________________
तृतीय कर्मपन्य : परिशिष्ट
अपर्याप्त, तिच, अपर्याप्त मनुष्य का बंध-स्वामित्व सामान्य बन्धयोग्य १०६ प्रकृतियाँ
गुणस्थान प्रथम (मिथ्यात्व) सीर्थकर नामकर्म (१) से नरक-आयु (११) सक की ११ प्रकृतियों से विहीन- १०६ गु०० गयो । अम- पुनः अन् । बन्ध-विश्लेव
X
IMGAM
थपर्याप्त का अर्थ यहाँ सन्धि-अपर्याप्त से है, करण-अपर्याप्त से माहीं । लब्धि-अपर्याप्त अर्थ लेने का कारण यह है कि करण-अपर्याप्त मनु तीर्थकरनामकर्म का बन्ध कर सकता है, लधि अपर्याप्त नहीं । इसीलिये लब्धि-अपर्याप्तता की अपेक्षा तीर्थकरनामकर्म को सामान्य बन्धयोग्य प्रकृतियों में ग्रहण नहीं किया गया है ।