________________
O
Ml....
तृतीय कर्मअन्य : परिशिE
सप्ततिका के कर्ता के विषय में निश्चित #से कुछ नहीं कहा जा सकता है। कोई चन्द्रर्षि महत्तर को इसका कर्ता मानते हैं और कोई शिवशर्मसूरि को। इस पर अभयदेवमूरिकृत भाष्य, अशासकर्तृक भूणि, चन्द्रषि महत्तरकृत प्राकृत वृत्ति, मलयगिरिकृत टीका, मेस्तुग मूरिकात भाष्यवृत्ति, रामदेवकृत टिप्पण व गुणरस्नमुरिकृत अवधूरि है।
___इन यह ग्रन्थों में प्रथम पांच में उन्हीं विषयों का प्रतिपादन किग्स गया है, जो देवेन्द्रसुरि कृत पाच नस्य कर्मग्रन्थों में सार रूप से है। सप्ततिका (पण्कर्म ग्रन्ध) में निम्नलिखित विषयों का विवेचन किया गया है......
बन्ध, उदय, सत्ता व प्रकतिरपान, जनावरणीय भावि झमो की उत्तर प्रकृतियों एवं बन्ध्र आदि स्थान, आठ कर्मों के उदीरणा स्थान, मुणस्थान एवं प्रकृति बन्ध्र, गतियाँ एवं प्रकृतियाँ, उपशम श्रेणी व एक श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी आरोहण का अन्तिम फल । नस्य कर्मग्रन्थ
प्राचीन पट् कर्मग्रन्थों में से पांच कर्मग्रन्थों के आधार पर आचार्य देवेन्द्र सुटिने जिन पाँच कमग्रन्थों की रचना की है, वे ना कर्मग्रन्थ कहे जाते हैं। हम कर्मग्रन्थों के नाम भी बही हूँ... कर्मविपाक फार्मस्तव, पन्यस्वामित्व, पडशीत्ति और पालक । धे पौधों कर्मचन्थ क्रमश: प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुषं व पंचम कर्मग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपर्युक्त पाच नामों में से प्रथम द्वितीय और तृतीय नाम विषय की दृष्टि से और अन्तिम दो नाम गाथा संध्या की दृष्टि से रखे गये हैं।
पांच नव्य कर्मग्रन्थों के रचयिता देवेन्दसूरि हैं। इन पांच कर्मप्रन्यों की रचना का आधार णिव शर्मसूरि, चन्द्रषि महसर आदि प्राचीन आचार्यों द्वारा रचे गये कर्मग्रन्थ हैं। देवेन्द्रसूरि ने अपने कर्मग्रन्थों में केवल प्राचीन कर्मप्रन्थों का भावा अथका सार ही नहीं लिया है, अपितु नाम, विषय, वर्णनक्रम आदि बाते भी उसी रूप में रखी है। कहीं-कहीं नवीन विषयों का भी समावेश किया है। इन ग्रन्थों की भाषा प्राचीन कर्मग्रन्थों के समान प्राकृत है और छन्द आर्या है।