम होने पर सम्यगस्थ होता है, परन्तु देवायु के अन्ध के सिवाय अन्य तीन मासु के बन्ध वाला अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता, क्योंकि वहाँ त के कारणभूत विशुद्ध परिणाम नहीं हैं। गिरयतिरिक्त सुराउन सत्ते न हि देससयलचदखवगा । अयदचक्कं तु अण अणियट्टीकरण श्ररिमम्हि ॥ ३३५॥ जुगवं संजोगिया पुणोत्रि अणियट्टिकरण बहुभाग । atra seat fee मिस्से सम्म खवेदिकमे ||३३६|| नरक, तिर्यच तथा देश के सत्व होने पर कम से देवव्रत, सत ( महात्रत) और क्षक श्रेणी नहीं होती और असंयतादि चार गुणस्थान वाले बन्धी आदि सात प्रकृतियों का क्रम से य करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । उन सातों में से पहले अनन्तानुबन्धीतुक का अनिवृतिकरण रूप परिणामों के अंत काल के अन्त समय में एक ही बार दिसंयोजन अर्थात् Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w -गा Marrywwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwinnewwwwwwwwwwwwwwww १५२ तृतीय कर्म ग्रन्य : परिष्ट अनन्तानुबन्धीचतुक को अप्रत्याख्यानादि बारह कवाय रूप परिणमन करा देता है तथा अनिवृतिकरण काल के बहभाग को छोड़कर शेष संपातवें एक भाग में पहले समय से लेकर क्रम से मिथ्यात्व, मिश्च और सम्यक्त्य प्रकृति का भय करते हैं। इस प्रकार सात प्रकृतियों के क्षय का कम है। यहाँ पर तीन गुणस्थानों का प्रकृतिसपर हो: ही गाय तथा असं इस से लेकर सातवें गूणस्थान तक उपशमसम्यहरिद तथा क्षयोपशमसम्पादृष्टि इन दोनों के चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी आदि की उपशमा सत्ता होने से १४८ प्रकृतियों का सत्व है। पांचवें गुणस्थान में नरकाय न होने से १४१ का, प्रमत गणस्थान में नरक तथा तियवायु इन दोनों का सस्छ न होने से १४६ सश्वा अप्रमत्त में भी १४६ का समय है और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धीयतुष्क और दर्शनमोहविक इन सात प्रकृतियों के क्षय होने से सात-सात कम समझना । अपूर्वकरण गुणस्थान में दो श्रेणी हैं, उनमें से अपक श्रेणी में तो १३. प्रकृतियों का सत्त्व है क्योंकि अनन्तानुबन्धी 'दि ७ प्रकृत्तियों का तो पहले ही क्षय किया था और मरक, लियंच तथा वायु इन तीनों की सत्ता ही नहीं है। सोलक्किमिकरक चद् सेक्क बादरे अदो एक्कं । खीणे सोलमजोगे बायत्तरि तेरुवर्तते ॥३३७।। अनियत्तिकरण में ऋम से १६, ८, १, १, ६ प्रकासिय सत्ता से ब्यूमिछम होती हैं तथा अंतिम भाग में एक की ही सनाव्युजिछन्न होती है । दसवें गुणस्पान में एक की ही न्युचित है । ग्यारहवें में योग्यता ही नहीं है। बारहने के अन्तसमर में १६ प्रकृत्तियों की सस्यच्छिति होती है । सयोगिकेवली में किसी भी प्रकृति की ब्युछित्ति नहीं है । अयोगि गुणस्थान के अंत के दो समयों में से पहले समय में ७२ को तथा दूसरे समय में १३ प्रकृतियाँ थुम्मिन्न होती हैं। गुणस्थानों में सत्य और असत्य प्रकृतियों की संख्या का क्रम इस प्रकार णमतिगिणभइगि दोदो दस दस सोलगादिहीणेसु । .. सत्ता हवंति एवं असहाय परक्कमुद्दिवें ॥३४२।। m-am-m Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम्बारि स्वामित्व : दिगम्बर कर्मसाहित्य का भतथ्य मिध्यादृष्टि आदि अपूर्वकरण गुणस्थान तक अम से शून्य (०), ३१, शुन्य (०) १, २२. १० इतनी प्रकृतियों का aere areat अर्थात् ये प्रकृतियाँ नहीं रहती हैं और अतिवृतिकरण के पहले भाग में १०, दूसरे में १६, तीसरे आदि भाग में जादि प्रकृतियों असत्य जानना और इन असत्त्व प्रकृतियों को सब सस्त्र प्रकृतियों में घटाने से अवशेष प्रकृतियाँ अपने-अपने गुणस्थानों में सत्त्व प्रकृतियाँ हैं । ( ऐसा सहायता रहित पराक्रम के धारक श्री महावीर स्वामी ने कहा है ।) १५३ are furt में भी क्षपणा के विधान की तरह क्रम जानना चाहिए, किन्तु यह विशेष है कि संज्वलनकषाय और पुरुषवेद के मध्य में अपनावरण और प्रत्यात्मानावरण कषाय सम्बन्धी दो-दो क्रोधादि है, सो पहले उनको कम से उपaner करता है, पीछे संज्वलन कोषादि का उपशम करता है। अर्थात् अपक श्रेणी की तरह उपशम श्रेणी में नौवें गुणस्थान के दूसरे भाग में मध्यम आठ कषायों का उपशम नहीं होता है किन्तु पुरुषवेद के और पंज्वलन के पहले होता है और उसका क्रम ऐसा है कि पुरुषदेव के बाद rveersire और प्रत्याख्यान दोनों के कोन का उपशम तत्पश्चात् संख्यम को का उपशम इत्यादि । मान आदि में भी ऐसा ही कम जानना चाहिए । तिरिए ण तित्यसत्तं णिरयादिसु तिय चक्क च तिष्ण । आऊणि होति सत्ता मे ओघादु जाज्जो ॥ ३४४॥ || तिर्यगति में तीर प्रकृति की सत्ता नहीं है तथा तरक, तियंत्र, मनुष्य तथा देवगति में क्रम से भुज्यमान नरकायें और बध्यमान वि मनुष्यायु-इन तीन आयुओं की भुज्यमान तिर्यवायु और बध्यमान-नरक, तिर्यच मनुष्य, देवावु इन चार को भुज्यमान मनुष्यायु और वध्यमान नरक, तिच मनुष्य व देवायु इन चार की भुज्यमान देवायु और वध्यमान नियंत्र व मनुष्यायु इन तीन आयु कर्मों की सत्ता रहने योग्य है तथा शेष प्रकृतियों की सत्ता गुणस्थान की सरह समझना चाहिए । परिमाणा ओघ वा रइये ण सुराऊ तित्यमत्थि तदियो त्ति । छट्ठित्ति मगुस्साऊ तिरिए बोध ण तित्यपरं ॥३४६|| Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृसीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट नरकगति में गुणस्थानषत् ससा जानना, फिन्सु देवायु की सत्ता में होने से १५७ प्रकृतियाँ सवयोग्य हैं। तीसरे मरक तक तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता है तथा मनुष्यायु की सत्ता छ, नरक तक है । तिर्मठ गति में भी ससा गुणस्थानवत् समझना लेकिन तीर्थङ्कर प्रकृति का सत्त्व नहीं है, इसलिए खस्षयोग्य' १४७ प्रकृतियां हैं। एवं पंचतिरिवखे पुण्णिदरे णस्थि पिरयदेवास। ओ मसतिये सु वि लागे पण अपुण्णेच ॥३४७।। इसी प्रकार पाँध जाति के सियंचों में भी सामान्य रीति से सत्व जानना, लेकिन विशेष यह है कि मध्यपर्याप्तक तिर्यंच में नरकायु, देवायु--इन दो को सत्ता नहीं है । मनुष्य के तीन भेदों में भी गुणस्थानवत् सत्य समझमा, परन्तु लम्पर्याप्तक मनुष्य में लव्याप्सक तिथंच की सरह नरकायु, देवायु और तीर्थकर इन तीन प्रकृतियों के विमा १४५ प्रकृतियाँ ससायोग्य हैं। ओष देवे हि गिरयाऊ सारोत्ति होदि तिरियाऊ । भवणतियकप्पयासियइत्थीसु ण तित्थयरसत्तं ॥३४८१ देवगति में सामान्यवत् जानना, किन्तु नरकायु न होने से १४७ प्रकृतियों की सत्ता है । साहबार स्वर्ग तक तिर्यंचायु की ससा है। भवननिक देवों व कल्पवासिनी स्त्रियों में तीर्थकर प्रकृति की ससा नहीं है। इयिकायमाणा ओघं पंचक्खतसे सेंसिदियकायगे अपुग्णं वा। तेखदुगे ण पराक सवत्युवेलणावि हवे ॥३४६। . पंचेन्द्रिय व सकाय में सामान्य गुणस्थान की तरह प्रकृतियों की सत्ता है। शेष एकेन्द्रिय आदि अतुरिन्द्रिय तक तथा पृथ्वी आदि स्थावरकाम में लख्यपर्याप्तक की सरह १४५ प्रकृतियों को सत्ता जानना । पर तेजस्काय और वायुकाप में मनुष्याय का सत्व न होने से इन दोनों में १४४ की सत्ता Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धारि स्वामिष : दिगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तब्य १५५ समझना । इन्द्रिय और काय मार्गणा में प्रकृतियों की उद्देसमा' भी होती है। योगमार्गमा पुण्णेकारसजोगे साहारयमिस्सगेवि सगुणोघं । वैगुब्धियमिस्से वि य भावरि ण माणुसतिरिक्खाऊ ५३५२।। मनोयोग आदि ११ पूर्ण योगों में और आहारकमिश्र योग में अपने-अपने गुणस्थानों की तरह सत्त्व प्रकृतियां जानना । वैश्यिमिय योग में भी शुण्डस्थानवत् ही ससा जानवा, किन्तु यह विशेषता है कि यहाँ पर मनुष्यायु और तिर्यचाय.....इन दो की सत्ता नहीं है, अतः १४६ सप्सायोग्य प्रकृसिया है। ओरालमिस्स जोगे ओघ सुरणिरयाउन पत्य । तम्स्सिवामगे सिर कम्मवि सगुभो ॥३५३।। औदारिकमिश्ध योग में सामान्य गुणस्थानवत् सत्ता है, किन्तु देवायु और नरकायु दो प्रकृतियां न होने से १४३ प्रकृतियो ससायोग्य हैं । औदारिकमिश्र मिथ्याइष्टि के सीपंकर प्रकृति नहीं है, अतः पहले गुणस्थान में १४३ फा सस्प है । फार्मणकावयोग में गुणस्थानवत् १४८ प्रकृतियों की ससा समाना साहिए। धेव से आहार मागंणा पर्यग्स वेदादाहारोति य समुणोध गरि संढयीखवगे । किण्हगसुहतिलेस्सियबामेवि ग तित्थयरससं १३५४।। अभवसिद्धे गस्थि ह सत्तं तित्थयरसम्ममिस्साणं । आहारचउक्कस्सवि असण्णिाजीवे ण तिल्पयरं ।।३५५।। कम्मेवाणाहारे पयडीण सत्तभेवमादेसे ६ १ जिस प्रकृति का बन्ध किया था उसका परिणामविशेष से अन्य प्रकृति रूप परिणमन करके नाम कर देमा अर्थात् फल उदय में नहीं माने दिमा, पहले नाश कर दिया, उसे उद्वेलन कहते हैं । उद्देलनयोग्य प्रजातियाँ १३ हैं- आहारकद्रिक, सम्यक्रम मोहमीय, मिश्रमोहनीम, देवपतिरिक, नरकति आदि पार, उच्च मोत्र, मनुष्यगतितिक । Mmmmmmuni tAMMoowww- - Maowwoodoktm Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pawwana सृतीय कमनन्ध : परिशिष्ट बेद मार्गणा से लेकर आहारक मार्गणा पर्यन्त अपने-अपने गुणस्थानवत् सामान्य सत्त्व समझना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुसकबेव' और स्त्रीय अपक श्रेणी वाले के तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता नहीं है। इसी प्रकार कृष्ण व नोल इन दो लेण्या वाले मिथ्यादृष्टि को और पीतादि तीन शुभ लेश्या पाले मियादृष्टि के भी तीर्थकर प्रकृति का सत्त्व नहीं है। ___ अभय जीवों के नीकर, मम्यव, मधमोदनीय तया आहारक चतुष्क (आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, आहारक बन्धन, आहारक संघात) इन सात प्रकृतियों का सत्व नहीं है । असंज्ञी जीव के तीर्थ र प्रकृति की सत्ता नहीं है। अनाहारक मार्गणा में कामण काययोगवत् प्रकृतियों का माव समझना चाहिए। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-दिगम्बर कर्मसाहित्य के समान-असमान मन्तव्य श्वेताम्बर-दिगम्बर क्रर्मसाहित्य के बन्धस्वामित्व सम्बन्धी समान असमान मन्तव्य यहाँ उपस्थित करते हैं..... (१) तीसरे गुणस्थान में आयुबन्ध नहीं होने के बारे में पतामार एवं दिगम्बर कर्मसाहित्य में समानता है। श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में तीसरे मिम गुणस्थान में आबुकर्म का बन्ध नहीं माना गया है । यही मन्सुम्य दिगम्बर कर्म-साहित्य का भी है। (२) पृथ्वीकाय आदि मार्गणाओं में दूसरे गुणस्थान में और ६४ प्रकृतियों का बन्ध मतभेद से कर्मग्रन्थ में है सेकिन गोम्मटसार कर्मकाण्ड में केवल ६४ प्रकृतियों का बन्ध माना गया है। (३) एकेन्द्रिय से चक्षुरिन्द्रिय' पर्यन्त पार इन्द्रिय मार्गणाओं तथा पृथ्वी, जल और बनस्पति---इन तीन काय मार्गणाओं में पहला और दूसरा यह दो गुणस्थान कर्मग्रन्थ में माने हैं । गो कर्मकाण्ड में भी इसी पक्ष को स्वीकार किया है । लेकिन सर्वार्थ सिद्धिकार का इस विषय में भिन्न मत है । ये एकेन्द्रिय आदि चार इन्द्रिय मार्गणाओं एवं पृथ्वीफाय आदि सीन काय मार्गधामों में पहला ही गुणस्थान मानते हैं। (४) एकेन्द्रियों में गुणस्थान मानने के सम्बन्ध में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दो पश्च हैं। सैद्धान्तिक पक्ष सिर्फ पहला शुधास्थाम और कर्मग्रन्थ पक्ष पहला, दूसरा ये दो गुणस्थान मानता है । दिगम्बर सम्प्रदाय में भी यही दो पक्ष देखने में आते हैं । सर्वार्थ सिद्धि और भो जीवकाण्ड में सैद्धान्तिक पक्ष तथा गोर कर्मकाण्ड में कर्मग्रामिक पक्ष है। (५) औदारिकमिश्नकाययोग मार्गणा में मिथ्यात्व गुणस्थान में १७६ प्रकृतियों का बन्ध कर्मग्रन्थ की तरह गो० कर्मकाण्ड में भी माना गया है। (६) औदारिकमिश्रकाययोग मार्गणा में अविरतसम्यष्टि को ५० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० दसौर कराया । विशिष्ट प्रकृतियों के बन्ध विषयक दवे के मत की पुष्टि गो० कर्मकाण्ड से भी होती है। (७) कर्मग्रन्थ में आहारकमिश्न काययोग में ६३ प्रकृतियों का बन्ध माना है, किन्तु गो० कर्मकाण्ड में ६२ प्रकृतियों का रन्ध माना गया है । (4) कृष्णा आदि तीन लेश्याओं में कर्मग्रन्थ और गो कर्मकाण्ड में ७५ प्रकुतियों और संवान्तिक पस ने ७५ प्रकृतियों का बन्ध माना है। कर्मग्रन्थ गो कर्मकाण्ड में शुस्ललेश्या का बन्धस्वामित्व समान है। तीसरे कर्मग्रन्थ में कृष्ण आदि तीन लेश्याएँ पहले चार गुणस्थानों में मानी है। इसी प्रकार का गोम्मटसार और सर्वार्थसिद्धि का भी मत है । (8) क्वेताम्बर सम्प्रदाय में १२ देवलोक माने हैं (सस्वाय. अ. ४, सू० २० का भाष्य) परन्तु बिगम्बर सम्प्रदाय में १६ (तस्वार्थ ०७४, सू० १८ की सर्वार्थसिद्धि टीका) । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार सनत्कुमार से सहस्रार पर्यन्त छह देवलोक है, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार १० । इनमें से अमोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र, शतार ये चार देवलोक हैं, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय में महीं माने हैं। स्वेताम्बर सम्प्रदाय में तीसरे सनस्फुमार से लेकर पांचवें ब्रह्मलोक पर्यन्त केवल पदमलेण्या तथा छठे लान्तक से लेकर ऊपर के सब देवलोकों में शुक्ल लेण्या मानी है, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में सनत्कुमार, माहेन्द्र दो देवलोको में तेजीलेश्या व पद्मलेश्या; ब्रह्मलोक, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ इन चार देवलोकों में पद्मलेण्या; शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रारइन चार' देवलोकों में पदम शुक्ल ले गया तथा आनत आदिघोष सब देवलोकों में बस शुक्ललेण्या मानी है। (१०) श्वेताम्बर, दिसम्बर दोनों सम्प्रदायों में तेजस्व वायुकायिफ जीव स्थावर नामकर्म के उदय के कारण स्थावर माने गये हैं, तथापि श्वेताम्बर साहित्य में अपेक्षा विशेष के उनको प्रस भी कहा है। तत्त्वार्थभाव्य दीका आदि में तेजःकायिक, बायकामिक को 'गतिनस' और आचारांगनिथुक्ति और उसकी टीका में ... सन्धि अस' कहा है, लेकिन इन दोनों माम्बों के तात्पर्य में Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेसाम्बर-दिगम्बर कर्मसाहित्य के समान-असमान मम्सम्य १५ कोई अन्तर नहीं है। दोनों का आशय यह है कि लेजस् ६ वायुकायिक में हीन्द्रिय भादि की तरह असनाम कर्मोदय नहीं है, लेकिन गमन किया रूप सक्तिः होने से वसत्व माना है । द्वीन्द्रियादि में उसनाम फर्मोदय व गमन क्रिया रूप धोनों प्रकार का बसत्य है। लेकिन दिगम्बर साहित्य में तेजाकायिक, वायुयायिक जीवों को स्थावर ही कहा है, अपेक्षाविशेष से उनको प्रसनहीं कहा है। (११) पंचसंग्रह (श्री चन्द्रषि महतर रचित) में औदारिकांमध काययोग में कर्मग्रन्थ के समान तिघायु और मनुष्यायु के मन को माना है । (१२) कर्मग्रन्थ में आहारक काम में १३ प्रतियों मा बनध कहा है। लेकिन इस विषय में पंचसंग्रहकार का मत भिन्न है । ये आहारक कायपोग में ५७ प्रकृतियों का बन्ध मानते हैं । __ आशा है उक्त मतभिवताएँ जिज्ञासुओं को तलस्पशी अध्ययन में सहायक बनेगी 1 . ! Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरण आदि अष्ट कर्मों को बंधयोग्य प्रकृतियाँ १२० हैं | · मार्गणाओं में ओध (सामान्य) और गुणस्थानों को अपेक्षा बन्ध-स्वामित्व का वर्णन किया गया है कि सामान्य से किस मार्गणा में कितनी प्रकृतियाँ और गुणस्थान की अपेक्षा कितनी प्रकृतियां बंधयोग्य हैं । माषाओं में बन्ध-विच्छेद बतलाने के लिये निम्नलिखित ५५ प्रकृतियों का अधिक उपयोग हुवा है । उनके नाम क्रमश: निम्न प्रकार हैं १ तीर्थंकर नामकर्म, २८ एकेन्द्रिय २ देवगति ३ देव मानुपूर्वी, ४ वैक्रिय शरीर, ५ वैक्रिय अंगोपांग ६ आहारक शरीर, ७ आहारक अंगोपांग, देवायु, ६ नरकगति : मार्गणाओं में बंध-स्वामित्व प्रदर्शक यंत्र १० नरक आनुपूर्वी, ११ नरक- आयु, १२ सूक्ष्म, १३ अपर्याप्त, १४ साधारण, १५ द्वीन्द्रिय १६ नौन्द्रिय, १७ चतुरिन्द्रिय J १३ स्वायर क २० आसप नामकर्म, २१ नपुंसकवेद, २२ मिथ्यात्व २३ हुंड संस्थान, २४ सेवा संहनन, २५ अनन्तानुबन्धी क्रोध, २६ अनन्वानुबन्धी मान, २७ अनन्तानुबन्धी माया, २८ अनन्तानुबन्धी लोभ, २६ न्यग्रोध-परिमण्डल संस्थान, ३० सादि संस्थान, ३१ वामन संस्थान, ३२ कुब्ज संस्थान, ३३ ऋषभनाराच संहृतम, ३४ नाराचसंहनन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गमाओं में स्वामित्व प्रदर्शक यन्त्र ३५ अर्धनाराच संहनन ४६ उपोत, ३६ मीलिका संहनन ४७ सिगात, এ সপশিগবি, ४८ तिर्यशानुपुर्वी, ३८ नीचकोत्र, ४६ सिबायु, ३६ स्त्रीवेद, ५० मनुष्य-भामु, ४० युग, ५१ मनुष्यमति, ४१ दुःस्वर, १२ मनुष्मानुपूर्वो, ४२ अनादेय, ५३ औदारिक शरीर, ४३ निवा-निद्रा, ५४ औदारिक अंगोपांग, ४४ प्रचला प्रपला, ५५ बऋषभनाराच संहनन । ४५ स्यानदि, अगले यन्त्रों में बन्ध-विच्छेद बतलाने के लिए प्रारम्भिक प्रगति से अन्तिम प्रकृति का नामोल्लेख किया जायेगा जिसका अर्थ यह है कि उस नाम वाली प्रकृति के नाम सहित अंतिम प्रकृति के नाम तक की सभी प्रकाशियों का ग्रहण करना चाहिये। जैसे देवगति से नरकायु तक लिखा होने पर इनमें देवगति, देवानुपूर्वी, क्रियशरीर, क्रिम अंगोपांम, आहारशरीर, आहारक अंमोहेपांग, देवायु, नरकगति, नरक-आनुपूर्वी, नरक आयु (२ से ११) तक की सभी प्रकृतिमों का ग्रहण होगा। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ whmanuali -Decemininewwww पणातला irmirmimoonawrrammarrovernmoviwaroornvergreempaniwwwm wwwrator तुतीय कर्मचन्म : परिसाद नरकगति तथा रत्नप्रभा, शर्कराप्रमा, बासुकाममा नरकाय का बन्ध-स्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य १०१ प्रकृत्तियाँ मुणस्थान....आदि के वार भगति (२) से लेकर आतप नामकर्म (२०) तक की १६ प्रकृतियों से बिहीन१०१ गु०० नम्धयोग्य ! बन्छ. पुनः बन्ध बन्ध-विच्छेद नपुंसक वेद, मिथ्यात्व, हज संस्थान सेवात संहनन ४ सोर्थकर नाम । अनन्ताभुबन्धी क्रोध (२५) से लेकर तिर्यंचायु (६) १ मनुष्यायु ! x x तीर्थकर मसुष्य-आयु अबन्ध.....किसका विवक्षित गुणस्थान में बन्ध नहीं होता, लेकिन अन्य गुपस्थान में बन्ध सम्भव है । पुनःबन्ध—जिसका अन्य गुणस्थान में बन्ध नहीं होता है लेकिन इस गुणस्थान में बंध होता है। Ex-विधयेय —जिसका बन्ध इस गुणस्थान तक ही होता है, आगे के गुणस्थानों में होता ही नहीं है। mers...... Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनामों में स्वामित्व प्रदर्शक यन्त्र सामान्य बन्धयोग्य १०० प्रकृतियाँ गुणस्थान आदि के चार तीर्थंकर नामकर्म ( १ ) से आतप नामकर्म (२०) तक की २० प्रकृतियों से विहीन - १०० पंकप्रभा, धूपमा, तमः प्रभा मरकजय का बन्ध-स्वामि गु०क्र०. बन्ध योग्य १ २ १०० ६६ ७० ७१ अवन्ध X PHWAN |१ मनुष्यायु X पुनः बन्ध X X १ मनुष्यायु ननः LAM बन्ध-विच्छेद नपुंसकवेद, मिध्यात्व, देवार्त संह ४ नरक सामान्यवत् अनन्तान क्रोध (२५) से लेकर तिय चायु (४६) तक: x wwwwwww X wwwwww ०२५ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WIROMoleel199999 9 99णणारएसएसपएशIIMMMMMMMMMMUMIIILIL तृतीय कर्मप्रन्ध : परिशिष्ट महातमःप्रमा मरक का बन्ध-स्वामित्व सामान्य बन्ध्योग्य ६६ प्रतियां गुणस्थान --आदि के चार तीर्थकर नामकर्म (१) से आतप नामकर्म (२०) सथा मनुष्यायु विहीन बन्धयोग्य अबन्ध पुन: बन्छ बन्ध-विच्छेद नपुंसकोंद, मिथ्यात्व, हुंडसंस्थाम, सेवास संहनन तिर्यंचायु-५ । उच्चगोष मनुष्यगास मनुष्यानुपूर्वी अनन्तानु० क्रोध (२५) से लेकर लियंचानुपूर्वी (१८) तक ०.२४ ७० उच्चमोत्र मनुष्यगति मनुष्यानुपूर्वी AM Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माकों में स्वामित्व प्रदर्शक यन्त्र तिगत पर्याप्त सिध का अन्ध-स्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य ११७ प्रकृतियाँ आदि के पि गुणस्थान तीर्थंकर नामकर्म, आहारक शरीर, माहारक अंगोपांग विहीन ११७ गु= क्र० बन्धयोग्य १ wwwwww ११७ १०१ ទុន ७० ६६ अखन्न X x ९ देवामु X X पुनः यन् X X X देवायु X SATA ------------------ बन्ध-विच्छेद १६४: नरकगति ( ६ ) से सेवा संहनन (२४) तक १६ अनन्तानुबन्धी क्रोध (२५) से वज्रऋषभनाराच संहनन (५५) तक ३१ X ान ध, मान, माया, लोभ४ X Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मपन्य : परिशिष्ट अपर्याप्त, तिच, अपर्याप्त मनुष्य का बंध-स्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य १०६ प्रकृतियाँ गुणस्थान प्रथम (मिथ्यात्व) सीर्थकर नामकर्म (१) से नरक-आयु (११) सक की ११ प्रकृतियों से विहीन- १०६ गु०० गयो । अम- पुनः अन् । बन्ध-विश्लेव X IMGAM थपर्याप्त का अर्थ यहाँ सन्धि-अपर्याप्त से है, करण-अपर्याप्त से माहीं । लब्धि-अपर्याप्त अर्थ लेने का कारण यह है कि करण-अपर्याप्त मनु तीर्थकरनामकर्म का बन्ध कर सकता है, लधि अपर्याप्त नहीं । इसीलिये लब्धि-अपर्याप्तता की अपेक्षा तीर्थकरनामकर्म को सामान्य बन्धयोग्य प्रकृतियों में ग्रहण नहीं किया गया है । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागाओं में स्वामित्व प्रदर्शक यन्त्र पर्याप्त मनुष्य तथा मन, वचन होग सहित बारिक फाययोग क -स्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों (बंधाधिकार में बताये गये अनुसार) गुणस्थान - १४ गु०क्र०] बन्धयोग्यं ११७ १०१ ६ε 9 F ६७ ६३ : अबब ३ तीर्थंकर नाम आहारकशरीर आहारक अंगो पांग X १ देवायु X x. X पुनः बन्ध X तीर्थकर नाम, देवायु X वन्ध-विच्छेद नरकगति ( ९ ) से सेवा Har (२४) सक १६ अनन्तानुबन्धी htt (२५) से वऋषभनाराच संहनन (५५) तक ३१ १६७ X " अप्रत्याख्यानावरण कोष, मान, माया, लोभ वन्धाधिकार के समान =४ ६/७ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E १६८ पु०क० बन्धयोग्य ७ ८ १० ev te ११ १२ १३ १४ ५६/५८ “ ५६ २६ २२ * २० ሃፍ १ १७ १ X अवन्ध X XXXXX X X x X पुनः बन्ध २ आहारक शरीर आहारक अंगो पांग X XXXXX X X X तृतीय धर्मग्रन्थ : परिशिष्ट बन्ध-विच्छेद बन्धाधिकार के समान १ auftकार के समान २ /३० /४ " JJ 34 F It Th 15 13 X ph १६ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाओं में अन्ध-स्वामित्व प्रदर्शक यन्त्र १६६ सामान्य अवति, सीधर्म, शान देवलोक, पैकिय काययोग का बन्ध-स्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य १०४ प्रकृतियाँ मुनस्थान-...आदि के भार देवगति (२) से चतुरिन्द्रिय झाति (१७) सक १६ प्रकृतियों से विहीन गुणक | बन्ध योग्य अबन्ध पुनः बन्ध बन्ध-विशेष १०३ तीर्थकरनाम नपुंसक वेद, मिथ्यारक हुँइसंस्थान, सेवात सहनन फेस्ट्रिय, स्थाका. आत्तय अनन्ता क्रोध (२५) से लियाषु (४९) तक x ७०१ मनुष्यायु An ঘোষ, मनुष्यायु Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRANCExeyma.mntAIArmymamanimomsony १७० .. तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट सनत्कुमार से सहस्रार पर्यन्त देवलोकों का बन्ध-स्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य १०१ प्रकृतियाँ गुणस्थान आदि के बार देवगति (२) से लेकर आतप नामकर्म (२०) तक की १६ प्रकृतियों से विहीन १०१ सु०० बन्ध योग्य । अबन्ध पुन: बन्ध बन्ध-विच्छेद नपुंसक वेद, मिथ्याद, इंश संस्थान, सेवार्स संहनन सीर्थकरनाम अनन्तानुबन्धी क्रोध (२५) से लेकर तिमंचायु (४९) ४२५ मनुष्याथु तीर्थकरनाम मनुष्यायु MARA Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाओं में स्वामित्व प्रवर्शक यंत्र भामर से अस्पत पर्यन्त तथा नवप्रवेषक क्लोकों का स्वामित्व सामान्य बन्नयोग्य ६७ प्रकृसिया मुणस्पान आदि के चार देवगति (२) से आतप नामकर्म (२०) तक की १६ तथा उखोत, तिर्यक___ गति, नियंचानुपूर्वी, सियंचायु ये चार- कुल २३ प्रकृतियों से विहींग -१७ मक बन्ध योग्य ! अबन्ध पुनः बन्ध बन्ध विच्छेद तीर्थकरनाम नपुसक वेद; मिथ्याख, हुँइसंस्थान, सेवाःसंहनन ४ । अनन्सानु० कोष (२५) से स्त्यानदि (४५) तक-२१ मनुष्यायु wriHARom तीर्थकरनाम ...... | मनुष्यायु अनुसर से सर्वार्थसिद्धि तक देवलोकों का बन्धस्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य ७२ प्रालियों मुणस्थान-एक (अविरत) PAWP Po०| बन्ध योग्य | अबन्ध नः बन्ध बन्ध-विच्छेद सीकर, मनुष्यामु wasur Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सामान्य बन्धयोग्य १०३ प्रकृतियाँ गुणस्थान आदि के बार तीर्थंकर नामकर्म ( १ ) से चतुरिन्द्रिय जाति (१७) तक १७ प्रकृतियों से विहीन १०३ गु०क० ] बन्ध योग्य १ ૐ ど water, व्यस्तर और ज्योतिषी देवों का स्वाfre १०३ १ है ६ 10 ७१ अबन्ध मनुष्यायु X सामान्य अन्धयोग्य १०५ प्रकृतियाँ 올액 पुनः बन्ध अबन्ध X X X १ मनुष्यायु तृतीय कire: परिशिष्ट तेकाय, वायुकाय (गति) का स्थानि पुनः बन्ध Xx LEVET MANA बन्ध-विच्छेद ayer वेद, मिथ्यात्व, इंट संतन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप तीर्थकर नामक ( १ ) से नरकाधु ( ११ ) तक ११ तथा मनुष्यमति मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, उप गोत्र ये चार कुल १५ प्रकृतियों से विहीन १०५. गु०क्र० बन्ध योग्य अनन्ता० क्रोध (२५) से तिर्यचाधु (४६) तक २५ X गुणस्थान -- एक (मिध्यात्व) LITTED अन्ध-विच्छेद X Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMMला लालालाmsomamiverseoniRIANATATAAI मागंणाओं में स्वामिस्त्र प्रदर्शक यंत्र १७३ एकेन्द्रिय, विकले ग्रिप (द्वीम्बिय, नौन्त्रिप, चतुरिन्द्रिय) वचनयोग, काययोग, पृथ्वी, जल तथा वनस्पलिकाय का बन्धस्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य १०६ प्रकाशित सुष ... हो तीर्थंकर लामफर्म (१) से मरकायु (११) तक की ११ प्रकृतियों से विहीन गुसका बन्ध योग्य प्रबन्ध ! पुनः बन्ध अन्ध-विषयेव x सूक्ष्म (१२) से लेकर मेवात संहान (२४) सक-१३ २ १ किन्हीं-किन्हीं आचार्यो का मन्तव्य है कि दूसरे गुणस्थान में एकेन्द्रिय आदि जीन मनुष्यबायु और सियचा का भी बन्ध नहीं करते हैं अस: १४ प्रकृतियों का बन्ध दूसरे गुणस्थान में मानना चाहिये । अतः मिध्यात्व गुणस्थान की विच्छिन प्रकृतियों में दो प्रकृतियों को और मिलाने पर १५ प्रकृतियाँ होती । उनको कम करने पर ६४ प्रकृतियाँ दूसरे मुणस्थान में बम्बयोग्य रहती हैं। मो० कामकोड में दूसरे गुणस्थान की अधयोग्य प्रकृतियो १४ ही मानी हैं । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ www. गु०० बन्ध योग्य ४ सामान्य बन्धयोग्य १२४ आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, देवायु, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नर कायु विहीन ११४ १०६ ૪ ७५ SLUMPADEGRASSMEMÓ १ औदारिकमिष काययोग का स्वामित्व अबन्ध 裴 तीर्थंकर नाम देवकि विकिि X गुणस्पाम १, २, ४, १३ (वार गुणस्थान) पुनः MTTV तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट X ५. तीर्थंकर नाम देवत्रिक वैि X बन्ध विद सूक्ष्मनाम ( १२ ) से सेवाल सन (२४) तक १३, तथा मनुष्यायु विचायु १५ १३ i विशेष- जिज्ञासु मे यहाँ शंका की हैं कि दारिक मिश्र काययोग तिच और मनुष्य को होता है और तियंत्र व मनुष्यगति के बन्धस्वामित्व में चौथे गुणस्थान में क्रमशः ७० और ७१ प्रकृतियों का बन्ध कहा है और यहाँ औदारिकमिश्र काययोग मे ७५ प्रकृतियों का । इन ७५ प्रकृतियों में मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और वऋषभारात्र संहनन का समावेश है। इनका तियंचगति और मनुष्यगति के चौथे गुणस्थान की बन्धयोग्य प्रकृक्तियों में समावेश नहीं होता है अतः ७५ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व मानना युक्ति-पुरस्सर नहीं है । अनन्तान • क्रोध (२५) से तिर्यचानुपूर्वी (४८) तक = २४ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गमाओं में निमित्व समय: गोम्टसार कर्मकांड में भी चौथे गुणस्थान में ७०,७१ प्रकृत्तियाँ बंधयोग्य मानी हैं। ___ इसका समाधान यह है कि गाथा १५ में अस्गत 'अनजदीसाई' पद का अर्थ सिर्फ अनन्नानुनन्धीचतुष्क आदि चौबीस प्रकृतियां न करके 'आई' शब्द से मनुष्यतिका आदि पनि प्रकृतियों को ग्रहद कर लिया जाये तो शंका को कोई स्थान नहीं रहता है । उस स्थिति में ७० और ७१ प्रकृतियों को पाय गुणस्थान में बन्धयोग्य माना जा सकता है। इस प्रकार का समाधान कर लेने पर भी कर्मग्रन्थ में ७५ प्रकृतियों के बन्ध को मानने का कारण क्या है, यह जिज्ञासा जनी रहती है। अतः विचारणीय है । औदारिफमिन काययोग में सिद्धान्त के मतानुसार पांचवो, छठा यह दो गुणस्थान माने जाते हैं । इस सम्बन्ध में सिक्षान्त का अभिप्राय यह है कि जैसे औदारिक कापयोग की शरीरपर्याप्त पूर्ण नहीं होने के समय तक कार्मणकाययोग के साथ मिथता होने से औदारिक काययोग को ओवारिफ मिथकाययोग कहा जाता है, वैसे ही लश्चितन्य वक्रिय ओर आहारक शरीर का इनके प्रारम्भ काल में ओदारिया शरीर के साथ मिश्रण होने के समय अद तक बैंक्रिय या आहारक शरीर में शरीरप्ति पूर्ण न हो तब तक के लिये औदारिक मिश्रकाययोग माना जाना चाहिए । सिवान्त का जन्त दृष्टिकोण ग्राह्य है और उस दृष्टि से औदारिकमिश्र काययोग में पांचों, छठा गुणस्थान माने जा सकते हैं । लेकिन कर्मग्रन्थों में लब्धिअभ्य शरीर को प्रधानता न मानकर बैंक्रिय और आहारक शरीर को औदारिकमिश्र काययोग नहीं माना है। सिर्फ कार्मण और औदारिक पारीर दोनों के सहयोग से होने वाले योग को औदारिकमिश्र काययोग काहना चाहिए और यह योग पहले, दूसरे, चौपे तथा सेरहवें गुणस्थान में पाया जाता है। इसलिये इन चार गुणस्थानों में बन्धस्वामित्व का कथन किया है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रम्प : परिशिष्ट कार्मग काययोग व अनाहारक मा अन्धस्वाभिस्य सामान्म बन्धयोग्य ११२ गुणस्थान--१, २, ४, १३ (चार गुणस्थान) आहारकद्धिक, देवायु, नरकत्रिक, मनुष्यायु, तियंचायु कुल ८ प्रकृतियों से विहीन- ११२ गु०० बन्न योग्य पुन बध अन्ध-विच्छेद सूक्ष्मनाम (१२) से सेवात संहनन (२४) सकाळ १३ तीर्थकरनाम देवतिक क्रियट्रिक अनन्ना क्रोध (२५) से सिर्वधानपूर्वी (४८) तक २४ | तीर्थकरनाम • देवादिक बैंक्रियाद्विक IA - - - - विशेष- पधपि अनाहारक मार्गणा १, ३, ४, १३ और १४ इन पात्र गुणस्थानों में पाई जाती है, और बन्धस्वामित्व कार्मण कामयोग के समान १, २, ४ ओर १३ इन चार गुणस्थानों का बतलाया है तो इसका कारण यह है कि चौदहवें गुणस्थान में कर्मबन्ध के कारणों का सर्वथा अभाव हो जाने से किसी भी कर्म का बन्ध नहीं होता है और शेष गुणस्थानों में मिथ्यास्वादि बन्धकारण अपनी-अपनी भूमिका तक रहते हैं । अतः फार्मण काय. योग जैसा अनाहारक मार्गणा का चार गुणस्थानों में बन्धस्वामित्व बतलाया है। ....... Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मार्गेणाओं में मन्धस्वामित्व प्रदर्शक यन्त्र १७७ अनाहारक के दो अर्थ हैं १ - कर्मबन्ध के कारणों का पूर्णरूप से निरोध हो जाने से कर्मों का सर्वथा आहार-बहण न करना । यह अवस्था चौह अयोगिकेवली गुणस्थान में प्राप्त होती है, इसीलिये चौदहवाँ गुणस्थान अताहारक मार्गणा में माना जाता है। २ जिस स्थिति में सिर्फ फार्म काययोग की पुगलवर्गणा का ग्रहण होता हो उसे अनाहारक अवस्था कहते हैं। इस दृष्टि से संसारी जीव अब एक शरीर को छोड़कर भवान्तर- प्राप्ति लिये विग्रहगति द्वारा गमन करता है। उस स्थिति में कार्मण योग साथ रहता है, अन्य औवारिक काय आदि को प्राथ वर्मणायें नहीं रहती हैं। इन पास में स्थित जीवों के सिर्फ पहला दूसरा और चौथा यह तीन गुणस्थान होते हैं । T योगी सेवा गुणस्थान ) अनाहारक मार्गणा में इसलिये ग्रहण किया गया है कि आयु कर्म के परमाणुओं से अन्य कर्मों की स्थिति अधिक हो तो उनको आयुकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिये सात क्रिया करते हैं। इस समुद्धात स्थिति में सिर्फ कार्मण योग रहता है और afte स्थिति वाले कमों को वो द्वारा कर्म की स्थिति के बराबर कर लिया जाता है। यह सात सयोगकेवली द्वारा होता है, इसीलिये तेरहवाँ गुणस्थान अनाहारक मार्गणा में Her गया और वह सिर्फ सावा नीय कर्म का बध होता है । ... ... ... Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट आहारक एवं आहारकमिव काययोग का बन्ध-स्वामित्व कर्मग्रन्थ के मतानुसार आहारक और आहारकमिश्र काययोग का बन्ध स्वामित्व सामान्य से और गुणस्थान की अपेक्षा बन्धाधिकार में बताये गये छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान के जैसा ६३ प्रकृतियों का है और गुणस्थान छठा बतलाया है । लेकिन पंचसंग्रह सप्ततिका का मत है कि आहारक काययोग में छठा और सातवां यह दो गुणस्थान हैं तथा बहारकमिश्र काययोग में सिर्फ छठा गुणस्थान है। तव आहारक काययोग का बन्ध गुणस्थान में ६३ व सातवें गुणस्थान में ५७ और देवायु का बन्ध न हो तो ६६ प्रकृतियों का माना जाना चाहिए । उक्त मन्तव्य का आधार यह है कि आहारक शरीर का बन्धयोग्य गुण स्थान सातवां है और उदयोग्य छठा । जब चौदह पूर्वधारी आहारक शरीर करता है, उस समय लब्धि का उपयोग करने से प्रमादयुक्त होने से छटा गुथस्थान होता है और आहारक शरीर का प्रारम्भ करते समय वह बोदारिक के साथ मिश्र होता है, यानी आहारक और आहारकमिश्र काययोग में छठा गुणस्थान होता है किन्तु बाद में विशुद्धि की शक्ति से सातवें गुणस्थान में आला है तब आहारक योग ही रहता है और गुणस्थान सातवाँ । इस efsc से आहारक काययोग में छठा और सातवाँ तथा आहारकमिश्र काययोग में छा गुणस्थान माना जाना चाहिये और सब आहारक काययोग में ६३ और १७ तथा आहारकमिश्र काययोग में ६३ प्रकृतियाँ योग्य होंगी । गोम्मटसर कर्मकांड में बहारक काययोग में ६३ प्रकृतियाँ और आहा cafer काययोग में देवायु का बन्धन मानने से ६२ प्रकुतियाँ बन्धयोग्य मानी हैं। देवासु के बन्धन मानने का कारण यह नियम है कि मिश्र अवस्था में आयु का बन्ध नहीं होता है । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाओं में स्वामित्व प्रदर्शक पत्र सामान्य बन्धयोग्य १०२ प्रकृतियां गुणस्थान - १, २, ४ (कुल तीन ) सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, डीन्द्रिय, जीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नरकत्रिक, देवत्रिक, वैश्यद्विक, आहारक डिक, तिचा २०१ J गु०क० ] बन्ध योग्य io १ ३ १०१ £6 7 ७१ affer काययोग का बन्ध-स्वामित्व ! अबन्ध १ तीर्थंकर नाम पुनः बन्ध X १ तीर्थंकर म P बन्ध-विच्छे १७६ मिया, इंडसंस्थान, एकेत्रिय, स्थावर, आय, नपुंसकवेद, सेवा संहनन ७ = बन्धाधिकार में बताई गई २५ प्रकृतियों में से तियंचा को छोड़कर २४ प्रकृतिय www विशेष यद्यपि सन्धिजन्य क्रियशरीर की अपेक्षा क्रिय और वैश्यमि काययोग में पांच और छटा गुणस्थान होना भी सम्भव है, लेकिन क्रिय काययोग में एक से चार और वैश्विमिश्र काययोग में १, २, ४, गुणस्थान मानने का कारण यह है कि यहाँ स्वाभाविक भवप्रस्थय वैक्रिय शरीर की कक्षा की गई है । इसीलिये किय काययोग में चार और क्रियमिट काययोग में १, २, यह तीन गुणस्थान माने हैं । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ५ सामान्य बन्धयोग्य १२० गुणस्थान ---- १४ गुणस्थान ज्ञानावरण आदि अष्टकमों की बन्धाधिकार में बताई गई १२० प्रकृतियाँ मु०० बन्धयोग्य * २ ११७ १०१ ७४ ७७ ६ ६३ परिय, काय, भव्य, संशो का अस्वामित्व r r ३ तीर्थंकर आहा शरीर आहा ०बंगो० AF बन्छ देव व मनुष्य आयु ====== \\_/\_\\www.co X * X ! पुनः बन्ध तीर्थंकर नाम, येव मनुष्यायु तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट X बन्ध-विच्छेद ४ बन्धाधिकार के अनुसार १६ ratfधकार के अनुसार २५ वाधिकार के अनुसार बन्धाधिकार के समान | बन्धाधिकार के समान ! ६/७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाओं में बन्धस्वामित्व प्रदर्शक यंत्र गुलक बन्ध योग्य अबन्ध पुनः बन्ध अन्ध-विकछेद बनधाधिकार के अनुसार १ आहारक शरीर थाहारक अंगो बन्धाधिकार के अनुसार २ बन्धाधिकार के अनुसार ३७ बन्नाधिकार के अनुसार ४ बन्धाधिकार के अनुसार हैं xxxxx x धन्धाधिकार के अनुसार १६ xx x x x xxxxx x x बधाधिकार के अनुसार है x x Anirwanam Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ emy.mararyaT722072711000rprernaw wwMMRODURATARI A ng त्सीय कमनग्य : परिशिष्ट १ वेदमागंणा तथा कयायमार्गणा के सामान्य भेदी ... कोध, मान, माया और लोभ---में से श्रोध, मान, माया इन तीन भेदों में बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० हैं तथा पहले मिथ्याष से नौ अनिवृतिकरण तक नो गुण स्थान होते हैं। उनमें ऊपर कहे गये मन्त्र के अनुसार प्रत्येक गुणस्थाम * কাশি যক্ষা । २ कषायमार्गणा के चौथे सामान्य भेद लोभ में बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ हैं और गुणस्थान मिघ्यास्त्र से सूक्ष्मसंपरायपर्यन्त दस होते हैं । इनका बंधस्वामित्व पर कहें गये अनुसार जानना । अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) प्रारम्भ के दो गुणस्थानों में पाई जाती है। इसमें तीर्थङ्कर एवं आहारकद्विक का बन्ध सम्भव नहीं है। क्योंकि लायक प्रकृति का संन्यास है और आहारकाद्विक का बन्ध संघमसापेक्ष । किन्तु अनन्तानुबन्धी कषाय में न सम्यक्त्व है और न चारिख । असः तीन प्रकृतियों को कम करने पर सामान्य से ११७ और गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान पहले से ११७ और दूसरे में १०१ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं। अप्रत्यायामाबरण कषायचतुष्क का उदय मादि के धार गृणास्थान पर्यन्त रहता है अतः इसमें चार गुणस्थान माने जाते हैं । इस कषाय के रहते हुए भी सम्यकाव होने से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हो सकता है किन्तु सर्वविरत चारित्र न होने से आहारकटिक का बन्ध नहीं होता । अतः बाहार द्विक के बन्धयोग्य न होने से सामान्य से ११८ प्रकृतियाँ तथा गुणस्थानों में इन्वाधिकार के समान आदि के चार गृण स्थानों में क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं। प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क में एकदेश चारिष होमे से आवि के पांच गुणस्थान होते हैं । तीर्थङ्कर प्रकृति बन्ध योग्य है लेकिन आहारकद्विक का बन्ध सम्भव नहीं है । अतः सामान्य से ११८ प्रकृलियाँ तथा गुणस्थानों में एक से लेकर पांचवें तक क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७, ६७ प्रकृतियां बन्धयोग्य हैं। ५ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाओं में यंत्र ६ संज्वलन कषायचतुष्क में से क्रोध, मान, माया का उदय मिथ्यात्व से अनिवृति गुणस्थानपर्यन्त मी गुणस्थानों में होता है, तथा लोभ का उदय दसवें सूक्ष्मसंगराय गुणस्थान तक / अतः सामान्य मे बन्ध योग्य प्रकृतियाँ १२० है तथा गुणस्थानों की अपेक्षा सम्बलन क्रोध, मान और माया का स्वामित्व बन्धाधिकार के समान पहले से लेकर नौ गुणस्थानों में ऋप ११.५. १०१ आदि मent चाहिये। संचलन लोभ दसवें गुणस्थान तक रहता है अतः नौ गुणस्थान तक तो कोष, मान और माया के बन्ध जैसा और दसवें गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का मत्व है। in 5 १८३ & ज्ञानमार्ग के भेद अज्ञानत्रिक (मति अज्ञान, श्रुताज्ञान, अवधि- अज्ञानविभंगज्ञान) में आदि के दो या तीन गुणास्थान होते हैं। इसमें सम्यक्त्व चारित्र नहीं होने से तीर्थंकर और आहारद्वि इन तीन प्रकृतियों के बन्धयोग्य नहीं होने से सामान्य बन्धयोग्य ११५ प्रकृतियाँ हैं और तीनों गुणस्थानों में बन्धाधिकार के सम्मान क्रमश ११० १०१.७४ प्रति बन्धयोग्य हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा अवधिदर्शन इन चार मार्गणाओं में चौथे अविरत से लेकर बारहवें श्रीषमोहपर्यन्त नौ गुणस्थान होते है । इनमें आहारकद्रिक का बन्ध संभव है, अत: सामान्य से वे गुणस्थान की बन्यो ७.५ एकृतियों के साथ आहार को मिलाने से ७६ प्रकृतियाँ हैं, तथा गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान क्रमशः ७७६७ आदि बारहवें स्थान तक समझना चाहिये । मनःपर्यायज्ञान छठे प्रमभमंयत से लेकर बारहवें क्षीणमोहपत होता | अतः इसमें सात गुणस्थान में तथा आहारकट्टिक का बन्ध संभव होने से ६३ २ ६४ प्रकृतिय सामान्य बन्प्रयोग्य हैं और गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान छह से बारह तक का बन्धस्वामित्व जानना । १० केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दो मार्गणाओं में अन्तिम दो गुणस्थानसयोगिकेवली अयोगिकेवली होते हैं। अयोगिकेवली गुणस्थान में तो बन्ध-कारण का अभाव होने से किसी भी प्रकृति का बन्ध नहीं होता है dily STATE Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ तृतीय कर्मग्रत्य परिशिष्ट afer रहवें योगिली गुणस्थान में सिर्फ एक प्रकृति -- सातावेदनीय का बन्ध होता है । ११ दर्शनमार्गेणा के क्षेत्र क्षुदर्शन और अदर्शन क्षायोपशमिक भाव होने से पहले से लेकर बारहवे गुणस्थान तक रहते हैं अतः इनका स्वामित्व सामान्य से और गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान है। अर्थात् सामान्य बन्यो १२० और गुणस्थानों में क्रमश: ११७, १०१, ७४, ७७ आदि बारहवे गुणस्थान तक सामाहिये । १२ संयममार्गणा के भेद अविरति में आदि के चार गुणस्थान होते हैं । चौबे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने से तीर्थंकरनाम का बन्ध हो सकता है feng afta न होने से चारिवसापेक्ष आहारकद्रिक का बन्ध न होने से ११८ प्रकृतियों सामान्य बन्धयोग्य हैं और गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान पहले से चौथे तक क्रमशः ११७ १०१ ७४, ७७ प्रकृतियों का है | १३ सामायिक, छेदोपस्थानीय ये दो संयम छटे से नौवें गुणस्थानपर्यन्त वार गुणस्थान में पाये जाते हैं । इनमें आहारकद्विकका अन्य सम्भव है | अतः छठे गुणस्थान की बन्धयोग्य ६३ प्रकृतियों के साथ आहारद्रिक को (६३ + २) जोड़ने से सामान्य से ६५ प्रकृतियां बन्धयोग्य हैं और सातवें, आठवें, नौवें गुणस्थान में क्रमशः ६२ / ५६/५८/५८ / ५६/२६. २२/२१/२०/१६/१८ का बन्धस्वामित्व समझना चाहिये । १४ परिहारविवृद्धि संयम में छठा और साय यह दो संम में आहारकवि का उदय नहीं होता है, किन्तु संभव है । गुणस्थान हैं इस व्रतः योग्य ६५ प्रकृतियाँ हैं और गुणस्थानों में क्रमशः ६३, ५६/५८ Tarfect समझना १५ सूक्ष्मसंपराय संयम में अपने नाम वाला सूक्ष्मसंयराय नामक दसव गुणस्थान एवं देश विरत संयम में अपने नाम वाला देशविरत नामक feat गुणस्थान होता है। इन दोनों का बवस्वामित्व सामान्य और गुणस्थान की अपेक्षा अपने गुणस्थान में बन्धयोग्य प्रकृतियों का है अर्थात् सूक्ष्मपराय में १७ और शक्ति में ६७ प्रकृतियाँ बन्धयोग हैं। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THANKलाcom मागंणाओं में बन्यस्यामिस्त्र प्रदर्शक यंत्र १६ यथाज्यातचारित्र में अन्तिम चार (उपशामतमोह, क्षीणमोह, पयोगि केवली, अयोगिकेवली) गुणस्थान हैं। इन चार गुणस्थानों में से अयोगि:केवली गुमस्थान में बन्ध-कारण का अभाव होने से किसी प्रकृति का बन्छ नहीं होता है किन्तु शेष तीन गुणस्थानों में बाधिकार के अनुसार सामान्य व विष एक प्रकृति साता वेदनीय --का बन्न होता है । १७ उपशम सम्यकद्र चौधे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है । इस सम्यक्त्व की यह विशेषता है कि आयुबन्ध नहीं होता है । चौथे गुणस्थान में मनुष्यायु और देवाथु का सथा पांचवें मावि में देवायु का बन्ध नहीं होने से चौथे गुणस्थान की बन्धयोग्य ७७ प्रकलियों में से उक्त दो वायु को कम करने से सामान्य की अपेक्षा ७५ पकुतियां बन्धयोग्य है। अत: पांच से सात मुणस्थान सक बन्धाधिकार में बताई गई बन्धसंस्था में से एकनाक प्रकृति को कम करने पर क्रमशः ६६, ६२.५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है । इसके बाद आठवें से गारहवें गृणस्थान तक दधाधिकार के अनुसार बन्धस्वामित्व है। १८ वेदक (सायोपमिक) में आप अपूर्वकरण गुणस्थान से उपशम या क्षपक श्रेणी का क्रम प्रारम्भ हो जाने से चौथे अविरति से लेकर सातमें अप्रमशः विरत गुणस्थान तक बार गुणस्थान होते हैं । इसमें आहारकतिक का बन्ध सम्भव है, अतः चौथे गुणस्थान को बन्धप्ररेग्य ७७ प्रकृतियों के साथ बाहारकविक को जोड़ने से ७६ प्रतियई मामान्य को बन्धकोप हैं और मजस्थानों में बन्धस्वामित्व बन्धाधिकार में बताये गये अनुसार क्रमशः ७७ ६७, ६३, ५६।५८ प्रकृतियों का है । १६ दर्शनमोह के क्षय से अन्य भाषिक सम्यकस्व में चौथे से चौदह तक ग्यारह गुणस्पान होते हैं। इसमें आहारफारिक का बन्ध सम्भव होने से सामान्यरूप में बन्धस्वामित्व ७९ प्रजातियों का है और स्थानों की अपेक्षा बन्धाधिकार में गुण स्थानों के क्रम में क्रमश: ७७, ६७, ६३. ५६:५४ आदि से १ प्रकृति पर्यन्त तेरहवें स्थापिथेकली गुणस्थान पर्यन्स mamariaww Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -remniwwwwwcommommmmmmmer c e तृतीय कर्मग्रन्य परिशिष्ट बन्ध समसना वाहिये । चौदहवां अयोगिकेवनी गुणस्थान बन्ध-कारण न होने से अबाधक है। २० मिथ्यात्य, सामवादन और मिश्रष्टि ये सीम भी सम्यक्त्व मार्गणा के अवान्तर भेद हैं। इनमें अपने अपने नाम वाला क्रमश: पहला, दूसरा, सीसरा, एक-एक गणस्थान होता है। तीर्थकरनाम और आहारकाद्विक----आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग-इन तीन प्रकातियों के बन्धयोग्य न होने से मिथ्यात्व में ११७, सासाधन में १.१ और मिश्रदृष्टि में ७४ प्रकृतियाँ सामान्य से बन्धयोग्य हैं। २१ अभव्य जीवों के सिर्फ पहला मिथ्यात्व गुण स्थान होता है । मिध्याव के कारण सम्यक्त्व और पारित्र की प्राप्ति में होने से तीर्थङ्कर और आहारकद्विक का बन्ध सम्भव नहीं है । इसलिये सामान्य और गुणस्थान की अपेक्षा ११७ प्रकृतियाँ अन्धयोग्य हैं। २२ असंशी जोवों के पहला और दूसरा यह दो गुणस्थान होते हैं। इनके सामान्य से और पहले गुणस्थान में तीर्थकर और आहारकटिक का बन्ध नहीं होने से ११७ प्रकतियों का तथा दुसरे गणस्थान में बन्धाधिकार के कथनानुसार १०१ प्रकृतियों का खन्ध होता है। २३ आहारक मार्गणा में सभी मनोवृत संसारी जीवों का ग्रहण होने से पहले मिथ्यात्व से लेकर तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान तक तेरह मुणस्थान है। इसका नन्धस्वामित्व सामान्म से और गुणस्थानों की अपेक्षा प्रत्येक में पधाधिकार के कथनानुसार जानना चाहिये । अर्थात् सामान्य बन्नयोग्य १२० प्रकृतियाँ हैं और गुणस्थानों में ११७, १०१, ७४, ७७, ६७ आदि का कम सयोगिकेवली तक का समझना चाहिए। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमाओं में शामित्व प्रदर्शक यंत्र १७ कृष्ण, भील, कापोत लेण्याओं का अन्धस्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य ११५ प्रकृतियाँ गुणस्थान---आदि के मार बन्धाधिकार में कही गई १२० प्रकृलियों में आहारकद्विक से विहीन गु•| बन्ध योग्य प्रबन्ध पुनः बन्ध बन्ध-विच्छेद | बन्धाधिकार के समान १६ तीर्थकरनाम कर्म बन्धाधिकार के समान २५ ७४ मनुष्यायु । तीर्थकर नाम, देव व मनुष्याधु - - - -- कृष्णादि सीन लेश्याओं में आहारकादिक का इन्ध न मानने का कारण यह है कि इनका बन्ध सातवें गुणस्थान में ही होता है और कृष्णादि तीन लेग्यह वाले अधिक से अधिक छटे गुणस्थान सक पाये जा सकते हैं । इसीलिए इन लेश्याओं के सामान्य से ११८ प्रकृतियों का बन्धस्वामिरद माना है। कर्मग्रन्थों में कृष्णादि तीन लेश्याओं के पौधे गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बाद कहा है और इनमें मनुष्यायु के देवायु का समावेश है । लेकिन सिद्धान्त का मत है कि कृष्णादि सीन लेश्याओं के सौषे मुणस्थान में जो Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्ध : परिशिष्ट मनुष्याय और देवाय ना बन्ध कहा है, बह! सिर्फ मनुष्यायु को बांधते हैं परन्तु देवायु को नहीं बांधते हैं । अतः ७७ की बजाय ७६ प्रकृतियों का बन्छ मानना माहिए। सिद्धान्त के उक्त मत का समाधान कर्मग्रन्थ में कहीं नहीं किया गया है और बहुश्रुतगम्य कहकर छोड़ दिया है। लेकिन विधारणीय अवश्य हे और जब तक इसका समाधान नहीं होसा तब तक यह मानना पड़ेगा कि कृष्णादि तीन लेण्या वाले सम्यग्दृष्टि के जो प्रकृतिबन्ध में देवायु की गणना है वह कर्मग्रन्थ सम्बन्धी मत है, संडासिक मल नहीं है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागणाओं में स्वामित्व प्रदर्शक यात्र लेखोलेश्या का बन्धस्वामिस्थ सामान्य बन्धयोग्य १११ प्रकृतियाँ गुणास्थान-- आदि के सात मरकनयक-नरकगति, नरकानुपूर्वी, मरकाधु, सक्षम, साधारण, अपर्याप्स, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय विहान १११ गुरुक बन्ध योग्य अबन्ध पुनः बन्ध । बन्ध-विच्छेद तीर्थकरनाम, आहार द्विक मिथ्यात्म,ढुंबसंस्थान, नपुंसक वेद, सेवा संह०, एकेन्द्रिय, : स्थायर, आसप बच्चाधिकार के समान ये व मनुष्य आयु अन्धाशिकार के समान १० सार्थकरनाम, देव व मनुष्यायु: बधाधिकार के समान ४ बन्धाधिकार के समान ५६५८ आहारकादिक mami Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशित पदमलेश्या में आदि के ७ गुणस्थान होते हैं, लेकिन इसके सामान्य बन्धस्वामित्व में यह विशेषता है कि तेजोलेश्या के नरकनदक के साथ एकेन्द्रिय त्रिक-एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप का भी बन्ध नहीं होने से सामान्यबन्ध १०८ प्रकृतियों का है और पहले गुणस्थान में तीर्थ करनाम और आहारकद्विक यह तीन प्रकृतियां अबन्ध होने से १०५ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं । उनमें से मिथ्यात्व, हुद्र संस्थान, नपुसकवेद, सेवार्त संहनन इन चार प्रकृतियों का बन्धविच्छेद होने पर दूसरे गुणस्थान की बन्धयोग्य १०१ प्रतातियां होती हैं । तीसरे से लेकर सात गुणस्थान तक का Tru बन्धाधिकार के समान समझना पाहिये। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गाओं में बन्धस्वामित्व प्रदर्शक यन्त्र सुक्ला का सामान्य बन्धयोग्य १०४ प्रकृतियाँ उद्योत चतुष्क उद्योतनाम, तियंचगति, tearer freeा में बतलाई गई ) विहोन १०४ गु०क० ] बन्ध योग्य १ ८ १०१ ७ ७४ ७.३ €iy ६३ ५६५ ५. ८ अबन्ध तीर्थंकर नाम, आहारकद्विक * देव व मनुष्या X x X स्वामित्व गुणस्थान पहले से तिचानुपूर्वी तिचायु तथा पुनः बन्ध X तीर्थकर नाम, देव व मनुष्यायु LALLAVYYYY x x आहारकविक X X X SITES 4327 संस्थान, नपुंसक, मिध्यात्व सेवा संहनन ४ -विच्छेद बन्धाधिकार की २५ तियों में से उद्योतक न्यून -- : २१ कार के समान १० ८ fuकार के समान ४ बन्धाधिकार के समान ६३७ Tarfer के समान १ बन्धाधिकार के समान २ धिकार के समान ३० ४ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ तृतीय कर्मग्रम्म : परिशिष्ट मक बन्ध योग्य | अबन्ध पुनः बन्ध बन्ध-विच्छेद अन्धाधिकार के समान १ xxxxxx Xxx x x x xxxxx x wesomeowww wIMP मार्गणाओं में बन्धस्वामित्व का वर्णन समास "inditin ARRRRRRRRRISH NA Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mo50000000condwanawalawww. di v yWIMMINMAL 0 ww. poraryayorpawayyyyayariyanmasns.orrarare.......... जैन-कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय भारतीय तत्त्वचितन की मुख्य तीन शाखाएं हैं-(१) वैदिक, (२) बौद्ध और (३) जैन । इन तीनों शाखाओं के बार मास में कर्मवाद के सम्बन्ध में विचार किया गया है। वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में किया गया कर्म-सम्बन्धी किनार इसना अल्प है कि उनमें सिर्फ कर्म-विषयक विचार करने वाले कोई अलग ग्रन्थ नहीं है; यत्र-सन प्रासंगिक रूप में किचित विचार वय किया गया है। लेकिन इसके विपरीत अन बाझमय में में सम्बन्धी अनेक ग्रन्ध उपलध होते हैं. जिनमें कर्मवाद का क्रमबद्ध, विकासोन्मुखी, पूर्वापर श्रृंखला बस एवं सुशवस्थित अतिव्यापक रूप में विवेचम्म किया गया है । जन-सालबद्ध में कर्म-सम्पनी साहित्य का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है ओ कम प्रकृत अपया कमअन्य के रूप में प्रसिद्ध है। स्वतन्त्र कर्मग्रन्थों के अतिरिक्त आराम. तथा उत्तरप्रती आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों में यत्र-तत्र कर्मविषयक जाएं देखने को मिलती हैं। कर्मसाहित्य का मूल आधार जैन धाङमय में इस समय ओ भी कर्मशास्त्र का संकलन किया गया है, उसमें से प्राचीन माने जाने वाले कर्मविषयक ग्रन्थों का साक्षा सम्बन्ध श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही जैन परम्पराएं अग्रायणीय पूर्व से बतलाती है और अंग्रायणीय पूर्व को दृष्टिवाद मामक बारहवें अंग के अन्तर्गत चौदह पूर्षों में से दूसरा पूर्व कहती हैं। दोनों ही परम्पराएँ समान रूप से मानती हैं कि बारह अंग और चौदह पूर्व भगवान महावीर की विपद वाणी का साक्षात फल हैं । अलि वर्तमान में विद्धमान समय कर्मशास्त्र मन्दप से नहीं तो भावरूपं से भगवान महावीर के साक्षात् उपदेश का ही परम्परा में प्राप्त सार है । इसी प्रकार से एक दूसरी मान्यता भी है कि वस्तुतः समस्त अंगविद्यायें भावरूप से केवल भगवान महावीरकालीन ही नहीं, बल्कि पूर्व-पूर्व में हुए अन्य तीर्थङ्करों से भी पूर्वकाल की हैं, अतएव अनादि हैं, किन्तु प्रवाह Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IITUTIO NS . १९४ तृतीय कर्मप्रन्य : परिशिष्ट रूप से आनादि होने पर भी समय-समय पर होने वाले तीर्थरों धारा के अंगविद्याएँ नवीन रूप धारण करती रहती हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए ... हेमचन्द्राचार्य में प्रमाण मीमांसा में कहा है__ अनादय एक्ता विद्याः संक्षेपविस्तार विवक्षया नवनवीभवन्ति, तत्तत् कर्तृकापमोच्यन्ते । किसानोषीः न कदाचिदनोदशं जगत् । अनादिकाल से प्रयाहरूप में चले आ रहे इस कर्मशास्त्र का भगवान महावीर से लेकर वर्तमान समय तक जो संकलन हबा है, उसके निम्नलिखित तीन विभाग किये जा सकते हैं (१) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र, (२) पूर्वार्धत कर्मशास्त्र और (३) प्राकरणिक कर्मशास्त्र । (१) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र-यह भाग सक्से बड़ा और पहला है । इसका तत्व पूर्वविद्या के बिस्किम होने के समय तक माना जाता है। भगवान १३ बीर के बाद करीब ६०० या १०० वर्ष तक क्रमिक लास रूप में पूर्वविद्या विद्यमान रहो । चौदह पूर्षों में से आठवा पूर्व कर्मप्रवाद है, जो मुख्यतथा कर्मविषयक ही था । इसी प्रकार अग्रावणीय पूर्व मामक दूसरे पूर्व में भी कर्मप्राभत नामक एक भाग था । लेकिन वर्तमान श्वेताम्बर तथा दिसम्बर साहित्य में पूर्वात्मक कर्मपास्क का पूर्ण अंश नहीं रहा है। (२) पूर्वोकृत कर्मशास्त्र---यह विभाग पहले विभाग की अपेक्षा काफी छोटा है, लेकिन वर्तमान अभ्यासियों की दृष्टि से काफी बड़ा है। इसलिए इसे 'आकर कर्मशास्त्र' सह संज्ञा दी है। यह भाग साक्षात पूर्व से उद्धृत है और श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ... दोनों ही सम्प्रदायों के कर्मशास्त्र में यह पूर्वोधृत अंग विद्यमान है, ऐसी मान्यता है ! साहित्य उद्वार के समय सम्प्रदायभेद रूह हो जाने के कारण उद्धृत अंश कुछ भिन्न-भिन्न नाम से प्रसित है। जैसे कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में--(१) क्रम प्रकृति, (२) शतक, (३) पत्रसंग्रह, (४) सप्ततिका और दिगम्बर सम्प्रधान में ....(१) महाकर्मप्रकृतिप्राभत, (२) कवायाभूत । दोनों सम्प्रवास अपने-अपने उक्त ग्रन्थों को पूर्वोधूत मानती हैं । (३) प्राकरणिक कर्मशास्त्र----यह विमाम तीसरी संकलना का परिणाम है । इसमें कर्मविषयक छोटे-बड़े अनेक प्रकरण अन्धों को. सहम्मलित किया गया Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय १६५ है आजकल विशेषतया इन्हीं प्रकरण ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन का प्रचलन है । इन प्रकरण ग्रन्थों का अध्ययन करने के बाद पूर्वोद्धृतग्रन्थों (आकर अन्यों) का अध्ययन करने की परभ्याकरणिक भो महत्वपूर्ण है और आकर ग्रन्थों का अभ्यास करने से पूर्व इनका अध्ययन करना जरूरी है । यह प्राकरणिक कर्मशास्त्र विक्रम की आठवी-नौवीं सताब्दी से लेकर सोलह-सताब्दी तक निर्मित एवं पल्लवित हुआ है। संकलना को दृष्टि से कर्मशास्त्र के जैसे तीन विभाग किये गये हैं। वंसे ही भाषा की दृष्टि से भी उसे तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं(१) प्राकृत भाषा, (२) संस्कृत भाषा और (३) प्रचलित लोक माया पूर्वात्मक और पूर्वोत कर्मशास्त्र का आकलन प्राकृत भाषाओं में हुआ है। प्राकरणिक कर्मशास्त्र का भी बहुत बड़ा भाग प्राकृत भाषा में निवद्ध किया गया है तथा मुलग्रन्थों के अतिरिक्त उन पर टीका-टिप्पण भी प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं । प्राकृत भाषा के अनन्सर जब संस्कृत भाषा साहित्य की भाषा बन गई और प्रायः संस्कृत में साहित्य का निर्माण व्यापक रूप से होने लगा तो जैनाचार्यों ने भी संस्कृत में कर्मशास्त्र की रचना की एवं अधिकतर संस्कृत भाषा में कर्मशास्त्र पर टीका-टिप्पण आदि लिखे । कुछ मूल प्राकरणिक कर्मग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे गये भी उपलब्ध होते हैं । लोकभाषा में मुख्यतया कर्णाटकी, गुजराती और राजस्थानी हिन्दी-इन तीन भाषाओं का वेग होता है। इन भाषाओं में भी कुछ मीतिक कर्मग्रन्थ लिखे गये हैं। लेकिन उनकी गणना अत्यल्प है। विशेषकर इन भाषाओं का उपयोग मूल तथा टीकाओं के अनुवाद करने में ही किया गया है । ये टीका ! टिप्पण अनुवाद आदि प्राकरणिक कर्मशास्त्रों पर लिखे गये हैं । कर्णाटकी और हिन्दी भाषा का आश्रय दिगम्बर साहित्यकारों ने लिया और गुजराती भाषा का वेताम्बर साहित्य ममशों ने । वर्तमान में उपलब्ध साहित्य का ग्रन्थमान लगभग सात लाख श्लोक प्रमाण माना गया है और समय की दृष्टि से विक्रम को दूसरी सीसरी शताब्दी Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anwerJhudaalaalomonal तुतीय कमंधन्य : परिशिष्ट से बीसवीं शताब्दी तक का प्राप्त होता है । इस काल में टीका, वृणि, भाष्य, वृत्ति आदि के रूप में आचार्यों ने कर्मशास्त्र को विस्तृत रूप दिया है । जैन आचार्यों ने कर्मविषयक विचारणा व्यापक रूप से की है । लेकिन भगवान महावीर ki fi देसा३५ सम्म को बखानों, विजित हो जाने से यह विचारणा भी विभाजित-सी हो गई । सम्प्रदायभेद इतना कट्टर हो गया कि भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट कमतस्य पर मिलकर विचार करने का अवसर भी दोनों सम्प्रदायों के विद्वान प्राप्त न कर सके । इसका फल यह हआ कि मूल विषय में मतभेद न होने पर भी कुछ पारिभाषिक शब्दों, उनकी व्याख्याओं और कहीं-कहीं खनके तात्पर्य में थोडाबहुत भेद हो गया। इन भिन्नताओं पर तरस्थ दृष्टि में विचार करें तो भेद में भी अभद के दर्शन होते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैनदर्शन की मौलिक देन क्रमवाद की गरिमा को सुरक्षित रखने में जैनाचार्य सर्वात्मना सजग रहे और कर्मसाहित्य के मूल हार्द को सुरक्षित रखा । कतिपय प्रमुख फर्मग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध कर्मग्रन्थों अथवा जिनके होने का पता अन्य ग्रन्थों में उल्लिखित उल्लेखों से लगता है, उनका बहुत-सा-भाग अप्रकाशित है । लेकिन जो अन्य प्रकाश में आये हैं, उन से भी जैन कर्म साहित्य का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। प्रकाशित ग्रन्थों की सूची देखने से यह ज्ञात होता है कि मूल ग्रन्थ के भाष्य अथवा संस्कृत टीकाएँ प्रकाशित हुई हैं। प्रादेशिक भाषाओं में रषित टीकाएँ अभी भी अप्रकाशित हैं। प्रस्तुत प्रसंग में प्रकाशित एवं अध्ययन-अध्यापन में अधिकतर प्रचलित कतिपय अन्यों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है ।। कर्मप्रकृति भस प्रन्थ में ४५५ गाथाएँ है, जो अग्रासणीय पूर्व नायक द्वितीय पूर्व के आधार पर संकलित की गई हैं। इस ग्रन्थ में आचार्य ने कर्म सम्बन्धी बन्धन, संक्रमण, उधलना, अपवसना, उदीरणा, उपशमन, निधत्ति और निकायना--आठ ---.... १ सटीकाश्चस्वारः कर्मग्रन्थाः (मुनि पुण्यविनयजी द्वारा संपादित) । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-कर्म साहित्य का संक्षिप्त परिचय १६७ करणों एवं उदय तथा सत्ता इन दो अवस्थाओं का वर्णन किया है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने मंगलाचरण के रूप में भगवान महावीर को नमस्कार किया है एवं कर्माष्टक के आठ करण, उदय और सत्ता- इन दस विषयों का वर्णन करने का संकल्प किया है। wwwwww प्रस्तुत ग्रन्थ के अता शिवशर्मसूरि हैं और उनका समय अनुमानत: free at feat शताब्दी माना जाता है । सम्भवतः मे जागमोदारक देवधिaf क्षमाश्रमण के पूर्ववर्ती या समकालीन हों । सम्भवतः ये दशपुत्रघर भी । लेकिन न स सम्भावनाओं पर प्रकाश डालने वाली सामग्री का प्रायः Tere ही है फिर भी यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि free सूरि एक प्रतिभासम्पन पारंगस विद्वान थे और उनका कर्मविषयक ज्ञान बहुत ही गहन और सूक्ष्म था । कर्मप्रकृति के अतिरिक्त तक (प्राची पंचम कर्मग्रन्थ) भी आपकी कृति मानी जाती है। एक मान्यता ऐसी भी है कि सप्ततिका ( प्राचीन पष्ठ ग्रन्थ) भी आपकी कृति है । दूसरी मान्यता है कि सप्ततिका चन्द्र महत्तर की कृति है । कर्म प्रकृति की व्याख्याएँ-- फर्मप्रकृति को तीन व्याख्याएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से एक प्राकृत पूर्णि है। पूर्णिकार का नाम अज्ञात है । सम्भवतः यह पूर्ण सुप्रसिद्ध चूर्णकार जिनवासमणि महत्तर की हो। संस्कृत की टीकाओं में एक टीका सुप्रसिद्ध टीकाकार मन्त्रयगिरिकृत है और दूसरी न्यायाचार्य यशोfarer है। उन तीनों स्याख्याओंों में अणि का ग्रन्थमान सात हजार श्लोक प्रमाण मलयगिरिकूत टीका का ग्रन्थमान बाद हजार श्लोक प्रमाण तथा यशोविजयकृत टीका का ग्रन्थमान तेरह हजार श्लोक प्रमाण है। FLILL - पंचसंग्रह 1 1 संग्रह में लगभग एक हजार मात्राएं हैं। इनमें योग उपयोग गुणस्थान, कर्मबन्ध बन्धहेतु, उदय, सत्ता, बन्त्र आदि आट करण एवं इसी प्रकार के अन्य विषयों का विवेचन किया गया है। प्रारम्भ में वाठ कमों का नाश करने वाले वीर जिनेश्वर को नमस्कार करके महान अर्थ वाले संग्रह नामक ग्रंथ की रचना का संकल्प किया गया है। इसके बाद ग्रन्थकार ने 'पंचसंग्रह' नाम की दो प्रकार से सार्थकता बतलाते Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट हुए लिखा है कि इसमें शतकादि पाँच ग्रन्थों को संक्षेप में समाविष्ट किया गया है अथवा पाँच द्वारों का संक्षेप में परिचय दिया है। द्वारों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं (१) योगयोग मार्गणा (२) बन्धक (३) वन्धन्य, ( ४ ) बन्धहेतु और (५) बन्धविधि । इस ग्रन्थ के रचयिता आचार्य चन्द्र महत्तर है। ग्रंथकार ने योगोपयोग मार्गणा आदि पाँच द्वारों के नामों का उल्लेख वो अवश्य किया है, लेकिन इन art के आधारभूत शतक आदि पाँच ग्रंथ कौन से हैं. इसका संकेत मूल एवं earपक्ष टीका में नहीं किया है। बाचार्य मलयगिरि ने इस ग्रन्थ की अपनी टीका में स्पष्ट किया है कि ग्रन्थकार ने शतक, सप्ततिका कषायप्राभृत मत्कर्म और कर्मप्रकृति इन पनि अन्यों का समावेश किया है । इन पाँच ग्रन्थों में से terrora के fart चार ग्रथों का आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में प्रमाण रूप से उल्लेख किया है। इससे सिद्ध है कि कषायभूत को छोड़कर पोष चार ग्रन्थ आचार्य मलयगिरि के समय में विद्यमान में इन चार ग्रन्थों में भी आज सत्कर्म अनुपलब्ध है और शेष तीन ग्रन्थ- शतक नप्ततिका एवं sixकृति इस समय उपलब्ध हैं । हा . महत्तर के समय मच्छ आदि का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। अपनी स्त्रवृत्ति में इतना-सा उल्लेख अवश्य किया है कि नेपा के शिष्य थे। इसी प्रकार महतर पद के विषय में भी किसी प्रकार का उल्लेख अपनी स्वोपज्ञ टीका में नहीं किया है । सम्भवतः सामान्य प्रचलित उल्लेखों के आधार पर ही उन्हें महसर कहा गया है । ! आवार्य चन्द्र महतर के समय के विषय में यही कहा जा सकता है for fraft पात्र, चन्दवि आदि ऋषि शब्दान्त नाम विशेष रूप से atafat शताब्दी में अधिक प्रचलित थे, अतः ये विक्रम की नीवी-दसवीं शताब्दी में विद्यमान रहे हों। पंचसंग्रह और उसकी स्वोपश टीका के सिवाय चन्द्र महतर की अन्य कोई कृति उपलब्ध नहीं हैं। पंचसंग्रह को व्यावायें --- पंचसंग्रह की दो महत्वपूर्ण टीकाएँ प्रकाशिक्ष Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेन कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय १६१ है ....स्वोपज वृत्ति एवं मलयगिरिकृत टीका। स्वोपश वृत्ति नौ हजार श्लोक प्रमाण तथा मलयगिरिकृस टीका अठारह हजार श्लोक प्रमाण है। प्राचीन षट् कम प्रन्य- देवेन्द्र सूरिरचित कर्मग्रन्थ मलीन कर्मपन्य कहे जाते हैं, जबकि उनके आधारभूत पुराने कर्मग्रन्थ प्राचीन कर्म कहलाते हैं । इस प्रकार के प्राचीन कर्मग्रन्थों की संख्या छह है और ये शिवशर्म सूरि आदि भिक्ष-भिन्न आचार्यों की कृतियाँ हैं। इनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं.... (१) कर्मविपाक, (२) कस्तब, (३) रन्धस्वामित्व, (४) परशीति, (५) शतक, (६) मप्ततिका । कर्मविपाक के कर्ता गर्गघि हैं। इनका समय सम्भवतः विक्रम की बसों शताब्दी है । कर्मविपाक को सीन टीकाएं उपलब्ध होती हैं- गरमानन्द सुरिवृत इति, उदयप्रसमूरिकृत दिपा और एक अमात कर्तृक व्याख्या । में तीनों टीकाएं विक्रम की बारहवों-तेरहीं शताब्दी की रचनाएँ प्रतीत होती है। ___ कमरता के कर्ता अमाप्त है । इस पर दो माथ्य एवं दो टीकाएं हैं । टीकाओं में एक गोविन्दाचार्यकृत वृत्ति है और दुमरी अभयप्रभमूरिकृत टिप्पण के रूप में है। इन दोनों का रचनाकाल सम्भवतः विक्रम को सेरही शताब्दी है। बंधस्वामित्व के कर्ता भी अज्ञात हैं। इस पर हरिभद्रमुरिकृत वृति है, जो वि० सं० ११:१२ में लिखी गई है। ___ पडशीप्ति जिनवल्लभमणि की कृति है और इसकी रचना विश्रम की बारहवीं शताब्दी में हुई है। इस पर दो अज्ञात कर्तृक मारय और अनेक टीकाएँ है । टीकाकारों में हरिभद्रसरि व मलयगिरि मुहम हैं । इसका अपरनाम आगमिकयस्तुविचारसारप्रकरण है। ____ शतक के कर्ता शिवशर्मसूरि हैं। इस पर तीन मास्य, एक नूमि व तीन टीकाएं है। भाष्यों में दो लघु भाष्य हैं और वृहद भाष्य के कर्वा पोश्वरहरि हैं। चूर्णिकार का नाम अज्ञात है। तीन दीकाओं में एक के कर्ता मल धारी हेमचन्द्र (विक्रम की बारहवीं सतानी), दूसरी के उदयप्रमभूरि और ... तीसरी के गुणरतमुरि (विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी) है । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O Ml.... तृतीय कर्मअन्य : परिशिE सप्ततिका के कर्ता के विषय में निश्चित #से कुछ नहीं कहा जा सकता है। कोई चन्द्रर्षि महत्तर को इसका कर्ता मानते हैं और कोई शिवशर्मसूरि को। इस पर अभयदेवमूरिकृत भाष्य, अशासकर्तृक भूणि, चन्द्रषि महत्तरकृत प्राकृत वृत्ति, मलयगिरिकृत टीका, मेस्तुग मूरिकात भाष्यवृत्ति, रामदेवकृत टिप्पण व गुणरस्नमुरिकृत अवधूरि है। ___इन यह ग्रन्थों में प्रथम पांच में उन्हीं विषयों का प्रतिपादन किग्स गया है, जो देवेन्द्रसुरि कृत पाच नस्य कर्मग्रन्थों में सार रूप से है। सप्ततिका (पण्कर्म ग्रन्ध) में निम्नलिखित विषयों का विवेचन किया गया है...... बन्ध, उदय, सत्ता व प्रकतिरपान, जनावरणीय भावि झमो की उत्तर प्रकृतियों एवं बन्ध्र आदि स्थान, आठ कर्मों के उदीरणा स्थान, मुणस्थान एवं प्रकृति बन्ध्र, गतियाँ एवं प्रकृतियाँ, उपशम श्रेणी व एक श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी आरोहण का अन्तिम फल । नस्य कर्मग्रन्थ प्राचीन पट् कर्मग्रन्थों में से पांच कर्मग्रन्थों के आधार पर आचार्य देवेन्द्र सुटिने जिन पाँच कमग्रन्थों की रचना की है, वे ना कर्मग्रन्थ कहे जाते हैं। हम कर्मग्रन्थों के नाम भी बही हूँ... कर्मविपाक फार्मस्तव, पन्यस्वामित्व, पडशीत्ति और पालक । धे पौधों कर्मचन्थ क्रमश: प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुषं व पंचम कर्मग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपर्युक्त पाच नामों में से प्रथम द्वितीय और तृतीय नाम विषय की दृष्टि से और अन्तिम दो नाम गाथा संध्या की दृष्टि से रखे गये हैं। पांच नव्य कर्मग्रन्थों के रचयिता देवेन्दसूरि हैं। इन पांच कर्मप्रन्यों की रचना का आधार णिव शर्मसूरि, चन्द्रषि महसर आदि प्राचीन आचार्यों द्वारा रचे गये कर्मग्रन्थ हैं। देवेन्द्रसूरि ने अपने कर्मग्रन्थों में केवल प्राचीन कर्मप्रन्थों का भावा अथका सार ही नहीं लिया है, अपितु नाम, विषय, वर्णनक्रम आदि बाते भी उसी रूप में रखी है। कहीं-कहीं नवीन विषयों का भी समावेश किया है। इन ग्रन्थों की भाषा प्राचीन कर्मग्रन्थों के समान प्राकृत है और छन्द आर्या है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन कसाहित्य का संक्षिप्त परिचय २०१ भव्य कर्मग्रन्थों की धास्याएं.-बाचार्य देवेन्द्रसूरि में अपने कर्मग्रन्थों पर स्वोपक्ष टीका लिखी थी, किन्तु किसी कारण से तृतीय कमंगन्य की टोका नष्ट हो गई 1 इसकी मूर्ति के लिए बाद में किसी आचार्य ने अवधुरि रूप नई टोका लिखी है। गुणरत्नसूरि व मुनिश्शेखरसूरि ने पांचों कर्मग्रन्थों पर अबरियां लिखी हैं। इनके अतिरिक्त कमलसंयम उपाध्याय आदि ने भी इन कर्मग्रन्थों पर छोटी-छोटी टीकाएं लिखी हैं। हिन्दी और गुजराती भाषा में भी इन पर पर्याप्त विवेचन किया गया है। हिन्दी भाषा में महाप्राश पं. सुखलाग्न जी की टीकायें करीब ४० वर्ष पूर्व लिखी गई थीं । अब पुनः मरुधर केमरी प्रवर्तक मुनि श्री मिश्रीमलजी म० की ध्याम्यासहित श्री श्रीचन्न सुराना 'मरस एवं श्री देवकमार जैन द्वारा संपादित होकर प्रकार हो रहे हैं। पता : सर मसित फार्मरों से विशिघटता है । दिगम्बर श्वेताम्बर मान्यताओं का लनात्मक अध्ययन एवं अनेक प्रकार के मंत्र य तालिकाएँ भी दी गई हैं। कर्मशमत इसको महाकर्मप्रकृतिप्राभुत, पट्खायामम आदि भी कहते हैं । इनके रचयिता आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि हैं । इसका रपना समय अनुमानतः विक्रम की दूसरी-सीसरी शताब्दि है। __ यह ग्रन्थ १६००० लोक प्रमाण है। इसकी भाषा प्राकृत (शौरसेनी) है। आचार्य पुष्पदन्त ने १९५७ सूत्रों में मत्वरूप अंग और आचार्य भूतबलि ने ६००० सूत्रों में शेष सम्पूर्ण अन्ध लिया है । कर्मप्राभूत के छह अण्डों के नाम इस प्रकार है (१) जीवस्थान, (२) क्षुद्रक बन्ध, (३) बनभस्वामित्वविचय (४) वेदना, (५) वर्गणा, (६) महाबन्ध 1 जीवस्थान के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वार और मी यूलिकाएँ हैं । झुरकवन्ध के ग्यारह अधिकार हैं। बन्धस्वामिस्वविषय में कर्म प्रकृतियों का जीवों के साथ बन्ध, कर्म प्रकृतियों की गुणस्थानों में म्युमिसि, स्योदय इन्ध रूप प्रकृतियाँ, परोदय बन्ध लव प्रकृतियों का कयन किया गया है । वेदना साह में कृति और वेवमा नामक दो अनुयोगद्वार हैं। वाणा खुण्ड का मुख्य अधिकार अन्जनीय है, जिसमें वर्गमाओं का विस्तृत वर्णन है। इसके अतिरिक्त इसमें SSCSSANTERE:::.. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय धर्मग्रन्थ : परिशिष्ट स्पर्श कर्म प्रकृति और बन्ध चार अधिकारों का भी अन्तर्भात किया गया है । २०२ तीस हजार rte प्रयाण महाबन्ध नामक छ खण्ड में प्रकृतिवन्ध, स्थिति अन्ध, अनुभागन्ध और प्रदेशबन्ध इन चार प्रकार के अन्धों का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है । महाबन्ध की प्रसिद्धि महाघवला के नाम से भी है । प्रभृत को टीकाएं - वीरसेनाचार्य विरचित धवला टीका कर्म मास ( षट्खण्डागम) की अति महत्वपूर्ण बृहत्काय व्यास्था है। मूल व्याख्या का ग्रन्थमान ७२००० श्लोक प्रमाण है और रचना काल लगभग विक्रम संवत् ६०५ है । इस व्याख्या के अतिरिक्त इन्दनन्दि कृत श्रुतावतार में कर्मप्राभृत की निम्नलिखित टीकाओं के होने का संकेत है। लेकिन वर्तमान में ये टीकाएँ अनुपलब्ध हैं। कुन्दकुन्दाचार्य में कर्मप्राभूत के प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नामक बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका ग्रन्थ लिखा था । यह टीका ग्रन्थ प्राकृत में था | धवला टीका में इस ग्रन्थ का अनेक बार उल्लेख किया गया है । कर्मप्राभृत के प्रथम पाँच आचार्य शामकुण्ड ने पद्धति नामक टीका ग्रन्थ खण्डों पर लिखा था | कायाभूत पर भी उनकी इसी नाम को टीका थी । इन दोनों टीकाओं का प्रमाण बारह हजार लोक प्रमाण है । भाषा प्राकृतसंस्कृत-कड़ मिश्रित थी। सुम्बुलूराचार्य ने भो कर्मप्राभूत के प्रथम पनि खण्डों तथा कषायप्राभृत पर एक टीका लिखी थी, जिसका नाम चूडामणि था। यह टीका चौरासी हजार लोक प्रमाण थी और भाषा कन्नड़ थी। इसके अतिरिक्त कर्यप्राभृत के छ खप पर प्राकृत में पंजिका नामक व्याख्या लिखी श्री, जिसका परिभाग सात हजार लोक प्रमाण था । समन्तभद्र स्वामी ने प्राभूत के प्रथम पत्र खण्डों पर अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण टीer fret | धवला में यद्यपि समन्तभद्र कृत आप्त Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय २०३ श्रीमांसा आदि के अवतरण उद्धृत किये गये हैं, किन्तु प्रस्तुत टीका का उल्लेख उसमें नहीं पाया जाता है। पदेव गुरु ने कर्मप्राभृत और कथायाभूत पर टीकाएँ लिखी हैं। कर्मप्राभूत के पाँच खण्डों पर लिखी गई टीका का नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति या । षष्ट खण्ड पर उनकी व्याख्या संक्षिप्त थी जो पंचाधिक आठ हजार श्लोक प्रमाण थी । पाँच खण्डों और कषायमाभूख का टीकाओं का संयुक्त परिमसाठ हजार श्लोक प्रमाण था । भाषा प्राकृत पो बोरसेन है 1 विद्या गुरु एक तिहाई कर्पपातको टीका धनया के कर्ता का नाम ये आर्यनन्दि के शिष्य तथा चन्द्रसेन के प्रशिष्य थे। इनके एजात्रायें थे। कपाप्राभृत को टीका जयधवला के प्रारम्भ का भाग भी इन्हीं वीरसेन का लिखा हुआ है । यह वाटर्मशास्त्राओं के लिए द्रष्टव्य है । ऋवायाभूत पापड अथवा कषायप्राभृत को पेजदोसपाट पोटात अथवा दोषाभूत भी कहते हैं । कर्मप्रभृत के समान ही भूत का उद्गम स्थान भी दृष्टिवाद नामक आरव अग है। उसके ज्ञानप्रवाद नामक पवेिं पूर्व की दसवों वस्तु के जदोष नामक तीसरे प्राभृत से कायाभूत की उत्पत्ति हैं। कषायप्राभृत के रचयिता आचार्य इन्होने माथा सूत्रों में गुणधर है। अन्य को निबद्ध किया है। वैसे तो प्राकृत की २३३ गाथाएँ मानी हैं, परन्तु वस्तुतः इस ग्रन्थ में १०० गाथाएँ है और मे ५ मायाएं कषायप्राभृतकार गुणधराचार्यकृत न होकर संभवतः आचार्य नागहस्ति कृत हो, जो व्याख्या के रूप में बाद में जोड़ी गई है । प्राकृत में जयधवलाकार के अनुसार निम्नलिखित १५ अर्थाधिकार हैं (१) प्रपोष (२) प्रकृतिविभक्ति, (३) स्थिति (४) अनुभागविभक्ति (५) प्रदेशविभक्ति- क्षोणाश्रोणप्रदेश- स्थित्यन्तिक Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीध कर्मय : परिशिष्ट प्रदेश, (६) बन्धक, (७) वेवक, (८) उपयोग, (९) मनु स्थान, (१०) व्यंजन, (११) सम्यक्त्व, (१२) देश विरति, (१३) संघम, (१४) पारिवमोहनीय की उपशमना, (:::) गायिली साप इस स्थान पर अयधवलाकार ने यह भी निवेश किया है कि इसी तरह अन्य प्रकारों से भी पन्द्रह अर्थाधिकारों का प्ररूपण कर लेना चाहिए । इससे प्रतीत होता है कि कषायप्राभूत के अधिकारों की गणना में एकरूपसा नहीं कषायामत की टीकाएँ-इन्द्रनन्दिकृत श्रुताबहार के उल्लेख के अनुसार कषायमामृत पर निम्नलिखित टीकाएं लिखी गई ..... (१) आचार्य यतिवृषभकुत णिसूत्र, (२) उच्चारणाचार्यकृत उच्चारणावृत्ति अथवा मूल उच्चारण, (३) आचार्य शामकुण्डकृत पद्धति टीका, (४) सुम्बुलराचार्यकृत सूडामणि व्याख्या, (५) चप्पदेवगुरुकृत व्याख्याप्राप्ति वृति, (६) आचार्य वीरसेन जिनसेन कृत जयधवल टीका । इन छह टीकाक्षों में से प्रथम चणि व जयधवला ये दो टीकाएं वर्तमान में उपलब्ध होती हैं । पतिवृषभकृत पूर्णि छह हजार लोक प्रमाण तथा जयधवला टीका सात हजार प्रलोक प्रमाण है। गोम्मदसार इसके दो भाग हैं--(१) जीवकाण्ड और (२) कर्मकाण्ड । रचयिता मिचन्द्र सिबास्तचक्रवर्ती हैं, जो विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में हुए हैं। ये सामुष्ट राय के समकालीन थे। गोम्मटसार की रचना चामुण्डराय, जिनका कि दूसरा नाम गोम्पटराय का...-के प्रश्न के अनुसार सिद्धान्त ग्रन्थों के सार रूप में हुई है, अत: इस ग्रन्थ का नाम गोम्मरसार रखा गया। इसका एक नाम पंचसंमह भी है, क्योंकि इसमें मन्ध, बध्यमान, बन्धस्वामी, मन्धहेतु ष बन्धभेद-इन पाँच विषयों का वर्णन है। गोम्मटसार में १७०५ माथाएँ हैं जिसमें से जीवकाण्ड में ७३३ और कर्मकोच में ९७२ गाथाएँ हैं । जोत्रकाण्ड में महाकर्मप्राभूत के सिद्धास सम्बन्धी जीवस्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धास्वामी, वेदनाखण्ड और वर्गपाखण्ड --- इन पाँच विषों Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... MI mummonetrinavi जम कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय का विवेचन है। इसमें गुणस्थान, जीवसमास, पारित, भाषा, संझा, १६ मारणा और उपयोग इन बीस अधिकारों में जीव की विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। कर्मकाण्ड में कर्म मम्बन्धी निम्न नौ प्रकरण हैं.... (१) प्रकृतिसमुत्कीर्तन, (२) बन्धोदय सत्व, (३) मत्वस्थान भंग, (४) विचलिका, (५) स्थान समुत्कीतन, १६} प्रत्यय, (७) भाव चूलिका, (८) निकरण धूलिका, (६) कास्मितिरचना । गोम्पस्मार को टीकाएँ... गोम्मटमार पर सर्वप्रथम गोम्मट रायमामुलराय ने कार में वृत्ति लिम्बी, जिसका अवलोकन स्वयं नेभिसन्द सिमान्त चक्रवर्ती ने किया। इस दृसि के अधार पर केशवदी ने संस्कृत में टोका लिखी । फिर अभय चन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने मन्दप्रबोधिनी नामक संस्कृत टीका लिाही । इन दोनों टीकाओं के आधार पर पं० टोडरमलजी में सम्याशान कन्धिका नामक हिन्दी दीका दिखी । इस टीकाओं के आधार पर जीवकाण्ड का हिन्दी अनुवाद थी पं० सूबचन्द्रग्जी ने व कर्मकाण्ड का अनुवाद श्री पं० मनोहरसालजी ने किया है। श्री जे. जैनी ने इसका अंग्रेजी में सुन्दर अनुवाद किया है। भग्धिसार (क्षपगासार गभित __इसके रचयिता श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं । लब्धिसार में कम से मुक्त होने के उपाय का प्रतिपादन किया है । लब्धिसार की ६४६ पाथाएँ हैं, जिनमें २६१ गाथाएँ हपणासार की हैं । इसमें तीन प्रमाण हैं--(१) दर्शनलब्धि. (२) चारित्रलविध, (३) क्षामिकमारित्र । इनमें हायिक पारित्र प्रकरण क्षपणासार के रूप में स्वतन्त्र नथ भी गिना जाता है। सन्धिमार पर केशवक्षी ने संस्कस में तथा पंत दोडामाल जी ने हिन्दी में टीका लिखी है । संस्कृत टीका चारिम लम्धि प्रकरण तक ही है। हिन्दी टोकाकार टोडरमसजी ने पारिवनविध प्रकरण तक तो संस्कृत टीका के अनुसार व्याख्यात किया है, किन्तु मायिक जारिन प्रकरपा, अर्थात् क्षपणासार का व्याख्यान माधवचन्द कृत संस्कृत गद्यात्मक क्षपणासार के अनुसार किया है। यहाँ पर तल्लिखित प्रयों का पूर्ण रूप से अध्ययन किया जाय तो कमसाहित्य का सनस्पी भान प्राप्त हो सकता है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट उक्त जानकारी के अनन्तर अभी तक मुद्रित ग्रन्थों के नाम, रचयिता, समय आदि का संक्षेप में के कर देना उचित होगा। इन ग्रंथों में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के कर्मग्रन्थों का उल्लेख किया गया है www. कर्ता श्लोकप्रमाण रचनाकाल ३६००० २०६ ब्रम्मनाम महाकर्मप्रकृति प्राभूत अथवा कर्मप्राभूत ( पटखंडशास्त्र) धवला टीका कषायमाभूत जयबला टीका गोम्मटसार संकृत टोका संस्कृत टीका हिन्दी टीका पुष्पदन्त तथा f बीरसेन गुणधर वतिवृषभ वीरसेन तथा जिनसेन नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती केशवर्णी अभयचन्द्र टोडरमल धसार मिन्द्र : (क्षपणसारगर्भित ) सिद्धान्तचक्रवर्ती संस्कृत टीका हिन्दी टीका केशवर्णी टोडरमल्ल संग्रह (संस्कृत अमितगति संग्रह (प्राकृत) पंचसंग्रह (संस्कृत) श्रीपात ७२००० गा० २३६ ६००० — ६०००० गा० १७०५ गा० ६५० एलो. १४५६ गा० १३९४ ढलो. १२४३ अनुमानसः विक्रम की दूसरी-तीसरी पलादि लगभग वि० सं०६०५ अनुमानत: विक्रम की तीसरी शताि अनुमानत: विक्रम की छठी शताब्दि बिक्रम की नौनी araj earf विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दि विक्रम की १८ वीं शताि विक्रम की ग्यारहवी शतादि विक्रम की १६ वीं लाब्दि वि० सं० १०७ वि० ० १७ वीं शत Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय iwariBansaniamare अन्य नाम कमंप्रकृति कता चित्रमूरि रसोक प्रमाण रबमा काल गा ४५५ संभवतः विक्रम की ५वीं शताब्दि ७०० वि की १२ कों से वृत्ति मलयगिरि नि- १३.१३ श. यशोविजय १३०० वि. १८वीं श पंखसंग्रह नन्द्धषि महतर गा०६६३ म्बोपश वृत्ति वृत्ति मलयगिरि. १८८५८ विशम की १२-१३ हौं । शताब्दि प्राचीन षद कर्मग्रन्थ या ५४७,५५१, ५६७ (अ) कर्म विपाका मर्गषि गा० १६. वृत्ति मानन्दमूरि १२२ वि० १२-१३ वो मतादी ध्याच्या (1) कर्मम्लव मा: ५७ भाग्य मा० २४, भाष्य मा० ३२ संभवत: वि० सं० गोविन्दानायं १ts १२८८ से पूर्व (इ) बन्ध-स्वामित्व (मा० ५०) वृत्ति हरिभद्र सूरि ५६. वि० सं० १९७२ (ई) पडशीति मिनल भगणि मा० ५६ भाष्य मा० ३५ वृति हरिभद्रसुरिः वि की १२वी प्रसाद मलयगिरि २१४० : विक्रम की १२-१३ वीं । मताधि : थति वृति Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० तृतीय कर्म अन्य : परिशिष्ट का पिशप्रसूती (ज) सद भाष्य वृहद भाष्य श्लोक प्रमाण रचनाकाल १११ मा० २४ १४१३ वि० सं० ११:५९ चक्के स्वर सुरि पूर्णि बुप्ति (क) सप्ततिका शिवशर्मसूरि अथवा चन्द्रषि महत्तर ७५ भाषा अभयदेवमपि गा० १६१ विक्रम की ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दि मलयगिरि ३७८० वि० की १३-१३ बों श. भाष्यत्ति भेरुसुगमूरि ४५५० वि० सं० १४४३ साई शतक जिनवल्लभ गणि गा० १५५ वि १२ वीं शताब्दि यत्ति बनेश्वर सुरि ३७०० वि० सं० ११७१ नवीन पंच कर्म ग्रन्थ देवेन्द्रसूरि गा० ३०४ वि. की १३-१४-दी स्वोषज्ञ टीका (अधस्वामिता को वि० की १३-१४ वी छोड़कर) १०१३१ शताब्दि बन्धस्वामिस्व-अवचरि ४२६ पद क्रर्मग्रन्ध बालपपबोध जयसोम १०.१० दि० की १७ वी शता. आवप्रकरण विजयविमल गणि गा० ३० वि० सं० १६२३ स्वोपज्ञ वृत्ति अन्धहेतूवयत्रिमंगी हर्षकुलगणि गा० ६५ वि० १६ वीं श वृत्ति वानरपि गणि ११५० वि० सं० १६०२ बन्धीचयससाप्रकरण विजयविमल गार २४ वि० १७ वीं श. का गणि स्थोपा अवरि । ༄༠ག फर्मसंवेशभंग प्रकरण देवचन्द संक्रमकरण प्रेमविजयगणि वि० सं० १९८५ इस प्रकरण के लेखन में अन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ४ (पार वि० स० सं० बाराणसी) का आधार लिया गया है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मग्रन्थ की मूल गाथाएँ प्रथम कर्मग्रन्थ की गाथाएँ सिरि वीर जिणं बंदिय, कम्मविवाम समासओ वुच्छं। कीरइ जिएण हेउहि, जेणं तो भष्णए कम्मं ॥१॥ पगइठिइरसपएसा तं चउहा मोयगस्स दिद्रुता । मूलपगइऽह उत्तरपगई अडवनसय भेयं २॥ इइ. नाणदसणावरणवेयमोहाउ नामगोयाणि । विग्धं च पणनवदुअट्ठवीसचउतिसयदुपणविहं ॥३॥ मइ-सुख-ओही-मण केवलाणि नाणाणि तत्थ मइनाणं । बंजणवामह चउहा मणनयविणिदिय चउक्का ॥४॥ अत्युग्गह ईहावायधारणा करणमाणसेहिं छहा । झ्य अदवीसभेयं चउदसहा वीसहा व सुर्य शा अक्सर सन्नी सम्म साइमं खलु सपज्जवसिय छ । गमियं अंगपविढे सत्तवि एए सपडिवक्ता ॥६॥ पज्जय अक्सर पय संघाया पटियत्ति तह य अणुओगो । पाहुडपालुङ पाहुडवत्थू पुव्वा य स-समासा ।।७।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मप्रन्य : परिशिष्ट अणुगामि वड्डमाणय पष्टिवाईयरविहा छहा ओही। रिउमइ विउलमई मणनाणं केवलमियविहाणं ॥८॥ एस जे आवरण पडुब्ध सुस्त त तयावर देसण घउ पणनिहा वित्तिस दसणावरणं ।।६।। चक्खूदिट्ठि अचय सेसिदिय ओहि केवलेहि च । दसणमिह सामन्नं लम्सावरणं तयं उहा ॥१०॥ सुहपडिबोहा निदा निहानिद्दा य दुक्खपडिबोहा । पयला ठिओविट्ठस पयलपयला य चकमओ ॥११॥ दिचितिग्रस्थकरणी थीणखी अद्धचक्कि अद्धबला। महुलिसखगधारालिहणं व दुहा उ यशियं ॥१२॥ ओसन्नं सुरमणुए सायमसायं तु तिरियनरएसु । मज व मोहशीयं दुविहं दसणचरणमोहा ।।१३।। ईसणमोह तिविह सम्म मोसं तहेव मिच्छतं । सुद्ध अविसुद्ध अविसुद्ध तं हवइ कमसो ॥१४!! जियअजिय पुण्णपावासब संवरबन्धमुक्खनिज्जरणा। जेणं सहइयं तयं सम्म खइगाइबहुमेयं ।।१५।। मीसा न रागदोसो जिणधम्मे अंतमुहजहा अन्ने। नालियरदीवमणुणो मिच्छ जिणधम्मबिवरीयं ।।१६।। सोलस कसाय नव नोकसाय दुविह चरित्तमोहणियं 1 अण अप्पच्चक्वाणा पच्चक्खाणा य संजलणा ॥१७॥ जाजीवरिसचउमासपक्सगा नरयतिरिय नर अमरा । सम्माणुसन्धविरईअहखायचरितपायकरा ॥१८॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कर्म ग्रन्थ को गाथाएँ जलरेणु पुडविपन्वयराईसरिसो बाविहो कोहो । तिगिसलयाकद्वियसेलत्थंभोवमो माणो ॥ १६ ॥ मायावलेहिंगोमुत्तिमिलसिंगघणवं सिमुलसमा । लोहो हलिदखंजणकद्दमकिमिरागसामाणो ॥ २० }} जस्सुदया होइ जिए हास रई अरइ सोग भय कुच्छा। सनिमित्तिमनहा वा तं इह हासाइमोहणिय ॥२१॥ परिसिस्थि तदुभय पड़ अहिलासो जवसा हवाइ सोउ । यीनरनपुउदयो फफुमतणनगरदाहसमो ॥२२॥ सुरनरतिरिनरयाऊ हडिसरिसं नामकम्म वितिसम । बायालतिनवविहं तिउत्तरसयं च सत्तट्ठी ॥२३॥ गइजाइतणुऊवंगा बन्धणसंघायणाणि संघयथा । संठाणवण्णगन्धरसफास अणुपुब्धि विहागाई ॥२४॥ पिंडपडित्ति चउदस, परधा उस्सास आयवुजोयें । अगुरुलहुतित्थनिमगोवायमिय अपतया ॥२॥ तस वायर पज्जत पत्तेय धिरं सुभं च सुभगं च । सुसराइज्ज जसं तसदसगं थावरदसं तु इमं ॥२६॥ थावर सहम अपज साहारण अथिर असुभ दुभगाणि। दुस्सरणाइजाजसमिय नामे सेयरा वीसं ॥२७॥ तसबउ थिरछक्क अथिरक सुहमतिग थावरचउक्कं । सुभगतिगाइविभासा सदाइसलाहि पयडीहिं ।।२।। वपणच अगुल्लहुबउ ससाइतिर मिस्थाई । इय अनावि विभासा तयाइ संखाहि परडीहिं ॥२६॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ गइयाई उ कमसो चउपणपण तिपणपंचछच्छक्कें । पणदूपणच दुग उत्तरभेयपणसी ॥३०॥ इय अडवीस जुया faras संते वा पनरबंधणे तिसयं । बंध संघाय हो तणूसु सामन्नवण्णचर ॥३१॥ इय सत्तट्टी बंधोदय न य सम्ममीसया बंधे । बंधुदए साए श्रीदुवीसअट्टवन्नसणं ॥ ३२ ॥ उणिवाइओ । ॥ पणसरीरा ||३३|| ततीय कर्मग्रभ्य: परिशिष्ट निरयतिरिनरसुरगई इमवियति ओरालविवाहारगतेयकम्मण सेसा बाहूरु पिट्टि सिर उर उयरंग उवंग अंगुलीपहा । गोवंगा पढमतणुतिगस्सुवंगाणि ।। ३४ ।। fragaticorr संबन्धं । उरलाईबंधणं नेयं ॥। ३५|| उरलाइपुग्नलाणं जं कुणइ जउसमं तं जं संधाय उरलाई पुग्गले संघायं बंधणमित्र तपगणं व दताली । तणुनामेण पंचविहं ॥ ३६|| तं सगतेय कम्मजुत्तणा । ओल विजवाहारयाण नव बंधणाणिइयरसहियाणं तिनि तेसि च ॥३७॥ संघयणमनिओ तं छद्धा बज्ज रिसनाराय । नाराय रिसहनाराय तह य कीलि छेव इहरिसहो पट्टी य कीलिया वज्जं । उभओ मक्कडबंघो नाराय enerati संठाणा वृन्ना अद्धनारायं ||३८|| इममुलंगे ||३६|| निगोहसाइज्जा वामणं हुई । किन्दनीललोहियहलिसिया ||४०|| Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कर्मग्रन्थ को गापाएँ सूरहिदुरही रसा पण तित्तकडुकसाय अनिता मजुरा । फासा गुरुलहुमिउखरसी उम्ह सिणिद्धरूपलट्ठा ॥४॥ नील कसिणं दुगंधं तितं कड्य गुह रुक्स। सीयं च असुहनवर्ग इक्कारसग सुभं असं ॥१४२।। चउह गइवणुपुष्वीगइ पृथ्विदुर्ग तिग निधाउजुर्य । पुथ्वीउदओ बक्के सुहअसुह वसुट्ट विहगई ॥४३॥ परधाउदया पाणी परसिं बलिणं पि होइ दुरिसो। ऊससणद्धिजुत्तो हवेइ ऊसासनामवसा ॥४४॥ रविधिबे उ जियंग लावजुये आयवाउ न उ जलये ।। जमुसिणफासस्स तहि लेहियवन्नस्स उदउ ति ॥४५॥ अणुसिणपयासरूवं जियंगमुज्जोयए इहुज्जोया है जइदेवुत्तरत्रिविकयजोइसखजजायमाइव्व ॥४६॥ अंगं न गुरु न लहुयं जायद जीवस्स अगुरुलहुउदया। तित्थे तिहुयणस्स वि पुज्जो से उदओ केवस्लिमो ॥४७॥ अङ्गोवंगनियमणं निम्माणं कुणइ सुत्तहारसमे । अबघाया उवहम्मइ सतणुक्यबलं बिगाईहिं ॥४॥ बितिचउपणिदिन तसा वायरओ वायरा लिया थूला । नियनियपज्जत्तिजुया पज्जत्ता लद्धिकरणेहि ॥४६| पत्तेय तण पत्ते उदयेणं दंतढिमाई घिर ३ नामुवरि सिराइ सुहे सुभगाओ सव्वजण इ8ो ॥५०॥ सुसरा मुहरसुहझुणी आइज्जा सब्बलोयगिज्झवओ। जसओ जसकित्तीओ थावरदसगं विवज्जल्यं ॥५१॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट सुवभुंभलाईयं । वीरिए च ॥५२॥ | जीवो वि ॥ ५३ ॥ | गोयं दुहच्चनीयं कुलाल इव विग्धं दाणे लाभे भोगुवभोगंसु सिरिरियस जह पडिकूलेण तेण तेण रायाई । न कुणद दाणाईय एवं विग्वेण परिणीत्त निहव उवधाय पस अतरारणं । अच्चासावणयाए आवरण दुर्ग जिओ जयइ ॥ ५४ ॥ ग ुरुभत्तितिकरुणा-वयजोगकसाथ विजयदाणजुओ । धम्माई अज्ज सायमसायं त्रिवज्जय || ५५ ॥ उम्मदेसणामग्गनासणा देवदव्वहरणेहिं । दंसणमोहं जिणमुणिचेश्य संघाइ पडिणीलो ॥ ५६ ॥ दुविहं पि चरणमोहं कसायहा साह विसय विवसमणो । बंधद नरयास महारंभपरिग्गहरओ रुद्दो || ५७॥ तिरियाज गूढहियो सढो ससल्लो तहा मणुस्साउ । पयई तणुकसाओ दारुई मज्झिमग ुणो अ ॥ ५८ ॥ अविश्यमाइ सुराचं बालतवोऽकामनिज्जरो जयद । सरलो अगारविल्लो सुहनामं अन्नहा अहं ॥५६॥ गुणपेही मयरहिओ अज्झयणझावणारुई निच्चं । पकुणइ जिणाइ भत्तो उच्च नीयं इसरहा उ ॥६०॥ जिणपूयाविग्धकरो हिसाइपरायणो जय विग्यं । ar aafaarita लिहिओ देविन्दसूरिहि ६१ ॥ ॥ प्रथम कर्म की गाथाएं समाप्त ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कर्मग्रन्थ की गाथाएँ तह थुणिमो वीरजिणं जह गुणठाणेसु सयलकम्माई । बन्धुओदीरणयासत्तापत्ताणि खचियाणि ॥१॥ मियछे सासण मीसे अबिरय देसे पमत्त अपमत्त । नियटि अनियट्टि सुहमुवसम खीण सजोगि अजोगिगुणा |२| अभिनवकम्मरहण, बंधो ओहेण तस्य वीस-सयं । तिस्थय राहारग-दुगवज्ज मिच्छमि सतर-सयं ॥३॥ नरयतिग जाइथावरचत, हुंडायवछिवट्ठनपुमिच्छ । सोलतो इगहियसउ, सासणि तिरिक्षीणदुहमतिम ।।४।। अणमझागि इसंघयणचउ, निउज्जोयकुखगस्थि ति । पणवीसंतो भोग पउसयार दुआख्यअन्धा ॥५॥ सम्मे' सगसरि जियाउबंधि, बइर नरतिम वियफसाया । उरलदुग तो से, सत्तट्ठी तिा कसायतहे ॥६॥ तेवदिठ पमत्ते सोग अरइ अधिरदुग अजस अस्सायं । वुच्छिन्न छच्च सस व, नेई सुराउ जया निट्ठ ।।७।। गुणसछि अप्पमते सुराउबंध तु जर इहागन्छ । अन्नह अट्ठावण्णा जं आहारगदुर्ग बन्धे ॥८॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कभनन्थ : परिशिष्ट अडवन अपुन्वाइमि निवदुयतो छपम्न पणभागे । सुरदुग पणिदि सुखगइ तसनव उरलविणु तणुवंगा || समचउर निमिण जिण वण्णअगरलड्डचउ छलसि तीसंतो। चरमे वासबंधी सरकू यायावर अनियदिठ भागपणगे, इगेगहीणो दुबीसविहनन्धो । पुमसंजलणचाउणह, कमेण छेओ सतर सुहमे ।।११।। चउर्दसणुच्चजसनाणविग्धदसगं ति सोलसुच्छेओ। तिसु सायबन्ध छेओ सजोगि बन्धं तुणतो अ ॥१२॥ उदओ विवागवेयणमुदीरण अपत्ति इह दुधीससय । सतरसय मिच्छे मीस सम्म-आहार-जिणशुदया ॥१३॥ सुहुम-तिगायव-मिच्छ मिच्छतं सासणे इगारसयं । निरयाणुपुग्विणुदया अण-थावर-इमचिगलग्रंतो ॥१४॥ मोसे सयमणपुवीदया मीसोदएण मीसंतो । चउसयमजए सम्माणुपुब्वि-खेवा दिय-कसाया ॥१५।। मणुतिरिणुपुब्धि विउवट्ठ दुहग अणाइजदुम सतरछेओ । सगसीइ देसि तिरिगइआउ निउज्जोय तिकसाया ।।१६।। अच्छेओ इगसी पत्ति आहार-जुगल-पक्खेवा । मीणतिगाहारगदुग छो छस्सयरि अपमस ॥१७॥ सम्मत्ततिमसंघयणतियगच्छेओ बिसत्तरि अपुटवे । हासाइछक्कयतो सहि अनियट्टिवेयलिगं ||१८|| संजलणतिग छलछेओ सवि सुहमंमि तुरियलोभंतो। उपसंतगुणे गुणसहि रिसहनारायदुगअंतो ॥१६॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - fate कर्मन्य को मायायें २१७ सगवन्न खीण दुचमि निद्ददुगंतो य चरमि पणयन्त्रा । नाणंतरायदंसण- चउ सर्वोमि कामेश्व तिथूदया उरलाऽधिरखगइदुग परिततिम छः संठाणा । निमिणतेयकम्माइसंघयणं ॥ २१ ॥ अगुरुल हुवन्नचर दूसर सुसर सायासाएगयरं च तीस वुच्छेओ । वारस अजोगि सुभगाइज्जजसन्नर वेयणिय ॥२२॥ तसति पणिदि मणुया उगइ जिणुच्च ति चरमसमयता । उदउदीरणा परमत्ताईस मेसु ॥ २३ ॥ एसा पर्याडि - विणा वेयणिवाहारजुगल थीण तिगं । मणुयाउ घमत्तंता अजोगि अणुदीरमो भगवं ||२४|| सत्ता कम्माण ठिई बंधाई-लख अत्त-लाभाणं । संते अडवालसयं जा उवसमु विजिणु वियतइए ||२५|| अव्वाचउक्के अतिरि-निरयाउ विणु वियालसयं । सम्माद उसु सत्तम खयम्भ इगवत्त-सयमहवा ||२६|| aai तु पप्प उसु वि पणयाल नरयतिरिसुराउ विणा । सत्तr far raati जा अनियट्टी पढमभागो ||२७|| थावर तिरि निरयायव दुग थीणतिगेग विगल साहारम् । सोलखओ दुवीससयं वियंसि बियतियकसायंती ||२८|| तइयाइ उदसतेरबार छपण चचतिहियसय कमसो | नपुइस्थिहासछगपुंसतुरियकोहमयमायखओ १२६॥ सुहुमि दुसय लोहन्तो खीणदुचरिमेगभओ दुनिख । नवनवद्द चरम समए चउ दंसणनाण विग्वन्तो ॥ ३० ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ গীয় বন্ধ ; বিচ্ছি पणसीइ सयोग अजोगि दुचरिमे देवखगइ गंधदुगं । फास बन्नरस तणु बन्धण संघायपण निमिणं ॥३१॥ संघयणअधिरसंठाणं छाक अगुरुलड्नुचाउ अपज्जतं । सायं व असायं धा परिसुवंगतिग सुसर नियं ॥३२॥ बिसयरिखओय चरिमे तेरस मणुयतसतिग जसाइन्छ । सुभगजिणुच्चपणिदिय सायासाएगयरछेओ ॥३३॥ नरअणुपुतिय विणा वा बारस चरिम समर्थमि जो खविडं। पत्तो सिद्धि देविन्दवं दियं नमह तं वीरं ॥३४।। ॥ द्वितीय कर्म ग्रन्थ को गायाएं समाप्त ॥ m Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय क्रर्मग्रन्थ की गाथाएँ बंधविहाणविमुक्क, वंदिय सिरिदद्धमाणजिणचर्द है गइयाईसु वुच्छ समासओ बंधसामित्तं जिण सुरविउवाहारदु देवान य नरयसुहमविगलतिम । एगिदि थावराज्यव नपु मिच्छ हुँड छेवट्ठ १२॥ अण मज्झागि संघयण कुखग निय इस्थि दुगथीणतिग। उज्जोयतिरि दुगं तिरि नराउ नर उरलदुरिसह ॥३॥ सुरइगुणबीसवज्ज हगसत आहेण अंधहि निरया। तित्थ विणा मिच्छि सय सासणि नपुचउ विणा छुनुइ ११४ विणु अणछबीस मीसे विसरि सम्मम्मि जिणराउ जुआ। इय रयणाइसु भंगो पंकाइसु तित्थ्यरहीणो ॥५॥ अजिणमणुमाउ ओहे सत्तमिए नरगच्च विणु मिले । इगनवई सासणे तिरिमाउ नपुसउवज ॥६॥ अपचउवीसविरहिया सनरदुगच्चा य सथरि मौसदुगे । सतरसउ ओहि मिल्छे पतिरिया विणु जिणाहारं ॥७॥ विणु नरयसोल सासणि सुराज अण एगलीस निणु मीसे । ससुराज सथरि सम्मे बीयकसाए विणा से l Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट इय जगणं त्रि नरा परमजया सजिण ओहु देसाई । अपजत्ततिरियनरा || जिला शत्रसल निरय व सुरा नवरं आहे मिच्छे इमिदितिगसहिया । कप्पदुगे वि य एवं जिणहोणो जोदभवणवणे ॥१॥ रयण व सर्णकुमाराई आणवाई उजोयचउरहिया | अपजतिरिय व नवरयमिगिदिपुढ विजलतरुविगले ॥। ११॥ छनवइ सासणि विणु सुहमतेर केइ पुण विति चडनवइ' । तिरियनराजहिं विणा तणुपत्ति न ते जैति ॥ १२ ॥ ओहु पणिदि त गइसे जिणिक्कार नरतिगुच्च विणा । मणयजोगे ओहो उरले तरभंग वम्मिस्से ||१३|| आहारछा विणोहे चउदससउ मिच्छि जिणपणगहीणं । सासणि नवइ विणा नरतिरिआऊ सुहृमतेर || १४ || अणचवीसह विणा जिगपणजय सम्मि जोगिणी सायं । विणु तिरिनराउ कम्मे वि एवमाहारदुगि ओहो ||१५|| सुरओहो वेदवे तिरियमराज रहिओ य तमिस्से | defense far far कसाय नव डु व पंच गणा ।। १६ ।। संजलपति नव दस लोभे चउ अजइ दु ति अनापतिगे । बारस अत्रमखु चक्खुसु पहमा अहवाइ चरमचऊ ॥ १७॥ मणनाणि सम जयाई समय छेय वउ हुन्नि परिहारे । केवलिदुगि दो वरमाऽजयाइ नव महसुओहिदुगे || १८ || अड उवसमि च यगि खइए इक्कार मिच्छतिगि देते । सुहृमि सठाणं तेरस आहारगि नियनियंग पोहो ॥१६॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कर्मप्रन्थ को मायायें २२१ परमुवसमि वट्टता आउ न बंधति तेण अजयगुणे । देवम आउहीण देसाइसु पुण सुराउ विणा ||२०|| ओहे अट्ठारसयं आहारदूगुण आइलेसतिगे । तं तिथोणं मिच्छे साणासु सर्व्वाहि ओहो ||२१|| तेक नरयनणा उजोयच नरम्बार विशु सुक्का । विणु नरबार पहा अजिणाहारा इमा मिच्छे ||२२|| सव्वगुणमव्वसन्नि ओहु अभव्या असन्ति मिच्छासमा । सासणि असन्नि सन्नि व कम्मभंगो अणाहारे ||२३|| तिसु दुखु सुक्काइ गुणा च सग तेर ति बंधसामितं । देविन्दसूरिलिहियं निय कम्मत्थय सोउं ॥ २४॥ ॥ तृतीय कर्मग्रन्थ की गाथायें समा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296k amwOOMOOVomwwwwwwen कर्मग्रन्थ ----माग एक से तीन तक का संक्षिप्त शब्द-कोष अंग...शरीर, शरीर का अवयव । अंगपनि अंगप्रविष्ट आचारांग आदि १२ आगम अंगोवंग-अंग, उपांग, पारीर को रेखा, पर्व आदि असमुह (त)- अन्तर्मुहूर्त (एक समय कम ४८ मिनट) अंतराअ-अन्तराय, विघ्न, रुकावट अकामनिज्मर-अकामनिर्जर (बिना इच्छा के कष्ट सहन कर कर्म निर्जरा करने वाला) अगाविस-निरभिमान अगल-अगुरुसत्रु नामकर्म अगुल्लहसउअगुगलघु, अपघात, पराधात, उच्छ्वास मामकर्म अवधु-अचक्षुदर्शन अचासायणा --अवहेलना, उपेक्षा, आशातना अजय-अयत...अविरत सम्यगदृष्टि जीव अजयगुण-अयत गुणस्थान अनयाई-अविरत सम्यग्दृष्टि आदि अकस - अयशःफीति नामकर्म अजिय-अजीय Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोश २२३ अभिणाहार- अजिनाहारक-जिननामकर्म तथा हाहारक-द्विक रहित अजिन मणुआउ-अभिन मनुष्यायुक्-सीकर नामकर्म तथा मनुष्यामु अधिक अस्थि, हाडी अठवन्न ---अट्ठावन (५८) अट्ठारसय--- अष्टादशशत (११८) अयाणा-अट्ठावन (५८) अ... अष्ट--आर अश्यालय-एकसो असालीस (१४८) अस्वनअट्ठावन (५८) अबोस–अट्ठाईस (२८) अग...-अनन्तानुबन्धी कषाय अणएकसीस -- अनकर्षिशत-अनन्तानुबन्धी आदि ३१ प्रकृतियाँ अण धजलीस ... अनन्तानुबन्धी आदि २४ प्रकृतिमा । সর্থেী ~ গনণমিলি~~-নবাগী খাবি : সংবিধা अणाइज ... अनादेय नामकर्म अगाहार अनाहारक मार्गणा अनुपम्यो-मानुपूर्वी नामकर्म असिण - अनुष्ण (शीतल) अस्थागह... अर्यावग्रह अभिर-अस्थिर मामकर्म अमिर छक्क-अस्थिर, अशुभ, दुर्भय, दुःस्वर, अभाव, अपकीति, TE कर्म की छह प्रकृतियों Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अङ्क--आधा भाग अनाशय अर्धनाराच संहनन अमर - अन्यथा अनाणसिंग अज्ञानत्रिक-मति आदि तीन अज्ञान अनिय—ि अभिवृत्ति बादर संपराय गुणस्थान अपचक्खाण-अप्रत्याख्यानावरण कषाय अपज - अपर्याप्त नामकर्म अपर्याप्त जीव अपत्ति -- समय प्राप्त न होने पर —- www अपमत—अप्रमत्तविरत गुणस्थान अयोगियोगिवली गुणस्यान अरहरति मोहनीय अवलेह - बांस का छिलका अवाय मतिज्ञान का अपाय नामक भेद अविरय अविरत सम्यग्दृष्टि ; अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान अनि असंजी असा असातावेदनीय 2 असुम - (असुह ) — अशुभ नामकर्म A तृतीय फर्मभ्य: परिशिष्ट 1 असुनवर्ग - कृष्ण, नील वर्ण, दुर्गन्ध, तिक्त कटु रस, गुरु, बर रूक्ष, शीत स्पर्श, यह नी प्रकृतियाँ मशुमनवक कहलाती हैं | अहवाय चरिल... यथाख्यात चारित्र आइ आदि, पहला प्रथम www अहम आदेय नामकर्म आइलेसलिंग आदि लेश्यात्रिक – कृष्ण आदि तीन लेभ्याएँ www आयुकर्म Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द कोश २२५ आल्याइ-आनत आदि देवलोक आपथ-आतप नामकर्म मावरणा.....आवरणविक (हानावरण, वनावरण) आसपासव तत्व हाग हाय! ...अ पदीर नाम ; अहारक शरीर आहार-आहारकनिक नामकर्म आहार-दुग----आहारक तथा आहारक मिश्रयोग अध्यया आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग आहार-छग--आहारक-पटक, आहारक हादि छह प्रकतिर्श इगत-इकतालीस (४१) इगनवा --- एकनवति----इफानने (8} इगस एक सौ एक (१०१) इगसी-इक्यासी (८१) इगहिम सय–(एकाधिकशत) एक सौ एक (१०१) इंगिधि (एगिन्दि)क-एकेन्द्रिय जाति गिदि-तिग–एके दिय-निक...एकेन्द्रिय कादि सीन प्रति इन्धिय पक-स्पर्शन, रसन, घाण और श्रीन यह चार इन्द्रियाँ हस्थी-स्त्री, स्त्रीवेद नामकर्म जय-उच्चगोत्र उज्लोभ-जयोत नामकर्म उम्मोअ-ब-जोस आदि चार प्रकृतियों उज्जोया उद्योत नामकर्म वण्ह--उष्ण स्पर्म मामफर्म समा--शास्त्रविषय-वच्छन्द Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ उपर पेट www छाती, बक्षस्थल उरल-औदारिक-स्थूल, औदारिक कामयोग लग ओदारिकहि नामकर्म उरालंग दारिक शरीर उबंग – उपांग; अंगुली आदि शरीर के बंग उपधाय - उपघात नामकर्म, नाश उक्सम — औपशमिक सम्यक्त्व । उपशान्तमोह वीतराग उद्यस्य गुणस्थान उत्सास- उच्छ्वास नामक उपिकास उष्ण स्पर्श नामकर्म www ऊ जंघा ऊससणलद्धि--- श्वासोच्छ्वास की शक्ति ऊसासनाम-वास नामकर्म एगयर — किसी एक का ओरालऔदारिक शरीर नामकर्म औदारिक शरीर ओह ओघ - सामान्य ओहि अवधिदर्शन अवधिज्ञान FM ओहि अवधि-विक Fwww. तृतीय कर्मप्रग्य: परिशिष्ट FTY आहे. सामान्य रूप से कड कटुका रस नामकर्म कम्पग - कल्प- द्विक - १-२ देवलोक कम्म- (कम्मण ) कार्मण काययोग करण ---- इद्रिय कलाय - कषाय मोहनीय कर्म, कषायरस नामकर्म Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शव कोरा २२७ कसिण-कुष्णवर्ण नामकर्म किण्ह -कृष्ण वर्ण नामको कोलिया-कीलिका संहान मामफर्म ; खोला कुख-अशुभ विहायोगति नामकर्म कुमछा---qणा केवल-युग (केवल) केवलज्ञान, केवलदर्शन फलि-जयी कोहकोध कषाय खोगक्षीणमोह बीसराग अपस्थ गुणस्थान ति.....क्षमा खंबा-मिलामे से काम क्षायिक सम्यक्त्व खको क्षय होने से जगह-सायिक बम सलवार घर-घर स्पर्ण नामकम खुज कुम्मसंस्थान गह--गति नामकर्म माइतस--गतिस-हेमस्काय, वायुकाय गमिया---गतिकश्रुत गुणगुणस्थान पुणसदिठ-उनसठ (५६) गुरु-शुरु स्पर्श नामकर्म ; अथवा वजनदार, भारी Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ गडहियम कंपटी - गोत्र कर्म चजना मौदानवें (२) वही चार प्रकार का रोहत्तर (७४) उहा— चार प्रकार का BAALA चक्षुवर्शन अथवा आँख चरणमोह -- चारित्र मोहनीय कर्म रिस मोहणिय चारित्र मोहनीय FTTTYSAL SAJJJAA छपक छह (६) का समूह 2155 छद्धा. छे-छह का क्षय होने से छह प्रकार का धनु (धन) - णवति छियानवे (१६) VYBALL छपन्न- छप्पन (५६) छलंसि छटे भाग में इस छियासठ (६६) छरछियत्तर (७६) wwwww छहा छह प्रकार का छेत्र- छेदोपस्थानीय वास्त्रि छेवट सेवा संहनन जई - साधु जज लाख तपाइ --प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान ***22099*..." तृतीय कर्मप्रम्य: परिशिष्ट Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : aa कोश अस--- यशः कीर्ति नामकर्म जाह-जाति नामकर्म जिस आत्मा जिण-पणग - जिन आदि पांच प्रकृतियां for- इनकार ( जिक्कार ) -- जिन आदि ग्यारह प्रकृतियां जिय-जीव सत्य जोय जीव जोब AAAAAAA -आत्मा शुभ ----युत - संहित ओइ ज्योतिषीदेव BAALA MAJJAL जोइस-चन्द्र, नक्षत्र आदि ज्योतिष्क मंडल जोग - संयम योगि सयोगि केवली ठिक स्थिति, स्थितिबन्ध मुवया उदय न होने से लाइसीसरे आदि भागों में तणु-मशरीर अथवा शरीर नामकर्म खणुतिग-- तीन मरीर सपनति-शरीर पर्याप्त लम्पिक्स - तमिव तद् मिश्र काययोग अमुक का मिश्र) तह वनस्पतिकाय तस-नस नामकर्स तसच - लस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक नामकर्म की चार प्रकृतियाँ vy ++ २२६ (अमुक काययोग के साथ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० तृतीय कर्मन्य: परिशिष्ट ससस -- नामकर्म की तस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आवेग, यशःकीर्ति मे १० प्रकृतियां । ति--तीन (३) तिग-तीन का समूह तिथिसक्षमा-मंत तित --- तिक्त रस नामक तित्व ( तिरथयर ) - तीर्थंकर नामकर्म तिम्मि तीन MAMMYYYY सिम कलाम -- तीसरा कषाय- प्रत्याख्यानावरण कषाय तिरि--तियंध तिरियुग-सिध ठिक सिरिमराज ( तिरियमराउ ) -- वियँव आयु तथा मनुष्य आयु तिरियन MAAAA सम-- तेजस्काय अथवा तेजोलेश्या तेम ---तेजस शरीर ........ यावरच उक्क-स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण, यह चार प्रकृतिय P पावरक्स - स्थावर आदि दस प्रकृतियां मिर- स्थिर नामकर्म विरळक स्थिर आदि छह प्रकृतियां श्री स्त्री MAAY योणतिग-स्त्यानत्रिक (प्रचला, प्रचलाप्रचला एवं स्त्यानदि निद्रा के तीन भेद ) श्रीमती-स्थान नामक निद्रा विशेष ---------- . ..... Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य कोश वसन --- यथार्थ श्रवा दंसण उ---दर्शनावरण चतुष्क (सुदर्शन चक्षुन अवधिदर्शन केवल दर्शन का आवरण ) सण मोह--दर्शन मोहनीय सणावर दोनावरण कर्म बुग (बु) -- दो (२) बुगंध दुरभिगन्ध नामकर्म दुभरादुर्भग नामकर्म दुरहि- दुरभिगंध नामकर्म दुस्सर दुःस्बर नामकर्म बुग- दुभंग नामकर्म -- TLAMAA ATTE सर दुःस्वर नामकर्म वेवमनुज देव आयु तथा मनुष्यायु देस -- देशविरति गुणस्थान durg - देशविरति आदि गुणस्थान " नपु–नपुंसकवेद नपुर -- ( नपुं सच ) -- नपुंसकचतुष्क नह-मनुष्यगति, पुरुष rest - अधोलोक सरय-नरक, नरकगति मरयमव--- नरकगति आदि तो प्रकृतियां नरम बार- नरकगति आदि बारह प्रकृतियाँ मध्य सोल- नरकगति आदि १६ प्रकृतियाँ नरवानरक आयु २३१ 7 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ नराज.... मनुष्य आयु मन Mday नाज - ज्ञान नाम नामकर्म भारराय - नाराच संहनन । दोनों ओर मर्केट बन्ध रूप अस्थि रचना निग्मोह -- न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान नियम -- रचना निरज्जोय नीषगोत्र, उद्योतनाम निष्व --- छिपाना, अपलाप करना निम्माण (मिमिण ) -निर्माण नामकर्म fee (नीय) अपना अपना नीचगोत्र नियद्ध-- निवृत्ति (अपूर्वकरण) गुणस्थान निरथ--नरक, नारक ( नरक के जीव ) मेय -- जानने योग्य कसाय नोकषाय मोहनीय पंकार - पंकप्रभा आदि नरक ओर पएस प्रदेशबन्ध पोस -- अति (ख) पह-- तरफ, T TYM तृतीय मंत्रम्य परिशिष्ट पञ्चकखाण... प्रत्याख्यानावरण कषाय पनस पर्याप्त नामकर्म पति-- पर्याप्ति (पुद्गलोपचय-जन्य शक्तिविशेष) पजय --- पर्याय पर्याय त पट्ट - बेठन BAJAJHY Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब कोश २३ पर--पट्टी पक्षिणीयसण-शत्रुता पशिषसि प्रतिपति श्रुत परिवार--प्रतिपाति अवधिज्ञान पणयासं—पैसालीस (४५) पवमा---पचपन (५५) यणसीह - पचासी (८५) पनिदि-पंचेन्द्रिय पसय-प्रत्येक नामकर्म ; अवान्तर भेदरहित प्रकृति पर य स.---.प्रत्येक तनु (जिसका स्वामी एक जीव है, जैसा सरीर) पप्प-..-प्राप्त करके पास-प्रमत्तविरत गुणस्थान पम्हा- पचलेश्या पथ पदयत पया-स्वभाव ; प्रकृतिबन्ध पति - कर्मप्रकृति খায়-~~মাথা নাম परिस-प्रत्येक नामक परिहारपरिहारविशुद्धि मारिष पाणि....जीव पाहुडामृत श्रुत पिडपर्या-पिण्ह प्रकृति (अवान्तर भेद वाली प्रकृति पुस-..पुरुषवेद कुंकुमाकण्टे की आग Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UNAMAMATWwwgowwwwwwwwwwwwwwwww w wwwwwwwwwwwwwICILITVIC . UVJU anian v mewwwooomno तृतीय कर्मअप : परिशिष्ट फास स्पर्श नामकर्म बंध-बन्धतस्व, बंधप्रकरण बंधश-बन्धन नामक पत्न-विहान-बन्ध करना बनसय वर्तमान में बंधने वाला वायर--- रामकर्म ; गार' पायाल-बयालीस (४२) बिय (fa)... (२) शियाल सायं--एक सौ बयालीस (१४२) विसरि (बिसतरि) - विसप्तति-- बहत्तर (७२) बीम कथाम-दूसरा कापाय-अप्रत्याख्यानावरण काय भवण-भवनपतिदेव मंमल-मद्यपात्र माइ---मतिमान मह-सुअ- मति एवं श्रुतमान मकर बन्छ मर्कट के समान बन्छ मजामिनमध्याकृति बीप के संस्थान मण-मन, मनःपर्यायशान मनमाण-मनःपर्यायज्ञान मम अयोगमान-योग तथा वचनयोग मम् (म )--मनुष्य, मनुज महर- मधुर रस मामकर्म, मीठा माणसमान मिज-मृदुस्पर्म नामक ..: -... Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500MMISLIM ..... सब कोश मिड-ड मिछ (मि)---मिथ्यात्म मोहनीय अथवा मध्याहृष्टि गुण स्थान मिन्छस-मिथ्यात्व मोहनीय मिछतिग--मिथ्यादृष्टि आदि सीन भूणस्थान मिच्छ-सम ---मिथ्याष्टि गुणस्थान के तुल्य मिछा--मिथ्यात्व मोहनीय भोस (मीसय, मौसे)---मिथ मोहनीय, मिश्र (सम्यमिथ्यात्व) गुणस्थान मीस-गर ----मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान सुमध-गोस मसपाह-मुख्यप्रकृति रम-आसक्त रद-प्रेम, अनुराग, रति नामकर्म रयणा (रयण)- रत्नप्रभा आदि नरक राई-रेखा, लकीर रिउमइ--ऋजूमति मनःपर्यायशान रिसह-अषम (पट्ट बेठन) अथवा ऋषभनाराम संहनन्द रिसहनाराय-- ऋषभनाराच संहनन हमख-सक्षस्पर्शनामकर्म संधिगा-पड़ीम सम-इलका लिहिल-लिखा हुआ लिहणबाटमा मोह- लोभ, ममता लोहिय-लोहित्यर्थ नामकर्म Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ समूल- बांस की जड़ (मायाकषाय के एक भेद की उपमा ) बहर---- वज्रऋषभ नाराच संहनन -स्वीला वज T यज्ञरिसनाराय वचषभ नाराच संहनन वजनवग्ग - व्यंजनावग्रहः मतिज्ञान डोड़कर के बस -- वर्तमान वढमाणय - वर्धमान ( अवधिज्ञान का भेद विशेष ) वन-वाणव्यन्तर देव वणवणं नामकर्म यत्र वर्ण नामकर्म वस -- बैल अधीनता ; www. - वामन संस्थान वामण विजय (उण्य) – वैन्यि शरीर नामकर्म तथा वैक्रिय काययोग विजय- वैक्रिय अष्टक (वैक्रिय पारीर आदि आठ प्रकृतियाँ) दिग्ध - विघ्न, अन्तराय कर्म fare - विकलेन्द्रिय fareललिग विकलत्रिक BELLY www विजिणू छोड़कर विसि दरबान विमासा - परिभाषा-संकेत विमल विमलमति मनः पर्यायशान ततीय कर्मप्रम्य: परिशिष्ट AWAA विवस्थ--- (विवज्जय-विवरीय) विपरीत, उल्टा दिवाग - विपाक, फल ( प्रभाव, असर) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश बिगगड विहायोगति नामकर्म होने से बेअ-वेदमोहनीय बे-लिंग- स्त्री-पुरुष नपुंसक वेद देय... वेदनीय कम श्रेयण भोगना, अनुभव करना defredदनीय कर्म www संघपण संहनन नामकर्म : हड्डी की रचना संधाय संघात श्रुतज्ञान; संघात नामक संघायण -- संघात नामकर्म संजल-संज्वलन काय संजणगि संयजन श्रोध, मान, माया संठाण संस्थान नामकर्म संत सत्ता संति---संज्ञी (मनवाला), संज्ञीमागंणा संभ-अविरत मम्यष्टि गुणस्थान सग—अपना AAJJAN सगवन्न — सत्तावन (५७) सगसरि सतहत्तर (७७) सगसह सतासी (८७) स ठाणा – स्व-अपना गुणस्थान - समकुमाराष्ट्र - सनत्कुमारादि देवलोक सतगु - अपना शरीर सतग -सात प्रकृतियों का समूह सर---- सत्रह (१७) FF २३७ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ romedyosranAmAWAJ २० सृलोम कर्मधन्य परिशिष्ट सतस-सप्तदशाशत---एक सौ सत्रह (११५) सपज्जामियअन्तसहित सपडिय-विरोधी सहित समस–सामायिक चारित्र समयउर ... (समनद ..समचार सम्म-सम्याष्टि, सम्यक्रद मोहनीय समास-संक्षेप सरि सत्तर (७०) समो-सयोगिकेवली गुणस्थान सम्बविरई-सर्वविरति चारिस समल्ल-माया आदि शस्य सहित साहिथ-साहित साथ-सादि संस्थान साइय-आदि सहित सामान....निराकार साय-- सातावेदनीय (सुख) सापासाएगयर--साता असाता में से कोई एक सासण (सासाण)—सास्वादन गुणस्थान साहारण. साधारण नाम कर्म सिणिव-..स्निग्धस्पर्श नामकर्म सिय-सिस नामकर्म (सफेद, श्वेत) सोअ (सीय) जीतस्पर्श नामकर्म सुस्कारशुक्ललेश्या सुहागर-शुभ विहायोगति Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब कोश सुभ-सुन्दर, अच्छा, शुभ नामकर्म सुमग-सुभग नामकर्म सुय--श्रुतशान सुरहगुणवीस—सुरैकोनविंशातिदेवमति बादि 16 प्रफुलियो सरहि-सुरमिगंध नामकर्म सरा...देवायु ससर ... सुस्वर नामकर्म सुह... गुभ नामकर्म, मुखप्रद, सुख सुहम-सूक्ष्म नामकर्म; सूक्ष्मसंपराय चारित्र ; सूक्ष्मपराय गुणस्थान सुसमसिंग-सूक्ष्मनिक (सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण नामकर्म) सहमतेर... सूक्ष्म नामकर्म आदि तेरह प्रकृतियां सूसर-सुस्वर नामकर्म सेयर--स-इतर--स-प्रतिपक्ष सेलस्यंमो--पत्थर का खम्मा (मान कषाय के एक भेद की उपमा) हजि-बेड़ी हसिद- हारिद्र नामकर्म हवाइ है, होता है होह----होता है हास हाँसी हास्य-हास्य मोहनीय हुउ-हूँइसंस्थान हेउ हेतु, कारण हो...होता है तत्तीय अन्य समाप्त