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तृसीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
नरकगति में गुणस्थानषत् ससा जानना, फिन्सु देवायु की सत्ता में होने से १५७ प्रकृतियाँ सवयोग्य हैं। तीसरे मरक तक तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता है तथा मनुष्यायु की सत्ता छ, नरक तक है । तिर्मठ गति में भी ससा गुणस्थानवत् समझना लेकिन तीर्थङ्कर प्रकृति का सत्त्व नहीं है, इसलिए खस्षयोग्य' १४७ प्रकृतियां हैं।
एवं पंचतिरिवखे पुण्णिदरे णस्थि पिरयदेवास।
ओ मसतिये सु वि लागे पण अपुण्णेच ॥३४७।। इसी प्रकार पाँध जाति के सियंचों में भी सामान्य रीति से सत्व जानना, लेकिन विशेष यह है कि मध्यपर्याप्तक तिर्यंच में नरकायु, देवायु--इन दो को सत्ता नहीं है । मनुष्य के तीन भेदों में भी गुणस्थानवत् सत्य समझमा, परन्तु लम्पर्याप्तक मनुष्य में लव्याप्सक तिथंच की सरह नरकायु, देवायु और तीर्थकर इन तीन प्रकृतियों के विमा १४५ प्रकृतियाँ ससायोग्य हैं।
ओष देवे हि गिरयाऊ सारोत्ति होदि तिरियाऊ ।
भवणतियकप्पयासियइत्थीसु ण तित्थयरसत्तं ॥३४८१ देवगति में सामान्यवत् जानना, किन्तु नरकायु न होने से १४७ प्रकृतियों की सत्ता है । साहबार स्वर्ग तक तिर्यंचायु की ससा है। भवननिक देवों व कल्पवासिनी स्त्रियों में तीर्थकर प्रकृति की ससा नहीं है। इयिकायमाणा
ओघं पंचक्खतसे सेंसिदियकायगे अपुग्णं वा।
तेखदुगे ण पराक सवत्युवेलणावि हवे ॥३४६। . पंचेन्द्रिय व सकाय में सामान्य गुणस्थान की तरह प्रकृतियों की सत्ता है। शेष एकेन्द्रिय आदि अतुरिन्द्रिय तक तथा पृथ्वी आदि स्थावरकाम में लख्यपर्याप्तक की सरह १४५ प्रकृतियों को सत्ता जानना । पर तेजस्काय और वायुकाप में मनुष्याय का सत्व न होने से इन दोनों में १४४ की सत्ता