Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मप्रन्य : परिशिष्ट
रूप से आनादि होने पर भी समय-समय पर होने वाले तीर्थरों धारा के अंगविद्याएँ नवीन रूप धारण करती रहती हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए ... हेमचन्द्राचार्य में प्रमाण मीमांसा में कहा है__ अनादय एक्ता विद्याः संक्षेपविस्तार विवक्षया नवनवीभवन्ति, तत्तत् कर्तृकापमोच्यन्ते । किसानोषीः न कदाचिदनोदशं जगत् ।
अनादिकाल से प्रयाहरूप में चले आ रहे इस कर्मशास्त्र का भगवान महावीर से लेकर वर्तमान समय तक जो संकलन हबा है, उसके निम्नलिखित तीन विभाग किये जा सकते हैं
(१) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र, (२) पूर्वार्धत कर्मशास्त्र और (३) प्राकरणिक कर्मशास्त्र ।
(१) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र-यह भाग सक्से बड़ा और पहला है । इसका
तत्व पूर्वविद्या के बिस्किम होने के समय तक माना जाता है। भगवान १३ बीर के बाद करीब ६०० या १०० वर्ष तक क्रमिक लास रूप में पूर्वविद्या विद्यमान रहो । चौदह पूर्षों में से आठवा पूर्व कर्मप्रवाद है, जो मुख्यतथा कर्मविषयक ही था । इसी प्रकार अग्रावणीय पूर्व मामक दूसरे पूर्व में भी कर्मप्राभत नामक एक भाग था । लेकिन वर्तमान श्वेताम्बर तथा दिसम्बर साहित्य में पूर्वात्मक कर्मपास्क का पूर्ण अंश नहीं रहा है।
(२) पूर्वोकृत कर्मशास्त्र---यह विभाग पहले विभाग की अपेक्षा काफी छोटा है, लेकिन वर्तमान अभ्यासियों की दृष्टि से काफी बड़ा है। इसलिए इसे 'आकर कर्मशास्त्र' सह संज्ञा दी है। यह भाग साक्षात पूर्व से उद्धृत है और श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ... दोनों ही सम्प्रदायों के कर्मशास्त्र में यह पूर्वोधृत अंग विद्यमान है, ऐसी मान्यता है ! साहित्य उद्वार के समय सम्प्रदायभेद रूह हो जाने के कारण उद्धृत अंश कुछ भिन्न-भिन्न नाम से प्रसित है। जैसे कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में--(१) क्रम प्रकृति, (२) शतक, (३) पत्रसंग्रह, (४) सप्ततिका और दिगम्बर सम्प्रधान में ....(१) महाकर्मप्रकृतिप्राभत, (२) कवायाभूत । दोनों सम्प्रवास अपने-अपने उक्त ग्रन्थों को पूर्वोधूत मानती हैं ।
(३) प्राकरणिक कर्मशास्त्र----यह विमाम तीसरी संकलना का परिणाम है । इसमें कर्मविषयक छोटे-बड़े अनेक प्रकरण अन्धों को. सहम्मलित किया गया