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तुतीय कमंधन्य : परिशिष्ट
से बीसवीं शताब्दी तक का प्राप्त होता है । इस काल में टीका, वृणि, भाष्य, वृत्ति आदि के रूप में आचार्यों ने कर्मशास्त्र को विस्तृत रूप दिया है ।
जैन आचार्यों ने कर्मविषयक विचारणा व्यापक रूप से की है । लेकिन भगवान महावीर ki fi देसा३५ सम्म को बखानों, विजित हो जाने से यह विचारणा भी विभाजित-सी हो गई । सम्प्रदायभेद इतना कट्टर हो गया कि भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट कमतस्य पर मिलकर विचार करने का अवसर भी दोनों सम्प्रदायों के विद्वान प्राप्त न कर सके । इसका फल यह हआ कि मूल विषय में मतभेद न होने पर भी कुछ पारिभाषिक शब्दों, उनकी व्याख्याओं और कहीं-कहीं खनके तात्पर्य में थोडाबहुत भेद हो गया। इन भिन्नताओं पर तरस्थ दृष्टि में विचार करें तो भेद में भी अभद के दर्शन होते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैनदर्शन की मौलिक देन क्रमवाद की गरिमा को सुरक्षित रखने में जैनाचार्य सर्वात्मना सजग रहे और कर्मसाहित्य के मूल हार्द को सुरक्षित रखा । कतिपय प्रमुख फर्मग्रन्थ
वर्तमान में उपलब्ध कर्मग्रन्थों अथवा जिनके होने का पता अन्य ग्रन्थों में उल्लिखित उल्लेखों से लगता है, उनका बहुत-सा-भाग अप्रकाशित है । लेकिन जो अन्य प्रकाश में आये हैं, उन से भी जैन कर्म साहित्य का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। प्रकाशित ग्रन्थों की सूची देखने से यह ज्ञात होता है कि मूल ग्रन्थ के भाष्य अथवा संस्कृत टीकाएँ प्रकाशित हुई हैं। प्रादेशिक भाषाओं में रषित टीकाएँ अभी भी अप्रकाशित हैं।
प्रस्तुत प्रसंग में प्रकाशित एवं अध्ययन-अध्यापन में अधिकतर प्रचलित कतिपय अन्यों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है ।। कर्मप्रकृति
भस प्रन्थ में ४५५ गाथाएँ है, जो अग्रासणीय पूर्व नायक द्वितीय पूर्व के आधार पर संकलित की गई हैं। इस ग्रन्थ में आचार्य ने कर्म सम्बन्धी बन्धन, संक्रमण, उधलना, अपवसना, उदीरणा, उपशमन, निधत्ति और निकायना--आठ
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१ सटीकाश्चस्वारः कर्मग्रन्थाः (मुनि पुण्यविनयजी द्वारा संपादित) ।