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तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
हुए लिखा है कि इसमें शतकादि पाँच ग्रन्थों को संक्षेप में समाविष्ट किया गया है अथवा पाँच द्वारों का संक्षेप में परिचय दिया है।
द्वारों के नाम क्रमशः
इस प्रकार हैं
(१) योगयोग मार्गणा (२) बन्धक (३) वन्धन्य, ( ४ ) बन्धहेतु और (५) बन्धविधि ।
इस ग्रन्थ के रचयिता आचार्य चन्द्र महत्तर है। ग्रंथकार ने योगोपयोग मार्गणा आदि पाँच द्वारों के नामों का उल्लेख वो अवश्य किया है, लेकिन इन art के आधारभूत शतक आदि पाँच ग्रंथ कौन से हैं. इसका संकेत मूल एवं earपक्ष टीका में नहीं किया है। बाचार्य मलयगिरि ने इस ग्रन्थ की अपनी टीका में स्पष्ट किया है कि ग्रन्थकार ने शतक, सप्ततिका कषायप्राभृत मत्कर्म और कर्मप्रकृति इन पनि अन्यों का समावेश किया है । इन पाँच ग्रन्थों में से terrora के fart चार ग्रथों का आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में प्रमाण रूप से उल्लेख किया है। इससे सिद्ध है कि कषायभूत को छोड़कर पोष चार ग्रन्थ आचार्य मलयगिरि के समय में विद्यमान में इन चार ग्रन्थों में भी आज सत्कर्म अनुपलब्ध है और शेष तीन ग्रन्थ- शतक नप्ततिका एवं sixकृति इस समय उपलब्ध हैं ।
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महत्तर के समय मच्छ आदि का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। अपनी स्त्रवृत्ति में इतना-सा उल्लेख अवश्य किया है कि नेपा के शिष्य थे। इसी प्रकार महतर पद के विषय में भी किसी प्रकार का उल्लेख अपनी स्वोपज्ञ टीका में नहीं किया है । सम्भवतः सामान्य प्रचलित उल्लेखों के आधार पर ही उन्हें महसर कहा गया है ।
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आवार्य चन्द्र महतर के समय के विषय में यही कहा जा सकता है for fraft पात्र, चन्दवि आदि ऋषि शब्दान्त नाम विशेष रूप से atafat शताब्दी में अधिक प्रचलित थे, अतः ये विक्रम की नीवी-दसवीं शताब्दी में विद्यमान रहे हों। पंचसंग्रह और उसकी स्वोपश टीका के सिवाय चन्द्र महतर की अन्य कोई कृति उपलब्ध नहीं हैं।
पंचसंग्रह को व्यावायें --- पंचसंग्रह की दो महत्वपूर्ण टीकाएँ प्रकाशिक्ष