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त्सीय कमनग्य : परिशिष्ट
१ वेदमागंणा तथा कयायमार्गणा के सामान्य भेदी ... कोध, मान, माया
और लोभ---में से श्रोध, मान, माया इन तीन भेदों में बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० हैं तथा पहले मिथ्याष से नौ अनिवृतिकरण तक नो गुण स्थान होते हैं। उनमें ऊपर कहे गये मन्त्र के अनुसार प्रत्येक गुणस्थाम * কাশি যক্ষা । २ कषायमार्गणा के चौथे सामान्य भेद लोभ में बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ हैं
और गुणस्थान मिघ्यास्त्र से सूक्ष्मसंपरायपर्यन्त दस होते हैं । इनका बंधस्वामित्व पर कहें गये अनुसार जानना । अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) प्रारम्भ के दो गुणस्थानों में पाई जाती है। इसमें तीर्थङ्कर एवं आहारकद्विक का बन्ध सम्भव नहीं है। क्योंकि लायक प्रकृति का संन्यास है और आहारकाद्विक का बन्ध संघमसापेक्ष । किन्तु अनन्तानुबन्धी कषाय में न सम्यक्त्व है और न चारिख । असः तीन प्रकृतियों को कम करने पर सामान्य से ११७ और गुणस्थानों में बन्धाधिकार के समान पहले से ११७ और दूसरे में १०१ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं। अप्रत्यायामाबरण कषायचतुष्क का उदय मादि के धार गृणास्थान पर्यन्त रहता है अतः इसमें चार गुणस्थान माने जाते हैं । इस कषाय के रहते हुए भी सम्यकाव होने से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हो सकता है किन्तु सर्वविरत चारित्र न होने से आहारकटिक का बन्ध नहीं होता । अतः बाहार द्विक के बन्धयोग्य न होने से सामान्य से ११८ प्रकृतियाँ तथा गुणस्थानों में इन्वाधिकार के समान आदि के चार गृण स्थानों में क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं। प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क में एकदेश चारिष होमे से आवि के पांच गुणस्थान होते हैं । तीर्थङ्कर प्रकृति बन्ध योग्य है लेकिन आहारकद्विक का बन्ध सम्भव नहीं है । अतः सामान्य से ११८ प्रकृलियाँ तथा गुणस्थानों में एक से लेकर पांचवें तक क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७, ६७ प्रकृतियां बन्धयोग्य हैं।
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